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योजना, जून 2005
नीति और कार्यक्रमों के अन्तर्गत विकास के मुद्दों पर एक बार फिर से गम्भीर रूप से ध्यान केन्द्रित किया गया है। इसी तरह ग्रामीण पेयजल आपूर्ति, जल-गुणवत्ता और स्वच्छता को प्राथमिकता दी जा रही है।नीति और कार्यक्रमों के अन्तर्गत विकास के मुद्दों पर एक बार फिर से गम्भीर रूप से ध्यान केन्द्रित किया गया है। इसी तरह ग्रामीण पेयजल आपूर्ति, जल-गुणवत्ता और स्वच्छता को प्राथमिकता दी जा रही है। जोहान्सबर्ग में सन् 2002 में सतत विकास के बारे में हुए विश्व सम्मेलन में लक्ष्य निर्धारित किया गया कि वर्ष 2015 तक दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या में 50 प्रतिशत कमी लाई जाए, जिनकी पहुँच स्वच्छ पेयजल और बुनियादी स्वच्छता तक नहीं है। भारत की मौजूदा सरकार द्वारा स्वीकृत राष्ट्रीय साझा कार्यक्रम में सबके लिए, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के लिए, जल और स्वच्छता सुविधाएँ प्रदान करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है। किन्तु जल और स्वच्छता सुविधाएँ प्रदान करने की चुनौती वास्तव में अत्यन्त विशाल है। स्वच्छता सुविधाओं का विस्तार बहुत कम हुआ है। 2001 की जनगणना के अनुसार 78 प्रतिशत परिवार आज भी ऐसे हैं, जिनके घरों में शौचालय नहीं हैं। हालांकि 95 प्रतिशत ग्रामीण बस्तियों में जलापूर्ति की व्यवस्था की जा चुकी है, परन्तु उनमें से ज्यादातर को जल गुणवत्ता समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
घरों, स्कूलों और सामुदायिक स्तर पर बुनियादी सुविधाओं का अभाव भारत में शिशु और पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्युदर अधिक होने के महत्त्वपूर्ण घटकों में से एक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़ों से पता चलता है कि करीब 80 प्रतिशत रोग और बीमारियाँ स्वच्छ पेयजल और स्वच्छता सुविधाओं के अभाव की वजह से होती हैं।
बीमारियों के बोझ और तत्पश्चात जीविका के अवसर छिन जाने का लोगों पर, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धन लोगों पर, भारी दुष्प्रभाव पड़ता है। इसलिए भारत सरकार ने इस क्षेत्र को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है और 1986 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की पहल पर बनाए गए पाँच प्रौद्योगिकी मिशन शुरू करके इस क्षेत्र को सर्वोच्च वरीयता दी गई है। इस मिशन का नाम बाद में, 1991 में, राजीव गाँधी राष्ट्रीय मिशन रखा गया। इस मिशन के नेतृत्व में 1986 में केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता को बढ़ावा देने के लिए पहली बार ढाँचागत कार्यक्रम शुरू किया गया।
इस कार्यक्रम से पहले अन्य कार्यक्रम 1972-73 में त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति कार्यक्रम के माध्यम से चलाए जाते थे। इनके अन्तर्गत राज्यों/संघ शासित प्रदेशों को पेयजल आपूर्ति सुविधाओं के विस्तार में तेजी लाने के लिए आवण्टन के आधार पर सहायता दी जाती थी। यह कार्यक्रम 1986 में मिशन का हिस्सा बन गया और आज तक जारी है। मिशन की कार्यप्रणाली के तेजी पकड़ने के साथ ही जल गुणवत्ता के बारे में मानक और सुरक्षा मानक स्पष्ट रूप से तय किए गए। रासायनिक विषाक्तता के मुद्दों के हल के लिए मिनी मिशन और उपमिशन शुरू किए गए। इनमें से अनेक सफलतापूर्वक पूरे किए गए हैं।
इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पहलू सुधारात्मक सिद्धान्तों को अपनाया जाना है। ये सिद्धान्त माँग पूरी करने और समुदाय आधारित दृष्टिकोण के अनुसार तय किए गए। इनमें स्थायित्व, परिचालन और रख-रखाव में पूर्ण स्वामित्व और जल एवं स्वच्छता कार्यक्रमों में स्थानीय सामुदायिक भागीदारी की आवश्यकता पर बल दिया गया।
1999 में पेयजल आपूर्ति विभाग की स्थापना ग्रामीण विकास मन्त्रालय के अन्तर्गत की गई। इसका उद्देश्य जल और स्वच्छता कार्यक्रमों पर अधिक बल देना था। पेयजल आपूर्ति में देश के 67 जिलों में क्षेत्र सुधार परियोजनाएँ प्रायोगिक आधार पर शुरू की गईं। बाद में 'स्वजलधारा' कार्यक्रम के अन्तर्गत 2002 में इन सुधारों का विस्तार समूचे देश में किया गया।1999 में पेयजल आपूर्ति विभाग की स्थापना ग्रामीण विकास मन्त्रालय के अन्तर्गत की गई। इसका उद्देश्य जल और स्वच्छता कार्यक्रमों पर अधिक बल देना था। पेयजल आपूर्ति में देश के 67 जिलों में क्षेत्र सुधार परियोजनाएँ प्रायोगिक आधार पर शुरू की गईं। बाद में 'स्वजलधारा' कार्यक्रम के अन्तर्गत 2002 में इन सुधारों का विस्तार समूचे देश में किया गया। स्वच्छता के क्षेत्र में, केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम को नया रूप देते हुए सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान शुरू किया गया। यह कार्यक्रम 4,416 करोड़ रुपए के परिव्यय के साथ 451 जिलों में चलाया जा रहा है। इसमें सामुदायिक योगदान 812 करोड़ रुपए का है। निचले स्तर के विभिन्न शैक्षिक और तकनीकी संस्थानों को शामिल करते हुए नियन्त्रण और निगरानी के लिए जलग्रहण क्षेत्र दृष्टिकोण अपनाया गया है। इसके अन्तर्गत मौजूदा संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है और उन्हें अतिरिक्त वित्तीय संसाधन प्रदान करके मजबूती प्रदान की जाती है।
इस प्रकार के निरन्तर प्रयासों से पिछले वर्षों में कई उपलब्धियाँ हासिल की गईं। ग्रामीण आबादी का पेयजल आपूर्ति 56 प्रतिशत से बढ़कर 94 प्रतिशत पर पहुँच गया। स्वच्छता के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल करते हुए दो करोड़ से अधिक परिवारों के लिए घरों में शौचालयों की व्यवस्था की गई। इस दिशा में एक और ऐतिहासिक उपलब्धि भारत से गिनी-कर्मी (नहरुआ) का उन्मूलन है। इस आशय का प्रमाणपत्र विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा (सन् 2000 में) दिया जा चुका है।
मिशन का एक प्रमुख योगदान यह भी रहा कि वह जल और स्वच्छता क्षेत्र में निवेश बढ़ाने में सफल रहा। छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) के प्रारम्भ से अन्तरराष्ट्रीय पेयजल आपूर्ति और स्वच्छता दशक (1981-90) शुरू होने के बीच जलापूर्ति और स्वच्छता क्षेत्र के प्रति भारत की वचनबद्धता बढ़ी है। इस क्षेत्र में निवेश में बढ़ोत्तरी हुई है और वर्तमान समय में राष्ट्रीय बजट का महत्त्वपूर्ण हिस्सा (करीब 3 प्रतिशत) इस क्षेत्र में निवेश किया जा रहा है। स्वतन्त्रता प्राप्ति से केन्द्र और राज्य सरकारें मिलकर 450 अरब रुपए से अधिक धन ग्रामीण जलापूर्ति के लिए खर्च कर चुकी हैं। स्वच्छता क्षेत्र पर इसकी तुलना में कम खर्च किए गए। किन्तु, अभी काफी निवेश और करने की आवश्यकता है।
इसके अतिरिक्त मिशन ने पंचायती राज संस्थानों को शामिल करके विकेन्द्रीकृत वितरण ढाँचे को बढ़ावा देने में सक्रिय भूमिका अदा की है। हाल ही में मिशन ने 'संचार और क्षमता विकास एकक' कार्यक्रम शुरू किया है। सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान और स्वजलधारा कार्यक्रम में सहायता के लिए ये एकक सभी राज्यों में स्थापित किए जाने हैं। मिशन ने कम्प्यूटरीकरण और जिला स्तर पर केन्द्र की स्थापना के लिए भी धन जारी किया है।
किन्तु इस दिशा में कई खामियाँ भी उजागर हुई हैं और मिशन के कार्यक्रमों के बेहतर कार्यान्वयन के लिए, उन्हें दूर करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए जलापूर्ति कवरेज बढ़कर 99 प्रतिशत तक पहुँच गया है, परन्तु अनेक बस्तियाँ ऐसी हैं जो फिर पूर्ण रूप से कवर न किए गए क्षेत्रों से आंशिक कवर और कवर न किए गए क्षेत्रों के वर्ग में लौट आई हैं। स्वच्छता कवरेज भी अभी अपर्याप्त है और स्कूलों पर विशेष ध्यान केन्द्रित करते हुए इसे बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। जल और स्वच्छता के लिए वित्तीय आवण्टन में बढ़ोत्तरी हुई है, परन्तु इसके लिए निश्चित रूप से और साधनों की आवश्यकता है। अनुसन्धान और विकास के लिए भी अधिक धन की जरूरत है, ताकि जल और स्वच्छता क्षेत्र में सस्ती और साधारण प्रौद्योगिकियाँ सुनिश्चित की जा सकें। भूमिगत जल का तेजी से ह्रास होता जा रहा है, जिसके लिए जल पुनर्भरण संरक्षण प्रणालियों को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है। एक अन्य बड़ी समस्या प्रणालीगत स्थायित्व के अभाव की है। परिचालन और धन की कुल अनुमानित आवश्यकता और उपलब्ध संसाधनों के बीच भारी अन्तराल है।
भूमिगत जल का तेजी से ह्रास होता जा रहा है, जिसके लिए जल पुनर्भरण संरक्षण प्रणालियों को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है। एक अन्य बड़ी समस्या प्रणालीगत स्थायित्व के अभाव की है। परिचालन और धन की कुल अनुमानित आवश्यकता और उपलब्ध संसाधनों के बीच भारी अन्तराल है।उपरोक्त जरूरतें पूरी करने के लिए वित्तीय और तकनीकी, दोनों ही तरह के पर्याप्त संसाधनों और न केवल आयोजना, बल्कि कार्यान्वयन के सन्दर्भ में भी एक स्पष्ट परिभाषित कार्यनीति की आवश्यकता है। भारत ने सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों पर हस्ताक्षर किए हैं और सरकार ने सबके लिए जलापूर्ति और स्वच्छता सुविधाएँ मुहैया कराने की योजना बनाई है। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सुदृढ़ नीतियों और दृष्टिकोण की आवश्यकता है। मिशन ने एक कार्यनीति तय की है, जिसके अन्तर्गत 2007 (10वीं पंचवर्षीय योजना के अन्त) तक सभी आवासीय और फिर से सुविधाहीन बने क्षेत्रों में जलापूर्ति की पुख्ता व्यवस्था की जाएगी, ताकि स्वच्छ पेयजल की सतत आपूर्ति सुनिश्चित हो सके। मिशन ने 2005-06 तक देश के सभी जिलों में सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान परियोजनाएँ मंजूर करने का भी फैसला किया है, ताकि 2012 तक बुनियादी स्वच्छता सुविधाओं के पूर्ण कवरेज का लक्ष्य हासिल किया जा सके। यह योजना भी बनाई गई है कि सभी ग्रामीण स्कूलों और आंगनवाड़ियों को 2005-06 तक स्वच्छ पेयजल और स्वच्छता सुविधाएँ मुहैया कराई जाएँ। स्वच्छता अभियान को नई शक्ति देने के लिए भारत सरकार ने 2003 में एक प्रोत्साहन योजना भी शुरू की है। निर्मल ग्राम पुरस्कार नाम की इस योजना के अन्तर्गत उन ग्राम पंचायतों, खण्डों और जिलों को पुरस्कृत किया जाता है, जिन्होंने स्वच्छता सुविधाओं की पूर्ण व्यवस्था कर ली है और जहाँ खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति पूरी तरह समाप्त हो चुकी है।
गम्भीर रूप से ध्यान केन्द्रित किए जाने के बावजूद उत्तरोत्तर यह तथ्य उजागर हुआ है कि बढ़ती आबादी के लिए अपेक्षित गुणवत्ता सेवाओं का विस्तार सरकार अकेले नहीं कर सकती। सरकार की भूमिका सेवा प्रदाता की बजाय समुदायों और उनके संस्थानों को वित्तीय और नीतिगत सहायता प्रदानकर्ता की होनी चाहिए, ताकि सतत और समान आधार पर सेवाएँ प्रदान की जा सकें।
मौजूदा सेवाओं के प्रबन्धन में निजी क्षेत्र भी निरन्तर महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन के नेतृत्व में तथा ग्रामीण सार्वजनिक सेवाओं का समुदाय आधारित वितरण मॉडल सतत समाधानों के दिशा में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है।
सेवा वितरण के अलग-अलग और विविध मॉडलों को लागू करने में अगर स्थानीय सरकारों के विभिन्न स्तरों और समुदायों की तकनीकी एवं प्रबन्धकीय क्षमता बढ़ा दी जाए, तो इस कार्यक्रम की प्रभावकारिता और निरन्तरता निश्चित रूप से बढ़ाई जा सकती है, इस प्रकार सेवाओं की कवरेज, बेहतर स्वास्थ्य, आर्थिक विकास और प्रगति की गति बढ़ सकती है और भारत विकासशील से विकसित राष्ट्रों में आ सकता है।
(लेखक भारत सरकार के पेयजल आपूर्ति विभाग में सचिव हैं)
घरों, स्कूलों और सामुदायिक स्तर पर बुनियादी सुविधाओं का अभाव भारत में शिशु और पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्युदर अधिक होने के महत्त्वपूर्ण घटकों में से एक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़ों से पता चलता है कि करीब 80 प्रतिशत रोग और बीमारियाँ स्वच्छ पेयजल और स्वच्छता सुविधाओं के अभाव की वजह से होती हैं।
प्रौद्योगिकी मिशन
बीमारियों के बोझ और तत्पश्चात जीविका के अवसर छिन जाने का लोगों पर, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धन लोगों पर, भारी दुष्प्रभाव पड़ता है। इसलिए भारत सरकार ने इस क्षेत्र को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है और 1986 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की पहल पर बनाए गए पाँच प्रौद्योगिकी मिशन शुरू करके इस क्षेत्र को सर्वोच्च वरीयता दी गई है। इस मिशन का नाम बाद में, 1991 में, राजीव गाँधी राष्ट्रीय मिशन रखा गया। इस मिशन के नेतृत्व में 1986 में केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता को बढ़ावा देने के लिए पहली बार ढाँचागत कार्यक्रम शुरू किया गया।
इस कार्यक्रम से पहले अन्य कार्यक्रम 1972-73 में त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति कार्यक्रम के माध्यम से चलाए जाते थे। इनके अन्तर्गत राज्यों/संघ शासित प्रदेशों को पेयजल आपूर्ति सुविधाओं के विस्तार में तेजी लाने के लिए आवण्टन के आधार पर सहायता दी जाती थी। यह कार्यक्रम 1986 में मिशन का हिस्सा बन गया और आज तक जारी है। मिशन की कार्यप्रणाली के तेजी पकड़ने के साथ ही जल गुणवत्ता के बारे में मानक और सुरक्षा मानक स्पष्ट रूप से तय किए गए। रासायनिक विषाक्तता के मुद्दों के हल के लिए मिनी मिशन और उपमिशन शुरू किए गए। इनमें से अनेक सफलतापूर्वक पूरे किए गए हैं।
इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पहलू सुधारात्मक सिद्धान्तों को अपनाया जाना है। ये सिद्धान्त माँग पूरी करने और समुदाय आधारित दृष्टिकोण के अनुसार तय किए गए। इनमें स्थायित्व, परिचालन और रख-रखाव में पूर्ण स्वामित्व और जल एवं स्वच्छता कार्यक्रमों में स्थानीय सामुदायिक भागीदारी की आवश्यकता पर बल दिया गया।
1999 में पेयजल आपूर्ति विभाग की स्थापना ग्रामीण विकास मन्त्रालय के अन्तर्गत की गई। इसका उद्देश्य जल और स्वच्छता कार्यक्रमों पर अधिक बल देना था। पेयजल आपूर्ति में देश के 67 जिलों में क्षेत्र सुधार परियोजनाएँ प्रायोगिक आधार पर शुरू की गईं। बाद में 'स्वजलधारा' कार्यक्रम के अन्तर्गत 2002 में इन सुधारों का विस्तार समूचे देश में किया गया।1999 में पेयजल आपूर्ति विभाग की स्थापना ग्रामीण विकास मन्त्रालय के अन्तर्गत की गई। इसका उद्देश्य जल और स्वच्छता कार्यक्रमों पर अधिक बल देना था। पेयजल आपूर्ति में देश के 67 जिलों में क्षेत्र सुधार परियोजनाएँ प्रायोगिक आधार पर शुरू की गईं। बाद में 'स्वजलधारा' कार्यक्रम के अन्तर्गत 2002 में इन सुधारों का विस्तार समूचे देश में किया गया। स्वच्छता के क्षेत्र में, केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम को नया रूप देते हुए सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान शुरू किया गया। यह कार्यक्रम 4,416 करोड़ रुपए के परिव्यय के साथ 451 जिलों में चलाया जा रहा है। इसमें सामुदायिक योगदान 812 करोड़ रुपए का है। निचले स्तर के विभिन्न शैक्षिक और तकनीकी संस्थानों को शामिल करते हुए नियन्त्रण और निगरानी के लिए जलग्रहण क्षेत्र दृष्टिकोण अपनाया गया है। इसके अन्तर्गत मौजूदा संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है और उन्हें अतिरिक्त वित्तीय संसाधन प्रदान करके मजबूती प्रदान की जाती है।
उपलब्धियाँ
इस प्रकार के निरन्तर प्रयासों से पिछले वर्षों में कई उपलब्धियाँ हासिल की गईं। ग्रामीण आबादी का पेयजल आपूर्ति 56 प्रतिशत से बढ़कर 94 प्रतिशत पर पहुँच गया। स्वच्छता के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल करते हुए दो करोड़ से अधिक परिवारों के लिए घरों में शौचालयों की व्यवस्था की गई। इस दिशा में एक और ऐतिहासिक उपलब्धि भारत से गिनी-कर्मी (नहरुआ) का उन्मूलन है। इस आशय का प्रमाणपत्र विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा (सन् 2000 में) दिया जा चुका है।
मिशन का एक प्रमुख योगदान यह भी रहा कि वह जल और स्वच्छता क्षेत्र में निवेश बढ़ाने में सफल रहा। छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) के प्रारम्भ से अन्तरराष्ट्रीय पेयजल आपूर्ति और स्वच्छता दशक (1981-90) शुरू होने के बीच जलापूर्ति और स्वच्छता क्षेत्र के प्रति भारत की वचनबद्धता बढ़ी है। इस क्षेत्र में निवेश में बढ़ोत्तरी हुई है और वर्तमान समय में राष्ट्रीय बजट का महत्त्वपूर्ण हिस्सा (करीब 3 प्रतिशत) इस क्षेत्र में निवेश किया जा रहा है। स्वतन्त्रता प्राप्ति से केन्द्र और राज्य सरकारें मिलकर 450 अरब रुपए से अधिक धन ग्रामीण जलापूर्ति के लिए खर्च कर चुकी हैं। स्वच्छता क्षेत्र पर इसकी तुलना में कम खर्च किए गए। किन्तु, अभी काफी निवेश और करने की आवश्यकता है।
इसके अतिरिक्त मिशन ने पंचायती राज संस्थानों को शामिल करके विकेन्द्रीकृत वितरण ढाँचे को बढ़ावा देने में सक्रिय भूमिका अदा की है। हाल ही में मिशन ने 'संचार और क्षमता विकास एकक' कार्यक्रम शुरू किया है। सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान और स्वजलधारा कार्यक्रम में सहायता के लिए ये एकक सभी राज्यों में स्थापित किए जाने हैं। मिशन ने कम्प्यूटरीकरण और जिला स्तर पर केन्द्र की स्थापना के लिए भी धन जारी किया है।
चुनौतियाँ
किन्तु इस दिशा में कई खामियाँ भी उजागर हुई हैं और मिशन के कार्यक्रमों के बेहतर कार्यान्वयन के लिए, उन्हें दूर करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए जलापूर्ति कवरेज बढ़कर 99 प्रतिशत तक पहुँच गया है, परन्तु अनेक बस्तियाँ ऐसी हैं जो फिर पूर्ण रूप से कवर न किए गए क्षेत्रों से आंशिक कवर और कवर न किए गए क्षेत्रों के वर्ग में लौट आई हैं। स्वच्छता कवरेज भी अभी अपर्याप्त है और स्कूलों पर विशेष ध्यान केन्द्रित करते हुए इसे बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। जल और स्वच्छता के लिए वित्तीय आवण्टन में बढ़ोत्तरी हुई है, परन्तु इसके लिए निश्चित रूप से और साधनों की आवश्यकता है। अनुसन्धान और विकास के लिए भी अधिक धन की जरूरत है, ताकि जल और स्वच्छता क्षेत्र में सस्ती और साधारण प्रौद्योगिकियाँ सुनिश्चित की जा सकें। भूमिगत जल का तेजी से ह्रास होता जा रहा है, जिसके लिए जल पुनर्भरण संरक्षण प्रणालियों को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है। एक अन्य बड़ी समस्या प्रणालीगत स्थायित्व के अभाव की है। परिचालन और धन की कुल अनुमानित आवश्यकता और उपलब्ध संसाधनों के बीच भारी अन्तराल है।
भूमिगत जल का तेजी से ह्रास होता जा रहा है, जिसके लिए जल पुनर्भरण संरक्षण प्रणालियों को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है। एक अन्य बड़ी समस्या प्रणालीगत स्थायित्व के अभाव की है। परिचालन और धन की कुल अनुमानित आवश्यकता और उपलब्ध संसाधनों के बीच भारी अन्तराल है।उपरोक्त जरूरतें पूरी करने के लिए वित्तीय और तकनीकी, दोनों ही तरह के पर्याप्त संसाधनों और न केवल आयोजना, बल्कि कार्यान्वयन के सन्दर्भ में भी एक स्पष्ट परिभाषित कार्यनीति की आवश्यकता है। भारत ने सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों पर हस्ताक्षर किए हैं और सरकार ने सबके लिए जलापूर्ति और स्वच्छता सुविधाएँ मुहैया कराने की योजना बनाई है। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सुदृढ़ नीतियों और दृष्टिकोण की आवश्यकता है। मिशन ने एक कार्यनीति तय की है, जिसके अन्तर्गत 2007 (10वीं पंचवर्षीय योजना के अन्त) तक सभी आवासीय और फिर से सुविधाहीन बने क्षेत्रों में जलापूर्ति की पुख्ता व्यवस्था की जाएगी, ताकि स्वच्छ पेयजल की सतत आपूर्ति सुनिश्चित हो सके। मिशन ने 2005-06 तक देश के सभी जिलों में सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान परियोजनाएँ मंजूर करने का भी फैसला किया है, ताकि 2012 तक बुनियादी स्वच्छता सुविधाओं के पूर्ण कवरेज का लक्ष्य हासिल किया जा सके। यह योजना भी बनाई गई है कि सभी ग्रामीण स्कूलों और आंगनवाड़ियों को 2005-06 तक स्वच्छ पेयजल और स्वच्छता सुविधाएँ मुहैया कराई जाएँ। स्वच्छता अभियान को नई शक्ति देने के लिए भारत सरकार ने 2003 में एक प्रोत्साहन योजना भी शुरू की है। निर्मल ग्राम पुरस्कार नाम की इस योजना के अन्तर्गत उन ग्राम पंचायतों, खण्डों और जिलों को पुरस्कृत किया जाता है, जिन्होंने स्वच्छता सुविधाओं की पूर्ण व्यवस्था कर ली है और जहाँ खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति पूरी तरह समाप्त हो चुकी है।
सार्वजनिक-निजी भागीदारी
गम्भीर रूप से ध्यान केन्द्रित किए जाने के बावजूद उत्तरोत्तर यह तथ्य उजागर हुआ है कि बढ़ती आबादी के लिए अपेक्षित गुणवत्ता सेवाओं का विस्तार सरकार अकेले नहीं कर सकती। सरकार की भूमिका सेवा प्रदाता की बजाय समुदायों और उनके संस्थानों को वित्तीय और नीतिगत सहायता प्रदानकर्ता की होनी चाहिए, ताकि सतत और समान आधार पर सेवाएँ प्रदान की जा सकें।
मौजूदा सेवाओं के प्रबन्धन में निजी क्षेत्र भी निरन्तर महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन के नेतृत्व में तथा ग्रामीण सार्वजनिक सेवाओं का समुदाय आधारित वितरण मॉडल सतत समाधानों के दिशा में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है।
सेवा वितरण के अलग-अलग और विविध मॉडलों को लागू करने में अगर स्थानीय सरकारों के विभिन्न स्तरों और समुदायों की तकनीकी एवं प्रबन्धकीय क्षमता बढ़ा दी जाए, तो इस कार्यक्रम की प्रभावकारिता और निरन्तरता निश्चित रूप से बढ़ाई जा सकती है, इस प्रकार सेवाओं की कवरेज, बेहतर स्वास्थ्य, आर्थिक विकास और प्रगति की गति बढ़ सकती है और भारत विकासशील से विकसित राष्ट्रों में आ सकता है।
(लेखक भारत सरकार के पेयजल आपूर्ति विभाग में सचिव हैं)