देश भर में स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर खुले में शौच करने वालों को प्रताड़ित करने के मामले सामने आ रहे हैं। राजस्थान में तो एक सामाजिक कार्यकर्ता को पीट-पीटकर मार तक दिया गया।
तारीख: 16 जून, 2017
भोर का सूरज महताब शाह कच्ची बस्ती के क्षितिज पर उभर रहा है। यह बस्ती राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले में स्थित एक गैरकानूनी झुग्गी है। नगर परिषद के तीन कर्मचारियों के साथ-साथ कमिश्नर अशोक जैन स्वयं उपस्थित हैं। सबकी निगाहें सामने टिकी हैं जहाँ झुग्गियों से लोग निकल रहे हैं। जैसे ही कुछ महिलाएँ नित्य क्रिया से निवृत्त होने हेतु एक खुले मैदान में उकड़ूं बैठती हैं, ये महानुभाव तस्वीरें खींचना शुरू कर देते हैं। सच्चाई जो भी हो, कम-से-कम उन महिलाओं को तो ऐसा ही प्रतीत होता है और वे इन अधिकारियों के समीप आते ही मदद की गुहार लगाने लगती हैं। चालीस पार के एक अधेड़ सामाजिक कार्यकर्ता जफर हुसैन उनकी मदद को आगे आते हैं। अधिकारियों को उनकी यह हरकत नागवार गुजरती है और यह हस्तक्षेप एक उग्र झगड़े की शक्ल अख्तियार कर लेता है। कुछ घंटे बीतने के बाद जफर हुसैन को मृत घोषित कर दिया जाता है। वह अपने पीछे पत्नी रशीदा और दो बेटियों को छोड़ गए हैं।
सामाजिक कार्यकर्ताओं से बातचीत के बाद डाउन टू अर्थ ने अपने विश्लेषण में पाया कि अत्यधिक दबाव की वजह से कर्मचारी हर तरह के तिकड़म अपना रहे हैं। खुले में शौच कर रहे लोगों को देखकर सीटी बजाने से लेकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के अन्तर्गत मिलने वाली सुविधाओं से वन्चित रखा जाना इनमें प्रमुख है। यही नहीं, कुछ “कसूरवारों” को तो भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के अन्तर्गत गिरफ्तार किए जाने के कई मामले भी सामने आए हैं।
एक अनकहा फरमान
स्वच्छ भारत मिशन के कर्मचारियों द्वारा धड़ल्ले से प्रयोग में लाई जा रही दमनकारी हरकतें दिशा-निर्देशों के बिल्कुल विपरीत हैं। ये नीतियाँ जनता में व्यवहारवादी परिवर्तन लाने की पक्षधर हैं। यह परिवर्तन गहन आईईसी (सूचना, शिक्षा और संचार) एवं सामाजिक पक्षधरता के माध्यम से लाया जाना है जिसमें गैर सरकारी संगठनों, पंचायती राज संस्थानों एवं संसाधन संगठनों की भागीदारी अपेक्षित है।
डाउन टू अर्थ के स्वतंत्र विश्लेषण के अनुसार 2016-17 की कालावधि में सरकार ने आवंटित राशि का मात्र 0.8 प्रतिशत जागरूकता अभियानों पर खर्च किया है जबकि एसबीएम के दिशानिर्देशों के मुताबिक, यह राशि कुल आवंटन का आठ प्रतिशत होनी चाहिए।
ओडिशा के पुरी जैसे जिलों में तो हालात ऐसे हैं कि जिलाधीश हो या एसबीएम समन्वयक, किसी को स्वच्छता से सम्बन्धित इन आईईसी कार्यक्रमों की कोई जानकारी नहीं थी। यही नहीं, एसबीएम अधिकारियों द्वारा अपनाए जा रहे कुछ हथकंडे तो आम नागरिकों के संविधान प्रदत्त अधिकारों का हनन करते हैं। मिसाल के तौर पर छत्तीसगढ़ के बालोद जिले के कपासी गाँव में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं जो खुले में शौच कर रहे लोगों पर नजर रखते हैं। अब भला ग्राम पंचायत क्यों पीछे रहे। खुले में शौच करने वाले ‘अपराधियों’ पर 500 रुपये के जुर्माने का प्रावधान है। यही नहीं, ऐसी घटनाओं के बारे में जानकारी देने वाले पुरस्कार के भी हकदार होते हैं। पश्चिम बंगाल का नदिया जिला तो एक कदम और भी आगे है जहाँ प्रशासन एवं कुछ चुनिन्दा ग्राम पंचायतों ने एक वाल ऑफ शेम (शर्म की दीवार) बनाई है जिस पर खुले में शौच कर रहे लोगों के नाम एवं तस्वीरें लगाई जाती हैं।
इन कदमों के फलस्वरूप कपासी को अपने जिले का पहला खुले में शौच मुक्त गाँव का दर्जा हासिल हुआ है। ओडिशा के एक मानवाधिकार संगठन, सोलिडेरिटी फॉर सोशल इक्वेलिटी के कार्यकारी निदेशक प्रशांत कुमार होता कहते हैं “यह संविधान के इक्कीसवीं अनुच्छेद द्वारा प्रत्याभूत निजता के अधिकार का सीधा उल्लंघन है।” इस अनुच्छेद के मुताबिक “किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या दैहिक स्वतंत्रता से तब तक वंचित नहीं किया जा सकता है जब तक ऐसा करना विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अन्तर्गत न हुआ हो।”
छत्तीसगढ़ में जन स्वास्थ्य अभियान से जुड़ी कार्यकर्ता सुलक्षणा नंदी तो बताती हैं कि कई जिलों में ऐसे हथकंडों को जिला प्रशासन एवं राज्य सरकारों का संरक्षण प्राप्त है। छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में अधिकारियों ने करीब दो हजार प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर के स्कूली छात्रों को निर्देश दिया है कि वे खुले में शौच करने वाले अपने परिवारजनों एवं पड़ोसियों के नाम गोपनीय तौर पर जमा करें। राज्य सरकार ने जिला प्रशासन द्वारा अपनाई जा रही इस प्रक्रिया की सराहना की है और इसे ‘स्वच्छता बैलट’ का नाम दिया है। इस तरीके को अन्य जिलों में लागू करने की भी सरकारी मंशा है।
इसी साल के फरवरी महीने में मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में स्थित माली ग्राम पंचायत के जनप्रतिनिधि ने तुमदार गाँव के निवासियों को ग्राम सभा की बैठक में निर्देश दिया कि वे अपने घरों में शौचालय बनवा लें। ऐसा न कर पाने की स्थिति में ग्रामीणों को सरकारी सुविधाओं, खासकर जन वितरण प्रणाली के तहत मिलने वाले राशन से वंचित करने की धमकी दी गई है। इस फरमान के खिलाफ ग्रामीणों ने जिलाधिकारी को एक ज्ञापन सौंपते हुए गाँव में मुकम्मल जलापूर्ति की अनुपलब्धता होने की बात से अवगत कराया। जिलाधिकारी के हस्तक्षेप के उपरान्त ग्राम पंचायत ने अपना यह आदेश निरस्त किया।
इसी दौरान रीवा जिले की कोटा ग्राम पंचायत के अधिकारियों ने ग्रामीणों को निर्देश दिया कि वे जुलाई के महीने तक शौचालय बनवा लें अन्यथा उन्हें राशन नहीं दिया जाएगा।
मध्य प्रदेश के एक दूसरे खाद्य अधिकार कार्यकर्ता सचिन जैन का कहना है “गरीब जनता को अनाज से वंचित रखना गैरकानूनी है। हमें यह समझना होगा कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की विधिक रूपरेखा के अन्तर्गत नागरिकों को इमदादी (सब्सिडाइज्ड) दरों पर राशन पाने का अधिकार प्राप्त है। नियमों के मुताबिक शौचालय पात्रता या निषेध का मापदंड नहीं है।”
नई दिल्ली के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में वरिष्ठ विजिटिंग फेलो फिलिप कुले कहते हैं, “हम परिस्थितियों में लगातार बदलाव देख रहे हैं। जहाँ पहले मौलिक अधिकारों को जनता के हक के तौर पर देखा जाता था वहीं अब स्वयं नागरिकों को अपने अधिकारों के कुछ पहलुओं के लिये जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसके फलस्वरूप सरकारों एवं नागरिकों के परस्पर सम्बन्धों में आमूल-चूल परिवर्तन आया है।”
प्रचार या अत्याचार?
स्वच्छता के मुद्दे को जन-जन तक पहुँचाने के लिये नरेंद्र मोदी की सरकार ने अमिताभ बच्चन, कंगना राणावत, शिल्पा शेट्टी, रवि किशन, ईशा कोप्पिकर एवं अनुष्का शर्मा जैसी नामचीन हस्तियों की सहायता ली है। जनता को खुले में शौच करने से उत्पन्न होने वाली समस्याओं के बारे में जागरूक कर पाने में ये विज्ञापन कितने सफल हो पाए हैं, इसका अभी से अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी। ऐसी आशंका जरूर प्रकट की जा रही है कि ऐसे विज्ञापन ‘दीन-हीन एवं मैले’ लोगों के प्रति एक घृणा का भाव उत्पन्न कर सकते हैं। जादूगर वाले प्रचार में बच्चाजी बच्चनजी से गुजारिश करता है कि वे जादूगर फिल्म की शूटिंग के दौरान सीखा हुआ कोई जादू दिखाएँ। जादूगर के रूप में अमिताभ बच्चन एक वृक्ष की ओर पत्थर फेंकते दिखते हैं जिसके कारण चिड़िया अपने घोंसलों से डरकर उड़ जाती हैं। बच्चनजी का यह कमजोर जादू बच्चाजी को प्रभावित कर पाने में असफल रहता है और वे स्वयं दूसरी दिशा में एक पत्थर फेंकते हैं। उनके ऐसा करते ही हाथों में बाल्टियाँ एवं मग्गे लिये लोग नजर आते हैं। यहाँ यह बताने की जरूरत शायद न हो कि यह जनता खुले में शौच करने की अपराधी है और पत्थर खा रही है।
इसी तरह के एक ‘दरवाजा बंद’ प्रचार में हम बच्चन साहब को ‘अपराधियों’ को देखकर सीटियाँ बजाता पाते हैं। एक अन्य प्रचार में अनुष्का शर्मा महिलाओं एवं स्कूली बच्चों को उन्हीं ‘अपराधियों’ पर तंज कसने हेतु उकसाती हुई दिखती हैं। ये कुछ ऐसे प्रचलित हथकंडे हैं जिनका इस्तेमाल एसबीएम के कर्मचारी जनता को शौचालय बनाने के लिये मजबूर करने में ला रहे हैं। ऐसी हरकतों के फलस्वरूप ‘उन लोगों’ (जिनका इन प्रचारों के माध्यम से मजाक उड़ाया जा रहा है) का गुस्सा परवान चढ़ रहा है।
तमिलनाडु के सूखा पीड़ित जिले तूतीकोरिन की ग्राम पंचायत तित्तमपट्टी में उन लोगों को मनरेगा (महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के तहत काम देने से इंकार कर दिया गया जिनके घरों में शौचालय नहीं हैं। फरवरी में जारी किए गए इस मौखिक आदेश के फलस्वरूप करीब दो सौ किसानों को मनरेगा के अन्तर्गत मिलने वाले रोजगार से वंचित रहना पड़ा। ऐसा तब हो रहा है जब राज्य सरकार ने सौ दिनों की इस योजना में पचास और दिनों की वृद्धि की ताकि सूखा पीड़ित किसानों को थोड़ी राहत प्रदान की जा सके।
इस तुगलकी फरमान का विरोध करते हुए एक सत्तर वर्षीय किसान सी सुबैय्या ने मद्रास हाई कोर्ट में याचिका दायर की है। वहीं हरियाणा में पंचायत चुनावों के तीन प्रतिभागियों ने हरियाणा पंचायत राज (संशोधन) एक्ट, 2015 के खिलाफ कानून की शरण ली है। इस एक्ट के मुताबिक, केवल वही प्रतिभागी पंचायत चुनाव लड़ने हेतु योग्य हैं जिनके घरों में शौचालय हों।
प्रार्थी ने दलील दी है कि यह संशोधन संविधान के चौदहवें अनुच्छेद का उल्लंघन करता है जिसके अनुसार “सभी व्यक्तियों को राज्य के द्वारा कानून के समक्ष समानता और कानून का समान संरक्षण प्राप्त होगा।” कोर्ट ने इस संशोधन को सही ठहराया है। हालांकि ऐसे उदाहरण सीमित हैं फिर भी जानकारों का मानना है कि अल्पकालीन समाधानों पर टिकी इस प्रणाली के घातक परिणाम हो सकते हैं।