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दैनिक जागरण, 1 सितम्बर, 2016
स्वच्छता अभियान को करीब दो साल पूरे होने को हैं। क्या यह जन आंदोलन में तब्दील हो पाया? यह आज भी सरकारी कार्यक्रम के तमगे से बाहर क्यों नहीं निकल पाया? पोलियो अभियान की तरह जनता इससे क्यों नहीं कनेक्ट दिखती?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर 94 मिनट का जो भाषण दिया, उसमें सरकार की उपलब्धियों का जिक्र करते हुए आवाम को सूचित किया कि स्वच्छता अभियान के तहत सरकार ने दो करोड़ टॉयलेट बनाए हैं और 70 हजार गाँवों को खुले में शौच से मुक्त किया है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले का पोखरी गाँव भी 70 हजार गाँवों वाली सरकारी फेहरिस्त में शामिल है। पोखरी गाँव को जिला प्रशासन ने अक्टूबर 2015 को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया था। 1293 लोग इस गाँव में रहते हैं, 80 फीसद लोग साक्षर हैं, गाँव पंचायत समिति में 50 फीसद महिलाएँ हैं। अमोल काकडे सरपंच कांग्रेस के हैं, पर विकास के एजेंडे पर गाँव के उप सरपंच व भाजपा नेता सोनाजी डोरला भी सरपंच के साथ खड़ा होने का दावा करते हैं।सोनाजी का कहना है कि वह प्रधानमंत्री मोदी की महत्त्वाकांक्षी योजना स्वच्छ भारत-2019 को पूरा करने में लगे हुए हैं। मगर पोखरा गाँव की ही वत्सला गायकबाड़ ने बताया कि उसके घर में न तो शौचालय है और न ही उसने घरों में शौचालय बनाने वाली किसी सरकारी योजना के बारे में सुना है। बेशक पोखरा गाँव खुले में शौच से मुक्त गाँवों की सरकारी सूची में दर्ज हो गया है, पर आज भी वहाँ हर घर में शौचालय नहीं है। कई लोग कम्युनिटी टॉयलेट का इस्तेमाल करते हैं, इसकी तस्दीक महिलाओं व सरकारी जिला परिषद प्राथमिक स्कूल पोखरी में पढ़ने वाली लड़कियों ने की। कम्युनिटी टॉयलेट में साफ-सफाई एक बहुत बड़ा मुद्दा है। इसके साथ ही यह सवाल भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि क्या सरकार अक्टूबर 2019 तक महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती के मौके पर मुल्क को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर पाएगी। दरअसल सरकार अपने लक्षित ध्येय से पीछे चल रही है। महाराष्ट्र की ही बात करें तो 2015-16 का सरकारी लक्ष्य हर महीने एक लाख टॉयलेट बनवाना था, पर राज्य सरकार 25000 टॉयलेट कम बना रही थी। महाराष्ट्र की 55 प्रतिशत आबादी गाँवों में रहती है और 44 लाख ग्रामीण लोगों के पास टॉयलेट नहीं है। इस सूबे में आदिवासियों की आबादी देश में दूसरे नम्बर पर है, लेकिन उन तक पहुँच आसान नहीं है।
दरअसल दुनिया में दूसरे नम्बर की आबादी वाला यह मुल्क स्वच्छता के संकट से गुजर रहा है, क्योंकि आज भी भारत की करीब आधी आबादी खुले में शौच करती है। खुले में शौच करने से बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस प्रथा के कारण दुनिया में पाँच साल से कम आयु के बच्चों की डायरिया से होने वाली सबसे ज्यादा मौतें भारत में ही होती हैं। भारत में पाँच साल से कम आयु के सालाना 1,88,000 बच्चे डायरिये के कारण मर जाते हैं। अन्तरराष्ट्रीय संस्था वॉटर एड की हाल में जारी एक रपट में बताया गया है कि कैसे शौचालयों व स्वच्छ जल की कमी कुपोषण में योगदान करती है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत में चार करोड़ अस्सी लाख बच्चे यानी पाँच साल से कम आयु का हर दूसरा बच्चा नाटा है और यह संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। नाटापन बच्चे की शारीरिक वृद्धि के साथ-साथ उसके भावनात्मक विकास को भी प्रभावित करता है। उसके सीखने की क्षमता पर भी असर डालता है और वयस्क होने पर कमाई को भी प्रभावित करता है।
गौरतलब है कि स्वच्छता मिशन के जरिये सरकार की निगाहें सतत विकास लक्ष्य के लक्ष्य नम्बर छह व तीन पर भी टिकी हुई हैं, जो स्वच्छ जल व साफ-सफाई और अच्छे स्वास्थ्य की बात करते हैं। मातृत्व व शिशु मृत्यु दर, बच्चों में कुपोषण दर में कमी लाने के लिये वर्तमान सत्ताधारी दल पर काफी अन्तरराष्ट्रीय दबाव भी है। चीन व श्रीलंका ने बच्चों में नाटापन दूर करने में भारत से बेहतर प्रदर्शन किया है। सरकार का दावा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वच्छता अभियान शौचालय निर्माण व उसके इस्तेमाल पर फोकस करने वाला अभियान है। बीते महीने राजनाथ सिंह ने कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महात्मा गाँधी के जन्म वर्षगाँठ के मौके पर 2 अक्टूबर, 2014 को स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की, इसने स्वच्छता के प्रति लोगों के नजरिये में बदलाव लाने में मदद की।
जब प्रधानमंत्री ने झाड़ू पकड़ा तो इसका आशय यह था कि सभी देशवासियों को स्वच्छता के मिशन में योगदान देना चाहिए। स्वच्छता अभियान को करीब दो साल पूरे होने को हैं। क्या यह जन आंदोलन में तब्दील हो पाया? यह आज भी सरकारी कार्यक्रम के तमगे से बाहर क्यों नहीं निकल पाया? पोलियो अभियान की तरह जनता इससे क्यों नहीं कनेक्ट दिखती? पूर्व आइएएस अधिकारी गौरीशंकर घोष ने बीते दिनों औरंगाबाद में फोरम ऑफ एनवायर्नमेंटल जर्नलिस्ट्स ऑफ इंडिया व यूनिसेफ द्वारा वाटर एंड सेनिटेशन पर आयोजित कार्यशाला में कहा कि जनता स्वच्छता मिशन से कटी हुई नजर आती है। यह सिर्फ शौचालय गणना का कार्यक्रम बनकर रह गया है, संदेह है कि लोग इसका शत प्रतिशत इस्तेमाल भी करेंगे।
गौरीशंकर घोष राजीव गाँधी सरकार में नेशनल ड्रिंकिंग वाटर मिशन के डायरेक्टर थे और गुजरात वाटर सप्लाई एण्ड सीवरेज बोर्ड के चेयरमैन रह चुके हैं। वाटर एण्ड सेनिटेशन को लेकर विश्वभर में उनकी एक पहचान है और उन जैसा शख्स स्वच्छता अभियान की सफलता पर सवाल खड़ा कर रहा है। एक सवाल यह भी है कि गाँवों में शौचालय बनाने के लिये कौन-सी तकनीक सटीक है? और क्या लोग उसका इस्तेमाल कर रहे हैं? क्या सरकार इस बावत आगाह है? पुणे की प्रीमूव संस्था में प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर एकनाथ साष्टे का कहना है कि गाँवों में चूँकि सीवर पाइप वाली व्यवस्था नहीं है, इसलिये वहाँ टू पिट वाली व्यवस्था अधिक कारगर है। इसमें पानी कम इस्तेमाल होता है, पर्यावरण मैत्री है, खाद भी मिल जाती है, साफ करने का भी झंझट नहीं होता, जबकि सेप्टिक टैंक वाले शौचालय में पानी भी अधिक लगता है, टंकी में जहरीली गैस जमा होती रहती है और उसे साफ करने के लिये मशीन व बाहर से आदमी बुलवाने पड़ते हैं। जब सेप्टिक टैंक वाली तकनीक के इतने नुकसान हैं तो फिर भी इसका प्रचलन गाँवों में क्यों नजर आता है।
मिस्त्री इसके निर्माण पर जोर देते हैं, क्योंकि उनकी कमाई टू पिट की तुलना में इसमें ज्यादा है। दूसरा गाँवों के लोगों में इस बात की जागरूकता का भी अभाव है कि कौन-सी तकनीक बेहतर है और गाँववासी सेप्टिक टैंक वाले शौचालय को अपनी दौलत व शक्ति का प्रतीक भी मानते हैं। सरकारी दिशा-निर्देश में टू पिट की बात कही गई है, पर गाँवों में जहाँ सबसे ज्यादा शौचालय बनने हैं, वहाँ तकनीक के साथ समझौता भी किया जा रहा है।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)