स्वच्छता के बिना सेहतमंद समाज?

Submitted by admin on Thu, 01/29/2009 - 10:20
अंजलि सिन्हा

विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि दुनिया सहस्त्राब्दी के विकास के लक्ष्यों से, जिसमें स्वच्छता को भी वरीयता दी गई है, अब भी काफी दूर खड़ी है। बताया जाता है कि तमाम देश, जिनमें भारत भी शामिल है, स्वच्छता (सैनिटेशन) के संकट का सामना कर रहे हैं। स्वच्छता की कमी तमाम तरह की बीमारियों को जन्म देती है। अगस्त माह के तीसरे सप्ताह में स्टॉकहोम में `जल संसाधनों´ की समस्या पर विश्व जल सप्ताह के अंतर्गत एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस विश्वस्तरीय सम्मेलन का विषय था `स्वच्छ और स्वस्थ दुनिया के लिए पानी की संभावना तथा प्रगति।´ सम्मेलन में बताया गया कि धरती के 30 देशों की 20 प्रतिशत आबादी को पानी के संकट से गुजरना पड़ता है। यह बात भी सामने आई कि 1950 की तुलना में आज एशिया के लोगों को 15 से 30 फीसदी पानी ही उपलब्ध है।

गौरतलब है कि 5,000 बच्चे हर रोज जलजनित बीमारियों से मर जाते हैं। भारत इन समस्याओं में अग्रणी देशों में से एक है। द इकोनॉमिस्ट के हाल ही के सवेüक्षण में बताया है कि भारत में 1,000 बच्चे प्रतिदिन डायरिया जैसी बीमारियों से मरते हैं। ये अध्ययन यह भी बताते हैं कि स्वच्छता के मामलों में थोड़ा सुधार किया जाए, तो डायरिया जैसी बीमारी से मरनेवालों की संख्या में 25 फीसदी की कमी लाई जा सकती है। स्वच्छता का यह संकट कितना बड़ा है, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि आज की तारीख में दुनिया में लगभग 120 करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं और इनमें से 66 करोड़, 50 लाख लोग भारत में रहते हैं।

हमारे देश में सैनिटेशन की समस्या काफी गंभीर है। मुश्किल तो यह है कि लोग रोजाना इस समस्या को झेलते हैं, लेकिन इसके बारे में खुलकर बात नहीं करते। गांवों तथा शहरों की एक बड़ी आबादी आज भी खुले में शौच जाने के लिए मजबूर है। गांवों में सीवरलाइन न होने के कारण शौचालय बनवाना महंगा तथा बार-बार फेल होने वाली व्यवस्था साबित होती है। शहर में झुग्गियां तो शौचालय विहीन हैं ही, जो पुनर्वास कॉलोनी है, जिसे सरकार ने योजनाबद्ध ढंग से बसाया है, वहां भी सीवर लाइन नहीं है। इन कॉलोनियों में शौचालय के नाम पर चलते-फिरते शौचालय होते हैं या एक-दो सार्वजनिक शौचालय होते हैं, जिनकी हालत बेहद खराब होती है। फिर वहां भी लंबी कतार होने के कारण लोग खुले में शौच के लिए जाते हैं।

संपन्न इलाकों में भी सैनिटेशन के हालात संतोषप्रद नहीं हैं। लेकिन वहां उनकी खुद की खड़ी की हुई समस्या है। इन घरों में जानवर खासकर कुत्ते पालने का विशेष चलन है। इन पालतू जानवरों के मालिक उन्हें खुले में सड़क या फुटपाथ पर ही शौच कराते हैं और यह भी लोगों के स्वास्थ्य के लिए उतना ही हानिकारक होता है।

आज भी गांवों या कसबों के स्कूल शौचालय विहीन या अनुपयोगी हैं। हाल ही में यूनिसेफ ने मध्य प्रदेश में एक नमूना सवेüक्षण कराया था, जिसमें स्कूलों में शौचालय की बदतर स्थिति उजागर हुई। हर राज्य में छात्राओं को इससे काफी परेशानी उठानी पड़ती है। वे रोजाना की परेशानी तो झेलती ही हैं, किशोरियों को अपने मासिक धर्म के समय हर महीने करीब चार दिन के लिए स्कूल छोड़ना पड़ता है, क्योंकि स्कूलों में शौचालय या पानी की व्यवस्था होती ही नहीं।घर से बाहर सार्वजनिक दायरे में शौचालय की कमी का संकट सबसे अधिक औरत झेलती है, क्योंकि एक तो उनके लिए पर्याप्त शौचालय होते नहीं, और जो हैं भी, वे या तो बंद रहते हैं या देखरेख से वंचित होते हैं। इस समस्या के प्रति पूरे समाज में संवेदनशीलता की भारी कमी पाई गई है। यही नहीं, जिन सार्वजनिक स्थानों पर भुगतान पर सुविधा उपलब्ध हैं, वहां अकसर महिलाओं को पुरुष की तुलना में अधिक भुगतान करना पड़ता है। इसके लिए यह दलील भी दी जाती है कि महिला शौचालय पूरी तरह बंद होता है, लिहाजा रखरखाव का खर्च अधिक आता है।

बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र ने इस वर्ष को स्वच्छता वर्ष घोषित करके दुनिया के तमाम देशों को यह याद दिलाया है कि वे अपनी जनता को सैनिटेशन के संकट से मुक्ति दिलानेके लिए ठोस कदम उठाएं। देखना यह है कि सरकारों का ध्यान इस तरफ कितना जाता हैं। वैसे भी, यह इतनी बड़ी समस्या है कि नीतिगत फैसले के बिना सिर्फ लोगों से साफ-सफाई की अपील करने भर का कोई खास असर नहीं पड़ने वाला। सीवर लाइन बिछाने और उसके शोधन आदि की जिम्मेदारी व्यक्तिगत स्तर पर पूरी नहीं की जा सकती। सचाई तो यह है कि हमारेे देश में नालों और मेन होल की सफाई में हर साल कितने ही सफाईकर्मी मौत के मुंह में धकेल दिए जाते हैं। इसलिए इस क्षेत्र में भी ऐसे तकनीकी विकास लागू करने की जरूरत है, जिससे व्यक्ति सुरक्षित और गरिमापूर्ण ढंग से सफाई कार्य कर सके। जाहिर सी बात है कि इसके लिए हमारे नीति निर्धारकों को इस दिशा में सदाशयता दिखानी होगी, वरना विकास की अन्य कोशिशों के बावजूद मानव विकास सूचकांक में देश नए सोपान नहीं चढ़ पाएगा।

(लेखिका स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं)

साभार – अमर उजाला

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