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स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष
विडम्बना है कि स्वच्छता का सीधा सम्बन्ध हमारी सेहत से होने के बाद भी हमारे समाज में स्वच्छता को लेकर कभी कोई गम्भीर किस्म का काम तो दूर, सार्थक चर्चा तक नहीं होती। हाँ, कभी-कभार कुछ बातें जरूर होती है पर वे बातें भी ज्यादातर रस्मी तौर पर ही कर ली जाती है। इधर अब की सरकारों ने स्वच्छता पर फोकस करना शुरू तो किया है पर अब भी यह सरकारीकरण से बाहर आकर लोगों के लिये जन अभियान का रूप नहीं ले पा रहा है।
महात्मा गाँधी ने सफाई की कीमत 1910–20 के दशक में ही समझ ली थी और उन्होंने इसके महत्त्व पर रोशनी डालते हुए यहाँ तक कहा था कि स्वच्छता आजादी से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। लेकिन गाँधी की इस बात को हम या तो भूल गए या अब तक नहीं समझ पा रहे हैं। इसके लिये अब भी सरकारों को निर्मल भारत और स्वच्छता अभियान चलाने पड़ रहे हैं। बात–बात पर गाँधी का अनुसरण करने की बातें करने वाले भी अपने परिवेश की साफ़–सफाई के लिये खुद भी जवाबदेह नहीं हो पा रहे हैं।
लगता है कि हम अपनी सेहत को ठीक रखने या उसकी चिन्ता करने का काम भी सरकार के हवाले कर चुके हैं। जो स्वच्छता हमें अपने आसपास रखनी चाहिए उसके लिये भी अब हम सरकार की तरफ टकटकी लगाए देखते रहते हैं कि एक दिन सरकार आएगी और हमारे आसपास की गन्दगी को दूर कर इसे साफ़ करेगी और इस झूठी आस में हम बीमार-पर-बीमार होते रहते हैं लेकिन कभी आगे बढ़कर हमारे आसपास की ही सही साफ़-सफाई के बारे में न सोचते हैं और न ही कभी करते हैं।
कुछ लोग सफाई पसन्द जरूर होते हैं पर वे भी अपने घर की अच्छी तरह से साफ–सफाई करने के बाद इकट्ठा हुए कूड़े–कचरे को या तो सड़क पर या चौराहे के पास या सरकारी इमारतों के अहातों में डाल दिया करते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़ों पर गौर करें तो साफ़ है कि हमारी ज्यादातर बीमारियों के लिये हमारे द्वारा फैलाया गया कूड़ा–कचरा ही जिम्मेदार है। इसी वजह से हमारे नदी–नालों सहित जल स्रोत लगातार प्रदूषित होते जा रहे हैं। यहाँ तक कि कई जगह हमारा भूगर्भीय जल भंडार भी इससे अछूता नहीं रह पा रहा है।
कई स्थानों पर भूमिगत जल स्रोत गन्दा या प्रदूषित पानी उलीच रहे हैं। इनमें उद्योगों से निकलने वाले रासायनिक पदार्थों को बिना उपचारित किये जमीन में छोड़ देने या नालों में बहा देने जैसी स्थितियाँ भी शामिल हैं। इसके अलावा सीवर के पानी को पेयजल के पानी में मिलने से भी हम नहीं रोक पा रहे हैं। नदियों की सफाई की जगह हम उनमें प्रतिमाएँ और पूजन सामग्री विसर्जित कर रहे हैं। उनके किनारों को हमने सार्वजनिक शौचालयों में बदल दिया है।
साल-दर-साल बढ़ते जल संकट से स्थितियाँ और विकराल होती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का स्पष्ट मानना है कि भारत में 80 फीसदी से ज्यादा बीमारियाँ सिर्फ प्रदूषित पानी के कारण ही होती हैं। देश के स्वास्थ्य बजट का करीब 80 फीसदी हिस्सा केवल जलजनित बीमारियों के इलाज और रोकथाम पर ही खर्च होता है। बार–बार पानी उबाल कर पीने के पैगामों के बाद भी अब तक लोग इसे अमल नहीं कर पाते हैं।
सरकारें कुछ हद तक काम कर सकती हैं पर जब हमारी सरकारें स्वच्छता का निदान कर साफ़-सफाई के काम भी जब खुद करने लगती हैं तो समस्या की भयावहता और भी बढ़ जाती है। इस तरह हम लोगों को और भी पंगु बनाते जा रहे हैं। पहले ही लोगों में किसी के लिये कुछ करने का जज्बा नहीं है और ऐसे में हम उनकी सफाई जैसे काम को भी करने लगें तो कैसे चलेगा।
दूसरा सरकारी सुविधाएँ और संसाधन भी इतने पर्याप्त नहीं है कि हम आगे के दिनों में साफ़–सफाई का काम सरकारी इन्तजामों से करते रहने की उम्मीद कर सकें। हाँ, सरकारें सिर्फ लोगों में जन चेतना के प्रयास कर सकती हैं और उन्हें यह बताने की कोशिश भर कर सकती है कि उनकी सेहत के लिये स्वच्छता कितनी जरूरी है। इसे हमें शिक्षा और स्वास्थ्य से जोड़ने की महती जरूरत है।
साल-दर-साल बढ़ते जल संकट से स्थितियाँ और विकराल होती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का स्पष्ट मानना है कि भारत में 80 फीसदी से ज्यादा बीमारियाँ सिर्फ प्रदूषित पानी के कारण ही होती हैं। देश के स्वास्थ्य बजट का करीब 80 फीसदी हिस्सा केवल जलजनित बीमारियों के इलाज और रोकथाम पर ही खर्च होता है। बार–बार पानी उबाल कर पीने के पैगामों के बाद भी अब तक लोग इसे अमल नहीं कर पाते हैं। सरकारें कुछ हद तक काम कर सकती हैं पर जब हमारी सरकारें स्वच्छता का निदान कर साफ़-सफाई के काम भी जब खुद करने लगती हैं तो समस्या की भयावहता और भी बढ़ जाती है।
इसे देश से पहले अपने खुद की सेहत के लिये जरूरी साबित करने से शायद लोगों को भी इसका महत्त्व ज्यादा अच्छी तरह समझ आ सकेगा। उन्हें लगेगा कि आज उनके इलाके और उनके घरों में जो डेंगू, स्वाइन फ्लू, मलेरिया जैसी बीमारियों से लेकर घातक बीमारियों तक के लिये जिम्मेदार अस्वच्छता हैं तो वे एक मुहिम की तरह इसके खिलाफ खड़े हो सकेंगे।शहरी क्षेत्र की झुग्गी बस्तियों, अर्द्ध शहरी और ग्रामीण इलाकों में छोटे बच्चे ज्यादातर बीमार पड़ते रहते हैं। कभी उन्हें बुखार आता है तो कभी दस्त लगते हैं तो कभी उन्हें कुछ पचता ही नहीं। इसका कारण क्या है – अस्वच्छता। उनके आसपास जिस तरह का अस्वास्थ्यकर परिवेश होता है वह उन बच्चों के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर डालता है। उन्हें बार–बार बीमार बनाता है और कई स्थितियों में यही कुपोषण का भी कारण बनता है।
ज्यादातर बच्चों के पेट में कीड़े यानी टेप वर्म, हुक वर्म या राउंड वर्म पाये जाते हैं। ये उनकी पाचन क्षमता को प्रभावित करते हैं और पर्याप्त खाने के बाद भी बच्चा कमजोर या कुपोषित ही बना रह जाता है। घर के आसपास ही शौच जाने से कई कीटाणु हमें बीमार करते हैं। आमतौर पर गाँवों के घरों में शौचालय नहीं ही होते हैं और शौच के लिये सभी लोग गाँव के बाहर जाते हैं।
इससे गन्दगी बढ़ जाती है जबकि शौचालय के इस्तेमाल से स्वच्छता बनी रहती है और बीमारियों की रोकथाम भी सम्भव है। इससे घर की महिलाओं को होने वाली परेशानियों से भी निजात मिल जाती है। गाँव के आसपास ही कम्पोस्ट खाद बनाने के घूरे भी बना दिये जाते हैं, जो गन्दगी फैलाते रहते हैं। प्रायः मवेशियों को घर के अन्दर ही बाँध लिया जाता है और वे वहीं गन्दगी करते रहते हैं।
नालियाँ या तो कच्ची होती हैं या पक्की होने के बाद भी सफाई नहीं होने से बजबजाती रहती है। घरों के आसपास डबरों और गड्ढों में भरा पानी मच्छरों को पनपाता है और यही मच्छर बीमारियों का वाहक साबित होते हैं। यहाँ शौच के बाद या कुछ भी खाने से पहले हाथ धोने का रिवाज करीब–करीब नहीं ही होता है, इन बस्तियों में ही नहीं बल्कि सामान्य मध्यवर्गीय परिवारों तक में हाथ धोने को इतना महत्त्व नहीं ही दिया जाता, जितना यह जरूरी है।
निजी साफ़-सफाई और हाथ धोने की आदत नहीं होने से भी बीमारियाँ पनपती हैं। आदतें बदलना इतना आसान नहीं होता लेकिन प्रयास तो किया ही जा सकता है। देहाती इलाकों में रहने वालों और कम पढ़े–लिखे लोगों में यह धारणा बहुत दृढ़ है कि उनके जीवन पर असर डालने वाली अधिकांश स्थितियों पर उनका कोई बस नहीं है, वे उनकी जद से बाहर हैं और वे बेबस हैं। बीमारी और प्राकृतिक आपदाओं को आमतौर पर परालौकिक शक्तियों का प्रभाव माना जाता है जबकि स्वास्थ्य और शिक्षा के जानकार बताते हैं कि यही बात उनके जीवन को और परेशानी में डाल देती है।
वैज्ञानिक नजरिए से देखें तो मनुष्य खुद कई घटनाओं और स्थितियों को नियंत्रित कर सकता है। यदि वे स्वच्छता से जुड़े कुछ छोटे–छोटे उपाय ही कर लें तो खुद और परिवार को तो स्वस्थ रखेंगे ही अपने पड़ोसियों को भी बीमारियों से दूर रख सकेंगे।
लोगों में जागरुकता के अभाव के चलते वे समझ ही नहीं पाते कि इन स्थितियों के लिये वे खुद और उनके आसपास की गन्दगी ही जिम्मेदार है। सेहत और स्वच्छता आपस में बहुत गहरे रूप में जुड़े हुए हैं और बिना स्वच्छता के अच्छी सेहत की बात करना भी बेमानी ही है। इसलिये भी स्वच्छता सरकारों का दायित्व ही नहीं बल्कि उससे कहीं बढ़कर यह हमारी जिम्मेवारी भी है।