लेखक
छत्तीसगढ़ राज्य और उसकी राजधानी रायपुर बनने से पहले तक यह नगर तालाबों की नगरी कहलाता था, ना कभी नलों में पानी की कमी रहती थी और ना आंख में। लेकिन अलग राज्य बनते ही ताल-तलैयों की बलि चढ़ने लगी। कोई 181 तालाबों की मौजूदगी वाले शहर में अब बमुश्किल एक दर्जन तालाब बचे हैं और वे भी हांफ रहे हैं अपना अस्तित्व बचाने के लिए। वैसे यहां भी सुप्रीम कोर्ट आदेश दे चुकी है कि तालाबों को उनका समृद्ध अतीत लौटाया जाए, लेकिन लगता है कि वे गुमनामी की उन गलियों में खो चुके हैं जहां से लौटना नामुमकिन होता है। जुलाई के सावन में भी रायपुर में तापमान 40 डिग्री की तरफ लपक रहा है। एक आध बार पानी बरसा तो शहर लबालब हो गया, लेकिन अगली सुबह घरों के नल रीते ही रहे। पानी की किल्लत अब यहां पूरे साल ही रहती है। यहां के रविशंकर विश्वविद्यालय के प्रशासन ने परिसर और उससे सटे डीडी नगर, आमानाक, डडनिया में तेजी से नीचे जा रहे जल स्तर को बचाने के लिए बीस लाख रुपए की लागत से एक तालाब बनाने का फैसला ले लिया है।
चलो यह अच्छा है कि ज्ञान-विज्ञान, तकनीक से सज्जित आज के समाज को नए तालाब खोदने की अनिवार्यता याद तो आई, लेकिन यह याद नहीं आ रहा है कि छत्तीसगढ़ राज्य और उसकी राजधानी रायपुर बनने से पहले तक यह नगर तालाबों की नगरी कहलाता था, ना कभी नलों में पानी की कमी रहती थी और ना आंख में। लेकिन अलग राज्य क्या बना, शहर को बहुत से दफ्तर, घर, सड़क की जरूरत हुई और देखते-ही-देखते ताल-तलैयों की बलि चढ़ने लगी।
कोई 181 तालाबों की मौजूदगी वाले शहर में अब बमुश्किल एक दर्जन तालाब बचे हैं और वे भी हांफ रहे हैं अपना अस्तित्व बचाने के लिए। वैसे यहां भी सुप्रीम कोर्ट आदेश दे चुकी है कि तालाबों को उनका समृद्ध अतीत लौटाया जाए, लेकिन लगता है कि वे गुमनामी की उन गलियों में खो चुके हैं जहां से लौटना नामुमकिन होता है।
वैसे रायपुर में तालाबों को खुदवाना बेहद गंभीर भूवैज्ञानिक तथ्य की देन है। यहां के कुछ इलाकों में भूमि में दस मीटर गहराई पर लाल-पीली मिट्टी की अनुठी परत है जो पानी को रोकने के लिए प्लास्टिक परत की तरह काम करती है। पुरानी बस्ती, आमापारा, समता कालोनी इलाकों में 10 मीटर गहराई तक मुरम या लेटोविट, इसके नीचे 10 से 15 मीटर में छुई माटी या शेलएलो और इसके 100 मीटर गहराई तक चूना या लाईम स्टोन है। तभी जहां तालाब हैं वहां कभी कुएं सफल नहीं हुए।
यह जाना-माना तथ्य है कि रायपुर में जितनी अधिकतम बारिश होती है उसे मौजूद तालाबों की महज एक मीटर गहराई में रोका जा सकता था। जीई रोड पर समानांतर तालाबों की एक शृंखला है जिसकी खासियत है कि निचले हिस्से में बहने वाले पानी को यू-शेप का तालाब बना कर रोका गया है। ब्लाक सिस्टम के तहत हांडी तालाब, कारी, धोबनी, घोडारी, आमा तालाब, रामकुंड, कर्बला और चौबे कालोनी के तालाब जुड़े हुए हैं।
बूढ़ा तालाब व बंधवा के ओवर फ्लो का खरून नदी में मिलना एक विरली पुरानी तकनीक रही है। बेतरतीब निर्माण ने तालाबों के अंतर्संबंधों, नहरों और जल आवक रास्तों को ही निरूद्ध नहीं किया, अपनी तकदीर पर भी सूखे को जन्म दे दिया। रही बची कसर यहां के लोगों की धार्मिक आयोजनों बढ़ती रूचि ने खड़ी कर दी। महानगर में हर साल कोई दस हजार गणपति, दुर्गा प्रतिमा आदि की स्थापना हो रही है और इनका विसर्जन इन्हीं तालाबों में हो रहा है। प्लास्टर आफ पेरिस, रासायनिक रंग, प्लास्टिक के सजावटी सामान, अभ्रक, आर्सेनिक, थर्मोकोल आदि इन तालाबों को उथला, जहरीला व गंदला कर रहे हैं।
कभी बूढ़ा तालाब शहर का बड़ा-बूढ़ा हुआ करता था। कहते हैं कि सन् 1402 के आसपास राजा ब्रहृदेव ने रायपुर शहर की स्थापना की थी और तभी यह ताल बना। वैसे इसे लेकर भी पूरे देश की तरह बंजारों व मछुआरों की कहानियां मशहूर हैं। सनद रहे बूढ़ा तालाब पहले इस तरह अन्य तालाबों से जुड़ा था कि इसमें पानी लबालब होते ही महाराजबंध तालाब में पानी जाने लगता था और उसके आगे अन्य किसी में।
इन तालाब-शृंखलाओं के कारण ना तो रायपुर कभी प्यासा रहता और ना ही तालाब की सिंचाई, मछली, सिंघाड़ा आदि के चलते भूखा। कहते हैं कि इस तालाब के किनारे से कोलकाता-मुंबई और जगन्नाथ पुरी जाने के रास्ते निकलते थे। बताते हैं कि एक बार पृथ्वीराज कपूर रायपुर आए थे तो वे बूढ़ा तालाब को देख कर मंत्र-मुग्ध हो गए थे। वे जितने दिन भी यहां रहे, हर रोज यहां नहाने आते थे। लेकिन आज यह जाहिर तौर पर कूड़ा फेंकने व गंदगी उड़ेलने की जगह बन गया है।
वैसे आज इसका नाम विवेकानंद तालाब हो गया, क्योंकि इसके बीचों बीच विवेकानंद की एक प्रतिमा स्थापित की गई है, लेकिन यहां जानना जरूरी है कि बूढ़ा से विवेकानंद तालाब बनने की प्रक्रिया में इसका क्षेत्रफल 150 एकड़ से घट कर 60 एकड़ हो गया। बताते हैं कि जब स्वामी विवेकानंद 14 साल के थे तो रासपुर आए थे व वे तैर कर तालाब के बीच में बने टापू तक जाते थे। जलकुंभी से पटे तालाब के बड़े हिस्से पर लोग कब्जा कर चुके हैं, जो बचा है वहां जलकुभी का साम्राज्य है। यही कहानी दीगर तालाबों की है- दलदल, बदबू, सूखा, कचरा।
शहर के कई चर्चित तालाब देखते-देखते ओझल हो गए- रायपुर शहर में रजबंधा तालाब का फैलाव 7.975 हेक्टेर था, आज वहां चौरस मैदान है। छह हेक्टेयर से बड़े सरजूबंधा को पुलिस लाइन लील गई तो डेढ़ हेक्टेयर से भी विशाल खंतो तालाब पर शक्तिनगर कालोनी बन गई। पचारी, नया तालाब और गोगांव ताल को उद्योग विभाग के हवाले कर दिया गया तो ढाबा तालाब (कोटा) और डबरी तालाब (खमरडीह) पर कब्जे हो गए। ऐसे ही कंकाली ताल, ट्रस्ट तालाब, नारून तालाब आदि दसियों पर या तो कब्जे हो गए या फिर वे सिकुड़ कर शून्य की ओर बढ़ रहे हैं। यह सूची बानगी है कि रायपुर शहर के बीच के तालाब किस तरह शहरीकरण की चपेट में आए।
यहां जानना जरूरी है कि छत्तीसगढ़ में तालाब एक लोक परंपरा व सामाजिक दायित्व रहा है। यहां का लोनिया, सबरिया, बेलदार, रामनामी जैसे समाज पीढ़ियों से तालाब गढ़ते आए हैं। अंग्रेजी शासन के समय पड़े भीषण अकाल के दौरान तत्कालीन सरकार ने खूब तालाब खुदवाए थे और ऐसे कई सौ तालाब पूरे अंचल में ‘लंकेटर तालाब’ के नाम से आज भी विद्यमान हैं।
‘छत्तीसगढ़ मित्र’ को यहां की पहली हिंदी पत्रिका कहा जाता है। इसके मार्च-अप्रैल, 1900 के अंक में प्रकाशित एक आलेख गवाह है कि उस काल में भी समाज तालाबों को ले कर कितना गंभीर व चिंतित था। आलेख कुछ इस तरह था - ‘‘रायपुर का आमा तालाब प्रसिद्ध है यह तालाब श्रीयुत् सोभाराम साव रायपुर निवासी के पूर्वजों ने बनवाया था।
अब उसका पानी सूख कर खराब हो गया है। उपर्युक्त सावजी ने उसकी मरम्मत पर 17000 रुपए खर्च करने का निश्चय किया है। काम भी जोरशोर से जारी हो गया है। आपका औदार्य इस प्रदेश में चिरकाल से प्रसिद्ध है। सरकार को चाहिए कि इसी ओर ध्यान देवे।’’
उसी रायपुर का तेलीबांधा तालाब भ्रष्टाचार, लापरवाही और संवेदनहीनता की बानगी बना हुआ है। सन् 1929-30 के पुराने राजस्व रिकार्ड में इसका रकबा 35 एकड़ था, लेकिन आज इसके आधे पर भी पानी नहीं है। उस रिकार्ड के मुताबिक आज जीई रोड का गौरव पथ तालाब पर ही है। इसके अलावा जलविहार कालेनी की सड़क, बगीचा, आरडीए परिसर, लायंस क्लब का सभागार भी पानी की जगह पर बना है। यहां 12 एकड़ जमीन खाली करवा कर वहां बसे लोगों को बोरियाकला में विस्थापित किया गया।
जब यह जमीन खाली हुई तो इससे दो एकड़ जमीन नगर निगम मकान बनाने के लिए मांगने लगा। वह तो भला हो जनवरी-2011 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य के मुकदमें के फैसले का जिसमें अदालत ने देश के सभी राज्यों का आदेश दिया था कि तालाब के पानी व निस्तार की जमीन पर किसी भी तरह का निर्माण ना हो।
अब सरकार खुद पशोपेस में है क्योंकि राज्य सरकार ने तेलीबांधा से हटाए लोगों को उनकी पुरानी जगह पर ही 720 मकान बना कर देने का वायदा कर दिया है। अब तालाब पर बेहद खामोशी से खेल हो रहा है- इसके कुछ हिस्से में पानी बरकरार रख, शेष पर बगीचे, कालोनी बनाने के लिए लोग सरकार के साथ मिल कर गुंताड़े बिठा रहे हैं।
अब तो नया रायपुर बन रहा है, अभनपुर के सामने तक फैला है और इसको बनाने में ना जाने कितने ताल-तलैया, जोहड़, नाले दफन हो गए हैं। यहां खूब चौड़ी सड़के हैं, भवन चमचमाते हुए हैं, सब कुछ उजला है, लेकिन सवाल खड़ा है कि इस नई बसाहट के लिए पानी कहां से आएगा? तालाब तो हम हड़प कर गए हैं।
चलो यह अच्छा है कि ज्ञान-विज्ञान, तकनीक से सज्जित आज के समाज को नए तालाब खोदने की अनिवार्यता याद तो आई, लेकिन यह याद नहीं आ रहा है कि छत्तीसगढ़ राज्य और उसकी राजधानी रायपुर बनने से पहले तक यह नगर तालाबों की नगरी कहलाता था, ना कभी नलों में पानी की कमी रहती थी और ना आंख में। लेकिन अलग राज्य क्या बना, शहर को बहुत से दफ्तर, घर, सड़क की जरूरत हुई और देखते-ही-देखते ताल-तलैयों की बलि चढ़ने लगी।
कोई 181 तालाबों की मौजूदगी वाले शहर में अब बमुश्किल एक दर्जन तालाब बचे हैं और वे भी हांफ रहे हैं अपना अस्तित्व बचाने के लिए। वैसे यहां भी सुप्रीम कोर्ट आदेश दे चुकी है कि तालाबों को उनका समृद्ध अतीत लौटाया जाए, लेकिन लगता है कि वे गुमनामी की उन गलियों में खो चुके हैं जहां से लौटना नामुमकिन होता है।
वैसे रायपुर में तालाबों को खुदवाना बेहद गंभीर भूवैज्ञानिक तथ्य की देन है। यहां के कुछ इलाकों में भूमि में दस मीटर गहराई पर लाल-पीली मिट्टी की अनुठी परत है जो पानी को रोकने के लिए प्लास्टिक परत की तरह काम करती है। पुरानी बस्ती, आमापारा, समता कालोनी इलाकों में 10 मीटर गहराई तक मुरम या लेटोविट, इसके नीचे 10 से 15 मीटर में छुई माटी या शेलएलो और इसके 100 मीटर गहराई तक चूना या लाईम स्टोन है। तभी जहां तालाब हैं वहां कभी कुएं सफल नहीं हुए।
यह जाना-माना तथ्य है कि रायपुर में जितनी अधिकतम बारिश होती है उसे मौजूद तालाबों की महज एक मीटर गहराई में रोका जा सकता था। जीई रोड पर समानांतर तालाबों की एक शृंखला है जिसकी खासियत है कि निचले हिस्से में बहने वाले पानी को यू-शेप का तालाब बना कर रोका गया है। ब्लाक सिस्टम के तहत हांडी तालाब, कारी, धोबनी, घोडारी, आमा तालाब, रामकुंड, कर्बला और चौबे कालोनी के तालाब जुड़े हुए हैं।
बूढ़ा तालाब व बंधवा के ओवर फ्लो का खरून नदी में मिलना एक विरली पुरानी तकनीक रही है। बेतरतीब निर्माण ने तालाबों के अंतर्संबंधों, नहरों और जल आवक रास्तों को ही निरूद्ध नहीं किया, अपनी तकदीर पर भी सूखे को जन्म दे दिया। रही बची कसर यहां के लोगों की धार्मिक आयोजनों बढ़ती रूचि ने खड़ी कर दी। महानगर में हर साल कोई दस हजार गणपति, दुर्गा प्रतिमा आदि की स्थापना हो रही है और इनका विसर्जन इन्हीं तालाबों में हो रहा है। प्लास्टर आफ पेरिस, रासायनिक रंग, प्लास्टिक के सजावटी सामान, अभ्रक, आर्सेनिक, थर्मोकोल आदि इन तालाबों को उथला, जहरीला व गंदला कर रहे हैं।
कभी बूढ़ा तालाब शहर का बड़ा-बूढ़ा हुआ करता था। कहते हैं कि सन् 1402 के आसपास राजा ब्रहृदेव ने रायपुर शहर की स्थापना की थी और तभी यह ताल बना। वैसे इसे लेकर भी पूरे देश की तरह बंजारों व मछुआरों की कहानियां मशहूर हैं। सनद रहे बूढ़ा तालाब पहले इस तरह अन्य तालाबों से जुड़ा था कि इसमें पानी लबालब होते ही महाराजबंध तालाब में पानी जाने लगता था और उसके आगे अन्य किसी में।
इन तालाब-शृंखलाओं के कारण ना तो रायपुर कभी प्यासा रहता और ना ही तालाब की सिंचाई, मछली, सिंघाड़ा आदि के चलते भूखा। कहते हैं कि इस तालाब के किनारे से कोलकाता-मुंबई और जगन्नाथ पुरी जाने के रास्ते निकलते थे। बताते हैं कि एक बार पृथ्वीराज कपूर रायपुर आए थे तो वे बूढ़ा तालाब को देख कर मंत्र-मुग्ध हो गए थे। वे जितने दिन भी यहां रहे, हर रोज यहां नहाने आते थे। लेकिन आज यह जाहिर तौर पर कूड़ा फेंकने व गंदगी उड़ेलने की जगह बन गया है।
वैसे आज इसका नाम विवेकानंद तालाब हो गया, क्योंकि इसके बीचों बीच विवेकानंद की एक प्रतिमा स्थापित की गई है, लेकिन यहां जानना जरूरी है कि बूढ़ा से विवेकानंद तालाब बनने की प्रक्रिया में इसका क्षेत्रफल 150 एकड़ से घट कर 60 एकड़ हो गया। बताते हैं कि जब स्वामी विवेकानंद 14 साल के थे तो रासपुर आए थे व वे तैर कर तालाब के बीच में बने टापू तक जाते थे। जलकुंभी से पटे तालाब के बड़े हिस्से पर लोग कब्जा कर चुके हैं, जो बचा है वहां जलकुभी का साम्राज्य है। यही कहानी दीगर तालाबों की है- दलदल, बदबू, सूखा, कचरा।
शहर के कई चर्चित तालाब देखते-देखते ओझल हो गए- रायपुर शहर में रजबंधा तालाब का फैलाव 7.975 हेक्टेर था, आज वहां चौरस मैदान है। छह हेक्टेयर से बड़े सरजूबंधा को पुलिस लाइन लील गई तो डेढ़ हेक्टेयर से भी विशाल खंतो तालाब पर शक्तिनगर कालोनी बन गई। पचारी, नया तालाब और गोगांव ताल को उद्योग विभाग के हवाले कर दिया गया तो ढाबा तालाब (कोटा) और डबरी तालाब (खमरडीह) पर कब्जे हो गए। ऐसे ही कंकाली ताल, ट्रस्ट तालाब, नारून तालाब आदि दसियों पर या तो कब्जे हो गए या फिर वे सिकुड़ कर शून्य की ओर बढ़ रहे हैं। यह सूची बानगी है कि रायपुर शहर के बीच के तालाब किस तरह शहरीकरण की चपेट में आए।
यहां जानना जरूरी है कि छत्तीसगढ़ में तालाब एक लोक परंपरा व सामाजिक दायित्व रहा है। यहां का लोनिया, सबरिया, बेलदार, रामनामी जैसे समाज पीढ़ियों से तालाब गढ़ते आए हैं। अंग्रेजी शासन के समय पड़े भीषण अकाल के दौरान तत्कालीन सरकार ने खूब तालाब खुदवाए थे और ऐसे कई सौ तालाब पूरे अंचल में ‘लंकेटर तालाब’ के नाम से आज भी विद्यमान हैं।
‘छत्तीसगढ़ मित्र’ को यहां की पहली हिंदी पत्रिका कहा जाता है। इसके मार्च-अप्रैल, 1900 के अंक में प्रकाशित एक आलेख गवाह है कि उस काल में भी समाज तालाबों को ले कर कितना गंभीर व चिंतित था। आलेख कुछ इस तरह था - ‘‘रायपुर का आमा तालाब प्रसिद्ध है यह तालाब श्रीयुत् सोभाराम साव रायपुर निवासी के पूर्वजों ने बनवाया था।
अब उसका पानी सूख कर खराब हो गया है। उपर्युक्त सावजी ने उसकी मरम्मत पर 17000 रुपए खर्च करने का निश्चय किया है। काम भी जोरशोर से जारी हो गया है। आपका औदार्य इस प्रदेश में चिरकाल से प्रसिद्ध है। सरकार को चाहिए कि इसी ओर ध्यान देवे।’’
उसी रायपुर का तेलीबांधा तालाब भ्रष्टाचार, लापरवाही और संवेदनहीनता की बानगी बना हुआ है। सन् 1929-30 के पुराने राजस्व रिकार्ड में इसका रकबा 35 एकड़ था, लेकिन आज इसके आधे पर भी पानी नहीं है। उस रिकार्ड के मुताबिक आज जीई रोड का गौरव पथ तालाब पर ही है। इसके अलावा जलविहार कालेनी की सड़क, बगीचा, आरडीए परिसर, लायंस क्लब का सभागार भी पानी की जगह पर बना है। यहां 12 एकड़ जमीन खाली करवा कर वहां बसे लोगों को बोरियाकला में विस्थापित किया गया।
जब यह जमीन खाली हुई तो इससे दो एकड़ जमीन नगर निगम मकान बनाने के लिए मांगने लगा। वह तो भला हो जनवरी-2011 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य के मुकदमें के फैसले का जिसमें अदालत ने देश के सभी राज्यों का आदेश दिया था कि तालाब के पानी व निस्तार की जमीन पर किसी भी तरह का निर्माण ना हो।
अब सरकार खुद पशोपेस में है क्योंकि राज्य सरकार ने तेलीबांधा से हटाए लोगों को उनकी पुरानी जगह पर ही 720 मकान बना कर देने का वायदा कर दिया है। अब तालाब पर बेहद खामोशी से खेल हो रहा है- इसके कुछ हिस्से में पानी बरकरार रख, शेष पर बगीचे, कालोनी बनाने के लिए लोग सरकार के साथ मिल कर गुंताड़े बिठा रहे हैं।
अब तो नया रायपुर बन रहा है, अभनपुर के सामने तक फैला है और इसको बनाने में ना जाने कितने ताल-तलैया, जोहड़, नाले दफन हो गए हैं। यहां खूब चौड़ी सड़के हैं, भवन चमचमाते हुए हैं, सब कुछ उजला है, लेकिन सवाल खड़ा है कि इस नई बसाहट के लिए पानी कहां से आएगा? तालाब तो हम हड़प कर गए हैं।