टिहरी बाँध में समाहित भागीरथी और भिलंगना नदियों के किनारों पर अनेक स्थानों पर भूस्खलन क्षेत्र है। इनमें से कंग़साली, डोबरा तथा स्यांसू के ऊपर नदी धारा पर स्थित भूस्खलन क्षेत्र प्रमुख है। इसी तरह रोलाकोट के आस-पास भूस्खलन क्षेत्र बन जाने की सम्भावना व्यक्त की गई थी। भिलंगना घाटी में नन्दगाँव, खांड, गडोलिया आदि कई स्थान चिन्हित किये गए थे। इन सभी क्षेत्रों में मौजूदा स्थिति में भूस्खलन की समस्या पैदा हो गई है। हर साल बाँध में पानी बढ़ने और कम होने के प्रभाव से यहाँ के गाँव अस्थिर हो गए हैं। टिहरी बाँध विश्व के बड़े बाँधों की श्रेणी में एक है। इसके निर्माण के बाद पद्मविभूषण डॉ. खड़क सिंह बाल्दिया और डॉ. विनोद गौड़ जैसे भूगर्भविदों द्वारा भूस्खलन एवं बीमारी की आशंका प्रकट की गई थी। उस समय इसे उतना गम्भीरता से नहीं लिया गया। लेकिन यह अब सच साबित हो गया है।
सन् 2004 में टिहरी बाँध जलाशय में दर्जनों गाँव डुबाने का सच सबके सामने आया है। इसके बाद आशंका थी कि जलाशय की नमी के प्रभाव से चारों ओर की चट्टानें अस्थिर हो सकती है। अब इसका प्रभाव धीरे-धीरे पिछले 10 सालों में बाँध के चारों ओर असंख्य भूस्खलन एवं दरारों के रूप में सामने आ गया है। 42 वर्ग किलोमीटर में फैली झील के ऊपर टिहरी एवं उत्तरकाशी के 140 गाँवों पर भूस्खलन का संकट मँडरा रहा है।
ग़ौरतलब है कि हिमालय क्षेत्र में अभी मौजूद एवं निर्माणाधीन बाँध स्थलों की विस्तृत प्रभावों को लेकर कोई अध्ययन अथवा रिपोर्ट नहीं है, जिसके आधार पर खड़े किये जाने वाले ढाँचे के प्रभाव के बाद की स्थिति का विस्तृत ब्यौरा दिया जा सकता हो। जिसके बाद प्रभावित समाज अपने बचने के रास्ते ढूँढ सकें।
टिहरी बाँध विरोधियों एवं पर्यावरणविदों एवं वैज्ञानिकों की सलाह पर सन् 1980 में पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने एस.के. राय की अध्यक्षता में बाँध के पर्यावरण प्रभावों पर गठित कार्यकारी दल की रिपोर्ट में भी कहा गया था कि यहाँ चारों ओर जितनी भी चट्टानें हैं, वह बहुत कमजोर एवं विखण्डनशील हैं।
इस बाँध की परियोजना रिपोर्ट में भी स्वयं यह बात स्वीकार की गई है कि जितनी भी चट्टानें बाहर दिखाई देती हैं, मुख्यतः वे सभी-की-सभी नाजुक और क्षरणशील है।
वॉडिया भूगर्भ विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. मजारी ने नवम्बर 1983 में कार्यकारी दल को रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें बताया गया था कि बाँध जलाशय के चारों ओर की ज़मीन में अस्थिरता और भूस्खलन के हालात पैदा हो सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि इससे कृषि योग्य भूमि नष्ट हो जाएगी तथा जलाशय की परिधि के गाँव असुरक्षित हो जाएँगे।
कार्यकारी दल की रिपोर्ट के बाद तत्कालीन टिहरी बाँध प्राधिकारियों में हड़कम्प मची, उन्होंने इस रिपोर्ट के निष्कर्षों को गलत ठहराने का प्रयास किया, लेकिन डॉ. मजारी द्वारा पहाड़ी ढलानों की स्थिरता को लेकर बनाए गए मानचित्र का जबाव वे अब तक नहीं दे सके। उसका उत्तर भूस्खलन के रूप में मिल रहा है, जहाँ बरसात की रातों में लोग खौफ में जीते हैं।
भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) द्वारा प्रकाशित टिहरी बाँध की रिपोर्ट पर गौर किया जाय, तो जिन गाँव के लगभग डेढ़ लाख लोगों को पहले विस्थापित किया गया है। इतने ही संख्या में झील के चारों ओर संकट में रह रहे लोगों को अन्यत्र बसाना आवश्यक हो जाएगा।
टिहरी बाँध में समाहित भागीरथी और भिलंगना नदियों के किनारों पर अनेक स्थानों पर भूस्खलन क्षेत्र है। इनमें से कंग़साली, डोबरा तथा स्यांसू के ऊपर नदी धारा पर स्थित भूस्खलन क्षेत्र प्रमुख है। इसी तरह रोलाकोट के आस-पास भूस्खलन क्षेत्र बन जाने की सम्भावना व्यक्त की गई थी। भिलंगना घाटी में नन्दगाँव, खांड, गडोलिया आदि कई स्थान चिन्हित किये गए थे।
इन सभी क्षेत्रों में मौजूदा स्थिति में भूस्खलन की समस्या पैदा हो गई है। हर साल बाँध में पानी बढ़ने और कम होने के प्रभाव से यहाँ के गाँव अस्थिर हो गए हैं, जिन्हें ऊँची अदालतों के सामने नतमस्तक होकर पुनर्वास के लिये राज्य सरकार को सूचित करवाना पड़ता है।
दूसरी ओर टिहरी बाँध के चारों ओर सौड़, उप्पू, डांग, मोटणा, भैंगा, जसपुर, डोबरा, पलाम, भल्डियाना और धरवालगाँव में मलेरिया और वाइरल का प्रकोप फैल रहा है। 7-8 सितम्बर, 2015 को सौ से अधिक लोगों को तेज बुखार, सिर दर्द, बदन दर्द होने से नई टिहरी जिला अस्पताल में भर्ती होना पड़ा।
मरीजों की इतनी अधिक संख्या थी जिन्हें क्लीनिकों के बाहर भी लेटना पड़ा है। और दो लोगों की मौत भी हुई है। इसका कारण है कि टिहरी झील का जलस्तर ऊपर बढ़ने से झाड़ियों और अन्य स्थानों पर मच्छर पैदा हो गए हैं, जो झील से सटे ग्रामीण क्षेत्रों में भारी परेशानी पैदा कर रहें हैं। झील के किनारे बहकर आई लकड़ी और अन्य गन्दगी भी इसका कारण है।
यहाँ झील के किनारे रहने वाले लोगों का कहना है कि झील के पानी में उन्हें दुर्गन्ध महसूस हो रही है। टिहरी जल विकास निगम कई स्थानों पर अपने वैज्ञानिकों को भूस्खलन क्षेत्र के उपचार के लिये भेजता है, लेकिन उनके जलाशय से उत्पन्न भूस्खलन को वे नहीं रोक पा रहे हैं। तो बिमारी का इलाज तो इससे भी मुश्किल है।
पहाड़ों की शान्त वादियों और सन्तुलित पर्यावरण को बिगाड़ने वाली विकास की इस शैली का उत्तर कैसे दिया जाये। यह तभी सम्भव है जब इसकी वैज्ञानिक सत्यता को नकारने की राजनीति बन्द होगी और इस पर प्रभावित क्षेत्रों के बीच जाकर प्रभावों का विवेकपूर्ण ढंग से आकलन करना प्राथमिकता हो।
टिहरी बाँध पर 2000 मेगावाट के हिसाब से निर्माण के 35 वर्षों में अरबों रुपए खर्च हुये थे, लेकिन इसकी सच्चाई देखें तो छिपी सूचना के आधार पर एक हजार मेगावाट विद्युत ही पैदा करती है। जो न यहाँ के प्रभावितों को रोशन कर सकी ओर न ही पलायन रोक सकी हैं। स्थानीय स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली ऐसी परियोजना के निर्माण में पहले लोगों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार की जरूरत है।
टिहरी बाँध से उत्पन्न भूस्खलन, बीमारी, विस्थापन के अलावा एक और समस्या है, जिस पर खामोशी बनी है, वह है, बाँध में लगातार बढ़ रहे ‘गाद‘ के कारण जल स्तर ऊपर उठ रहा है। भागीरथी ओर भिलंगना नदियों की 20 सहायक जल धाराएँ हैं, जहाँ से मौजूदा हालात में भूस्खलन जारी है।
टनों मलबा बाँध में जमा हो रहा है जिसके कारण बिजली उत्पादन और बाँध की उम्र पर भी सवाल खड़ा होता है। एक अनुमान है कि प्रतिवर्ष वास्तविक गाद 16.53 हेक्टेयर मी./100 वर्ग किलोमीटर झील में भर रहा है। इससे डेल्टा बनने के प्रमाण सामने आ रहे हैं। इन सच्चाइयों को वैज्ञानिकों ने पहले ही अपनी दर्जनों रिपोर्टों में खुलासा किया है। जिसे रोज ही खारिज किया जाता है, लेकिन प्रकृति इसका उत्तर दे रही है।
इसलिये जहाँ पर इस तरह की विशालकाय विस्थापन जनित विकास परियोजना बनती है। वहाँ पर पहले प्रतिकूल प्रभावों को ध्यान में रखकर भी सोचा जा सकता है। ऐसे तथ्यों से रोज ही किनारा नहीं की जानी चाहिए।
(लेखक पर्यावरण संरक्षण से जुड़े गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
सन् 2004 में टिहरी बाँध जलाशय में दर्जनों गाँव डुबाने का सच सबके सामने आया है। इसके बाद आशंका थी कि जलाशय की नमी के प्रभाव से चारों ओर की चट्टानें अस्थिर हो सकती है। अब इसका प्रभाव धीरे-धीरे पिछले 10 सालों में बाँध के चारों ओर असंख्य भूस्खलन एवं दरारों के रूप में सामने आ गया है। 42 वर्ग किलोमीटर में फैली झील के ऊपर टिहरी एवं उत्तरकाशी के 140 गाँवों पर भूस्खलन का संकट मँडरा रहा है।
ग़ौरतलब है कि हिमालय क्षेत्र में अभी मौजूद एवं निर्माणाधीन बाँध स्थलों की विस्तृत प्रभावों को लेकर कोई अध्ययन अथवा रिपोर्ट नहीं है, जिसके आधार पर खड़े किये जाने वाले ढाँचे के प्रभाव के बाद की स्थिति का विस्तृत ब्यौरा दिया जा सकता हो। जिसके बाद प्रभावित समाज अपने बचने के रास्ते ढूँढ सकें।
टिहरी बाँध विरोधियों एवं पर्यावरणविदों एवं वैज्ञानिकों की सलाह पर सन् 1980 में पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने एस.के. राय की अध्यक्षता में बाँध के पर्यावरण प्रभावों पर गठित कार्यकारी दल की रिपोर्ट में भी कहा गया था कि यहाँ चारों ओर जितनी भी चट्टानें हैं, वह बहुत कमजोर एवं विखण्डनशील हैं।
इस बाँध की परियोजना रिपोर्ट में भी स्वयं यह बात स्वीकार की गई है कि जितनी भी चट्टानें बाहर दिखाई देती हैं, मुख्यतः वे सभी-की-सभी नाजुक और क्षरणशील है।
वॉडिया भूगर्भ विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. मजारी ने नवम्बर 1983 में कार्यकारी दल को रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें बताया गया था कि बाँध जलाशय के चारों ओर की ज़मीन में अस्थिरता और भूस्खलन के हालात पैदा हो सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि इससे कृषि योग्य भूमि नष्ट हो जाएगी तथा जलाशय की परिधि के गाँव असुरक्षित हो जाएँगे।
कार्यकारी दल की रिपोर्ट के बाद तत्कालीन टिहरी बाँध प्राधिकारियों में हड़कम्प मची, उन्होंने इस रिपोर्ट के निष्कर्षों को गलत ठहराने का प्रयास किया, लेकिन डॉ. मजारी द्वारा पहाड़ी ढलानों की स्थिरता को लेकर बनाए गए मानचित्र का जबाव वे अब तक नहीं दे सके। उसका उत्तर भूस्खलन के रूप में मिल रहा है, जहाँ बरसात की रातों में लोग खौफ में जीते हैं।
भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) द्वारा प्रकाशित टिहरी बाँध की रिपोर्ट पर गौर किया जाय, तो जिन गाँव के लगभग डेढ़ लाख लोगों को पहले विस्थापित किया गया है। इतने ही संख्या में झील के चारों ओर संकट में रह रहे लोगों को अन्यत्र बसाना आवश्यक हो जाएगा।
टिहरी बाँध में समाहित भागीरथी और भिलंगना नदियों के किनारों पर अनेक स्थानों पर भूस्खलन क्षेत्र है। इनमें से कंग़साली, डोबरा तथा स्यांसू के ऊपर नदी धारा पर स्थित भूस्खलन क्षेत्र प्रमुख है। इसी तरह रोलाकोट के आस-पास भूस्खलन क्षेत्र बन जाने की सम्भावना व्यक्त की गई थी। भिलंगना घाटी में नन्दगाँव, खांड, गडोलिया आदि कई स्थान चिन्हित किये गए थे।
इन सभी क्षेत्रों में मौजूदा स्थिति में भूस्खलन की समस्या पैदा हो गई है। हर साल बाँध में पानी बढ़ने और कम होने के प्रभाव से यहाँ के गाँव अस्थिर हो गए हैं, जिन्हें ऊँची अदालतों के सामने नतमस्तक होकर पुनर्वास के लिये राज्य सरकार को सूचित करवाना पड़ता है।
दूसरी ओर टिहरी बाँध के चारों ओर सौड़, उप्पू, डांग, मोटणा, भैंगा, जसपुर, डोबरा, पलाम, भल्डियाना और धरवालगाँव में मलेरिया और वाइरल का प्रकोप फैल रहा है। 7-8 सितम्बर, 2015 को सौ से अधिक लोगों को तेज बुखार, सिर दर्द, बदन दर्द होने से नई टिहरी जिला अस्पताल में भर्ती होना पड़ा।
मरीजों की इतनी अधिक संख्या थी जिन्हें क्लीनिकों के बाहर भी लेटना पड़ा है। और दो लोगों की मौत भी हुई है। इसका कारण है कि टिहरी झील का जलस्तर ऊपर बढ़ने से झाड़ियों और अन्य स्थानों पर मच्छर पैदा हो गए हैं, जो झील से सटे ग्रामीण क्षेत्रों में भारी परेशानी पैदा कर रहें हैं। झील के किनारे बहकर आई लकड़ी और अन्य गन्दगी भी इसका कारण है।
यहाँ झील के किनारे रहने वाले लोगों का कहना है कि झील के पानी में उन्हें दुर्गन्ध महसूस हो रही है। टिहरी जल विकास निगम कई स्थानों पर अपने वैज्ञानिकों को भूस्खलन क्षेत्र के उपचार के लिये भेजता है, लेकिन उनके जलाशय से उत्पन्न भूस्खलन को वे नहीं रोक पा रहे हैं। तो बिमारी का इलाज तो इससे भी मुश्किल है।
पहाड़ों की शान्त वादियों और सन्तुलित पर्यावरण को बिगाड़ने वाली विकास की इस शैली का उत्तर कैसे दिया जाये। यह तभी सम्भव है जब इसकी वैज्ञानिक सत्यता को नकारने की राजनीति बन्द होगी और इस पर प्रभावित क्षेत्रों के बीच जाकर प्रभावों का विवेकपूर्ण ढंग से आकलन करना प्राथमिकता हो।
टिहरी बाँध पर 2000 मेगावाट के हिसाब से निर्माण के 35 वर्षों में अरबों रुपए खर्च हुये थे, लेकिन इसकी सच्चाई देखें तो छिपी सूचना के आधार पर एक हजार मेगावाट विद्युत ही पैदा करती है। जो न यहाँ के प्रभावितों को रोशन कर सकी ओर न ही पलायन रोक सकी हैं। स्थानीय स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली ऐसी परियोजना के निर्माण में पहले लोगों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार की जरूरत है।
टिहरी बाँध से उत्पन्न भूस्खलन, बीमारी, विस्थापन के अलावा एक और समस्या है, जिस पर खामोशी बनी है, वह है, बाँध में लगातार बढ़ रहे ‘गाद‘ के कारण जल स्तर ऊपर उठ रहा है। भागीरथी ओर भिलंगना नदियों की 20 सहायक जल धाराएँ हैं, जहाँ से मौजूदा हालात में भूस्खलन जारी है।
टनों मलबा बाँध में जमा हो रहा है जिसके कारण बिजली उत्पादन और बाँध की उम्र पर भी सवाल खड़ा होता है। एक अनुमान है कि प्रतिवर्ष वास्तविक गाद 16.53 हेक्टेयर मी./100 वर्ग किलोमीटर झील में भर रहा है। इससे डेल्टा बनने के प्रमाण सामने आ रहे हैं। इन सच्चाइयों को वैज्ञानिकों ने पहले ही अपनी दर्जनों रिपोर्टों में खुलासा किया है। जिसे रोज ही खारिज किया जाता है, लेकिन प्रकृति इसका उत्तर दे रही है।
इसलिये जहाँ पर इस तरह की विशालकाय विस्थापन जनित विकास परियोजना बनती है। वहाँ पर पहले प्रतिकूल प्रभावों को ध्यान में रखकर भी सोचा जा सकता है। ऐसे तथ्यों से रोज ही किनारा नहीं की जानी चाहिए।
(लेखक पर्यावरण संरक्षण से जुड़े गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं)