उनके लिये चाँद छूने जैसा ही है पीने का पानी लाना

Submitted by RuralWater on Fri, 01/08/2016 - 16:04

अपनी वनौषधियों और सुरम्य प्राकृतिक नजारों के लिये विश्व प्रसिद्ध पातालकोट के मूल निवासी जीवन की सबसे मूलभूत आवश्यकता 'पानी' के लिये संघर्ष कर रहे हैं।


. जिन लोगों को लगता है कि मोबाइल पर इंटरनेट का धीमा चलना या फेसबुक की फ्रीबेसिक्स जैसी पहल ही हमारे समय की सबसे बड़ी समस्या हैं, उनको एक बार मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले स्थित पातालकोट क्षेत्र में अवश्य जाना चाहिए।

समुद्र तल से औसतन 3,000 फीट की ऊँचाई पर बसा पातालकोट अपनी खूबसूरत घाटियों और मेहराबदार पहाड़ियों के चलते पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र भले ही है लेकिन स्थानीय लोगों के लिये वहाँ जिन्दगी काटना लगातार मुश्किल बना हुआ है।

सरकार ने वहाँ स्कूल, चिकित्सालय आदि सब बनवा दिये लेकिन जीवन की सबसे मूलभूत आवश्यकताओं में से एक पानी की कमी सही मायनों में इन सब पर 'पानी फेर' रही है।

अपनी वनौषधियों, मनोरम प्राकृतिक सौन्दर्य और हाल तक बाहरी दुनिया के सम्पर्क से अछूती संस्कृति के लिये वैश्विक स्तर पर चर्चित पातालकोट क्षेत्र के कई गाँव दिसम्बर-जनवरी के अपेक्षाकृत ठंडे मौसम में भी पानी की भीषण कमी से दोचार हैं।

ऊँची-नीची पहाड़ियों में बसे पातालकोट इलाके में पानी का इकलौता ज़रिया पहाड़ों से निकलने वाली जलधाराएँ ही हैं। पातालकोट क्षेत्र की जल समस्याओं के बारे में हम लम्बे समय से सुनते आ रहे थे इसलिये दिसम्बर महीने के आखिरी दिनों में हमने खुद जाकर हकीक़त की पड़ताल करने की ठानी। हमने अपने इस अध्ययन का केन्द्र बनाया पातालकोट के लगभग मध्य में स्थित गाँव गैलडुब्बा को।

आठ नाले-चार झिरिया लेकिन सब बेकार


कहने को तो गैलडुब्बा के आसपास स्थित पहाड़ों से चार बड़े झरने (स्थानीय गाँववासी इन्हें नाले कहते हैं) और चार छोटी जलधाराएँ (झिरिया) हैं। गाँव वालों की प्यास मिटाने से लेकर अन्य जरूरी काम निपटाने का पूरा दारोमदार इन्हीं जलस्रोतों पर रहता है लेकिन ये अपेक्षाओं का दबाव सहन नहीं कर पाते।

एक वक्त इन जलधाराओं में साल भर ज़बरदस्त बहाव रहा करता था लेकिन मानवीय हस्तक्षेप और जलवायु में धीरे-धीरे आ रहे बदलाव ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है। एक समय आठ जलधाराओं से हरा-भरा यह क्षेत्र अब पानी की कमी से उजाड़ नजर आने लगा है।

गैलडुब्बा का सरकारी चकबंध जो निर्माण के कुछ ही सालों में दरारों के कारण नाकाम हो गयाभारिया जनजाति से ताल्लुक रखने वाले सकालू ने हमें बताया, 'इन आठ में से केवल दो नालों में ही पानी बचा है। हाँ, बारिश के मौसम में इन सभी में पानी रहता है लेकिन अक्टूबर-नवम्बर से पानी की दिक्कत चालू हो जाती है क्योंकि ये जल धारे सूखने लगते हैं। हमारे बाप-दादाओं के जमाने में इनमें इतना तेज बहाव हुआ करता था कि मेढ़ बनाकर हम आसानी से पानी की धारा को अपनी जरूरत के मुताबिक मोड़ लिया करते थे। अब तो पाइप लगाकर भी पानी हमारे घरों तक नहीं पहुँच सकता।'

 

 

कहाँ गया झरनों का पानी?


पानी की विकट कमी और अतीत के लुभावने किस्से सुनकर निश्चित तौर पर मन में यह सवाल पैदा होता है कि आखिर इन झरनों का पानी कहाँ चला गया। स्थानीय आदिवासी इस बारे में कुछ भी बता पाने में सक्षम नहीं हैं और सरकार ने इसे लेकर कोई विशद अध्ययन कराया हो इसकी जानकारी नहीं मिलती।

अनुमान यही लगाया जा सकता है कि समयानुकूल देखभाल न होने और मानवीय गतिविधियाँ बढ़ने के कारण इनके बहाव पर बुरा असर पड़ा है। कुछ झरने सदाबहार से मौसमी झरनों में तब्दील हो गए हैं जबकि कुछ अन्य में नाम मात्र का पानी बहना जारी है।

पातालकोट की घाटी में स्थित एक गाँव

 

 

क्या पानी की कमी और भ्रष्टाचार में कोई रिश्ता है?


सुनने में भले ही यह अजीब लगे लेकिन गैलडुब्बा के जल धारे भ्रष्टाचार और पानी के बीच के रिश्ते का सटीक उदाहरण हैं। गाँव वाले बताते हैं कि एकाधिक बार इन झरनों के आसपास के इलाके को सीमेंट से घेरकर कुंड तैयार करने की कोशिश की गई लेकिन खराब सामग्री से बने वे कुंड एक मौसम भी ठीक से नहीं चल पाये।

इतना ही नहीं गाँव के आसपास पानी को रोकने के लिये कई चेकडैम भी बनाए गए थे लेकिन वे साल भर भी नहीं टिक सके। भरे जाड़े में गाँव के लिये पानी का ज़रिया दो पतली जलधाराएँ और एक कुआँ हैं। कुएँ से पानी लेकर पहाड़ों पर चढ़ना अत्यन्त दुष्कर कार्य है।

 

 

कैसे तर हो धरती और इंसानों का गला?


हालात यह है कि कई गाँव वालों को पानी की अपनी जरूरतें पूरी करने के लिये पहाड़ियों पर मीलों का सफर तय करना पड़ता है। मुहावरों की बोली बोलें तो उनके लिये ऊँचे पहाड़ों से पानी लाना वैसा ही मुश्किल है जैसा चाँद को छूना। लेकिन उनका साहस कहें या मजबूरी वे वर्षों से ऐसा कर रहे हैं।

कुएँ की नम सतह बता रही है कि मानसून बीतते-बीतते जल स्तर चार फुट से अधिक नीचे चला गयानहाने धोने का काम वे भले ही झरने के आसपास कर लें लेकिन पीने का पानी तो उनको ढोकर ही अपने घर तक लाना पड़ता है। गैलडुब्बा में ही रहने वाले लालसन गोंड कहते हैं कि उन्होंने कई दफा यहाँ कुआँ खोदने की कोशिश की लेकिन चट्टानी सतह ने हर बार उनकी राह रोक ली। अगर सरकार आसपास के तमाम गाँवों में बहने वाले प्राकृतिक झरनों का पुनरुद्धार करवा दे तो उनको पानी की कोई कमी नहीं रह जाएगी।

 

 

 

 

अतीत की छाया बनी दुद्धि नदी


पातालकोट की प्रमुख घाटी को दुद्धि नदी दो हिस्सों मेंं बाँटती हैं। लेकिन इस नदी में अब कहने भर को पानी रह गया है।

स्थानीय लोग बताते हैं कि एक जमाने में यह नदी ही पानी का सबसे बड़ा स्रोत हुआ करती थी और तब झरनों का रुख वे केवल शौकिया तौर पर किया करते थे। लेकिन प्रदेश की अनेक अन्य नदियों की तरह दुद्धि नदी भी अब अन्तिम साँसें गिन रही है।

गैलडुब्बा में भारिया जनजाति का एक परिवारइतना ही नहीं अगर इस नदी में पर्याप्त पानी होता तो मोटर आदि की मदद से उसे ऊपर नीचे मौजूद गाँवों तक पहुँचाया जा सकता था। इक्का-दुक्का कुएँ ज़रूर हैं जिनमें से बाल्टी या डोल में पानी उठाकर चढ़ाई चढ़ना मानव श्रम की कठिन परीक्षा लेने वाला साबित होता है।

 

 

 

 

पातालकोट की भौगोलिक संरचना


समुद्र तट से औसतन 3000 फीट की ऊँचाई पर बसा पातालकोट छिंदवाड़ा जिले के तामिया ब्लॉक में आता है। यह तकरीबन 79 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली एक घाटी है। पातालकोट के उच्चतम शिखर से देखने पर नीचे गहरी घाटी में रातेड़ और चिमटीपुर गाँव माचिस के छोटे खोखों जैसे नजर आते हैं।

पातालकोट का इलाका 12 गाँवों से मिलकर बना है। ये गाँव हैं घटलिंगा गुढ़ीछत्री, घाना कोड़िया, सुखाभंड-हरमुहुभंजलाम, कारेआम, रातेड़, चिमटीपुर, जड़-मांदल, घर्राकछार, खमारपुर, शेर पंचगेल, मालती-डोमिनी और गैलडुब्बा। हमारे अध्ययन का केन्द्र गैलडुब्बा इन सभी गाँवों के कमोबेश बीचोंबीच स्थित है।

पातालकोट की मुख्य घाटी को दो हिस्सों में बाँटती दुद्धि नदी का एक फाइल चित्र