उपयोगिता की कसौटी पर खरा है हंस सरोवर

Submitted by Hindi on Sat, 06/13/2015 - 12:46

संथाल परगना के पाकुड़ जिले का महेशपुर राज मुख्य केन्द्र देवीनगर है। वर्तमान में यह महेशपुर प्रखण्ड का एक पंचायत है। कभी यहाँ महेशपुर राज नामक छोटी रियासत अस्तित्व में थी। ये जमींदार मुगल प्रशासन के साथ जुड़े थे तथा पहाड़िया प्रदेश की देखभाल और पोषण के लिए जिम्मेदार थे। प्लासी की लड़ाई के बाद विजयी अंग्रेजों ने अपने प्रशासनिक तन्त्र को विकसित किया ताकि पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के माध्यम से वे इन क्षेत्रों को नियन्त्रित कर सकें। कप्तान बोरोनै, पहले ब्रिटिश अधिकारी थे जिन्होंने पहाड़िया पर जीत हासिल करने के लिए एक योजना तैयार की थी।

सिद्धु, कान्हू चाँद और भैरव जैसे संथाल नायकों ने अंग्रेजी हुकूमत को लगातार चुनौती दी। यहाँ राजमहल के घ्वस्त खंडहर और सुरंग द्वार भी हैं जिसका निकास कई इलाकों में था। देवीनगर में सबसे महत्त्वपूर्ण है महेशपुर राज द्वारा खुदवाया गया तालाब। महेशपुर राजपरिवार के वंशज आज भी देवीपुर से लगभग 15 किलोमीटर दूरी पर बांसलोई के तट पर स्थित राजआवास में रहते हैं।

राजपरिवार द्वारा बनया गया तालाब जल प्रबन्धन का नायाव उदाहरण है। आज मौजूदा परिस्थिति में इस तालाब के रख-रखाव के प्रति जनमानस जागरूक नहीं है। कहते हैं कि देवीनगर की जमीन पर पानी ठहरता नहीं है। बरसात के बाद इलाके में पानी का नितान्त अभाव हो जाता है। कुएँ भी मार्च के बाद से सूखने लगतेहैं। पानी की किल्लत का एहसास इस बात से होता है कि सुबह जब लोग टहलने के लिए निकलते हैं तो सभी के हाथ में जार और बर्तन होता है। ये लोग हाई स्कूल के मैदान में लगे बोरिंग से पानी लेते हैं।

ऐसे में देवीनगर में राजपरिवार द्वारा बनवाए गए तालाबों में सालों भर पानी रहता है। वैसे तो यहाँ तालाब कई हैं जिसका उपयोग नहाने से लेकर पीने और सिंचाई के लिए होता है। तालाब बनाने के पीछे राजपरिवार के मन में कई परिकल्पना होगी। इतना तो तय है कि धरती के भीतर जल संरक्षण सतही नमी के दबाव के कारण होता है। वर्षा की बूँदे जमीन पर गिरकर बह जाएगी। इसलिए यह जरूरी है कि पानी जहाँ गिरे वहीं थमे ताकि सजलता पर्याप्त मात्रा में निर्मित हो सके। यदि जल आकाश से गिरते ही आगे बढ़ गया तो धरती सजल नहीं बनेगी। सतही सजलता का शीघ्र वाष्पीकरण होता है। धरती काफी गहराई तक सजल होगी तो सतह पर वाष्पीकरण की बजाय बायोमास उत्पन्न होने की क्रिया उत्पन्न होती है, इससे मिट्टी का संरक्षण होता है। हरियाली होगी तो स्वत: जल का संरक्षण होगा।

पानी रिस-रिस कर पहुँचता रहेगा और धरती की सतह पर अनेक स्तरों पर ड्रेनेज होगा। यह सीधे तौर वैज्ञानिक पहलू है जिसे आम लोग तो समझते हैं, लेकिन आधुनिक लोग नहीं समझते हैं। राजपरिवार के लोगों की शायद यही परिकल्पना रही होगी। संथालपरगना 1855 में जिला के रुप में वजूद में आया। तब से चार बार यहाँ अकाल पड़ चुका है। 1866,1874,1897 और 1919 ईं में अकाल पड़ चुका है इसका उल्लेख डिस्ट्रिक गैजेटियर संथालपरगना में है।

यहाँ का हँस सरोवर लगभग पौने तीन सौ वर्ष पुराना है। इस तालाब के सन्दर्भ सुनी सुनाई मान्यता है कि उन दिनों लगातार तीन वर्षों तक बहुत कम बारिश हुई। लोग भूखे मरने लगे। राजपरिवार ने राजभंडार खोल दिया। उसके बाद राजपरिवार के लोगों ने अनेक तालाब बनवाये। इन्हीं तालाबों में एक है हँस सरोवर। कहते हैं राजपरिवार के लोग उसमें स्नान करते थे। सरोवर के चारों ओर पेड़ लगाए गए, इससे जंगल के होने के साथ-साथ हरियाली का भी एहसास होता है। हँस सरोवर 36 बीघे में है और इसकी आकृति चौकोर है। राजपरिवार के हँसो के विचरण करने के कारण शायद इसका नाम हँस सरोवर पड़ा होगा।

स्थानीय लोग बताते हैं कि पहले तालाब के मध्य में प्रस्तर स्तम्भ था, जिससे तालाब की गहराई का पता चलता था। पानी वाले हिस्से जो बरसात के बाद सूख जाते हैं, वहाँ खेती होती है। इस सरोवर के दक्षिण की ओर लगे सड़क जो गुजरती है वह पश्चिम में देवीपुर की ओर जाती है। पूर्वोत्तर की ओर से प्रवेश मार्ग है। यह सरोवर प्राकृतिक रूप से सुरक्षित तो है। इस सरोवर की खासियत यह है कि इसका पानी सूखता नहीं है। हालाँकि काफी पहले इसे और गहरा खुदवाने की कोशिश की गई, लेकिन थोड़े ही गहराई में पानी का स्रोत निकल आया। लोग इसे देवीनगर की कुलदेवी की कृपा मानते हैं। सदियों पूर्व बड़े टीले पर इसका निर्माण इस मकसद से कराया होगा, ताकि आस-पास की निचली जमीन में रिसनेवाली पानी से नमी कायम रहे। यहाँ धान और गेहूँ की फसल होती है। कहते हैं कि एक वयस्क पेड़ रोजाना आठ से दस लीटर पानी छोड़ता हैै।

चारो ओर हरियाली से घिरे और निरन्तर कायम रहनेवाले पानी ऊँचे जलस्तर से हँस सरोवर सत्य को सत्यापित तो कर रहा है, लेकिन तालाब को स्वच्छ रखने के प्रति जो जागरूकता पहले थी, उसमें काफी ह्रास हुआ है। जिसकी वजह किनारे पर कूड़े-कचड़े का अम्बार है। जल संरक्षण के सन्दर्भ में नारे तो ​बहुत दिए जा रहे हैं, लेकिन सरजमीं पर वह उतरता नहीं दिखता है। वैसे महेशपुर में अनेक तालाब हैं। यहाँ बाँधा पेाखर, कान्हा पोखर, सिद्दार पोखर में भी तालाब हैं जो उपयोगिता की कसौटी पर आज भी खरे हैं। कहते हैं कि बाँधा पोखर में तो पहले बर्तन तक धोना निशिद्ध था। 1990 में तालाब में जब एक दबंग व्यक्ति ने पोखर में पम्प लगाया था तो पूरा गाँव विरोध में उठ खड़ा हुआ।

कारण यह था कि उसके कुकृत्य की वजह से जलस्रोत के खत्म होने की आशंका तेज हो गई। अंचलाधिकारी और थानेदार की मौजूदगी में पंचायत बैठी और उस व्यक्ति को मोटरपम्प न लगाने की चेतावनी दी गई। पानी ​को सहेजने के लिए समाज को तो आगे आना ही होगा।