2200 मीटर की ऊँचाई पर स्थित उफरैखाल जैसे खूबसूरत स्थल के आसपास के नौले-धारे सूख चुके थे। ग्रामीणों को हलक तर करने को कई-कई किमी की दूरी पैदल नापकर पानी की व्यवस्था करनी पड़ती थी। खासकर पहाड़ की रीढ़ मानी जानी वाली महिलाओं का अधिकांश वक्त इसमें जाया हो रहा था। हलक तर करने को तो पानी मिल रहा था, लेकिन मवेशियों के लिये इसकी व्यवस्था खासी मुश्किल हो रही थी। साथ ही पास की पहाड़ी भी सूख रही थी। 1986 तक हालात और ज्यादा खराब हो चुके थे।
गंगा और यमुना जैसी नदियों का उद्गम उत्तराखण्ड है। ये नदियाँ न सिर्फ उत्तराखण्ड, बल्कि देश के अन्य राज्यों की प्यास भी बुझा रही हैं। अब विडम्बना देखिए कि गंगा-यमुना के मायके यानी उत्तराखण्ड के पर्वतीय इलाकों के लोग ही प्यासे हैं। इसे देखते हुए ही बारिश की बूँदों को सहेजने की कोशिशें यहाँ परम्परा का हिस्सा बनी।ब्रिटिश गढ़वाल से पहले तक गढ़वाल क्षेत्र में ही 3200 से अधिक चाल-खाल और हजारों की संख्या में नौले-धारे जीवित थे। और तो और खालों के नाम ही स्थानों का नामकरण भी हुआ। जयहरीखाल, गूमखाल, रीठाखाल, चौबट्टाखाल, बेदीखाल ऐसे अनेक कस्बाई इलाकों के नाम वहाँ बनी खालों के नाम पर ही पड़े।
ब्रितानवी हुकूमत के आने के बाद धीरे-धीरे इस परम्परा का लोप हुआ और वर्षाजल सहेजने को बनी ये खालें (बड़े तालाब) गायब होते चले गए और आज तो ये मिट ही चुकी हैं। लेकिन, पौड़ी जिले के उफरैखाल क्षेत्र में प्रचार-प्रसार से दूर रहते हुए एक भगीरथ सच्चिदानन्द भारती ने पानी के इस कार्य को फिर से पुनर्जीवित किया और आज उफरैखाल से लगी गाडखर्क की पहाड़ी पर 30 हजार जलतलैया तैयार कर वहाँ प्रतिवर्ष एक करोड़ लीटर से अधिक वर्षाजल का संचय किया जा रहा है। इससे न सिर्फ सूखी पहाड़ी पर हरियाली लौटी, बल्कि इससे लगकर बहने वाला बरसाती नाला सदानीरा में तब्दील हो गया। इसे नाम दिया गया है ‘गाड़गंगा’ पिछले छह साल से यह गंगा गाडखर्क गाँव के 25 परिवारों की प्यास बुझा रही है।
उफरैखाल क्षेत्र में नौले-धारों के पुनर्जीवित होने की कहानी शुरू होती है 1979 से, जब इंटर कॉलेज उफरैखाल में बतौर शिक्षक तैनात हुए सच्चिदानन्द भारती। तब पूरे इलाके में पानी का संकट था और उफरैखाल से लगी सूखी पहाड़ी हर किसी को उदास कर देती थी। दरअसल, सच्चिदानन्द भारती पढ़ाई के दौरान 1974 में प्रसिद्ध चिपको आन्दोलन से जुड़े थे, सो पेड़ों को बचाने का संकल्प तो पहले से ही मन में था। उफरैखाल पहुँचकर वहाँ के हालात देखकर पानी को लेकर कार्य करने का संकल्प भी उन्होंने लिया।
करीब 2200 मीटर की ऊँचाई पर स्थित उफरैखाल जैसे खूबसूरत स्थल के आसपास के नौले-धारे सूख चुके थे। ग्रामीणों को हलक तर करने को कई-कई किमी की दूरी पैदल नापकर पानी की व्यवस्था करनी पड़ती थी। खासकर पहाड़ की रीढ़ मानी जानी वाली महिलाओं का अधिकांश वक्त इसमें जाया हो रहा था। हलक तर करने को तो पानी मिल रहा था, लेकिन मवेशियों के लिये इसकी व्यवस्था खासी मुश्किल हो रही थी। साथ ही पास की पहाड़ी भी सूख रही थी। 1986 तक हालात और ज्यादा खराब हो चुके थे।
इस सबको देख सच्चिदानन्द भारती इतने द्रवित हुए कि उन्होंने बारिश की बूँदों को सहेजकर नौले-धारों को पुनर्जीवित करने का निश्चय किया। काम आसान नहीं था। बारिश के पानी को सहेजने की सौ-डेढ़ सौ साल पुरानी परम्परा को जिन्दा करना था। लोगों को जागरूक किया गया तो महिला मंगल दलों ने भी इसमें भागीदारी का ऐलान कर दिया।
बस फिर क्या था, सबसे पहले उफरैखाल से लगी गाडखर्क की पहाड़ी को पानी के कार्य के लिये लिया गया। काम कठिन था, लेकिन हौसले बुलन्द हों तो फिर कोई मुश्किल सामने नहीं आती। 1987 में वर्षाजल संरक्षण के लिये कार्य की शुरुआत हुई, लेकिन विधिवत शुभारम्भ किया गया वर्ष 1989 में। पानी के इस कार्य में चिन्तक अनुपम मिश्र का साथ भी मिला। सच्चिदानन्द भारती ने इसे मुहिम को नाम दिया पाणी राखो आन्दोलन।
इस आन्दोलन के तहत गाडखर्क की इस पहाड़ी पर एक-एक घनमीटर की 20 हजार छोटी-छोटी जलतलैया और 10 हजार चाल-खाल तैयार की गईं। साथ ही बांज, तिलंज जैसे पानी को सहेजने में सहायक पेड़ों के पौधों का रोपण किया। अगले पाँच सालों में मुहिम के नतीजे दिखने लगे। सूखी पहाड़ी पर हरियाली लौटने लगी तो पहाड़ से लगकर बहने वाला बरसाती नाले में भी पानी साल भर रहने लगा।
भीषण गर्मी में भी इस बरसाती नाले में छह लीटर प्रति मिनट पानी का बहाव रहने लगा। यानी एक बरसाती नाला सदानीरा में तब्दील हो गया। इससे न सिर्फ भारती बल्कि आसपास के गाँवों के ग्रामीणों के चेहरे भी खिल उठे। यह स्वाभाविक था। आखिर हलक तर करने के लिये गाँव के पास ही पानी का इन्तजाम हो गया था। 1999 में उफरैखाल में आयोजित कार्यक्रम में इस बरसाती नाले को नाम दिया गया ‘गाड़गंगा’। इतिहासकार शेखर पाठक, ओमप्रकाश आदि की मौजूदगी में यह नामकरण हुआ। आज यही गाड़गंगा गाडखर्क के लोगों की प्यास बुझा रही है। इसी नदी से 2010 में गाँव के लिये पेयजल योजना बनाई गई।
उत्तराखण्ड में पानी का यह पहला प्रयास था, जब एक और गंगा धरती पर उतरी। बुद्धिजीवियों ने इस अभिनव प्रयोग की न सिर्फ भूरि-भूरि प्रशंसा की, बल्कि उफरैखाल जाकर इस प्रयोग को देखा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन प्रमुख केसी सुदर्शन ने भी उफरैखाल पहुँचकर भारती की पीठ थपथपाई। और-तो-और सिक्किम समेत पूर्वाेत्तर राज्यों की सरकारों ने अपने प्रतिनिधि यहाँ भेजे, ताकि वे भी अपने यहाँ पर्वतीय क्षेत्र में ऐसी ही मुहिम को शुरू कर सकें।
26 गाँवों में भी जिन्दा हुए जलस्रोत
उफरैखाल की पहल के रंग लाने के साथ ही ‘भगीरथ’ के रूप में लोकप्रिय हुए सच्चिदानन्द भारती ने उफरैखाल की यह मुहिम पौड़ी जिले की चौथान और ढौंडियालस्यूं पट्टियों में ले जाने का निश्चय किया गया। चौथान पट्टी के जैंती, जंदरिया, मनियारगाँव, बसोला, ग्वालखिल, भरनौं, उखल्यूं, स्यूंसाल, कांडई, कफलगाँव, मैरागाड, डांडखिल और ढौंडियालस्यूं पट्टी के गाडखर्क, उफरैखाल, राजखर्क, डोभालगाँव, भराड़ीधार, भतपौं, कुंदनपुर, डुल्मोट, उलियाणी, डांडखिल, ढौंड, जुई, सिमखोली में भी बारिश की बूँदों को सहेजने के लिये जलतलैया बनाई गई। साथ ही पौधरोपण भी किया गया। इसका परिणाम ये रहा कि इन गाँवों में भी जलस्रोत न सिर्फ रिचार्ज हुए, बल्कि पानी के संकट से भी निजात मिली।
वनाग्नि से महफूज गाडखर्क की पहाड़ी
उफरैखाल में गाडखर्क की पहाड़ी पर अब वर्ष भर नमी रहती है और वहाँ निखर आया है अच्छा-खासा जंगल। इस साल जब फायर सीजन में उत्तराखण्ड में जहाँ लगभग सभी जंगलों में आग लगी, वहीं इस पहाड़ी में मौजूद नमी के चलते आग वहाँ के वनों को छू भी नहीं पाई।
वन महकमे ने लिया सबक
बारिश की बूँदों को सहेजने के लिये उफरैखाल में हुई इस पहल से उत्तराखण्ड के वन महकमे ने भी सबक लिया है। हर साल वनों में आग की घटनाओं से परेशान वन विभाग ने वर्षाजल संरक्षण के इन पारम्परिक तौर-तरीकों को जंगलों में धरातल पर उतारने का निश्चय किया है। इस कड़ी में चाल-खाल के साथ ही लाखों की संख्या में ट्रेंच बनाए जा रहे हैं।
(लेखक दैनिक जागरण देहरादून में वरिष्ठ संवाददाता हैं।)