उत्तराखंड में इस साल अब तक पानी की स्थिति बहुत विकट रही है। जाड़ों में बहुत कम हिमपात होने के कारण सन् 2009 की गर्मियों में बर्फ पिघलने से मिलने वाले पानी की बहुत कमी रही। हिमनद से बनने वाली भागीरथी और अलकनन्दा जैसी नदियों में गर्मियों में पानी का औसत प्रवाह लगभग 50 प्रतिशत कम हो गया। गर्मियों में अतिरिक्त जल विद्युत का उत्पादन करने वाले उत्तराखंड राज्य को इस बार अन्य राज्यों से बिजली खरीदनी पड़ी। जाड़ों में कम वर्षा व कम हिमपात होने के कारण ही इस बार जल स्रोत व धारे जल्दी ही सूख गए, जिससे पूरे राज्य में पर्वतवासियों को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
ग्रामीण जल आपूर्ति
उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र के गाँवों में ग्रामीण जल आपूर्ति योजनाओं की विश्वसनीयता हमेशा ही संदिग्ध रही है। उनमें से कई गर्मियों में सबसे ज्यादा जरूरत के समय बेकार हो जाती हैं। बाकी स्रोत के ठप हो जाने से स्थाई तौर पर बेकार हो जाती हैं। उत्तराखंड जल संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार राज्य के 11 पहाड़ी जिलों में 500 जल स्रोतों में पानी का प्रवाह 50 प्रतिशत से ज्यादा घट गया। सबसे ज्यादा बुरा असर पौड़ी, टिहरी और चम्पावत जिलों पर पड़ा है।
सरकारी आँकड़ों से पता चलता है कि उत्तराखंड की जल आपूर्ति एजेंसियाँ (जल संस्थान व जल निगम) राज्य की प्रायः सभी बस्तियों में पाइपलाइन बिछाने में सफल रही हैं। परन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या वे प्रत्येक नागरिक को प्रतिदिन 40 लीटर साफ पानी सुलभ करवाने के मानदंड का पालन कर पा रही हैं। भारत की दसवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में कहा गया है कि सरकारी रिपोर्टों में भौतिक और वित्तीय लक्ष्यों को ज्यादा महत्व दिया जाता है, जबकि गुणवत्ता, विश्वसनीयता और सेवा की निरन्तरता पर जोर दिया जाना चाहिए।
देहरादून स्थित पीपल्स साइंस इंस्टीट्यूट ने जमीनी हकीकत के बारे में ये दिलचस्प तथ्य उजागर किये हैं :
सिर्फ एक चौथाई ही ग्रामीण जनता 40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के न्यूनतम मानदंड से अधिक पानी का उपभोग करती है।यद्यपि सरकारी जल आपूर्ति का स्रोत थोड़ी सी दूरी पर होता है परन्तु इन पर औसतन साल में नौ महीने ही निर्भर रहा जा सकता है। गर्मियों में अधिकांश ग्रामीण अपने परम्परागत जल संग्रहण ढाँचे पर आश्रित रहते हैं। परन्तु ये प्रायः ज्यादा दूर होते हैं।
जल वितरण में समानता के आँकड़े दुर्लभ हैं। आम तौर पर सीमित संख्या में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग ही 40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के न्यूनतम स्तर से अधिक का उपभोग करते हैं। इसकी तुलना में आम लोग व बहुसंख्यक आबादी 11 से 20 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन के हिसाब से पानी का उपभोग करते हैं।
शहरी पानी आपूर्ति
पहाड़ी जिलों के अधिकांश शहर पहाड़ की चोटियों पर बसे हुए हैं और जल अभाव का असर उन पर ज्यादा पड़ता है। अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ इसके खास नमूने हैं। पानी के लिए अल्मोड़ा की निर्भरता कोसी नदी पर है, जबकि पिथौरागढ़ सरयू पर निर्भर है। कोसी और सरयू वर्षा पर निर्भर नदियाँ हैं। इनके जलागम क्षेत्र बरबाद हुए हैं। गर्मियों में जब वर्षा पर आश्रित इन नदियों में पानी के प्रवाह की कमी हो जाती है तो शहरों में जल संकट पैदा हो जाता है। इसके अलावा जल वितरण प्रणाली के रखरखाव की कमियों और पाइप लाइनों के रिसाव से समस्या और भी बढ़ जाती है। उत्तराखंड के कई अन्य शहरों की भांति अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ में भी पानी संग्रह करने के कई परम्परागत ढाँचे थे। परन्तु बेतरतीब शहरीकरण होने से जलागम क्षेत्र की बरबादी हुई है और जल स्रोत सूख गए हैं। परन्तु गर्मियों में उन नौलों में लम्बी कतार देखी जा सकती है जिनमें अभी भी पेयजल सुलभ है। मल व्ययन योजना में कमी व स्वच्छता के अभाव के कारण ऊँचे स्थानों पर बने सोक पिट के कारण ढलान में स्थित जल स्रोत प्रदूषित हो गए हैं। पहाड़ के शहरों के तेजी से हो रहे विकास को देखते हुए नए भवनों में, खास तौर पर संस्थाओं के भवनों व होटलों में वर्षा जल का संग्रहण अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।
वनों के कटान से स्रोतों में पानी घटा
नैनीताल जिले में गौला नदी के जलागम क्षेत्र को लेकर किये गए अहम अध्ययन में वल्दिया और बड़त्या ने दिखाया कि जल स्रोतों से पानी कम आने का कारण वनों का कटान है। उन्होंने 41 जल स्रोतों के जल प्रवाह का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि 1952-53 और 1984-85 के बीच जलागम क्षेत्र में वन आवरण में 69.6 प्रतिशत से 56.8 प्रतिशत की कमी हुई है। वर्ष 1956 और 1986 के बीच भीमताल तथा जलागम क्षेत्र में 33 प्रतिशत की कमी आई। परन्तु जल स्रोतों में कमी 25 से 75 प्रतिशत की रही, जिससे अध्ययन क्षेत्र के 40 प्रतिशत गाँव प्रभावित हुए। कुछ जल स्रोत तो पूरी तरह से सूख गए थे। कुमाऊँ के 60 जल स्रोतों के एक अन्य अध्ययन से पता चला कि 10 (17 प्रतिशत) में पानी का प्रवाह बंद हो गया था, 18 (30 प्रतिशत) मौसमी स्रोत बन कर रह गए थे और बाकी 32 (53 प्रतिशत) में प्रवाह में कमी दर्ज की गई। इसका कारण यह बताया गया कि इन स्रोतों के आसपास के बाँज के जंगल कट चुके थे।
कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर कालेज के डॉ. जे. एस. रावत के अनुसंधान अध्ययनों से पता चला कि ऊपरी ढलान में मिश्रित सघन वन हों तो भूजल में 31 प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है। बाँज के पेड़ जल संग्रह में 23 प्रतिशत, चीड़ 16 प्रतिशत, खेत 13 प्रतिशत, बंजर भूमि 5 प्रतिशत और शहरी भूमि सिर्फ 2 प्रतिशत का योगदान करते हैं। डॉ. रावत की सिफारिश है कि पहाड़ की चोटी से 1,000 मीटर से 1,500 मीटर नीचे की तरफ सघन रूप से मिश्रित वन का आवरण होना चाहिए।
क्या करने की आवश्यकता है
कई शताब्दी पहले ऋषि कश्यप ने पानी और जंगलों के बीच सहजीवी रिश्ते की बात प्रतिपादित की थी। इन संसाधनों के लिए समन्वित प्रबंधन की आवश्यकता होती है। आज जल संसाधनों का प्रबंधन प्राथमिक रूप से ऐसे अभियंताओं की जिम्मेदारी है जो जीवन प्रणाली की कोई समझ नहीं रखते हैं। उन्हें केवल जल संसाधनों के दोहन का प्रशिक्षण दिया जाता है। कम से कम इतना तो किया जाना चाहिए कि जल संसाधनों का प्रबंधन करने वाले संस्थानों में अभियन्ताओं के साथ ही वानिकी के लोग भी होने चाहिए।
इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि राज्य में जलागम क्षेत्रों को फिर से प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है। इसके लिए वनीकरण और खास तौर पर ऊपरी ढलान पर चौड़ी पत्तियों वाले विभिन्न प्रजाति के पेड़ लगाने की जरूरत है। चीड़ के पेड़ों का वैज्ञानिक तरीकों से कटान होना चाहिए और उनके स्थान पर चौड़ी पत्तियों वाले पेड़ लगाये जाने चाहिए। वनीकरण के साथ ही जंगलों में वर्षा जल के संचयन के लिए गड्ढे खोदे जाने चाहिए और पानी की निकासी वाले नाले बंद किये जाने चाहिए।
परम्परागत जल रोक ढाँचों और उनके जलागम क्षेत्र को पुनः उपयोगी बनाया जाना चाहिए। ऐसे किसी ढाँचे और जलागम क्षेत्र को पुनः उपयोगी बनाने में प्रायः 50,000 रु. से कम ही खर्च होते हैं। ऐसे ढांचे कम से कम 25 से 50 परिवारों के लिए साल भर पानी की आपूर्ति सुनिश्चित कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि हमें पानी की नियमित आपूर्ति वाले स्रोत पर 500 रु. प्रति व्यक्ति से अधिक निवेश की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
वर्षा जल संग्रहण का काम स्थानीय लोगों द्वारा सेवा की भावना से किया जाना चाहिए। लोगों को नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता रखने वाले स्वयंसेवी संगठन इस दिशा में पहल कर सकते हैं। कई व्यक्तियों, समुदायों और संगठनों ने उत्तराखंड में नियमित आधार पर वर्षा जल के संग्रहण के क्षेत्र में अनुकरणीय काम किया है। दूधातोली लोक विकास संस्थान ने सच्चिदानन्द भारती के नेतृत्व में उत्तराखंड में विशाल जल अभयारण्य विकसित किया है और सूख चुकी जलधारा को पुनः जीवित किया है। कोसी के ऊपरी जलागम क्षेत्रों में कई गाँवों में महिला मंगल दल की महिलाओं ने स्वयं कठिनाई में पड़ने के बावजूद अपने जंगलों की रक्षा का संकल्प किया है। इसी साल इससे पहले पौड़ी और चमोली जिलों में कई लोगों ने दावानल से जूझते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी। सुरईखेत में एक शिक्षक मोहन चन्द्र काण्डपाल ने बड़ी संख्या में ग्रामीणों को अपने जंल संग्रह तंत्र और जलागम क्षेत्र को संरक्षित करने के लिए सक्रिय किया।
वनों का संरक्षण वन विभागों द्वारा नहीं किया जा सकता है। इसमें सामुदायिक भागीदारी परम आवश्यक है। परन्तु वन संरक्षण का नतीजा यह भी होता है कि स्थानीय लोग आसानी से मिलने वाले ईंधन और चारे से वंचित हो जाते हैं तथा जंगल से होकर जाने वाले सीधे रास्तों के बजाय उन्हें लम्बे घुमावदार रास्तों से आना जाना पड़ता है। पहाड़ों के गाँवों में वन संरक्षण को इस रूप में देखा जाना चाहिए कि स्थानीय समुदाय देश के बाकी हिस्सों के लिए परिस्थितिकी संतुलन की सेवा प्रदान कर रहे हैं। इसलिए उन्हें इस सेवा के बदले भुगतान मिलना चाहिए। वनों को कार्बन का कचरा घर कहा जाता है। वनों की रक्षा की एवज में स्थानीय लोगों को पुरस्कृत करने के लिए कार्बन ट्रेडिंग का लाभ उठाया जाना चाहिए।
इस बात के पर्याप्त ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि संस्कार, संस्कृति और नीति ने उत्तराखंड की परम्परागत जल संग्रहण प्रणाली को कायम रखा। प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में दी जाने वाली स्थानीय स्वायत्तता इस परम्परा के मूल में एक अहम कारक के रूप में थी। स्थानीय समुदाय अपने सभी प्राकृतिक संसाधनों के स्वामित्व, इस्तेमाल और प्रबंधन का अधिकार रखते थे। इसके परिणामस्वरूप संसाधनों का समन्वित प्रबंधन संभव हुआ और प्राकृतिक देन की पर्याप्त उत्पादकता सुनिश्चित की जा सकी। आज तो प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन ऐसे अनेक विभागों का विशेषाधिकार बना हुआ है जिनका आपस में कोई तालमेल ही नहीं है। संसाधन प्रबंधन के सारे संस्थागत, कानूनी और नीतिगत ढाँचे की समीक्षा करके उसे नया रूप देने की आवश्यकता है। यह याद रखा जाना चाहिए कि किसान हमें भोजन देते हैं न कि कृषि विभाग के अधिकारी। किसानों को स्वायत्तता प्राप्त है और विभाग उनको सहायता देने का काम करता है। उदारीकरण की धारणा का विस्तार प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के क्षेत्र में भी किये जाने की जरूरत है।