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काव्य संचय- (कविता नदी)
वह आकाशगंगा में बहते-बहते मेरे स्वप्न के किनारे आ लगी है। मैं अपने प्रेम में बहता उसके अभाव में फैल गया हूं चुपचाप। वह चमचमाती बालू पर लड़खड़ाकर चल रही है। अंतरिक्ष का सुनसान उसके पैरों की थापों से धीरे-धीरे कांप रहा है। उसके लंबे खुले बालों में सीपियां, शंख और घोघें उलझ गए हैं।