बस्तर औपनिवेशीय रचना की सटीक मिसाल है। यहां विकास का अर्थ है प्राकृतिक संसाधनों का शोषण। बस्तर को लेकर हुए अनेक अध्ययन यही कहते हैं कि यहां प्राकृतिक संपदा का अपार भंडार है, लेकिन क्या करें, उनका पूरा प्रयोग करने के लिए संचार व्यवस्था ठीक नहीं है। उपनिवेशवादी मनोवृति उन सरकारी दस्तावेजों और प्रकाशनों में भी झलकती है, जो अकसर बस्तर को ‘पिछड़ा इलाका’ और यहां के निवासियों को ‘असभ्य, अज्ञानी और आलसी’ बताते हैं। बाहर के लोग अकसर उनको छल लेते हैं और सैकड़ो रुपये की वन उपज अक्षरशः मुट्ठी भर नमक के बदले में हड़प लेते हैं। बस्तर डिविजन के एक कमिश्नर साहब ने एक सरकारी दस्तावेज में न वनवासियों को मूर्ख बताया और अपनी ही मूर्खता साबित करते हुए लिखा, ‘अगर इन क्षेत्रों में रेलवे और सड़क आदि परिवहन की सुविछाएं पहुंचा दी जाएं तो उनकी शैक्षिक कमी की पूर्ति सौगुनी की जा सकेगी।’ कई प्रशासक यह समझ ही नहीं पाते कि इन्हीं ‘मूर्ख और अज्ञानी’ वनवासियों ने अपनी सादगी भरी जीवन शैली के कारण वन संसाधनों को क्षति पहुंचाए बिना बस्तर का निर्मल स्वरूप सुरक्षित रखा था।
आमतौर पर यहां योजनाओं को बिलकुल अविवेकपूर्ण ढंग से चलाया जाता है। वनवासियों की जन्म दर राष्ट्रीय जन्म दर की तुलना में बहुत कम है, फिर भी उन पर जबरदस्ती परिवार नियाजन कार्यक्रम थोपे जाते हैं। बस्तर के कई प्रखंड़ो ने सबसे अधिक संख्या में नसबंदी कराई है। जिला परिवार नियोजन विभाग की एक रिपोर्ट बताती है कि 1965-83 की अवधि में 156,333 नसबंदियां की गईं जबकि लक्ष्य था 115,880 का। आपातकाल के दौर में, 1976-77 में 6,820 के लक्ष्य के स्थान पर 39,443 नसबंदी कराई गई। दूसरी तरफ मृत्यु दर बढ़ रही है। इसी तरह यहां का विकास चलता रहा तो बहुत जल्दी ही औपनिवेशिक विजय हासिल हो जाएगी। बस्तर के बाहर के गैर-वनवासियों की संख्या वनवासियों से ज्यादा हो जाएगी, वे ही वे हो जाएंगे।
बस्तर के लोग अपने ही आंगन में पराये बनाए जा रहे हैं। एक ओर पैसा प्रधान अर्थनीति फैल रही है तो दूसरी ओर वे उन वनों से वे दूर किए जा रहे हैं, जिन पर उनका पूरा जीवन टिका था। वन उजड़ रहै हैं। वनवासी उखड़ रहे हैं-बस्तर का विकास जारी है।
विकल्प
देश के दूसरे भागों के प्राकृतिक संसाधन तेजी से चुकते, उजड़ते जा रहे हैं। तो बस्तर जैसे क्षेत्र नखलिस्तान के समान हैं। उसे ऐसे आरक्षित भू-भाग के रूप में बनाए रखना चाहिए जो सदाबहार रहे, वनसृजन का सिलसिला जारी रख सके। वानिकी कला को वनवासियों से सीखने का कोई प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाना चाहिए।
बस्तर की अनेक अहितकारी योजनाओं में ‘हितग्राही’ योजना एक अच्छा कदम है। फिर भी साल में मात्र 60 परिवार यह तो प्रतीकात्मक ही माना जाएगा। उस योजना को नए सिरे से बनाना चाहिए ताकि बस्तर में उजाड़े गए 400,000 हेक्टेयर वनक्षेत्र को आबाद करने का व्यापक लक्ष्य पूरा हो सके। बीके रायबर्मन समिति की रिपोर्ट कहती है कि “अगर इन जंगलों को फिर से आबाद करना है तो प्रति परिवार 1.5 हेक्टेयर जमीन उसे आर्थिक दृष्टी से स्वावलंबी बनाने के लिए काफी होगी। प्रति परिवार 2 हेक्टेयर जमीन उसे आर्थिक दृष्टि से स्वालंबी बनाने के लिए काफी होगी।” प्रति परिवार 2 हेक्टेयर जमीन दी जाए तो 200,000 परिवार-पूरे बस्तर जिले की आज की आबादी-लाभान्वित हो सकेंगें।
जहां तक इस कार्यक्रम की लागत का सवाल है, एक मोटा हिसाब किया जा सकता है-गुजरात की तरह हर परिवार को 250 रुपये महीना पांच साल तक दें। पांच साल के बाद पेड़ो के उत्पादों की बिक्री से उस राशि की पूर्ति हो सकती है। कार्यक्रम में 10,000 परिवारों को लें और हर साल दस-दस हजार परिवार जोड़ते जाए तो पांच साल की अवधि में इस कार्यक्रम में 35 करोड़ रुपये लगेंगे। 20 साल में पूरी जमीन आबाद हो सकती है।
क्या बस्तर के लिए इतना खर्च जुटाया जा सकेगा? जी हां, क्योंकि बस्तर से आज सालाना 47 करोड़ रुपये का राजस्व जमा होता है। इसमें से बस्तर पर सिर्फ पांच करोड़ रुपये खर्च होते हैं।
इसलिए इसे तो खर्च भी नहीं कहा जा सकता। यह तो पश्चाताप होगा, उन गलत कामों का जो आजादी के बाद भी देश के एक हिस्से ने अपने ही लोगों के ऊपर किए हैं।