कुछ मित्रों को विकेंद्रीकरण के विचार से कुछ आपत्ति हो सकती है क्योंकि केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण की बहस ने हिन्दुस्तान की विकास यात्रा को बहुत दर्द दिया है। इसलिए मैं इस विचार से कोई परहेज नहीं कर रहा हूं। बस मैं इसके असली मतलब को समझना चाहता हूं और उसे सामने लाना चाहता हूं।प्रश्न यह है कि हम जिन संसाधनों पर विकास करना चाहते हैं उन संसाधनों पर जाने की आवश्यकता ही नहीं है। जिस प्रकार प्रो. शेखर साहब ने बताया कि इसमें मानव, हमारी संस्कृति, हमारे प्राकृतिक संसाधन और हमारी श्रम शक्ति भी है। तो हमें सोचना होगा कि उन संसाधनों को लोगों तक कैसे पहुंचाएं, लोकतंत्र की दिशा और दशा किस तरह से तय करें आदि यह बात केवल उत्तराखंड के संदर्भ में नहीं हो सकती। उत्तराखंड, हिन्दुस्तान संविधान का एक राज्य है। और वो उसी के आधार पर चलता है। इसलिए उसे संदर्भ में लिए बिना बात करने से शायद हमारी बात अधूरी रह सकती है।
जब कांग्रेस स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रही थी तो गांधी जी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने स्वीकार किया कि देश के सभी बड़े नेताओं को लगता था कि देश का विकास या सारी समस्याओं का हल यहां की ग्रामीण गणतंत्र में छिपा है। उस समय हमने एक स्वर में माना कि यह हमारी विकास यात्रा है और हम अपनी सामाजिक आर्थिक वास्तविकताओं के लिए लड़ रहे हैं। मूल स्वर था यह हमारी विकास की यात्रा का।
अब मैं 1950 की बात करूंगा जब हमारा संविधान लागू हुआ। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह हुआ कि जो संविधान कोर्ट में जो प्रादेशात्मक हिस्सा था वो एक चुनौती हो सकता है। हमारे नीति-निर्माताओं ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस मुद्दे को डालने की आवश्यकता नहीं समझी। राज्य स्तर से नीचे की सरकारों का गठन होना था उस मुद्दे के तहत, वो गौण हो गया। वो राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में लगा दिया गया। और हमने उससे ठीक उल्टी अर्थात समुदाय विकास की बात शुरू की। तो देखिए कि ये कितनी विरोधाभास वाली स्थिति है कि जहां से समुदाय का विकास होना था आपने उसको संविधान के प्रादेशात्मक भाग में भी नहीं रखा।
जब विकास में सहयोग नदारद हो गया तो फिर उन्होंने बलवंत राय की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई और कहा कि हम सहयोग को कैसे विकसित करें ? क्योंकि हमने अपने योजना के माॅडल को उच्च स्तर से निम्न स्तर की ओर शुरू किया था। हम केंद्र और राज्य स्तर में योजना बनाएंगे और निचले स्तर पर हमारे नौकरशाह उसे अमल में लाएंगे। क्योंकि संविधान में हमने उपराज्यीय स्तर की एन्टिरीज को तो बनाया ही नहीं। तो ऐसे में शासन कौन करेगा ? शासन केवल नौकरशाही करेगी, आज तक भी जब कोई सज्जन यह कहता है कि आप गांव में भी तानाशाह बना देना चाहते हैं तो बिल्कुल सही कहता है क्योंकि हमने ऐसा ही तंत्र खड़ा किया है जिसमें एक ओर नौकरशाही है तथा दूसरी ओर प्रतिनिधिमूलक प्रजातंत्र।
डिवोल्यूशन आॅफ पावर जिस अर्थ में स्वतंत्रता से पहले था उस रूप में आज तो नहीं कहा गया लेकिन अगर जनभागीदारी विकास की प्रक्रिया में सुनिश्चित करना है तो हमको स्थानीय स्तर पर पंचायतों का गठन करना पड़ेगा।
माफ कीजिएगा, यह पंचायत हमारी परिकल्पना का भाग नहीं है। पंचायत की परिकल्पना और इस पंचायत की स्थापना केवल इसलिए हुई थी कि ये पंचायतें केंद्र से बने हुई योजनाओं को लागू करने में मदद करें। इसीलिए शंका होती है कि ये पंचायतें तो नौकरशाही की तरह ही बड़ा धोखा है।
1978 में पहली बार जनता सरकार ने अशोक मेहता कमेटी गठित की। पहली बार अशोक मेहता कमेटी ने रियल डिवोल्यूशन आॅफ पाॅवर की बात कही थी। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि तब भी यह संविधान के रूप में अध्यादेश के भाग में नहीं आया। अभी भी यह व्यवस्था नीति-निर्देशक तत्वों के अंदर ही है। यह उनकी कृपा पर है कि अस्थायी स्तर पर सरकार शक्ति का विकेंद्रीकरण करेगी या नहीं करेगी। सरकार में अस्थाई स्तर में एम.एल.एज. हैं वे सब राज्य स्तर पर सरकार का अस्तित्व बनेंगी या नहीं। नौकरशाही अपनी शक्ति को कभी भी बांटना नहीं चाहेगी। तो राज्यों में 1957 से अपने-अपने हिसाब से हमारे यहां पंचायतें बननी शुरू हुई। हमारे यहां 77-78 में अशोक मेहता कमेटी के बाद भी वही क्रम चलता रहा। यहां पर मैं दो-तीन उदाहरण जरूर पेश करना चाहूंगा।
अशोक मेहता कमेटी के दृष्टिकोण में उस तरह की पंचायते नहीं बन पाईं। लेकिन पहली बार पश्चिमी बंगाल में 1978 को पंचायतों की स्थापना हुई और वहां पर एक स्थायी भूमि सुधार का कार्यक्रम चला। आप सभी जानते है कि कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले देश में जब तक भूमि सुधार नहीं होता जब तक गरीब के पास अपनी जमीन, अपने संसाधन नहीं होते वो तब तक जड़हीन है और तब तक विकास कार्यक्रमों का कोई अर्थ ही नहीं होता। हमारे यहां ये सबसे बड़ा दुर्भाग्य रहा कि भूदान के जमाने से आज तक कोई भी भू सुधार नहीं हुए। लेकिन किस्मत से पश्चिमी बंगाल में लेफ्ट फ्रंट सरकार जो पिछले 25 साल से आज भी वहां शासन कर रही है। उसने ऐसा प्रयास किया था शायद इसीलिए वो सरकार आज तक स्थिर भी बनी हुई है। लेकिन वहां भी हम जिस ग्रामीण गणतंत्र की परिकल्पना की बात कर रहे हैं, उस रूप में हमारी पंचायतें नहीं आ पा रही हैं।
दूसरा उदाहरण कर्नाटक का है। कर्नाटक में भी जनता दल 1985 में जब शासन में आई थी तो उन्होंने शासन में आने से पहले ‘जनता का शासन‘ का चुनावी नारा दिया था और ये वादा भी किया था कि वो ऐसा ही करेगी। उन्होंने इस वायदे को पूरा करने के लिए कुछ क्रांतिकारी परिवर्तन लागू कर दिए। उस समय डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट से लेकर लगभग सभी लोग जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के अधीन हो गए। लेकिन यह सब ज्यादा दिन तक नहीं चला। लेकिन उस समय भी संवैधानिक सहयोग नहीं था और आज भी संविधान के प्रादेशात्मक भाग में वो अभी भी नहीं आया। तुरंत ही दूसरी सरकार के आने से वो प्रयोग तमिलनाडु के बाद आंध्र प्रदेश में भी खत्म हो गए। और उसके बाद जम्मू कशमीर में भी यही प्रयोग हुआ लेकिन वो भी खत्म हो गया।
यह संदर्भ देने की बात है। मैं आपके सामने उस ऐतिहासिक अनुभव की बात करता हूं जो 1992 तथा बाद में 94 में हुआ। मैं, 1992 में हुए ऐतिहासिक सुधारों की बात करता हूं। 73-74 संवैधानिक सुधार एक्ट हिन्दुस्तान के संविधान के प्रादेशात्मक भाग में आया। मेरा मानना है कि हिन्दुस्तान के जनतंत्र के इतिहास में शायद यह सबसे ऐतिहासिक घटना है। इस संशोधन में कुछ खामियां हो सकती है लेकिन वह जिस स्प्रिट से आया उसे इस देश के लोगों की प्रशंसा की आवश्यकता है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि बिहार स्टेट का उदाहरण देकर मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि आप इसे कोर्ट में लड़ाई करके संवैधानिक रूप से लागू करा सकते हैं। वो आज 10 साल के बाद भी पंचायतों का चुनाव कराने की स्थिति में नहीं है। वहां एक राज्य को छोड़कर अन्य राज्यों में पूंजी स्थिति है। देयर आर मनी स्टेट्स लाइक दैट। जिसका मैं विस्तार से विवरण देना चाहता हूं।
क्या हम भी नए राज्य उत्तराखंड में कुछ ऐसा कर सकते हैं। लड़ाई बहुत कठिन है। नौकरशाही और प्रतिनिधिमूलक व्यवस्था में जिन्हें 2 करोड़ रुपया एम.एल.ए. - एम.पी. फंड में मिल रहा है। इसमें मुझे आशा की किरण नजर आ रही है जब उत्तराखंड की जनता ने इतनी बड़ी लड़ाई लड़कर एक अलग राज्य ले लिया तो यदि हम संवैधानिक अस्त्र के साथ एक लड़ाई लड़ें तो हमें यह व्यवस्था प्राप्त हो सकती है। इसी मान्यता के साथ मैं इस बात को आगे ले जाना चाहता हूं।
मैं यह नहीं कहना चाह रहा हूं कि कहीं कोई प्रयास नहीं हुए। मध्य प्रदेश ने थोड़े बहुत प्रयास किए हैं, मैंने जिन राज्यों के उदाहरण दिए हैं उनमें प्रयास हुए हैं, तमिलनाडु तथा कर्नाटक भी ऐसे ही प्रयास कर रहा है। लेकिन कुछ कारणों से मैं उन्हें एक सफल उदाहरण के रूप में नहीं मानता। मैं उत्तराखंड के मामले में आशान्वित हूं कि हमारे वहां वो सामाजिक-आर्थिक विशेषताएं जीवंत रूप में मौजूद हैं जिस कारण इस तरह की सोशियो-इकोनाॅमिक गुण जीवंत रूप में मौजूद हैं जिस कारण सरकार के विकेंद्रीकृत रूप की आशा व्यक्त की जा सकती है।
1996 में जब केरल में पंचायती राज्य एक्ट भी नहीं बना था तब ई.एम.एस. नम्बूदरीवाद जैसे राजनीतिज्ञ ने एक घोषणा की। हम उनकी प्रशंसा करते हैं उनका पंचायती नियम वैसे ही थे जैसे कि बिहार, मध्य प्रदेश के हो सकतेे थे लेकिन फिर भी उन्होंने घोषणा की। मैं आपको एक चीज और याद दिलाना चाहता हूं कि ई.एम.एस. नम्बूदरीबाद अशोक मेहता कमेटी के मेम्बर भी थे। उनकी समझ, उनकी माक्र्सिस्ट, लेफ्टिस्ट ट्रेनिंग के बावजूद अंततः गांधीयन बनकर वहां पर उन्होंने जो भी काम किया मैं उसे चिन्हित करना चाहता हूं।
उन्होंने 96 में यह घोषणा की कि कुल अस्थायी बजट का 35 से 40 प्रतिशत हम सीधे-सीधे बिना किसी नौकरशाही नियंत्रण के पंचायतों को देंगे। यह जुलाई 96 की बात है। मार्च 97 तक उन्होंने वहां पर विकेंद्रीकृत योजना के लिए योजना शुरू कर दी। इस घोषणा के परिणाम स्वरूप जो बजट, जो भीख नौकरशाही हमारी स्थानीय सरकार को देती है। आपकी नालियों को साफ करने के लिए, कहीं बल्ब फ्यूज है और दूसरा बदल देने के लिए। वहीं भीख-डोल्स वहां भी मिलती थी, और उन डोल्स के तहत पूरे स्टेट के बजट में से स्थानीय सरकार को 20 करोड़ रुपया मिलता था। इस घोषणा के बाद 97 में, यह राशि 1025 करोड़ रुपये हो गई। जो कि कानूनी तथा संवैधानिक रूप से तय भी हो गई कि ये राशि आपको देनी ही पड़ेगी। यहां पर दो भिन्न बातें हैं। इसमें दो प्रक्रियाएं साथ-साथ थी एक तो स्थानीय स्तर पर लोकतांत्रिक संस्थानों को शामिल करना और राजनैतिक शक्ति का लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण। दूसरा है- स्थानीय योजनाओं के अभियान को विकसित करने के लिए अपनी जनता को तैयार करना।
अलगाव में कोई भी राज्य विकास नहीं कर सकता। गांव भी पृथ्थकरण में कभी विकसित नहीं हो सकते। यह बात हम इसलिए उठा रहे हैं कि यह वैश्वीकरण के साथ स्थानीयता की बात से उभरकर निकलता है। हम ग्लोबलाइजेशन के जमाने में उत्तराखंड की बात कर रहे हैं। मैंने जिस केंद्रीकरण की बात की वो पिछले पचास साल की हमारी प्लानिंग रही है जिसके फेल्योर में हमको वैश्वीकरण के दरवाजे पर दस्तक मारने के लिए मजबूर किया है, ग्लोबलाइजेशन उसी केंद्रीकरण की प्रक्रिया को आगे चलकर मजबूत करता है। अभी तक तो कम से कम देश की संपदा हमारे हाथों में तथा राज्य में रहती थी प्रदेश के स्तर पर रहती थी। लेकिन अब ग्लोबलाइजेशन की शक्ति आ गई हैं। इसलिए हम इस बात पर निश्चिंत नहीं हैं कि हमारे पास कितनी संपदा रह गई हैं। यह आगे का केंद्रीकरण है। यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों का खेल है।
उत्तराखंड में एक और सम्बंध चीज है, मैं जिस पर रोशनी डालना चाहता हूं। जब केरल में जनता अभियान की शुरूआत की गई तो हमारे सामने जो सबसे बड़ी समस्या आई वो थी कि सारी जनता पंचायतों की इच्छा नहीं रखती थी। केरल का दर्द है कि वहां पर स्थित एक ग्राम सभा में कम से कम 15 से 20 हजार लोग आते हैं। अब 15-20 हजार लोगों को एक मंच पर लाना मजाक बात नहीं है। जबकि जो लोग यह समझते हैं कि पंचायत बहुत बेकार की चीज है। उन्होंने इसका एक उपाय निकाला उसमें उन्होंने बनी हुई वोटर लिस्ट को शब्दों के हिसाब से अलग-अलग बांट दिया और औसत रूप से जो शब्द 10 से 12 के बीच निकले और शब्दों के हिसाब से जनसंख्या 1500 से 2000 के बीच निकल रही थी।
जो कि इन लोगों को किस तरह से गतिशील किया जाए की समस्या के रूप में सामने आई और पहले-पहले तो यह हाल होता था कि दो हजार लोगों में से 10-5 या 15 लोग आए। लेकिन जहां राजनैतिक इच्छा होती थी और जब लोगों को यह लगता है कि इससे मेरी खुद की इच्छा तय हो रही है तो लोग आगे आएंगे। अर्थशास्त्र का बहुत पुराना नियम है कि बूचड़ की मर्जी से हमें मीट नहीं मिलता बल्कि उसमें उसकी खुद की इच्छा भी शामिल होती है। हम भाषण देकर किसी का विकास नहीं कर सकते। मेरे भाषण से उत्तराखण्ड में योजना नहीं आने वाली है। जिस दिन उत्तराखंड की जनता को यह लगेगा कि यह योजना मेरे हित में है तो उसमें सभी आदमी शामिल हो जाएंगे। केरल की जनता को यही लगा कि यह तो वह पंचायत है ही नहीं जिसकी हम बात करते हैं। इसमें तो मेरे सारे संपत्ति अधिकार छिपे हुए हैं। इसमें तो मेरा पूरा विकास छिपा है। और भी इस काम में अधिक से अधिक लोग जुड़ते जा रहे हैं।
इस उदाहरण के बाद मैं कुछ मुद्दों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं। केरल में इस प्रयोग के सफल होने के पीछे क्या कारण माना जाता है ? वो कारण हमारे यहां है कि नहीं ? मैं यहां पर हुए अध्ययन का कुछ जवाब देना चाहता हूं। उसमें सफलता के लिए कुछ तत्व जिम्मेदार हैं वो हैं- केरल पहला ऐसा राज्य है जहां पर शिक्षा 100 प्रतिशत है। सफलता का दूसरा अहम मुद्दा बहुत अधिक गरीबी केरल राज्य में कभी भी ऐसी स्थिति नहीं रही इसलिए ये दूसरा मुद्दा सफलता का मुद्दा है। वहां पर तीसरा मुद्दा बेहतर स्वास्थ्य और चिकित्सई सेवाओं को मानते हैं। आप सब जानते हैं पूरे विश्व में केरल की नर्सें छाई हुई है। और कभी-कभी तो मुझे लगता है कि वे लोग लगभग पूरे हिन्दुस्तान के ही अस्पतालों की देखरेख कर रहे हैं। और इसी तरह से डॉक्टर भी कर रहे हैं।सबसे अहम जो मैंने भूमि सुधार के संबध में पश्चिमी बंगाल का उदाहरण दिया उसी तरह से केरल में भी भूमि सुधार आज से नहीं बल्कि 1950 से बहुत ही अच्छे तरीके से हुए हैं। ई.एम.एस. नम्बूदरीवाद जैसे नेता, तब भी वहां थे वो पहली बार पचासवीं सदी में ही मुख्यमंत्री बन चुके थे। इस प्रकार इन नेताओं ने भूमि सुधार के लिए बहुत प्रयास किए और जिन-जिन क्षेत्रों में इन्होंने जोर दिया वहां भूमि सुधार बहुत ही अच्छे तरीके से हुए भी हैं।
अगला मुद्दा है बहुत अधिक मात्रा में संगठन कायम करने का। केरल साहित्य समाज में लेबर संगठन से लेकर जमीनी स्तर पर काम करने वाले महिला संगठन, सांस्कृतिक समुदाय, सामूहिक समाज के साथ केरल में स्थित श्रमदान का समाज। इस प्रयास के सफल होने का एक यह तत्व भी जिम्मेदार है।
अगला मुद्दा है कि सरकार ने शुरूआत से ही जो पुनः वितरण नीतियों को बेहतर किया मैं उसका एक उदाहरण पेश करना चाहता हूं। 1990 तक हिन्दुस्तान की आर्थिक वृद्धि दर ढाई से साढे तीन प्रतिशत रही। वहीं केरल वृद्धि दर डेढ़ से ढ़ाई प्रतिशत के बीच घूमती रही। जीवन की तुलना में यूरोप, जापान की प्रत्याशा दर समाज को हैरान कर देने वाली है।
अब मैं उत्तरांचल में आना चाहता हूं। मैं दुबारा से वहां की साक्षरता दर के बारे में नहीं कहना क्योंकि उस बारे में शेखर जी आपको पहले ही बता चुके हैं। वहां कोई चालीस साल की महिला शायद ही अनपढ़ मिले। वहां 2001 में कुल साक्षरता दर 72.2 या 72.4, थी जिसमें 84.1 प्रतिशत पुरूष तथा 40.26 प्रतिशत महिला साक्षरता दर थी। इसकी सबसे अच्छी बात ये है कि 1999 में हमने पिथौरागढ़ में प्राथमिक शिक्षा के विषय में एक अध्ययन किया। उसमें ये निकला था कि अनुसूचित जाति के 96 प्रतिशत बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं। और वहीं हमारे अध्ययन के अनुसार बिहार में यह दर 22 प्रतिशत है, उत्तर प्रदेश में 42 या 46 प्रतिशत है। वहीं उच्च जाति में यह संख्या 100 प्रतिशत थी। इस प्रकार अगली जनगणना तक हो सकता है कि हमारी साक्षरता दर 100 प्रतिशत तक पहुंच जाए।अगला मुद्दा था गरीबी को दूर करना। ये बात सही है कि उत्तराखंड के समाज में बहुत अधिक गरीबी है। लेकिन वो गरीबी संसाधनों या अन्य चीजों के संदर्भ में है क्योंकि उत्तराखंड का गरीब से गरीब तबके के पास भी सिर छुपाने के लिए घर है।
हमारे उत्तराखंड में भूमि सुधार की बहुत अधिक जरूरत है। वहां निजी संपत्ति की बजाय भूमि सुधार की अधिक जरूरत है। जिस 8 प्रतिशत का जिक्र डॉक्टर साहब ने किया उसकी जरूरत नहीं क्योंकि वो तो लोगों के पास पहले से ही है। वहां पर भूमि के पुनः वितरण की आवश्यकता है। जिसका प्रावधान 1973-74 संवैधानिक सुधार एक्ट के तहत 29 वस्तुएं स्थानांतरित होने हैं। जब स्टेट अपना पंचायत राज एक्ट बनाएगी, ग्रामस्वराज का एक्ट बनाएगी तो उसमें 66 प्रतिशत वन भूमि के लिए प्रावधान हो सकते हैं। सीधे रूप में यह साधारण संपत्ति अधिकार को वापस ला सकता है। तो जिस भूमि के मुद्दे पर सब निर्भर है जहां हमारे जंगल, पानी तथा हमारे वन संसाधन फलित हो रहे हैं वो भूमि हस्तांतरित हो सकती है जिस पर बहुत बड़ा खतरा मंडरा रहा है। और यदि ये अभी भी नहीं होता तो आने वाले दो-चार साल में कुछ बचने की संभावना कम ही है।
हमारे यहां बहुत से संगठन किस स्तर पर हैं। चाहे वो पत्रकार, महिला मंच, चाहे सांस्कृतिक दल, प्रवासी पहाड़ी ही क्यों न हों वे सभी माॅस संगठन में उपलब्ध होते हैं। हमारे पास आदर्श स्थिति मौजूद है। यहां मैं, संविधान संशोधन के 73वें-74वें सुधार के 26वें विषय में जल, जंगल और जमीन तीनों को ही स्थानीय विषय के रूप में लिया गया है। जो कि इस सेमिनार का अहम मुद्दा है। इन तीनों विषयों की आम संपत्ति अधिकार को हम ग्रामीण सरकार को वापस कर सकते हैं।
सार ये है कि वर्तमान समय में मौजूद संविधान के प्रावधान के तहत उत्तराखंड के विकास का कोई दृष्टिकोण नजर नहीं आता। तो इसलिए हम विकेंद्रीकरण की योजना के लिए हम दो स्तर पर काम करें। डिवाॅल्यूशन के लिए हमें लड़ना होगा नम्बर एक डिवाॅल्यूशन आॅफ पावर। वो करने के लिए हमें राज्य विधायिका से लड़ना होगा। दूसरा राज्य सरकार को अपनी जनता के कामों को विकेंद्रीकरण करने के लिए एक अभियान शुरू करना होगा।
जब कांग्रेस स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रही थी तो गांधी जी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने स्वीकार किया कि देश के सभी बड़े नेताओं को लगता था कि देश का विकास या सारी समस्याओं का हल यहां की ग्रामीण गणतंत्र में छिपा है। उस समय हमने एक स्वर में माना कि यह हमारी विकास यात्रा है और हम अपनी सामाजिक आर्थिक वास्तविकताओं के लिए लड़ रहे हैं। मूल स्वर था यह हमारी विकास की यात्रा का।
अब मैं 1950 की बात करूंगा जब हमारा संविधान लागू हुआ। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह हुआ कि जो संविधान कोर्ट में जो प्रादेशात्मक हिस्सा था वो एक चुनौती हो सकता है। हमारे नीति-निर्माताओं ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस मुद्दे को डालने की आवश्यकता नहीं समझी। राज्य स्तर से नीचे की सरकारों का गठन होना था उस मुद्दे के तहत, वो गौण हो गया। वो राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में लगा दिया गया। और हमने उससे ठीक उल्टी अर्थात समुदाय विकास की बात शुरू की। तो देखिए कि ये कितनी विरोधाभास वाली स्थिति है कि जहां से समुदाय का विकास होना था आपने उसको संविधान के प्रादेशात्मक भाग में भी नहीं रखा।
जब विकास में सहयोग नदारद हो गया तो फिर उन्होंने बलवंत राय की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई और कहा कि हम सहयोग को कैसे विकसित करें ? क्योंकि हमने अपने योजना के माॅडल को उच्च स्तर से निम्न स्तर की ओर शुरू किया था। हम केंद्र और राज्य स्तर में योजना बनाएंगे और निचले स्तर पर हमारे नौकरशाह उसे अमल में लाएंगे। क्योंकि संविधान में हमने उपराज्यीय स्तर की एन्टिरीज को तो बनाया ही नहीं। तो ऐसे में शासन कौन करेगा ? शासन केवल नौकरशाही करेगी, आज तक भी जब कोई सज्जन यह कहता है कि आप गांव में भी तानाशाह बना देना चाहते हैं तो बिल्कुल सही कहता है क्योंकि हमने ऐसा ही तंत्र खड़ा किया है जिसमें एक ओर नौकरशाही है तथा दूसरी ओर प्रतिनिधिमूलक प्रजातंत्र।
डिवोल्यूशन आॅफ पावर जिस अर्थ में स्वतंत्रता से पहले था उस रूप में आज तो नहीं कहा गया लेकिन अगर जनभागीदारी विकास की प्रक्रिया में सुनिश्चित करना है तो हमको स्थानीय स्तर पर पंचायतों का गठन करना पड़ेगा।
माफ कीजिएगा, यह पंचायत हमारी परिकल्पना का भाग नहीं है। पंचायत की परिकल्पना और इस पंचायत की स्थापना केवल इसलिए हुई थी कि ये पंचायतें केंद्र से बने हुई योजनाओं को लागू करने में मदद करें। इसीलिए शंका होती है कि ये पंचायतें तो नौकरशाही की तरह ही बड़ा धोखा है।
1978 में पहली बार जनता सरकार ने अशोक मेहता कमेटी गठित की। पहली बार अशोक मेहता कमेटी ने रियल डिवोल्यूशन आॅफ पाॅवर की बात कही थी। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि तब भी यह संविधान के रूप में अध्यादेश के भाग में नहीं आया। अभी भी यह व्यवस्था नीति-निर्देशक तत्वों के अंदर ही है। यह उनकी कृपा पर है कि अस्थायी स्तर पर सरकार शक्ति का विकेंद्रीकरण करेगी या नहीं करेगी। सरकार में अस्थाई स्तर में एम.एल.एज. हैं वे सब राज्य स्तर पर सरकार का अस्तित्व बनेंगी या नहीं। नौकरशाही अपनी शक्ति को कभी भी बांटना नहीं चाहेगी। तो राज्यों में 1957 से अपने-अपने हिसाब से हमारे यहां पंचायतें बननी शुरू हुई। हमारे यहां 77-78 में अशोक मेहता कमेटी के बाद भी वही क्रम चलता रहा। यहां पर मैं दो-तीन उदाहरण जरूर पेश करना चाहूंगा।
अशोक मेहता कमेटी के दृष्टिकोण में उस तरह की पंचायते नहीं बन पाईं। लेकिन पहली बार पश्चिमी बंगाल में 1978 को पंचायतों की स्थापना हुई और वहां पर एक स्थायी भूमि सुधार का कार्यक्रम चला। आप सभी जानते है कि कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले देश में जब तक भूमि सुधार नहीं होता जब तक गरीब के पास अपनी जमीन, अपने संसाधन नहीं होते वो तब तक जड़हीन है और तब तक विकास कार्यक्रमों का कोई अर्थ ही नहीं होता। हमारे यहां ये सबसे बड़ा दुर्भाग्य रहा कि भूदान के जमाने से आज तक कोई भी भू सुधार नहीं हुए। लेकिन किस्मत से पश्चिमी बंगाल में लेफ्ट फ्रंट सरकार जो पिछले 25 साल से आज भी वहां शासन कर रही है। उसने ऐसा प्रयास किया था शायद इसीलिए वो सरकार आज तक स्थिर भी बनी हुई है। लेकिन वहां भी हम जिस ग्रामीण गणतंत्र की परिकल्पना की बात कर रहे हैं, उस रूप में हमारी पंचायतें नहीं आ पा रही हैं।
दूसरा उदाहरण कर्नाटक का है। कर्नाटक में भी जनता दल 1985 में जब शासन में आई थी तो उन्होंने शासन में आने से पहले ‘जनता का शासन‘ का चुनावी नारा दिया था और ये वादा भी किया था कि वो ऐसा ही करेगी। उन्होंने इस वायदे को पूरा करने के लिए कुछ क्रांतिकारी परिवर्तन लागू कर दिए। उस समय डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट से लेकर लगभग सभी लोग जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के अधीन हो गए। लेकिन यह सब ज्यादा दिन तक नहीं चला। लेकिन उस समय भी संवैधानिक सहयोग नहीं था और आज भी संविधान के प्रादेशात्मक भाग में वो अभी भी नहीं आया। तुरंत ही दूसरी सरकार के आने से वो प्रयोग तमिलनाडु के बाद आंध्र प्रदेश में भी खत्म हो गए। और उसके बाद जम्मू कशमीर में भी यही प्रयोग हुआ लेकिन वो भी खत्म हो गया।
यह संदर्भ देने की बात है। मैं आपके सामने उस ऐतिहासिक अनुभव की बात करता हूं जो 1992 तथा बाद में 94 में हुआ। मैं, 1992 में हुए ऐतिहासिक सुधारों की बात करता हूं। 73-74 संवैधानिक सुधार एक्ट हिन्दुस्तान के संविधान के प्रादेशात्मक भाग में आया। मेरा मानना है कि हिन्दुस्तान के जनतंत्र के इतिहास में शायद यह सबसे ऐतिहासिक घटना है। इस संशोधन में कुछ खामियां हो सकती है लेकिन वह जिस स्प्रिट से आया उसे इस देश के लोगों की प्रशंसा की आवश्यकता है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि बिहार स्टेट का उदाहरण देकर मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि आप इसे कोर्ट में लड़ाई करके संवैधानिक रूप से लागू करा सकते हैं। वो आज 10 साल के बाद भी पंचायतों का चुनाव कराने की स्थिति में नहीं है। वहां एक राज्य को छोड़कर अन्य राज्यों में पूंजी स्थिति है। देयर आर मनी स्टेट्स लाइक दैट। जिसका मैं विस्तार से विवरण देना चाहता हूं।
क्या हम भी नए राज्य उत्तराखंड में कुछ ऐसा कर सकते हैं। लड़ाई बहुत कठिन है। नौकरशाही और प्रतिनिधिमूलक व्यवस्था में जिन्हें 2 करोड़ रुपया एम.एल.ए. - एम.पी. फंड में मिल रहा है। इसमें मुझे आशा की किरण नजर आ रही है जब उत्तराखंड की जनता ने इतनी बड़ी लड़ाई लड़कर एक अलग राज्य ले लिया तो यदि हम संवैधानिक अस्त्र के साथ एक लड़ाई लड़ें तो हमें यह व्यवस्था प्राप्त हो सकती है। इसी मान्यता के साथ मैं इस बात को आगे ले जाना चाहता हूं।
मैं यह नहीं कहना चाह रहा हूं कि कहीं कोई प्रयास नहीं हुए। मध्य प्रदेश ने थोड़े बहुत प्रयास किए हैं, मैंने जिन राज्यों के उदाहरण दिए हैं उनमें प्रयास हुए हैं, तमिलनाडु तथा कर्नाटक भी ऐसे ही प्रयास कर रहा है। लेकिन कुछ कारणों से मैं उन्हें एक सफल उदाहरण के रूप में नहीं मानता। मैं उत्तराखंड के मामले में आशान्वित हूं कि हमारे वहां वो सामाजिक-आर्थिक विशेषताएं जीवंत रूप में मौजूद हैं जिस कारण इस तरह की सोशियो-इकोनाॅमिक गुण जीवंत रूप में मौजूद हैं जिस कारण सरकार के विकेंद्रीकृत रूप की आशा व्यक्त की जा सकती है।
1996 में जब केरल में पंचायती राज्य एक्ट भी नहीं बना था तब ई.एम.एस. नम्बूदरीवाद जैसे राजनीतिज्ञ ने एक घोषणा की। हम उनकी प्रशंसा करते हैं उनका पंचायती नियम वैसे ही थे जैसे कि बिहार, मध्य प्रदेश के हो सकतेे थे लेकिन फिर भी उन्होंने घोषणा की। मैं आपको एक चीज और याद दिलाना चाहता हूं कि ई.एम.एस. नम्बूदरीबाद अशोक मेहता कमेटी के मेम्बर भी थे। उनकी समझ, उनकी माक्र्सिस्ट, लेफ्टिस्ट ट्रेनिंग के बावजूद अंततः गांधीयन बनकर वहां पर उन्होंने जो भी काम किया मैं उसे चिन्हित करना चाहता हूं।
उन्होंने 96 में यह घोषणा की कि कुल अस्थायी बजट का 35 से 40 प्रतिशत हम सीधे-सीधे बिना किसी नौकरशाही नियंत्रण के पंचायतों को देंगे। यह जुलाई 96 की बात है। मार्च 97 तक उन्होंने वहां पर विकेंद्रीकृत योजना के लिए योजना शुरू कर दी। इस घोषणा के परिणाम स्वरूप जो बजट, जो भीख नौकरशाही हमारी स्थानीय सरकार को देती है। आपकी नालियों को साफ करने के लिए, कहीं बल्ब फ्यूज है और दूसरा बदल देने के लिए। वहीं भीख-डोल्स वहां भी मिलती थी, और उन डोल्स के तहत पूरे स्टेट के बजट में से स्थानीय सरकार को 20 करोड़ रुपया मिलता था। इस घोषणा के बाद 97 में, यह राशि 1025 करोड़ रुपये हो गई। जो कि कानूनी तथा संवैधानिक रूप से तय भी हो गई कि ये राशि आपको देनी ही पड़ेगी। यहां पर दो भिन्न बातें हैं। इसमें दो प्रक्रियाएं साथ-साथ थी एक तो स्थानीय स्तर पर लोकतांत्रिक संस्थानों को शामिल करना और राजनैतिक शक्ति का लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण। दूसरा है- स्थानीय योजनाओं के अभियान को विकसित करने के लिए अपनी जनता को तैयार करना।
अलगाव में कोई भी राज्य विकास नहीं कर सकता। गांव भी पृथ्थकरण में कभी विकसित नहीं हो सकते। यह बात हम इसलिए उठा रहे हैं कि यह वैश्वीकरण के साथ स्थानीयता की बात से उभरकर निकलता है। हम ग्लोबलाइजेशन के जमाने में उत्तराखंड की बात कर रहे हैं। मैंने जिस केंद्रीकरण की बात की वो पिछले पचास साल की हमारी प्लानिंग रही है जिसके फेल्योर में हमको वैश्वीकरण के दरवाजे पर दस्तक मारने के लिए मजबूर किया है, ग्लोबलाइजेशन उसी केंद्रीकरण की प्रक्रिया को आगे चलकर मजबूत करता है। अभी तक तो कम से कम देश की संपदा हमारे हाथों में तथा राज्य में रहती थी प्रदेश के स्तर पर रहती थी। लेकिन अब ग्लोबलाइजेशन की शक्ति आ गई हैं। इसलिए हम इस बात पर निश्चिंत नहीं हैं कि हमारे पास कितनी संपदा रह गई हैं। यह आगे का केंद्रीकरण है। यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों का खेल है।
उत्तराखंड में एक और सम्बंध चीज है, मैं जिस पर रोशनी डालना चाहता हूं। जब केरल में जनता अभियान की शुरूआत की गई तो हमारे सामने जो सबसे बड़ी समस्या आई वो थी कि सारी जनता पंचायतों की इच्छा नहीं रखती थी। केरल का दर्द है कि वहां पर स्थित एक ग्राम सभा में कम से कम 15 से 20 हजार लोग आते हैं। अब 15-20 हजार लोगों को एक मंच पर लाना मजाक बात नहीं है। जबकि जो लोग यह समझते हैं कि पंचायत बहुत बेकार की चीज है। उन्होंने इसका एक उपाय निकाला उसमें उन्होंने बनी हुई वोटर लिस्ट को शब्दों के हिसाब से अलग-अलग बांट दिया और औसत रूप से जो शब्द 10 से 12 के बीच निकले और शब्दों के हिसाब से जनसंख्या 1500 से 2000 के बीच निकल रही थी।
जो कि इन लोगों को किस तरह से गतिशील किया जाए की समस्या के रूप में सामने आई और पहले-पहले तो यह हाल होता था कि दो हजार लोगों में से 10-5 या 15 लोग आए। लेकिन जहां राजनैतिक इच्छा होती थी और जब लोगों को यह लगता है कि इससे मेरी खुद की इच्छा तय हो रही है तो लोग आगे आएंगे। अर्थशास्त्र का बहुत पुराना नियम है कि बूचड़ की मर्जी से हमें मीट नहीं मिलता बल्कि उसमें उसकी खुद की इच्छा भी शामिल होती है। हम भाषण देकर किसी का विकास नहीं कर सकते। मेरे भाषण से उत्तराखण्ड में योजना नहीं आने वाली है। जिस दिन उत्तराखंड की जनता को यह लगेगा कि यह योजना मेरे हित में है तो उसमें सभी आदमी शामिल हो जाएंगे। केरल की जनता को यही लगा कि यह तो वह पंचायत है ही नहीं जिसकी हम बात करते हैं। इसमें तो मेरे सारे संपत्ति अधिकार छिपे हुए हैं। इसमें तो मेरा पूरा विकास छिपा है। और भी इस काम में अधिक से अधिक लोग जुड़ते जा रहे हैं।
इस उदाहरण के बाद मैं कुछ मुद्दों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं। केरल में इस प्रयोग के सफल होने के पीछे क्या कारण माना जाता है ? वो कारण हमारे यहां है कि नहीं ? मैं यहां पर हुए अध्ययन का कुछ जवाब देना चाहता हूं। उसमें सफलता के लिए कुछ तत्व जिम्मेदार हैं वो हैं- केरल पहला ऐसा राज्य है जहां पर शिक्षा 100 प्रतिशत है। सफलता का दूसरा अहम मुद्दा बहुत अधिक गरीबी केरल राज्य में कभी भी ऐसी स्थिति नहीं रही इसलिए ये दूसरा मुद्दा सफलता का मुद्दा है। वहां पर तीसरा मुद्दा बेहतर स्वास्थ्य और चिकित्सई सेवाओं को मानते हैं। आप सब जानते हैं पूरे विश्व में केरल की नर्सें छाई हुई है। और कभी-कभी तो मुझे लगता है कि वे लोग लगभग पूरे हिन्दुस्तान के ही अस्पतालों की देखरेख कर रहे हैं। और इसी तरह से डॉक्टर भी कर रहे हैं।सबसे अहम जो मैंने भूमि सुधार के संबध में पश्चिमी बंगाल का उदाहरण दिया उसी तरह से केरल में भी भूमि सुधार आज से नहीं बल्कि 1950 से बहुत ही अच्छे तरीके से हुए हैं। ई.एम.एस. नम्बूदरीवाद जैसे नेता, तब भी वहां थे वो पहली बार पचासवीं सदी में ही मुख्यमंत्री बन चुके थे। इस प्रकार इन नेताओं ने भूमि सुधार के लिए बहुत प्रयास किए और जिन-जिन क्षेत्रों में इन्होंने जोर दिया वहां भूमि सुधार बहुत ही अच्छे तरीके से हुए भी हैं।
अगला मुद्दा है बहुत अधिक मात्रा में संगठन कायम करने का। केरल साहित्य समाज में लेबर संगठन से लेकर जमीनी स्तर पर काम करने वाले महिला संगठन, सांस्कृतिक समुदाय, सामूहिक समाज के साथ केरल में स्थित श्रमदान का समाज। इस प्रयास के सफल होने का एक यह तत्व भी जिम्मेदार है।
अगला मुद्दा है कि सरकार ने शुरूआत से ही जो पुनः वितरण नीतियों को बेहतर किया मैं उसका एक उदाहरण पेश करना चाहता हूं। 1990 तक हिन्दुस्तान की आर्थिक वृद्धि दर ढाई से साढे तीन प्रतिशत रही। वहीं केरल वृद्धि दर डेढ़ से ढ़ाई प्रतिशत के बीच घूमती रही। जीवन की तुलना में यूरोप, जापान की प्रत्याशा दर समाज को हैरान कर देने वाली है।
अब मैं उत्तरांचल में आना चाहता हूं। मैं दुबारा से वहां की साक्षरता दर के बारे में नहीं कहना क्योंकि उस बारे में शेखर जी आपको पहले ही बता चुके हैं। वहां कोई चालीस साल की महिला शायद ही अनपढ़ मिले। वहां 2001 में कुल साक्षरता दर 72.2 या 72.4, थी जिसमें 84.1 प्रतिशत पुरूष तथा 40.26 प्रतिशत महिला साक्षरता दर थी। इसकी सबसे अच्छी बात ये है कि 1999 में हमने पिथौरागढ़ में प्राथमिक शिक्षा के विषय में एक अध्ययन किया। उसमें ये निकला था कि अनुसूचित जाति के 96 प्रतिशत बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं। और वहीं हमारे अध्ययन के अनुसार बिहार में यह दर 22 प्रतिशत है, उत्तर प्रदेश में 42 या 46 प्रतिशत है। वहीं उच्च जाति में यह संख्या 100 प्रतिशत थी। इस प्रकार अगली जनगणना तक हो सकता है कि हमारी साक्षरता दर 100 प्रतिशत तक पहुंच जाए।अगला मुद्दा था गरीबी को दूर करना। ये बात सही है कि उत्तराखंड के समाज में बहुत अधिक गरीबी है। लेकिन वो गरीबी संसाधनों या अन्य चीजों के संदर्भ में है क्योंकि उत्तराखंड का गरीब से गरीब तबके के पास भी सिर छुपाने के लिए घर है।
हमारे उत्तराखंड में भूमि सुधार की बहुत अधिक जरूरत है। वहां निजी संपत्ति की बजाय भूमि सुधार की अधिक जरूरत है। जिस 8 प्रतिशत का जिक्र डॉक्टर साहब ने किया उसकी जरूरत नहीं क्योंकि वो तो लोगों के पास पहले से ही है। वहां पर भूमि के पुनः वितरण की आवश्यकता है। जिसका प्रावधान 1973-74 संवैधानिक सुधार एक्ट के तहत 29 वस्तुएं स्थानांतरित होने हैं। जब स्टेट अपना पंचायत राज एक्ट बनाएगी, ग्रामस्वराज का एक्ट बनाएगी तो उसमें 66 प्रतिशत वन भूमि के लिए प्रावधान हो सकते हैं। सीधे रूप में यह साधारण संपत्ति अधिकार को वापस ला सकता है। तो जिस भूमि के मुद्दे पर सब निर्भर है जहां हमारे जंगल, पानी तथा हमारे वन संसाधन फलित हो रहे हैं वो भूमि हस्तांतरित हो सकती है जिस पर बहुत बड़ा खतरा मंडरा रहा है। और यदि ये अभी भी नहीं होता तो आने वाले दो-चार साल में कुछ बचने की संभावना कम ही है।
हमारे यहां बहुत से संगठन किस स्तर पर हैं। चाहे वो पत्रकार, महिला मंच, चाहे सांस्कृतिक दल, प्रवासी पहाड़ी ही क्यों न हों वे सभी माॅस संगठन में उपलब्ध होते हैं। हमारे पास आदर्श स्थिति मौजूद है। यहां मैं, संविधान संशोधन के 73वें-74वें सुधार के 26वें विषय में जल, जंगल और जमीन तीनों को ही स्थानीय विषय के रूप में लिया गया है। जो कि इस सेमिनार का अहम मुद्दा है। इन तीनों विषयों की आम संपत्ति अधिकार को हम ग्रामीण सरकार को वापस कर सकते हैं।
सार ये है कि वर्तमान समय में मौजूद संविधान के प्रावधान के तहत उत्तराखंड के विकास का कोई दृष्टिकोण नजर नहीं आता। तो इसलिए हम विकेंद्रीकरण की योजना के लिए हम दो स्तर पर काम करें। डिवाॅल्यूशन के लिए हमें लड़ना होगा नम्बर एक डिवाॅल्यूशन आॅफ पावर। वो करने के लिए हमें राज्य विधायिका से लड़ना होगा। दूसरा राज्य सरकार को अपनी जनता के कामों को विकेंद्रीकरण करने के लिए एक अभियान शुरू करना होगा।