सबसे बड़ी चिंता ये है कि हमने इतना प्रदूषण पैदा कर दिया है कि हमारी समुद्र की सतह पर जो गर्मी रहा करती थी, वो बढ़ रही है और गर्मी बढ़ने के कारण जो हवाएं ठीक से चलनी चाहिए, उसमें विघ्न पड़ गया है। उस विघ्न का भी नाम उन्होंने अलनीनो इफेक्ट कह रखा है। उसके कारण से जो बिचारे बादल आ रहे थे, वे बीच में रुक गए और बाकी के लौट गए बेचारे। अगर बादलों को हवा नहीं ले के आएगी, तो बादलों के पांव तो कोई होते नहीं हैं। अपने आप तो वो चल कर आ नहीं सकते हैं। उनको हवाएं ही लाएंगी। और वो हवाएं अगर गड़बड़ हो गई हैं, तो क्या होगा?
कल मैं पटना से चला। वो हफ्ते में दो दिन चलने वाली गाड़ी है, इसलिए उसमें ज्यादा भीड़ नहीं थी। मैं जाकर अपनी जगह पर बैठा। सामने एक विदेशी लेटे हुए थे। थोड़ी दूर गाड़ी आगे निकली। उन्होंने देखा कि उस डिब्बे में बैठे हुए लोग आकर मेरे दस्तखत लेने की कोशिश कर रहे हैं, मुझसे बात कर रहे हैं। उनको लगा कि ऐसे लेटे रहना शायद ठीक नहीं है। उन्होंने उठकर किसी से जाकर बात की होगी कि ये कौन हैं। फिर उन्होंने मुझसे माफी मांगी और कहा कि मैं इतनी देर पैर पसारे आपके सामने इस तरह से लेटा हुआ हूं तो ये मैं असभ्यता कर रहा था। मुझे बहुत अच्छा लग रहा है कि मैं आज आपके साथ यात्रा कर रहा हूं।वे जर्मनी के पत्रकार थे। एक साल की छुट्टी लेकर दुनिया घूमने के लिए निकले हुए हैं। अभी वो बिलकुल चले आ रहे थे चीन से। वे चीन से नेपाल आए और नेपाल से दार्जिलिंग आए और दार्जिलिंग से बस पकड़कर पटना। पटना स्टेशन के बाहर भोजन वगरैह करके बहुत थके हुए थे, इसलिए लेट गए होंगे। जवान आदमी, ठीक बात कर रहे थे। पूछा कि आप क्यों जा रहे हैं वहां। मैंने बताया कि वहां सर्व सेवा संघ में आधुनिक सभ्यता के संकट पर ‘हिन्द स्वराज’ की चर्चा है। जर्मनी के किसी प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में पढ़े अच्छे पत्रकार थे वे। उन्होंने कहा कि हां संकट तो सही है लेकिनआप हम क्या कर लेंगे। सारी दुनिया तो उसी तरफ दौड़ कर जाना चाहती है। सारे लोग ये चाहते हैं कि उनका जीवन स्तर वैसा ही हो जाए जैसा कि अमेरिका के लोगों का है।
हम भूल जाते हैं कि अमेरिका में दुनिया के सिर्फ 6 प्रतिशत लोग रहते हैं और वो दुनिया के 70-80 प्रतिशत संसाधनों का उपयोग करते हैं। और इसलिए अगर दुनिया के 100 प्रतिशत लोग उसी जीवन स्तर की मांग करने लगे तो दुनिया में कुछ बचने वाला नहीं है। किसी के लिए कुछ नहीं बचेगा। वो कहने लगे कि ये तो आप बिलकुल ठीक कहते हैं लेकिन मैं अभी चीन से आ रहा हूं। इंडोनेशिया गया था। मैं देखता हूं कि सब तरफ लोग वही चाहते हैं। सबको ये लगता है कि हमारा ऊंचा से ऊंचा जीवन का स्तर हो और हम उतना ही उपभोग करें जितना कि अमेरिकी लोग कर रहे हैं तो ही हमको सुख मिलेगा। तो मैंने कहा कि ये जो लोगों के मन में इच्छा है, ये तो सही है और जिनकी समझ में आता है उनकी भी यही इच्छा है कि किसी तरह से हम ज्यादा-से ज्यादा पा सकें।
हमारे देश के 84 करोड़ लोग रोज सिर्फ 6 रुपए से लेकर 20 रुपए प्राप्त करते हैं। कुछ तीसेक करोड़ लोगों को मालूम नहीं है कि उनका अगला भोजन कहां से आएगा और बीसेक करोड़ लोग ऐसे हैं जिनको दोनों समय का खाना कहां से मिलेगा, इसका कोई अंदाजा उनको नहीं है। फिर तो ये कैसे हुआ कि हम लोग इतनी आर्थिक प्रगति कर रहे हैं। जिस शहर में देखें, उस शहर में बड़े-बड़े मॉल खुल रहे हैं। बड़े-बड़े पार्क बनाए जा रहे हैं। जिसे देखो वो कार खरीदना चाहता है, रास्ते में जगह नहीं है। हमारा मध्यम वर्ग जो सपना देख रहा था, वो पूरा हो गया। यानी सबको गाड़ी मिले, सबको पेट्रोल भराने के लिए पैसा हो, वो हो गया। तो अब रास्ते में इतनी गाडि़यां हो गई हैं कि कोई भी गाड़ी समय पर नहीं पहुंच पाती है। सिर्फ अपनी दिल्ली में ये हाल हो रहा हो या आपके अपने बनारस में हो ये बात नहीं है। अमेरिका में और यूरोप के देशों में लोग 5 दिन खूब जमके काम करते हैं, सब 9 बजे से शाम के 6 बजे तक। और हफ्ते में 2 दिन छुट्टी मनाना चाहते हैं। शनिवार को, रविवार को। तो शुक्रवार की रात को सड़क इतनी ठसाठस भरी होती है कि लोग अपने घर या तो बहुत देर से पहुंचते हैं या कई लोग सिर्फ शनिवार को पहुंचते हैं। कई लोग छुट्टी मनाने के लिए समुद्र के किनारे जाते हैं जब छुट्टी खत्म हो रही हो तो वो समुद्र के किनारे पहुंच पाते हैं, क्योंकि रास्ते में इतनी गाडि़यां खड़ी हुई हैं। जो छुट्टी का समय था वो गाड़ी में बिताया, और गाड़ी में अच्छी तरह से आपका समय कट सके इसके लिए उसमें रेडियो भी है, उसमें टी.वी. भी है, उसमें संगीत भी है। सब चीजें जिनमें मन लगा रहे, वो देखने के लिए वहां हैं। क्योंकि पता नहीं टैªफिक में फंस गए तो कितना समय लगेगा। तो क्या करेंगे? तो वहां टेलीफोन भी है, मोबाईल भी है, सब कुछ। उन्होंने प्रतीक्षा करने के लिए गाड़ी में वो सब चीजें इकट्ठी कर रखी हैं जो उनके दफ्तर में हैं या उनके घर में हैं।
हमारे देश के 84 करोड़ लोग रोज सिर्फ 6 रुपए से लेकर 20 रुपए प्राप्त करते हैं। कुछ तीसेक करोड़ लोगों को मालूम नहीं है कि उनका अगला भोजन कहां से आएगा और बीसेक करोड़ लोग ऐसे हैं जिनको दोनों समय का खाना कहां से मिलेगा, इसका कोई अंदाजा उनको नहीं है। फिर तो ये कैसे हुआ कि हम लोग इतनी आर्थिक प्रगति कर रहे हैं।
अब सब जानते हैं कि ये जीवन ऐसा होता जा रहा है। इसके बावजूद सब लोगों की समस्या ये है कि हमको वो जीवन मिल जाए। अब आप देखो कि इस साल आधे हिंदुस्तान में पानी नहीं गिरा और सबसे बड़ी समस्या ये है कि हमारे आगे की फसल का क्या होगा? खरीफ बिगड़ गई तो अब रबी का क्या होगा? ये लोगों की चिंता है। लेकिन अखबार उठाकर देखो तो उनकी सबसे बड़ी चिंता ये है कि हमारा विकास कितने प्रतिशत होने वाला है। वो 6 प्रतिशत ग्रोथ हो रही है, ये डबल डिजिट में कब चली जाए। यानी 10-11 प्रतिशत में कब चली जाए। सारे पैसे वालों की चिंता ये है कि पैसा जल्दी से बढ़ना चाहिए। उनको ये चिंता नहीं है कि ये पैसा दूसरों के पास जा रहा है या नहीं। और अगर देश में अकाल पड़ा हुआ है और उससे हमारी ग्रोथ रेट नीचे गिर रही है तो आज के और कल के भोजन का जिनका इंतजाम नहीं है, उनके हाल क्या हो रहे होंगे? जिस देश के 85 प्रतिशत लोगों को मालूम नहीं है कि उनके अगले जून के भोजन का क्या होगा, तो वो देश कैसे सुपर पावर हो सकता है? वो जो 15 प्रतिशत या 10 प्रतिशत लोग हैं, वो अगर 15 प्रतिशत की रेट से भी आगे बढ़ें तो उन 85 प्रतिशत लोगों का तो कुछ नहीं होगा और अगर एक घर में रहने वाले 85 लोग भूखे मर रहे हैं और 15 लबालब हो रहे हैं तो वो घर तो ऊपर नहीं उठ सकता है। इसलिए मैंने उस जर्मन पत्रकार को कहा कि इस देश में मेरे जैसे अंग्रेजी बोलने वाले और अंग्रेजी के जरिए अपना कामकाज चलाने वाले लोग बिचारे वैसे ही हो गए हैं जैसे 100 साल पहले अंग्रेज हम पर राज करते हुए हो रहे थे। उनकी व्यवस्था में जो भी कुछ पैसा देश में बन रहा था, वो अंग्रेजों के पास जाता था। आज हमारी व्यवस्था में ये पैसा हमारे पास आ जाता है। हमारे देश में एक प्रकार का साम्राज्यवाद, एक प्रकार की गुलामी भी वैसी ही चलती आ रही है, जैसी कि अंग्रेजों के जमाने में थी।इसलिए महात्मा गांधी जो ‘हिन्द स्वराज’ में कह रहे थे, वो सिर्फ देश की आजादी के लिए तो कह नहीं रहे थे। आजादी तो एक राजनीतिक बात है। वे स्वराज की बात कर रहे थे और स्वराज का मतलब ये कि इस देश का हर एक आदमी अपने जीवन के लिए किसी और पर निर्भर न करे, उसका अपने ऊपर राज हो। जो आदमी बाहर की जितनी चीजों पर जितना कम आश्रित होगा, जितना कम आधारित होगा, उतना ही वो ज्यादा स्वतंत्रा और उतना ही वो ज्यादा स्वराज वाला आदमी है। हमारे यहां कबीर का एक पद ये साधु लोग घूम-घूमकर गाया करते थे। उसमें एक पंक्ति है ‘हाथ में तुंबा, बगल में सोटा, चारों खूंट जागीरी में। मन लाग्यो मेरो यार फकीरी में।‘ ये फकीर गरीब नहीं है। वो कहता है कि मेरे हाथ में तुंबा है और बगल में सोटा है और चारों खूंट यानी चारों दिशाएं मेरी जागीरी में हैं, क्योंकि मैं फकीर हूं। मुझे किसी बात की कोई जरूरत नहीं है।
ये तो रवैये का सवाल है। आप करोड़ों रुपए जमा लें या खरबों रुपए जमा लें फिर भी आपको और रुपयों की हमेशा जरूरत होगी। सबसे ज्यादा जरूरत उसी को होती है जो करोड़ों रुपए कमाता है। और वो जो फकीर है, वो कहता है कि अगर ये दो मुझे मिल गए तो मैं फकीरी में गाता हुआ चला जाऊंगा। मुझे किसी चीज की कोई जरूरत नहीं है। स्वराज तो उसके पास है, क्योंकि उसको किसी चीज पर निर्भर नहीं करना है। आप अपना घर भी चलाएं तो आप ऐसी फकीरी में जी सकते हैं। कबीर ने कहा कि साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय। मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाए। ये जर्मन पत्रकार कह रहा था, जिसने सारी दुनिया देखी है और हम मुंबई में देखते हैं, दिल्ली में देखते हैं, बनारस में देखते हैं, कि जहां थोड़ी सभ्यता आई है, वहां भागदौड़ है, वहां और चीजों की जरूरत है। चीजों पर निर्भरता है, और स्वराज नहीं है।
अंग्रेजी बोलने वाले और अंग्रेजी के जरिए अपना कामकाज चलाने वाले लोग बिचारे वैसे ही हो गए हैं जैसे 100 साल पहले अंग्रेज हम पर राज करते हुए हो रहे थे। उनकी व्यवस्था में जो भी कुछ पैसा देश में बन रहा था, वो अंग्रेजों के पास जाता था। आज हमारी व्यवस्था में ये पैसा हमारे पास आ जाता है। हमारे देश में एक प्रकार का साम्राज्यवाद, एक प्रकार की गुलामी भी वैसी ही चलती आ रही है, जैसी कि अंग्रेजों के जमाने में थी।
गांधीजी को ये चीज बहुत पहले समझ में आ गई थी। ये किताब तो 1909 में लिखी उन्होंने। 1909 के पहले 19वीं शताब्दी में ही वो चले गए थे दक्षिण अफ्रीका रहने के लिए सन् 1893 में। गांधीजी को यह समझ में आया कि ये झगड़ा मामूली नहीं है। ये झगड़ा तो अपनी जीवन पद्धतियों का झगड़ा है। यूरोप के लोगों को ये डर है कि अगर हमने भारतीयों की बातें माननी चालू कीं तो हम अपनी सभ्यता को नष्ट कर देंगे। ये लोग हमको गुलाम बनाकर इसलिए नहीं रखना चाहते हैं कि हम कमतर या कम सभ्य या कम समझदार लोग हैं। बल्कि ये अपनी सभ्यता को बेहतर मानकर हम पर लादना चाहते हैं। इनके मन में डर है कि कहीं हम फकीरी के रास्ते पर गए तो हम अपने को बरबाद कर लेंगे।गए साल 15 सितंबर को जहां दुनिया की सबसे ज्यादा दौलत अमेरिका में रहा करती थी, वॉलस्ट्रीट में, वहां का दिवाला निकल गया। बड़ी-बड़ी यानी कुबेर कंपनी जैसे लेहमैन ब्रदर्स, जिनके पास कितना पैसा है ये भी किसे को ठीक मालूम नहीं था, उनका दिवाला निकल गया। उनके सबसे बड़े अफसर से पूछा गया था कि भाई अभी पिछले हफ्ते तो आप भाषण दे रहे थे कि हम बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और अब आप कह रहे हैं कि हमको तो पहले से ही मालूम था कि ये बुलबुला किसी भी दिन फूट जाएगा तो फिर सात दिन पहले क्यों कह रहे थे? उन्होंने कहा कि सात दिन पहले इसलिए कह रहे थे कि अगर हम उसी दिन ये बात कह देते तो जो संकट आज आया है वो सात दिन पहले ही आ जाता! हम तो लोगों का विश्वास बनाए रखने के लिए, दुनिया को टिकाए रखने के लिए झूठ बोल रहे थे, विचारों का संसार बना रहे, इसलिए उनको झूठ बोलकर काम चलाना पड़ता है।
एक विज्ञापन आप सब लोगों ने देखा होगा। ये जो तीन बड़ी कंपनियां थीं जिनका दिवाला निकला, उसमें एक ए.आई.जी. कंपनी थी। ए.आई.जी. दुनिया की सबसे बड़ी बीमा कंपनी थी। बहुत पैसा था उन लोगों के पास। उनका अपने टाटावालों से समझौता था। टाटा और ए.आई.जी. मिलकर अपने देश में बीमा कंपनी चला रहे थे। विज्ञापन ये था कि मुंबई में एक बिचारी बूढ़ी, पारसी मां, अपने सामान दोनों हाथ में लिए हुए किसी तरह से चलती हुई घर जा रही है। एक बच्चा उसको देखता है। वह लपक कर जाता है और झोला उसके हाथ में से ले लेता है। मां उसको बड़े प्रेम से देखती है। बच्चा झोला लेकर मां के साथ घर पहुंचता है। जब वह सामान रख कर जाने लगता है वह मां कहती है ऐ रुक! अपने बटुए में एक रुपया निकाल कर उसको देती है। उसको कहती है ये तेरे लिए है, हां ये तेरे लिए है। बच्चा उस रुपए को अपनी मुट्ठी में पकड़ दौड़ा हुआ अपने पिता के दफ्तर में जाता है। बहुत बड़ा दफ्तर है, वह दरवाजा खटखटाता है। उसका पिता जो उस वक्त बड़े-बड़े लोगों से बात कर रहा है, उठकर बाहर आता है। बड़ी चिंता में कि ये लड़का कैसे आया अभी यहां। लड़का हंस के कहता है कि कुछ नहीं। मेरी पहली सैलरी। अपनी मुट्ठी खोलकर वो रुपया उसको देता है। बाप उस रुपए को उठाता है। ए.आई.जी. वालों की लाइन चलती है “हमको आपके एक-एक पैसे की कद्र है, हमारे यहां आप इन्वेस्ट करिए।“ उसी ए.आई.जी. कंपनी का झूठे कर्ज देकर झूठी कमाई करने के कारण अमेरिका में दिवाला निकल गया। और अगर बैंक ऑफ अमेरिका उसका टेक ओवर नहीं करता तो करोड़ों लोगों की उम्र भर की जो कमाई है, वो डुबो देता।
ये विज्ञापन पहले तो इस देश की एक मां के वात्सल्य का मजाक उड़ाता है। दूसरा उस बच्चे के वात्सल्य का भी। अपने यहां बच्चों को कहा जाता है कि अगर कहीं कोई बूढ़ा आदमी कुछ थक रहा हो, तत्काल जा के उसकी मदद कर। सब मांएं अपने बच्चों को ये कहती हैं कि दादा-दादी को देख, उनकी सेवा कर। सब बोलियों में एक कहावत है। हमारे मालवा में कहते हैं बांट-चूटकर खाना, बैकुंठ में जाना। एक घर में पति-पत्नी और दो-तीन बच्चे साथ रह रहे हैं, एक टेलीविजन से काम चला रहे हैं तो कंपनी का एक ही टेलीविजन खरीदा जाएगा। अगर ज्यादा-से-ज्यादा टेलीविजन बेचना है तो घरों को तोड़ो। जितने छोटे-छोटे घर होंगे, उतने ज्यादा-से-ज्यादा टेलीविजन खरीदे जाएंगे।
तो हम ऐसी दुनिया बनाना चाहते हैं, जिसका हमारी जरूरत और उस जरूरत के पूरी होने से कोई संबंध नहीं है। उसका संबंध चीजों का ज्यादा-से-ज्यादा उत्पादन करने और ज्यादा-से-ज्यादा खपत करने के लिए है। मैं ज्यादा-से-ज्यादा खपत कर सकूं, इसलिए ज्यादा-से-ज्यादा पैसा चाहिए। ज्यादा-से-ज्यादा पैसा चाहने के लिए ज्यादा-से-ज्यादा बड़ी नौकरी। ज्यादा-से-ज्यादा बड़ी नौकरी तो वहीं मिल सकती है जहां करोड़ों का धन है। और करोड़ों का सच्चा धन नहीं हो तो शेयर मार्केट से नकली धन पैदा करो। आई.आई.एम. अहमदाबाद में पढ़ने वालों की गए साल तक तनख्वाह करोड़ों रुपए तक जाती थी। अब कोई लाख रुपए में भी नहीं पूछ रहा बिचारों को। क्योंकि दुनिया का पैसा खत्म हो गया। खत्म क्यों हुआ? क्योंकि वो तो नकली पैसा था। एक डॉलर एक बार नहीं बार गिरवी रख दिया गया और उस डॉलर से और लोगों ने पैसे बनाए। जो उन्होंने पैसे बनाए, वो भी गलत।
स्वराज का मतलब ये कि इस देश का हर एक आदमी अपने जीवन के लिए किसी और पर निर्भर न करे, उसका अपने ऊपर राज हो। जो आदमी बाहर की जितनी चीजों पर जितना कम आश्रित होगा, जितना कम आधरित होगा, उतना ही वो ज्यादा स्वतंत्र और उतना ही वो ज्यादा स्वराज वाला आदमी है।
आज हम ये सब देख रहे हैं और फिर भी हमको इसकी सच्चाई कबूल करके दूसरा जीवन जीने की इच्छा नहीं होती। और उस गांधी नाम के आदमी को 100 साल पहले ये समझ में आ गया था कि अगर इस तरह से दुनिया चली तो ये तो अपने आपको नष्ट करेगी। तो जो सभ्यता दुनिया के हर कोने में थी और जब उसका सबसे ज्यादा दबदबा था, तब गांधीजी ने कहा कि ये शैतानों की सभ्यता है। ये एक दिन अपने आपको नष्ट करेगी। ये दोनों के दोनों वाक्य आपको हिन्द स्वराज में मिल जाएंगे। दुनिया की सबसे बड़ी चिंता क्या है? सबसे बड़ी चिंता ये है कि हमने इतना प्रदूषण पैदा कर दिया है कि हमारी समुद्र की सतह पर जो गर्मी रहा करती थी, वो बढ़ रही है और गर्मी बढ़ने के कारण जो हवाएं ठीक से चलनी चाहिए, उसमें विघ्न पड़ गया है। उस विघ्न का भी नाम उन्होंने अलनीनो इफेक्ट कह रखा है। उसके कारण से जो बिचारे बादल आ रहे थे, वे बीच में रुक गए और बाकी के लौट गए बेचारे। अगर बादलों को हवा नहीं ले के आएगी, तो बादलों के पांव तो कोई होते नहीं हैं। अपने आप तो वो चल कर आ नहीं सकते हैं। उनको हवाएं ही लाएंगी। और वो हवाएं अगर गड़बड़ हो गई हैं, तो क्या होगा? कल रात को आप लोगों ने गंगा के घाट पर देव दीपावली मनाई। ये जानकर अपनी रूह कांप जाती है, अपनी आत्मा कांप जाती है कि 20 साल के बाद ये गंगा यहां नहीं रहेगी। इस गंगा में पानी नहीं रहेगा। गंगोत्री का ग्लेशियर है, जिससे गंगा का पानी आता है वो लगातार पीछे खिसकता जा रहा है और अगर तापमान बढ़ता जाए तो वो ग्लेशियर पिघल जाएगा। ग्लेशियर पिघल गया तो गंगा नदी नहीं रहेगी।गंगा नदी नहीं रहेगी तो हमारी बोली का क्या होगा, हमारे देवताओं का क्या होगा, हमारे पुराणों का क्या होगा? जरा सोचिए। और ये भी सोच लीजिए कि आपके नगर के आगे जो इलाहाबाद शहर है, उसमें गंगा और यमुना तो मिलती हैं लेकिन उसको त्रिवेणी इसलिए कहते हैं कि उसमें सरस्वती नीचे से आकर मिल गई है। वेदों में तो सरस्वती नदी का वर्णन है। सरस्वती कहां गई? सरस्वती जो हिमालय के किसी उपत्यका से निकली थी और पंजाब, सिंध से बहती हुई किसी दिन ये जो भरुच है न आगे, वहां जाकर खाड़ी में गिरती थी। ऐसी पश्चिम से बहने वाली नदी थी। उस सरस्वती नदी के किनारे वेद की ऋचाएं लिखी गईं। वह नदी ही गायब हो गई। गुजराती में जो शब्द लाशों के किले के लिए है, वो सिंधी भाषा में मोहनजोदड़ो है। कबीर के पद में एक पंक्ति हैμ साधो यह मुर्दों का गांव। जब चीजें सबकी सब बरबाद हो जाएंगी तो आप क्या करोगे? ये गंगा सरस्वती की तरह सूख जाएगी। आप और हम देखने के लिए नहीं होंगे। हमारे बेटों के बेटों के बेटे पढ़ेंगे और सुनेंगे कि किसी ने कहा था कि गंगा मइया तोहे पियरिया चढ़इबो। लोकगीत सिर्फ याद में रह जाएगा। गंगा नदी नहीं रहेगी। अपनी एक पूरी सभ्यता, अपना एक पूरा लोक जीवन, अपने पूरे पुराण, सारी की सारी अपनी कहानियां, सब की सब नष्ट हो जाएंगी। और ये हमारे करने से होगा। जितना हम पेट्रोल जलाते हैं, उतनी ही ग्रीन हाउस गैसें बनती हैं, उससे ही दुनिया का तापमान बढ़ता है। अमेरिका वाले ये कहना चाहते हैं कि हम तो अपनी जिंदगी को ज्यादा नहीं बदल सकते हैं, तुम हिंदुस्तानी अभी उस जिंदगी में नहीं पड़े हो, तो तुम उसमें मत पड़ो। प्रदूषण हम तो नहीं घटा सकते हैं, अब तुम दुनिया का प्रदूषण घटाने में हमारी मदद करो। तुम उस तेजी से विकास मत करो, तुम उस तेजी से चीजों को भोगो मत जो हमने किया है।
लोगों को लगता है कि ये तो अमेरिका जबर्दस्ती कर रहा है हम पर। वो तो सारी दुनिया की चीजें भोग रहा है और हमसे कहता है कि मत भोगो क्योंकि पर्यावरण बिगड़ेगा। इन अमीर मुल्कों पर पहले पाबंदी लगनी चाहिए। ये अपनी खपत कम करें। पर वो कहते हैं कि आप और सब बात कर लीजिए। हमारी जीवन पद्धति बदलने के बारे में हमसे बात मत करिएः अमेरिकन वे ऑफ लाइफ इज नॉट निगोशिएबल। उस पर कोई बातचीत नहीं कर सकते हैं हम। वो तो वैसे ही रहेगी, जैसी है। हम वैसे ही विकसित और ज्यादा चीजों को भोगने वाले बने रहें। इसलिए तुम अपनी गरीबी में या कम चीजों में गुजारा करो।
गांधीजी ने ये अवस्था बहुत पहले देखी थी। इसलिए उन्होंने कहा कि ये सभ्यता शैतान की सभ्यता है। ये अपने आपको नष्ट करेगी। गांधीजी कोई पश्चिम की सभ्यता के खिलाफ नहीं थे। उन्हें यूरोप से भी कोई दिक्कत नहीं थी। उनको दिक्कत मशीन वाली सभ्यता से थी। मशीन जितना पैदा करती है, 1000 आदमी बिचारे लगे तो उतना पैदा नहीं कर सकते। तो एक मशीन लगती है तो 1000 आदमी तो बेकार हो जाते हैं और उससे जो उत्पन्न होता है उसको बेचने वाला सारा पैसा खुद बटोर लेता है। मशीन के कारण पूंजीवाद आता है और मशीन के कारण ही बेरोजगारी बढ़ती है। अब बेरोजगारी और मशीन साथ में चलती है। अर्जुन सेनगुप्ता ने अपनी दूसरी रिपोर्ट में कहा है कि आजादी के समय जितने लोग बेकार थे उतने तो अब भी हैं, जितने प्रतिशत उस समय बेकार थे, अब उतने प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो गई है। कुल मिलाकर बेरोजगारी बढ़ी है। जितने भी ज्यादा-से-ज्यादा पैसा बनाने वाले लोग हैं, ये खुद कहते हैं कि हमारी ग्रोथ तो जॉबलेस ग्रोथ है। यानी हमारा जो इतनी तेजी से ये आर्थिक विकास हो रहा है, उससे रोजगार नहीं बढ़ेगा। रोजगार घटेगा, पर पैसा बढ़ जाएगा। फिर यह पैसा धीरे-धीरे रिसकर नीचे वाले लोगों तक पहुंचेगा। इसलिए अमीरी बढ़ने दो ताकि गरीबी घट सके। जब पैसा आएगा, तभी तो वो नीचे जाएगा, दूसरे लोगों को मिलेगा। विनोबा को भी पहली योजना के लिए नेहरुजी ने बुलाया था। पवनार आश्रम, वर्धा से पैदल चलकर विनोबा दिल्ली आए अपने साथियों के साथ। तीन दिन तक उन्होंने योजना आयोग में बैठक में मगजपच्ची की। और जब उनको सब समझ में आ गया तो उन्होंने कहा कि देखिए आपकी सारी की सारी योजना तो रिसन के सिद्धांत पर है। ये रिसकर नीचे कभी भी नहीं पहुंचेगी। इसलिए बाबा का जय जगत। ऐसा करके उनने हाथ जोड़ अपने साथियों को लिया और फिर वापस पवनार चले गए।
रामकृष्ण हेगड़े जब योजना आयोग के उपाध्यक्ष बने तो उन्होंने योजना बनाकर हम कुछ संपादकों को खाने पर बुलाया। बहुत अच्छा खाना था और योजना भी बहुत अच्छी थी। मैंने रामकृष्ण हेगड़े को कहा कि विनोबा भी यहां आए थे और उनको पहली योजना बताई गई थी तो उन्होंने कहा था कि ये रिसकर नीचे तक नहीं जाएगी। इसलिए बाबा का जय जगत। तो वैसी ही ये योजना है। वो मेरी तरफ देखते रहे और उनकी आंखें भर आईं। कहने लगे कि जो जवान लड़के विनोबा के साथ पवनार से चलकर दिल्ली आए थे, उनमें एक मैं भी था! मैंने खुद विनोबा को वो बातें कहते हुए देखा था। और मैं जानता हूं कि जो योजना बनाकर मैंने देश के सामने रखी है, वो वैसी की वैसी ही योजना है। लेकिन आप ये बताइए कि इस योजना के अलावा कौन-सी योजना देश चाहता है? उस आदमी में वही निराशा, वही हताशा थी जो कल जर्मन पत्रकार गाड़ी में मुझे बता रहा था। दुनिया सब सच्चाई जानती है फिर भी उधर ही जाना चाहती है। आपके हमारे कहने से थोड़ी जाती है? रिसन का सिद्धांत ऐसा है कि जिनका अमीरी का तालाब भर जाता है, वो तालाब के नीचे सीमेंट लगा देते हैं जो पानी पड़ते ही जम जाता है अच्छी तरह से। ताकि ऊपर का रिसकर कुछ भी नीचे न आए।
अब जो व्यवस्था हम बना रहे हैं, उसमें असमानता यानी किसी का करोड़पति और खरबपति होना, और किसी का गरीब होना अनिवार्य है। हम ऐसी सभ्यता बनाना चाहते हैं, जिसमें एक कुबेर है और बाकी गरीब हैं। हम ऐसी सभ्यता बनाना चाहते हैं कि जिसमें हमारे सिर पर ओसामा बिना लादेन का और एल.टी.टी.ई. का और सारे आतंकवादियों का डर हमेशा बना रहे।
तो आखिर अपने लोगों, अपने संसाधन, अपना जीवन बचाने के लिए हम क्या करेंगे? मैंने शुरू में कहा कि उस जर्मन को मैंने कहा कि 10 प्रतिशत अंग्रेजों की जगह हम 10 प्रतिशत अंग्रेजी समझने वाले, उद्योग समझने वाले, व्यापार को समझने वाले लोग इस देश पर उसी तरह राज कर रहे हैं, जिस तरह से अंग्रेज लोग करते थे। इसलिए गांधी की ‘हिन्द स्वराज’ किताब उठाओ। एक और ‘हिन्द स्वराज’ लिखने की जरूरत है। अंग्रेजों के खिलाफ हम सत्याग्रह, असहयोग कर सकते थे। जो अपने ही घर के लोग हैं, जो अपने ही पढ़ाए हुए लोग हैं, जो अपने ही वोट से दिल्ली जाकर बैठे हुए लोग हैं, उन लोगों से अगर लड़ना हो तो कैसे लड़ेंगे, ये ‘हिन्द स्वराज’ का संदेश है और ये ‘हिन्द स्वराज’ इसलिए जरूरी है कि सभ्यता, जिसके पीछे हम जाना चाहते हैं उसको अगर हम अपनाते रहे तो गंगा नदी का क्या होगा, गंगोत्री का क्या होगा, हमारे शहरों और हमारे गांवों का क्या होगा, इसका विचार कर लीजिए। और इसलिए ‘हिन्द स्वराज’ पढ़ने की जरूरत है, सिर्फ इसलिए नहीं कि 1909 में 13 से 22 नवंबर के 10 दिनों में महात्मा गांधी ने जहाज पर, जहाज के ही कागज पर इसे लिखा। वो इतने बुरी तरह भरे हुए थे कि जब दाहिना हाथ लिखते-लिखते दुखने लगता था तो वो उल्टे हाथ से लिखने लगते थे। उस किताब के 40 पेज उन्होंने उल्टे हाथ से लिखे हैं। और उनकी हस्तलिपि में जो पुस्तक छपी है, उसके जो सबसे अच्छी लिखावट के पन्ने हैं, वो उल्टे हाथ से लिखे हुए हैं। यह मात्रा शताब्दी मनाने की किताब नहीं है। अपना और अपने बच्चों का भविष्य बनाने की किताब है।
हम जो जिंदगी जी रहे हैं, उससे हम किसी-न-किसी का निवाला छीन रहे हैं, किसी-न-किसी को भूखों मार रहे हैं। अगर हम स्वराज्य लाना चाहते हैं, तो ये आदतें हम को खत्म करनी पड़ेगी।
3 नवंबर, 2009 सर्व सेवा संघ, बनारस के विनोबा सभागृह में दिया गया अंतिम भाषण। राजकमल प्रकाशन से छपी पुस्तक ‘प्रभाष पर्व’ से साभार।