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परिषद साक्ष्य, धरती का ताप, जनवरी-मार्च 2006
गाँव के लोग चाहते हैं कि जंगल के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिये ग्राम सभाओं को पूरी जिम्मेदारी मिलनी चाहिये। झारखंड में वन क्षेत्र का नया नक्शा बनाना चाहिये ताकि आम लोगों को पता चल सके कि किस गाँव में कहाँ, कितने जंगल हैं। इस तरह की और भी कई महत्त्वपूर्ण और गौरतलब बाते हैं, जिन शर्तों पर लोग सरकार के साथ मिलकर इस मुद्दे पर काम करना चाहते हैं, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। परिणामत: जंगल का विनाश जारी है, जिससे आदिवासी समाज खासकर लड़कियों व महिलाओं का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। ऐसे में क्या यह नहीं लगता कि आज जंगल को जिस ममता के साथ बचाने की जरूरत है, वह काम माँ बनने की क्षमता रखने वाली स्त्री जाति ही कर सकती है?जंगली इलाकों के बारे में लोगों का मानना है कि जिस इलाके में आज भी भरपूर जंगल हैं, वहाँ भूख से कोई नहीं मर सकता है। लेकिन विभागीय उदासीनता कर्मचारियों की मिली-भगत व पहाड़िया जनजाति में जागरूकता की कमी के कारण आज पूरे संथाल परगना में वन माफियों द्वारा जंगलों की अवैध कटाई जारी है जिससे न सिर्फ पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है बल्कि लोग बीमारी, भुखमरी के शिकार हो रहे हैं तथा दैनिक जीवन में काम आने वाले ईंधन पानी जैसी मूलभूत समस्याओं से जूझ रहे है।
झारखंड प्रोफाइल के आँकड़े बताते है कि यहाँ कुल 23,04,729 हेक्टेयर वन हैं जिनमें 17,79,032 हेक्टेयर प्रोटेक्टेड वन, 5,25,054 हेक्टेयर रिजर्व वन और 653 हेक्टेयर वर्गीकृत हैं। जंगलों से हरे-भरे संथाल परगना की बात करें तो वर्तमान में इस प्रमंडल में मात्र 13.65 फीसदी ही वन क्षेत्र बचा है। परिणामतः आदिवासियों की संस्कृति खतरे में पड़ गयी हैं। गौरतलब है कि कुल 14,026 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले छह जिले - दुमका, देवघर, गोड्डा, साहेबगंज, पाकुड़ व जामताड़ा को समेटे संथाल परगना प्रमंडल में वर्तमान में 1,939 वर्ग किमी वन क्षेत्र बचा है जो सम्पूर्ण क्षेत्रफल का 13.65 फीसदी ही है।
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 1936 में 62.50 प्रतिशत क्षेत्र वन या परती जमीन बढ़ने और वनों की कटाई से भी वन क्षेत्र घटने की पुष्टि होती है। प्राप्त आँकड़ों के मुताबिक 1975-76 में सम्पूर्ण संथाल परगना प्रमंडल में जहाँ 2,31,000 हेक्टेयर परती जमीन थी, वहीं 10 वर्ष के अंतराल में 1,98,000 हेक्टेयर हो गयी और वर्तमान में तो 2,25,000 हेक्टेयर है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक 3,405 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले पाकुड़ व साहेबगंज जिले में 8,561.70 एकड़ सरकारी वन है जबकि पहले दोनों जिले वनों से आच्छादित थे। कुल 5,258 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले दुमका जिले में कुल 49.10 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्रों में लगभग 44 हजार हेक्टेयर यानी 90 प्रतिशत जंगलों का सफाया हो चुका है। इसी तरह कुल 2,479 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले देवघर जिले में 18.75 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र पूरी तरह वीरान हो चुका है। जबकि गोड्डा जिले में जिसका कुल क्षेत्रफल 2,110 वर्ग किमी है, केवल 1,891.37 हेक्टेयर क्षेत्र में विस्तृत बांस के जंगल हैं, जो प्रायः समाप्ति के कगार पर हैं। 10.42 हेक्टेयर वन तो भगवान भरोसे ही बचे हुए हैं।
जानकार सूत्रों के मुताबिक संथाल परगना प्रमंडल के वन क्षेत्रों को दो भागों में बाँटा गया है। एक तो सरकारी और दूसरा पहाड़िया जनजाति की रैयती संपत्ति। लेकिन अफसोस अशिक्षा, बेकारी एवं भूख की वजह से ये पहाड़िया आदिवासी जहाँ अपने रैयती जंगलों को काटते हैं वहीं इनकी कमजोरियों का लाभ उठाकर वन माफिया इनसे सरकारी वनों को भी कटवाने से बाज नहीं आते। इन भोले-भाले ग्रामीणों को बहला-फुसलाकर लकड़ी माफिया चिन्हित स्थानों पर लकड़ी पहुँचाने के लिये बतौर एडवांस भी देते हैं। निर्धारित स्थानों पर लकड़ी इकट्ठा होने के बाद वन माफिया ट्रकों पर लादकर उक्त लकड़ी को पश्चिम बंगाल भेजते हैं। लकड़ी भेजने के क्रम में जितने भी थाने पड़ते हैं, सुविधा शुल्क चुकाकर आराम से ट्रक पास करा लेते हैं। इतना हीं नहीं रेलगाड़ियों से भी जंगलों से काटी गयी लकड़ियाँ जलावन के लिये वहाँ भेजी जाती हैं। उसके लिए प्रति बोझा 4-5 रुपये जीआरपी वाले वसूलते हैं। इसके अलावे और भी कई तरीके से लकड़ी का व्यापार और इसकी तस्करी करने वाले लोग जंगलों की अवैध कटाई में लगे हैं। परिणामत: जहाँ एक ओर इस कारोबार में लगा माफिया वर्ग मालामाल हो रहा है वहीं दूसरी और वन आश्रित ग्रामीण आदिवासी समुदाय की आर्थिक व्यवस्था चरमराने लगी है।
अब जहाँ तक सवाल जंगलों के विनाश से प्रभावित होते आदिवासियों विशेषकर विशेष कर स्त्रियों के जीवन की बात है तो उसके संबंध में वंदना शिवा जैसी महिला पर्यावरणविदों का मानना है कि तीसरी दुनिया के देशों की महिलाएँ प्रकृति पर निर्भर हैं। वे अपने और परिवार के जीवन के आधार प्रकृति से लेती हैं। इसलिये प्रकृति का विनाश महिलाओं के जिन्दा रहने के स्रोत का विनाश है। शिवा का यह मानना है कि विकास के मुद्दे पर महिलाओं की भागीदारी को नकारना भी प्रकृति के विनाश का कारण है। दूसरी ओर दिल्ली स्थित इन्स्टीच्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर बीना अग्रवाल का कहना है कि प्रकृति के साथ औरत और मर्द के रिश्ते को समझने के लिये जरूरी है कि हम इस वास्तविकता को जाने कि पर्यावरण के साथ इनका किन-किन रूपों में संबंध है। समाज में लिंग और वर्ग (जाति/नस्ल) की इस संरचना के आधार पर लोगों का प्रकृति से रिश्ता है। इसलिये पर्यावरणीय बदलाव का असर भी इसी आधार पर पड़ता है। चूँकि प्रकृति के बारे में अनुभव जनित ज्ञान का आधार उसके साथ बने रिश्ते पर निर्भर करता है इसलिये पर्यावरणीय असंतुलन का असर भी इसीके मुताबिक पड़ेगा।
इस बात को यूँ समझा जा सकता है कि आमतौर पर आदिवासी लड़कियाँ या महिलाएँ ही जंगलों से जलावन के लिये लकड़ियाँ और कंदमूल फल तथा अन्य वनोपज लाती है, इसलिये पर्यावरण नुकसान का सीधा असर उसी पर पड़ेगा। इसी तरह इनका वहाँ के वृक्षों के साथ रोजमर्रा का संबंध है, इसके चलते उनके पास अनुभव जनित ज्ञान का भण्डार इकट्ठा हो जाता है। अगर वनों का नाश होता है तो जाहिर है उसके ज्ञान का नाश भी होगा ही। ये स्थिति पुरुषों की नहीं होती है। इसलिये प्रकृति के साथ पूरे समाज का वही रिश्ता नहीं होता, जो महिलाओं का होता है।
झारखंड के संथाल परगना के इलाके में लड़कियाँ या स्त्री जाति कहना ज्यादा बेहतर होगा, पर्यावरणीय नुकसान का सीधा असर झेल रही हैं। प्रकृति के साथ हुई छेड़-छाड़ का खमियाजा संथाली लड़कियों को अपने श्रम से चुकाना पड़ रहा है।
संथाली समाज में प्रकृति के साथ रिश्ते का आधार लिंग वर्ग पर आधारित है। परिवार के लिये भोजन जुटाने की जिम्मेदारी लड़कियों की होती है। उन्हें फल-फूल तो जंगल से लाने ही होते हैं साथ ही जलावन, बांस, जड़ी-बूटी, चारा, पत्ता, खाद आदि के लिये भी जंगल पर निर्भर रहना पड़ता। इसलिये संथाल स्त्री जाति का संबंध पेड़ों और जंगलों से जीवन होता है। वे उनके लिये जीवन का स्रोत हैं। दूसरी ओर पुरुषों का संबंध पेड़ों पर कुल्हाड़ी उठाने का ज्यादा होता है। प्रकृति के साथ यही हिंसा, स्त्री जाति के प्रति पुरुषों द्वारा होने वाली हिंसा के रूप में दिखाई पड़ती है।
संथाली लड़कियों को घर में पीने के लिये पानी लाना पड़ता है। जानवरों को चराने के लिये जंगल ले जाना पड़ता है। फसल बोने से लेकर काटने तक की जिम्मेदारी भी उसी की होती है। कुल मिलाकर हल चलाने को छोड़कर खेती से संबंधित सारा काम लड़कियाँ ही करती हैं। इनमें भी जो भूमिहीन हैं या जिनके पास कम जमीन है, प्रकृति या आस-पास के पर्यावरण पर उनकी ज्यादा ही निर्भरता देखने को मिलती है। मूल-रूप से विशुद्ध कृषि प्रधान समाज होने के कारण इसके सारे गुण-अवगुण संथालों के बीच दिखायी देते हैं। प्रकृति के साथ उनका रिश्ता भी उनकी इसी सामाजिक संरचना का हिस्सा है। यहाँ के लोगों को भोजन के लिये मुख्यत: खेती और वनोपज पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
गाँव के बड़े- बुजुर्ग और जानकार लोग बताते हैं कि बरसात के दिनों में बरसने वाला पानी साल वृक्ष की जड़ों के माध्यम से भूतल में जमा रहता था और यहीं सिंचित जल बरसात के बाद धीरे-धीरे सोता बनकर बहता रहता था जिससे गाँव वालों को नदियों एवं जल-स्रोतों से पीने एवं खेतों को सींचने के लिये पर्याप्त जल उपलब्ध हो जाता था। गाँव पहाड़ के टीलों पर बसा हो या घाटी में, कभी भी पेयजल का संकट लोगों को भुगतना नहीं पड़ता था। परन्तु आज जंगलों के कटने के बाद नदियों में पानी टिकना मुश्किल हो गया है और सभी जलस्रोत विलुप्त होते जा रहे हैं। इससे जहाँ एक ओर खेती के लिये बड़ा संकट पैदा हो गया है वहीं दूसरी ओर पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। आज पेयजल संकट का जो भयावह रूप इस क्षेत्र में देखने को मिलता है वैसा पहले कभी नहीं था। पहाड़ या ऊँची जगहों पर रहने वाले आदिवासियों को तो सबसे ज्यादा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।1952 में बनी राष्ट्रीय वन नीति में कहा गया था कि कम से कम एक तिहाई क्षेत्र पर वन होने चाहिये, लेकिन अफसोस आज पूरे देश में वनों की स्थिति खराब है। एक आँकड़े के मुताबिक यह लगभग 20 प्रतिशत के आस-पास है। संथाल परगना की हालत इससे अलग नहीं है। प्राप्त आँकड़े के मुताबिक 1936 में इस इलाके में 62.50 प्रतिशत क्षेत्र में जंगल फैला था, जो अब मात्र 13.65 प्रतिशत पर पहुँच गया है। वन विभाग द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक दुमका क्षेत्र में 1951-52 से लेकर 1975-76 के बीच 4,135.75 हजार हेक्टेयर वन-भूमि को आधिकारिक रूप से साफ किया गया, जिसमें 479.1 हजार हेक्टेयर का उपयोग जलाशय और नहरों के निर्माण में, 2,506.9 हजार हेक्टेयर कृषि और हरित क्रांति के लिये, 57.1 हजार हेक्टेयर सड़क निर्माण के लिये और 965.4 हजार हेक्टेयर का उपयोग अन्य विकास योजनाओं में हुआ। यह भी अनुमान लगाया कि बड़े पैमाने पर गैर कानूनी ढँग से भी पेड़ काटे गये। गोड्डा जिले के ललमटिया में व्यापक तौर पर कोयला उत्खनन प्रारम्भ करने के पहले दौर में ही एक हजार एकड़ घने जंगल का सफाया कर दिया गया।
आज संथाल परगना के सभी इलाको में इस पर्यावरण नुकसान का सीधा असर पड़ा है। जब आस-पास जंगल थे, तो लड़कियों को जलावन की लकड़ियाँ बीनने के लिये दूर नहीं जाना पड़ता था। वे जलावन की चिन्ता से मुक्त रहती थी। साथ ही, जानवरों को चराने के लिये भी इन्हें दूर नहीं ले जाना पड़ता था। बिना फसल वाले महीनों में पशुओं का गोबर खेत में ही चराते वक्त रह जाया करता था, जो खाद का काम करता था। आज जब वे जंगल धीरे-धीरे कटकर खत्म हो रहे हैं, तो जलावन की किल्लत तो हो ही रहीं है, इसे चुनने में भी काफी वक्त लगने लगा है। पहले घर से निकल कर लड़कियाँ आस-पास से ही लकड़ियाँ बिन लाती थी, लेकिन अब उसके लिये उसे दूर जाना पड़ता है जिससे रोज 3-4 घंटे, लगभग आधा बेला समय लग जाता है। ठीक यही बात पशुओं को चराने में भी लागू होती है, क्योंकि इसके लिये भी उन्हें दूर जाना पड़ता है। उस पर गर्मियों के दिनों में तो अक्सर हादसे की आशंका बनी रहती है। इसके अलावे पहले जो गोबर विशुद्ध रूप से खेती में खाद के रूप काम आता था, वह अब जलावन के रूप में उपयोग होने लगा है। इसका सीधा असर खेती की गुणवत्ता पर पड़ रहा है।
बारीकी से देखें-परखें तो आदिवासी समुदाय के घर-परिवार से जूड़े और भी बहुत सारे काम ऐसे हैं जिनकी जिम्मेदारी का बोझ लड़कियाँ एवं महिलाएँ उठाती हैं। जैसे छोटी-मोटी घरेलू आय के लिये दोनों, पत्तल, चटाई, झाड़ू पंखा आदि बनाने का काम भी महिलाओं के जिम्मे होता है। जिसके लिये उन्हें न सिर्फ जंगल से पत्ते लाने पड़ते है बल्कि सुबह से शाम तक ईंधन, पानी, रसोई से जुड़े रोजमर्रा के काम के बीच उनको बनाने के लिये पर्याप्त समय निकालना पड़ता है, इतना ही नहीं, अपने तैयार किये सामानों को हाट-बाजार में ले जाकर उसे बेचना भी पड़ता है। पेड़ों के कटाव ने इस काम पर भी असर डाला है। वे पत्ते लाने के लिये दूर तक जाती हैं जहाँ समय भी लगता है और कई अनहोनी दुर्घटनाओं की भी आशंका बनी रहती है। जंगलों के कटाव का आदिवासी लड़कियों या महिलाओं पर जो सबसे बड़ा। असर पड़ा है, वह है वनोपज और ईंधन-पानी की भारी किल्लत।
संथाल समाज में एक तरह से भोजन उपलब्ध कराने का जिम्मा स्त्री जाति पर ही है। इसलिए इससे संबंधित सारे काम इन्हें ही करने पड़ते हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि संथाल समाज कृषि आधारित समाज रहा है और यहाँ जल,जंगल और जमीन का उस समाज से अटूट संबंध रहा है। संथालों को खाद्य पदार्थ जुटाने के दो प्रमुख स्रोत थे - जमीन और जंगल। जंगल से वे कटहल, आम, बेल, ताड़, खजूर, महुआ, जामुन आदि कई तरह के फल, कंद-मूल इकट्ठा किया करते थे। और ये काम स्त्रीयाँ ही किया करती थीं। आपातकाल में जब जमीन से पर्याप्त अनाज की पैदावार नहीं होती थी, तब यही वनोपज काम आते थे। साथ ही, ये पूरक पदार्थ भी थे, जो उनके स्वास्थ्य को बनाये रखते थे। आज स्थिति उलट है। जंगल के कटाव और बचे जंगलों के राष्ट्रीय-करण से खाद्य पदार्थ का एक बड़ा आधार इनसे छिन गया, जिसका सीधा असर आदिवासी लड़कियों व महिलाओं पर पड़ रहा है। घर में अगर कम फल हुए तो वह पुरुषों को मिल जाते हैं। यही नहीं, पहले आमतौर पर वनोपज बेचे नहीं जाते थे, लेकिन अब आर्थिक बदहाली के कारण इसे अपने लिये उपयोग करने की बजाय बेच देते हैं।
पानी की स्थिति भी देखें तो संथाल परगना क्षेत्र में गंगा, बांसलोइ, ब्राह्मणी, अजय और मयूराक्षी जैसी कई बड़ी नदियाँ हैं, तो कई जलप्रपात भी। इसके अलावे प्रत्येक गाँव में 1-2- बड़े जलस्रोत हुआ करते थे, जिसमें सालों भर पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध रहता था। गाँव के बड़े- बुजुर्ग और जानकार लोग बताते हैं कि बरसात के दिनों में बरसने वाला पानी साल वृक्ष की जड़ों के माध्यम से भूतल में जमा रहता था और यहीं सिंचित जल बरसात के बाद धीरे-धीरे सोता बनकर बहता रहता था जिससे गाँव वालों को नदियों एवं जल-स्रोतों से पीने एवं खेतों को सींचने के लिये पर्याप्त जल उपलब्ध हो जाता था। गाँव पहाड़ के टीलों पर बसा हो या घाटी में, कभी भी पेयजल का संकट लोगों को भुगतना नहीं पड़ता था। परन्तु आज जंगलों के कटने के बाद नदियों में पानी टिकना मुश्किल हो गया है और सभी जलस्रोत विलुप्त होते जा रहे हैं। इससे जहाँ एक ओर खेती के लिये बड़ा संकट पैदा हो गया है वहीं दूसरी ओर पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। आज पेयजल संकट का जो भयावह रूप इस क्षेत्र में देखने को मिलता है वैसा पहले कभी नहीं था। पहाड़ या ऊँची जगहों पर रहने वाले आदिवासियों को तो सबसे ज्यादा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। आज से कई वर्ष ‘पहले जल है, जान है’ योजना के तहत इस इलाके में हजारों कुएँ खोदे गये। साथ ही, चापाकल भी लगाये गये और आज भी प्रति वर्ष कमोबेश लगाये जा रहे हैं लेकिन अफसोस उसमें से अधिकांश चापाकल आज खराब पड़े हैं और कुएँ का पानी पाताल चला गया है। इन दिनों जल स्वच्छता अभियान के तहत पेयजल संकट से निपटने के लिये सरकार द्वारा प्रखंड स्तर पर शिकायत पेटियाँ लगाई गई हैं, लेकिन शिकायतकर्ताओं का मानना है कि 80 प्रतिशत शिकायतों पर कोई कार्यवाही नहीं होती।
यहाँ गौरतलब है कि इस स्थिति की मार पुरुष कम स्त्री जाति यानी लड़कियाँ ज्यादा झेलती हैं। जिस तरह भोजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी लड़कियों की है, उसी तरह पीने का पानी भी उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी उन्हीं की है। अब ऐसे में पीने का पानी लाने के लिये इन्हें दूर जाना पड़ता है। गर्मी के दिनों में उनके लिये यह काम और कठिन हो जाता है। आस-पास के सारे जलस्रोत सूख जाते हैं। तब साफ पानी के अभाव में इन्हें जमा हुआ पानी तक पीना पड़ता है, जिससे कई तरह की बीमारियों का शिकार होना पड़ता है। घर की लिपाई-पुताई का काम भी, जो आदिवासी लड़कियों का एक विशेष हुनर है, लड़कियों के जिम्मे होता है और इसके लिये भी पानी की जरूरत पड़ती है जो लड़कियों को ही लाना पड़ता है, भले हो कई किलोमीटर दूर से जाकर लाना पड़े। दुमका-पाकुड़ रोड में काठी कुण्ड-गोपीकरन्दर जैसे पहाड़ी इलाकों और साथ ही दुमका-रामपुरहाट-सिगड़ी रोड में शिकारीपाड़ा वाले इलाके में रोज सुबह-शाम सिर पर घड़ा उठाये पानी के लिये दूर आती-जाती लड़कियाँ दिख जायेंगी।
इसके अलावे पानी की किल्लत का सबसे बुरा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है। संथाल पुरुष तो बदन खोलकर घूमता रहता है। गर्मी के दिनों में संथाली लड़कियों को नहाने और कपड़े साफ करने जैसी भारी समस्या का सामना करना पड़ता है। यह समस्या भी बीमारियाँ पैदा करती है। एक विशेष बात यह है कि पहले आस-पास जो जलस्रोत होते थे, उनमें मछलियाँ भी मिल जाती थीं जिनका उपयोग आदिवासी लोग खान-पान में करते थे। अब मछलियाँ मूल्यवान चीज होती जा रही हैं। थोड़ी-बहुत अगर मेहनत-मशक्कत के बाद मिलती भी हैं तो वह पुरुषों के हिस्से चली जाती हैं, लड़कियों को नसीब नही होती।
जंगलों के विनाश या उनमें कमी आने से लड़कियों का यह विशिष्ट ज्ञान नष्ट हो रहा है। इसके कारण कई बीमारियों का इलाज जो पहले वे खुद से कर लिया करती थीं, अब इसके लिये उन्हें नीम-हकीम, झोलाछाप डॉक्टरों या फिर बड़े डॉक्टरों से इलाज के लिये दूर चलकर शहर जाना पड़ता है जिसमें शारीरिक कष्ट के साथ-साथ भारी आर्थिक क्षति भी होती है। इसमें सबसे ज्यादा घाटा लड़कियों को उठाना पड़ रहा है। एक तो प्रकृति संबंधित उनके विशिष्ट ज्ञान उनसे छीनते जा रहे हैं, वहीं दूसरी और इसका खमियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ रहा है। स्त्री संबंधी जिन रोगों का इलाज पहले वे खुद कर लिया करती थीं, अब जड़ी-बूटी न मिलने के कारण अपना इलाज वे स्वयं नहीं कर या रही हैं और चुपचाप अंदर ही अंदर उसका दुष्परिणाम झेल रही हैं।प्रकृति के साथ स्त्री जाति के विशिष्ट रिश्ते की उनकी जानकारी के भंडार पर भी असर पड़ता था। जंगल और पेड़ों के साथ रोजमर्रा के सम्पर्क के कारण स्त्री जाति ऐसे कई प्रकार की जड़ी-बूटियों के बारे में जानकारी प्राप्त करती थी या पहचानती थी जो कई तरह की बीमारियों का निदान कर सकती हैं, यह ज्ञान माता के जरिये बेटी के द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहा है। जंगलों के विनाश या उनमें कमी आने से लड़कियों का यह विशिष्ट ज्ञान नष्ट हो रहा है। इसके कारण कई बीमारियों का इलाज जो पहले वे खुद से कर लिया करती थीं, अब इसके लिये उन्हें नीम-हकीम, झोलाछाप डॉक्टरों या फिर बड़े डॉक्टरों से इलाज के लिये दूर चलकर शहर जाना पड़ता है जिसमें शारीरिक कष्ट के साथ-साथ भारी आर्थिक क्षति भी होती है। इसमें सबसे ज्यादा घाटा लड़कियों को उठाना पड़ रहा है। एक तो प्रकृति संबंधित उनके विशिष्ट ज्ञान उनसे छीनते जा रहे हैं, वहीं दूसरी और इसका खमियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ रहा है। स्त्री संबंधी जिन रोगों का इलाज पहले वे खुद कर लिया करती थीं, अब जड़ी-बूटी न मिलने के कारण अपना इलाज वे स्वयं नहीं कर या रही हैं और चुपचाप अंदर ही अंदर उसका दुष्परिणाम झेल रही हैं। इतना ही नहीं, पहले अपने पशुओं को होने वाली बीमारियों का इलाज भी वे स्वयं जड़ी-बूटियों से कर लिया करती थीं लेकिन अब जानवरों के इलाज के लिये भी उनकी निर्भरता जंगलों की बजाय बाहरी लोगों पर बढ़ गयी है।
गहराई में जाकर देखें तो पहले वन आधारित कई कुटीर उद्योग भी इस इलाके में चला करते थे जिसमें बड़े पैमाने पर लड़कियाँ शामिल रहती थीं। आज वे कुटीर उद्योग लुप्त हो रहे हैं। लुप्त होने वाले उद्योगों में तसर, लाख और सवई घास पर आधारित उद्योग प्रमुख हैं। इसका दुष्परिणाम भी स्त्री जाति को ही भुगतना पा रहा है।
अब जैसा कि उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि संथाल आदिवासियों की पूरी सामुदायिक व्यवस्था पर्यावरण असंतुलन का शिकार हो रही है और इस असंतुलन का सबसे ज्यादा जिन्हें बोझ सहन करना पड़ रहा है- वह है आदिवासी लड़कियाँ या स्त्री जाति! सामुदायिक व्यवस्था में आये प्राकृतिक असंतुलन ने लड़कियों को बड़े पैमाने पर आजीविका के लिये गाँव से बाहर जाने के लिए मजबूर किया है। हालाँकि पलायन और विस्थापन इस इलाके की पुरानी समस्या है, लेकिन तथाकथित सरकारी विकास के बावजूद भी यह आज घटा नहीं बल्कि और बढ़ा है। ध्यातव्य हो कि संथाल विद्रोह के बाद ही इन्हें असम, पूर्णियां, उड़ीसा है चम्पारण और यहाँ तक कि मेसोपोटामिया भी सोची-समझी साजिश के तहत भेजा गया, लेकिन आजादी और खासकर इधर हाल के दो-तीन दशकों के बाद का पलायन और विस्थापन पूरी तरह पर्यावरण असंतुलन की देन है। आज भी देश के पूर्वी हिस्से में जहाँ कहीं भी बाँध या बराज बनता है, वहाँ संथाल परगना से न सिर्फ पत्थरों के छोटे-बड़े टुकड़े ले जाये जाते हैं बल्कि उसे ढ़ोने और बिछाने के लिये यहाँ के लोगों, विशेषकर आदिवासी महिलाओं को ले जाया जाता है।
दुमका क्षेत्र के पास से बहती नदी मयूराक्षी पर बाँध बनाकर बंगाल के कई इलाकों में 'हरित क्रांति' लायी गयी, लेकिन नदी के तट पर बसे आदिवासी ‘सूखी क्रांति' के शिकार हो गये। मयूराक्षी पर बाँध बनने से दुमका का चापुरिया गाँव पूरी तरह प्रभावित हो गया है। चापूरिया के गाम प्रधान वकील मुर्मू बताते हैं कि बाँध बनने से पहले यहाँ 200 से अधिक परिवार रहा करते थे, पर अब मात्र 10-12 परिवार बचे हैं। बाँध बनने से पहले यह गाँव बहुत खुशहाल था। बाँध बनने के बाद विस्थापित लोगों को बसने के लिये कई तरह की जमीन दी गयी, लेकिन सभी जमीन 'टांड़ी' निकली। ऐसी जमीन पर रह कर इनकी आजीविका नहीं चल सकती थी, सो सब इधर-उधर हो गये। जमीन से उजड़ने का सबसे बुरा असर लड़कियों पर पड़ा। ऐसे एक नहीं बल्कि कई गाँव हैं। इसका परिणाम है कि आज बड़ी संख्या में आदिवासी, जिनमें लड़कियों की तादाद 70 प्रतिशत के आस-पास है, पश्चिम बंगाल में धान रोपने और काटने के लिये जाते हैं। ये संथाल लड़कियाँ वस्तुत: बंगाल की हरित क्रांति की रीढ़ हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार इस क्षेत्र के लोग साल में चार बार बंगाल जाते हैं। हर बार बीरभूम और बर्दमान जिला का दलाल, जिससे ‘गुमाश्ता’ कहा जाता है, इन्हें लेने आता है। ये लोग पाड़ाहाट, मचंदा, शिमला, मुखड़ा, बाबूनारा, सीलीगुडी आदि इलाकों में जाते हैं। इन इलाकों में धान की मुख्यत: दो फसलें ली जाती हैं अगहनी और गरमा धान। इन दोनों धानों को रोपने और काटने का काम संथाल परगना की मजदूर आदिवासी महिलाएँ ही करती हैं। ये लोग लगभग चार महीने तक बाहर रहती हैं। चूँकि रास्ते का भोजन और किराये का प्रबंध गुमाश्ता करता है, अतः इन्हें एक सप्ताह बेगारी करनी पड़ती है।
सूर्योदय से पहले इन्हें काम पर लग जाना पड़ता है जो सूर्यास्त तक चलता रहता है। इस पूरी अवधि के जो लगभग 14 -15 घंटे का होता है, इन्हें लगभग 40-50 रुपये मिलते हैं। अधिकांश आदिवासी इस इलाके में साक्षरता के व्यापक आंदोलन के बावजूद ठीक से अपने हिसाब का जोड़-घटाव नहीं कर पाते हैं, इसलिये अक्सर ठेकेदार इन्हें पैसा देने में बेईमानी कर लेता है। सबसे आश्चर्य है, इस पूरे श्रम में छोटी-छोटी लड़कियों का लगना। गाँव में जीविका का आधार खत्म हो जाने के कारण पूरा का पूरा परिवार ही मज़दूरी करने निकल पड़ता है। मई-जून के महीने में दुमका बस स्टैण्ड पर एक-दो नहीं बल्कि सैकडों की तादाद में 10-12 साल से लेकर 15-16 तक की लड़कियाँ दिख जायेंगी जो बंगाल में हरित क्रांति लाने गयी थी। पर्यावरण असंतुलन की ऐसी मार शायद ही किसी इलाके की लड़कियों को झेलनी पड़ी हो।
जंगल और जमीन से उजड़ी आदिवासि लड़कियाँ आज अपनी ही जमीन पर पाकुड़ और दुमका-रामपुरहाट मार्ग के शिकारीपाड़ा इलाके में पत्थर उद्योग में लगी दिखाई देती हैं। जमीन से उजड़ी सिद्धों-कान्हू की ये बेटियाँ कहीं ईंट लादते, बालू ढ़ोते दिख जायेंगी। इतना ही नहीं पड़ोसी राज्य बिहार के पटना इलाके के ईंट-भट्ठों पर भी संथाल आदिवासी लड़कियाँ काफी तादाद में मिल जाती हैं, जहाँ इनके साथ छेड़-छाड़, शारीरिक शोषण आदि की घटनाएँ होती रहती हैं। इसी बात-चीत में स्वयं वे लोग भी स्वीकारते हैं कि बंगाल गई लड़कियों के साथ ज्यादातर घटनाएँ घटती है। रात में अक्सर गुमाश्ता या ठेकेदार स्थानीय लोगों के साथ इनके डेरों में घुस आता है और मनचाही लड़कियों को ले जाता है, इन्हें रोकने वाला कोई नहीं होता। यहाँ तक कि उन्हीं महिलाओं में से किसी महिला के माध्यम से लड़कियों को आसानी से पटाकर उठा ले जाने का काम किया जाता है। कई लड़कियाँ तो गर्भवती होकर लौटती है, जहाँ समाज के कठोर दंड का सामना इन्हें करना पड़ता है। आज भी इस इलाके में इस तरह के दर्जनों केस मिल जायेंगे जहाँ बंगाल से गर्भवती होकर लौटी लड़कियों को घर-परिवार और समाज से निष्कासित कर दिया गया है और अंतत: वे वेश्यावृत्ति के पेशे में उतरने को मजबूर हो जाती हैं।
इस प्रकार इन हालात को देखते हुए प्रकृति से महिलाओं के विशेष रिश्ते को नकारना मुश्किल है। इसलिये पर्यावरण को बचाना है तो किसी भी कार्यक्रम में महिलाओं की भागीदारी सबसे पहले सुनिश्चित करनी होगी। लेकिन अफसोस, झारखंड के अलग राज्य बने इतने सालों के बाद भी झारखंड नामधारी पार्टियों सहित आज तक किसी पार्टी ने प्रकृति के साथ सामाजिक रिश्ते को जोड़ा नहीं और न ही इसे मुद्दा बनाया। थोड़ा-बहुत काम अगर इस क्षेत्र ने कार्यरत स्वयंसेवी संस्थाओं और उसके कार्यकर्ताओं ने किया भी तो वे अपने आन्दोलन को किसी निर्णायक मुकाम तक नहीं पहुँचा सके। जब वन प्रबंधन व विकास के लिये सरकार की वर्तमान नीति और ग्राम समितियों के प्रति वन विभाग के रवैये को लेकर कुछ जानकार ग्रामीणों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से बातचीत की गयी तो लोगों ने बताया कि वन संरक्षण व संवर्द्धन के प्रति ग्राम समितियों की उदासीनता के कई कारण हैं। झारखंड राज्य में 1998 में निर्मित वन नियमों में कई नियम ऐसे हैं, जिनपर पुनीर्वचार करने की आवश्यकता है। संकल्प-पत्र के अनुसार संयुक्त वन प्रबंधन समिति में 18 निर्वाचित तथा 7 पदेन सदस्य की बात कही गई है।निर्वाचित सदस्यों में सदस्य सचिव का पद वन विभाग के लिये आरक्षित है और पदेन सदस्य में मुखिया, सरपंच, मानकी मुंडा, परगनैत, माझी जैसे स्थानीय प्रतिनिधियों को रखने का प्रावधान है, लेकिन अफसोस कि इसे व्यावहारिक रूप से जमीन पर लागू नहीं किया जा सका है। संयुक्त वन प्रबंधन समिति को ग्रामीण वन विकास के लिये कुल आय का 90 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण समितियों के माध्यम से खर्च करना है, शेष 10 प्रतिशत राशि वन विभाग के लिये सुनिश्चित की गयी है।
परन्तु समिति को विघटित करने का अधिकार वन पदाधिकारी को प्राप्त है, जो समिति के प्रजातांत्रिक पद्धति के अनुकूल नहीं दिखता। वन सीमाओं में पकड़ी गई लकड़ियों से प्राप्त जुर्माना का अधिकार समिति को प्राप्त है जिसके कारण वे लोग खुले दिल से वन संरक्षण के लिये आगे नहीं आ पाते और वन विभाग तथा समिति की गतिविधियों के प्रति उदासीन रहते हैं। बातचीत में जब सरकार से उनकी अपेक्षाओं को लेकर चर्चा की गयी तो कई महत्त्वपूर्ण बातें उभरकर सामने आई। गाँव के लोग चाहते हैं कि जंगल के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिये ग्राम सभाओं को पूरी जिम्मेदारी मिलनी चाहिये। झारखंड में वन क्षेत्र का नया नक्शा बनाना चाहिये ताकि आम लोगों को पता चल सके कि किस गाँव में कहाँ, कितने जंगल हैं। इस तरह की और भी कई महत्त्वपूर्ण और गौरतलब बाते हैं, जिन शर्तों पर लोग सरकार के साथ मिलकर इस मुद्दे पर काम करना चाहते हैं, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। परिणामत: जंगल का विनाश जारी है, जिससे आदिवासी समाज खासकर लड़कियों व महिलाओं का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। ऐसे में क्या यह नहीं लगता कि आज जंगल को जिस ममता के साथ बचाने की जरूरत है, वह काम माँ बनने की क्षमता रखने वाली स्त्री जाति ही कर सकती है?
झारखंड प्रोफाइल के आँकड़े बताते है कि यहाँ कुल 23,04,729 हेक्टेयर वन हैं जिनमें 17,79,032 हेक्टेयर प्रोटेक्टेड वन, 5,25,054 हेक्टेयर रिजर्व वन और 653 हेक्टेयर वर्गीकृत हैं। जंगलों से हरे-भरे संथाल परगना की बात करें तो वर्तमान में इस प्रमंडल में मात्र 13.65 फीसदी ही वन क्षेत्र बचा है। परिणामतः आदिवासियों की संस्कृति खतरे में पड़ गयी हैं। गौरतलब है कि कुल 14,026 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले छह जिले - दुमका, देवघर, गोड्डा, साहेबगंज, पाकुड़ व जामताड़ा को समेटे संथाल परगना प्रमंडल में वर्तमान में 1,939 वर्ग किमी वन क्षेत्र बचा है जो सम्पूर्ण क्षेत्रफल का 13.65 फीसदी ही है।
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 1936 में 62.50 प्रतिशत क्षेत्र वन या परती जमीन बढ़ने और वनों की कटाई से भी वन क्षेत्र घटने की पुष्टि होती है। प्राप्त आँकड़ों के मुताबिक 1975-76 में सम्पूर्ण संथाल परगना प्रमंडल में जहाँ 2,31,000 हेक्टेयर परती जमीन थी, वहीं 10 वर्ष के अंतराल में 1,98,000 हेक्टेयर हो गयी और वर्तमान में तो 2,25,000 हेक्टेयर है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक 3,405 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले पाकुड़ व साहेबगंज जिले में 8,561.70 एकड़ सरकारी वन है जबकि पहले दोनों जिले वनों से आच्छादित थे। कुल 5,258 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले दुमका जिले में कुल 49.10 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्रों में लगभग 44 हजार हेक्टेयर यानी 90 प्रतिशत जंगलों का सफाया हो चुका है। इसी तरह कुल 2,479 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले देवघर जिले में 18.75 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र पूरी तरह वीरान हो चुका है। जबकि गोड्डा जिले में जिसका कुल क्षेत्रफल 2,110 वर्ग किमी है, केवल 1,891.37 हेक्टेयर क्षेत्र में विस्तृत बांस के जंगल हैं, जो प्रायः समाप्ति के कगार पर हैं। 10.42 हेक्टेयर वन तो भगवान भरोसे ही बचे हुए हैं।
जानकार सूत्रों के मुताबिक संथाल परगना प्रमंडल के वन क्षेत्रों को दो भागों में बाँटा गया है। एक तो सरकारी और दूसरा पहाड़िया जनजाति की रैयती संपत्ति। लेकिन अफसोस अशिक्षा, बेकारी एवं भूख की वजह से ये पहाड़िया आदिवासी जहाँ अपने रैयती जंगलों को काटते हैं वहीं इनकी कमजोरियों का लाभ उठाकर वन माफिया इनसे सरकारी वनों को भी कटवाने से बाज नहीं आते। इन भोले-भाले ग्रामीणों को बहला-फुसलाकर लकड़ी माफिया चिन्हित स्थानों पर लकड़ी पहुँचाने के लिये बतौर एडवांस भी देते हैं। निर्धारित स्थानों पर लकड़ी इकट्ठा होने के बाद वन माफिया ट्रकों पर लादकर उक्त लकड़ी को पश्चिम बंगाल भेजते हैं। लकड़ी भेजने के क्रम में जितने भी थाने पड़ते हैं, सुविधा शुल्क चुकाकर आराम से ट्रक पास करा लेते हैं। इतना हीं नहीं रेलगाड़ियों से भी जंगलों से काटी गयी लकड़ियाँ जलावन के लिये वहाँ भेजी जाती हैं। उसके लिए प्रति बोझा 4-5 रुपये जीआरपी वाले वसूलते हैं। इसके अलावे और भी कई तरीके से लकड़ी का व्यापार और इसकी तस्करी करने वाले लोग जंगलों की अवैध कटाई में लगे हैं। परिणामत: जहाँ एक ओर इस कारोबार में लगा माफिया वर्ग मालामाल हो रहा है वहीं दूसरी और वन आश्रित ग्रामीण आदिवासी समुदाय की आर्थिक व्यवस्था चरमराने लगी है।
अब जहाँ तक सवाल जंगलों के विनाश से प्रभावित होते आदिवासियों विशेषकर विशेष कर स्त्रियों के जीवन की बात है तो उसके संबंध में वंदना शिवा जैसी महिला पर्यावरणविदों का मानना है कि तीसरी दुनिया के देशों की महिलाएँ प्रकृति पर निर्भर हैं। वे अपने और परिवार के जीवन के आधार प्रकृति से लेती हैं। इसलिये प्रकृति का विनाश महिलाओं के जिन्दा रहने के स्रोत का विनाश है। शिवा का यह मानना है कि विकास के मुद्दे पर महिलाओं की भागीदारी को नकारना भी प्रकृति के विनाश का कारण है। दूसरी ओर दिल्ली स्थित इन्स्टीच्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर बीना अग्रवाल का कहना है कि प्रकृति के साथ औरत और मर्द के रिश्ते को समझने के लिये जरूरी है कि हम इस वास्तविकता को जाने कि पर्यावरण के साथ इनका किन-किन रूपों में संबंध है। समाज में लिंग और वर्ग (जाति/नस्ल) की इस संरचना के आधार पर लोगों का प्रकृति से रिश्ता है। इसलिये पर्यावरणीय बदलाव का असर भी इसी आधार पर पड़ता है। चूँकि प्रकृति के बारे में अनुभव जनित ज्ञान का आधार उसके साथ बने रिश्ते पर निर्भर करता है इसलिये पर्यावरणीय असंतुलन का असर भी इसीके मुताबिक पड़ेगा।
इस बात को यूँ समझा जा सकता है कि आमतौर पर आदिवासी लड़कियाँ या महिलाएँ ही जंगलों से जलावन के लिये लकड़ियाँ और कंदमूल फल तथा अन्य वनोपज लाती है, इसलिये पर्यावरण नुकसान का सीधा असर उसी पर पड़ेगा। इसी तरह इनका वहाँ के वृक्षों के साथ रोजमर्रा का संबंध है, इसके चलते उनके पास अनुभव जनित ज्ञान का भण्डार इकट्ठा हो जाता है। अगर वनों का नाश होता है तो जाहिर है उसके ज्ञान का नाश भी होगा ही। ये स्थिति पुरुषों की नहीं होती है। इसलिये प्रकृति के साथ पूरे समाज का वही रिश्ता नहीं होता, जो महिलाओं का होता है।
झारखंड के संथाल परगना के इलाके में लड़कियाँ या स्त्री जाति कहना ज्यादा बेहतर होगा, पर्यावरणीय नुकसान का सीधा असर झेल रही हैं। प्रकृति के साथ हुई छेड़-छाड़ का खमियाजा संथाली लड़कियों को अपने श्रम से चुकाना पड़ रहा है।
संथाली समाज में प्रकृति के साथ रिश्ते का आधार लिंग वर्ग पर आधारित है। परिवार के लिये भोजन जुटाने की जिम्मेदारी लड़कियों की होती है। उन्हें फल-फूल तो जंगल से लाने ही होते हैं साथ ही जलावन, बांस, जड़ी-बूटी, चारा, पत्ता, खाद आदि के लिये भी जंगल पर निर्भर रहना पड़ता। इसलिये संथाल स्त्री जाति का संबंध पेड़ों और जंगलों से जीवन होता है। वे उनके लिये जीवन का स्रोत हैं। दूसरी ओर पुरुषों का संबंध पेड़ों पर कुल्हाड़ी उठाने का ज्यादा होता है। प्रकृति के साथ यही हिंसा, स्त्री जाति के प्रति पुरुषों द्वारा होने वाली हिंसा के रूप में दिखाई पड़ती है।
संथाली लड़कियों को घर में पीने के लिये पानी लाना पड़ता है। जानवरों को चराने के लिये जंगल ले जाना पड़ता है। फसल बोने से लेकर काटने तक की जिम्मेदारी भी उसी की होती है। कुल मिलाकर हल चलाने को छोड़कर खेती से संबंधित सारा काम लड़कियाँ ही करती हैं। इनमें भी जो भूमिहीन हैं या जिनके पास कम जमीन है, प्रकृति या आस-पास के पर्यावरण पर उनकी ज्यादा ही निर्भरता देखने को मिलती है। मूल-रूप से विशुद्ध कृषि प्रधान समाज होने के कारण इसके सारे गुण-अवगुण संथालों के बीच दिखायी देते हैं। प्रकृति के साथ उनका रिश्ता भी उनकी इसी सामाजिक संरचना का हिस्सा है। यहाँ के लोगों को भोजन के लिये मुख्यत: खेती और वनोपज पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
गाँव के बड़े- बुजुर्ग और जानकार लोग बताते हैं कि बरसात के दिनों में बरसने वाला पानी साल वृक्ष की जड़ों के माध्यम से भूतल में जमा रहता था और यहीं सिंचित जल बरसात के बाद धीरे-धीरे सोता बनकर बहता रहता था जिससे गाँव वालों को नदियों एवं जल-स्रोतों से पीने एवं खेतों को सींचने के लिये पर्याप्त जल उपलब्ध हो जाता था। गाँव पहाड़ के टीलों पर बसा हो या घाटी में, कभी भी पेयजल का संकट लोगों को भुगतना नहीं पड़ता था। परन्तु आज जंगलों के कटने के बाद नदियों में पानी टिकना मुश्किल हो गया है और सभी जलस्रोत विलुप्त होते जा रहे हैं। इससे जहाँ एक ओर खेती के लिये बड़ा संकट पैदा हो गया है वहीं दूसरी ओर पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। आज पेयजल संकट का जो भयावह रूप इस क्षेत्र में देखने को मिलता है वैसा पहले कभी नहीं था। पहाड़ या ऊँची जगहों पर रहने वाले आदिवासियों को तो सबसे ज्यादा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।1952 में बनी राष्ट्रीय वन नीति में कहा गया था कि कम से कम एक तिहाई क्षेत्र पर वन होने चाहिये, लेकिन अफसोस आज पूरे देश में वनों की स्थिति खराब है। एक आँकड़े के मुताबिक यह लगभग 20 प्रतिशत के आस-पास है। संथाल परगना की हालत इससे अलग नहीं है। प्राप्त आँकड़े के मुताबिक 1936 में इस इलाके में 62.50 प्रतिशत क्षेत्र में जंगल फैला था, जो अब मात्र 13.65 प्रतिशत पर पहुँच गया है। वन विभाग द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक दुमका क्षेत्र में 1951-52 से लेकर 1975-76 के बीच 4,135.75 हजार हेक्टेयर वन-भूमि को आधिकारिक रूप से साफ किया गया, जिसमें 479.1 हजार हेक्टेयर का उपयोग जलाशय और नहरों के निर्माण में, 2,506.9 हजार हेक्टेयर कृषि और हरित क्रांति के लिये, 57.1 हजार हेक्टेयर सड़क निर्माण के लिये और 965.4 हजार हेक्टेयर का उपयोग अन्य विकास योजनाओं में हुआ। यह भी अनुमान लगाया कि बड़े पैमाने पर गैर कानूनी ढँग से भी पेड़ काटे गये। गोड्डा जिले के ललमटिया में व्यापक तौर पर कोयला उत्खनन प्रारम्भ करने के पहले दौर में ही एक हजार एकड़ घने जंगल का सफाया कर दिया गया।
आज संथाल परगना के सभी इलाको में इस पर्यावरण नुकसान का सीधा असर पड़ा है। जब आस-पास जंगल थे, तो लड़कियों को जलावन की लकड़ियाँ बीनने के लिये दूर नहीं जाना पड़ता था। वे जलावन की चिन्ता से मुक्त रहती थी। साथ ही, जानवरों को चराने के लिये भी इन्हें दूर नहीं ले जाना पड़ता था। बिना फसल वाले महीनों में पशुओं का गोबर खेत में ही चराते वक्त रह जाया करता था, जो खाद का काम करता था। आज जब वे जंगल धीरे-धीरे कटकर खत्म हो रहे हैं, तो जलावन की किल्लत तो हो ही रहीं है, इसे चुनने में भी काफी वक्त लगने लगा है। पहले घर से निकल कर लड़कियाँ आस-पास से ही लकड़ियाँ बिन लाती थी, लेकिन अब उसके लिये उसे दूर जाना पड़ता है जिससे रोज 3-4 घंटे, लगभग आधा बेला समय लग जाता है। ठीक यही बात पशुओं को चराने में भी लागू होती है, क्योंकि इसके लिये भी उन्हें दूर जाना पड़ता है। उस पर गर्मियों के दिनों में तो अक्सर हादसे की आशंका बनी रहती है। इसके अलावे पहले जो गोबर विशुद्ध रूप से खेती में खाद के रूप काम आता था, वह अब जलावन के रूप में उपयोग होने लगा है। इसका सीधा असर खेती की गुणवत्ता पर पड़ रहा है।
बारीकी से देखें-परखें तो आदिवासी समुदाय के घर-परिवार से जूड़े और भी बहुत सारे काम ऐसे हैं जिनकी जिम्मेदारी का बोझ लड़कियाँ एवं महिलाएँ उठाती हैं। जैसे छोटी-मोटी घरेलू आय के लिये दोनों, पत्तल, चटाई, झाड़ू पंखा आदि बनाने का काम भी महिलाओं के जिम्मे होता है। जिसके लिये उन्हें न सिर्फ जंगल से पत्ते लाने पड़ते है बल्कि सुबह से शाम तक ईंधन, पानी, रसोई से जुड़े रोजमर्रा के काम के बीच उनको बनाने के लिये पर्याप्त समय निकालना पड़ता है, इतना ही नहीं, अपने तैयार किये सामानों को हाट-बाजार में ले जाकर उसे बेचना भी पड़ता है। पेड़ों के कटाव ने इस काम पर भी असर डाला है। वे पत्ते लाने के लिये दूर तक जाती हैं जहाँ समय भी लगता है और कई अनहोनी दुर्घटनाओं की भी आशंका बनी रहती है। जंगलों के कटाव का आदिवासी लड़कियों या महिलाओं पर जो सबसे बड़ा। असर पड़ा है, वह है वनोपज और ईंधन-पानी की भारी किल्लत।
संथाल समाज में एक तरह से भोजन उपलब्ध कराने का जिम्मा स्त्री जाति पर ही है। इसलिए इससे संबंधित सारे काम इन्हें ही करने पड़ते हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि संथाल समाज कृषि आधारित समाज रहा है और यहाँ जल,जंगल और जमीन का उस समाज से अटूट संबंध रहा है। संथालों को खाद्य पदार्थ जुटाने के दो प्रमुख स्रोत थे - जमीन और जंगल। जंगल से वे कटहल, आम, बेल, ताड़, खजूर, महुआ, जामुन आदि कई तरह के फल, कंद-मूल इकट्ठा किया करते थे। और ये काम स्त्रीयाँ ही किया करती थीं। आपातकाल में जब जमीन से पर्याप्त अनाज की पैदावार नहीं होती थी, तब यही वनोपज काम आते थे। साथ ही, ये पूरक पदार्थ भी थे, जो उनके स्वास्थ्य को बनाये रखते थे। आज स्थिति उलट है। जंगल के कटाव और बचे जंगलों के राष्ट्रीय-करण से खाद्य पदार्थ का एक बड़ा आधार इनसे छिन गया, जिसका सीधा असर आदिवासी लड़कियों व महिलाओं पर पड़ रहा है। घर में अगर कम फल हुए तो वह पुरुषों को मिल जाते हैं। यही नहीं, पहले आमतौर पर वनोपज बेचे नहीं जाते थे, लेकिन अब आर्थिक बदहाली के कारण इसे अपने लिये उपयोग करने की बजाय बेच देते हैं।
पानी की स्थिति भी देखें तो संथाल परगना क्षेत्र में गंगा, बांसलोइ, ब्राह्मणी, अजय और मयूराक्षी जैसी कई बड़ी नदियाँ हैं, तो कई जलप्रपात भी। इसके अलावे प्रत्येक गाँव में 1-2- बड़े जलस्रोत हुआ करते थे, जिसमें सालों भर पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध रहता था। गाँव के बड़े- बुजुर्ग और जानकार लोग बताते हैं कि बरसात के दिनों में बरसने वाला पानी साल वृक्ष की जड़ों के माध्यम से भूतल में जमा रहता था और यहीं सिंचित जल बरसात के बाद धीरे-धीरे सोता बनकर बहता रहता था जिससे गाँव वालों को नदियों एवं जल-स्रोतों से पीने एवं खेतों को सींचने के लिये पर्याप्त जल उपलब्ध हो जाता था। गाँव पहाड़ के टीलों पर बसा हो या घाटी में, कभी भी पेयजल का संकट लोगों को भुगतना नहीं पड़ता था। परन्तु आज जंगलों के कटने के बाद नदियों में पानी टिकना मुश्किल हो गया है और सभी जलस्रोत विलुप्त होते जा रहे हैं। इससे जहाँ एक ओर खेती के लिये बड़ा संकट पैदा हो गया है वहीं दूसरी ओर पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। आज पेयजल संकट का जो भयावह रूप इस क्षेत्र में देखने को मिलता है वैसा पहले कभी नहीं था। पहाड़ या ऊँची जगहों पर रहने वाले आदिवासियों को तो सबसे ज्यादा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। आज से कई वर्ष ‘पहले जल है, जान है’ योजना के तहत इस इलाके में हजारों कुएँ खोदे गये। साथ ही, चापाकल भी लगाये गये और आज भी प्रति वर्ष कमोबेश लगाये जा रहे हैं लेकिन अफसोस उसमें से अधिकांश चापाकल आज खराब पड़े हैं और कुएँ का पानी पाताल चला गया है। इन दिनों जल स्वच्छता अभियान के तहत पेयजल संकट से निपटने के लिये सरकार द्वारा प्रखंड स्तर पर शिकायत पेटियाँ लगाई गई हैं, लेकिन शिकायतकर्ताओं का मानना है कि 80 प्रतिशत शिकायतों पर कोई कार्यवाही नहीं होती।
यहाँ गौरतलब है कि इस स्थिति की मार पुरुष कम स्त्री जाति यानी लड़कियाँ ज्यादा झेलती हैं। जिस तरह भोजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी लड़कियों की है, उसी तरह पीने का पानी भी उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी उन्हीं की है। अब ऐसे में पीने का पानी लाने के लिये इन्हें दूर जाना पड़ता है। गर्मी के दिनों में उनके लिये यह काम और कठिन हो जाता है। आस-पास के सारे जलस्रोत सूख जाते हैं। तब साफ पानी के अभाव में इन्हें जमा हुआ पानी तक पीना पड़ता है, जिससे कई तरह की बीमारियों का शिकार होना पड़ता है। घर की लिपाई-पुताई का काम भी, जो आदिवासी लड़कियों का एक विशेष हुनर है, लड़कियों के जिम्मे होता है और इसके लिये भी पानी की जरूरत पड़ती है जो लड़कियों को ही लाना पड़ता है, भले हो कई किलोमीटर दूर से जाकर लाना पड़े। दुमका-पाकुड़ रोड में काठी कुण्ड-गोपीकरन्दर जैसे पहाड़ी इलाकों और साथ ही दुमका-रामपुरहाट-सिगड़ी रोड में शिकारीपाड़ा वाले इलाके में रोज सुबह-शाम सिर पर घड़ा उठाये पानी के लिये दूर आती-जाती लड़कियाँ दिख जायेंगी।
इसके अलावे पानी की किल्लत का सबसे बुरा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है। संथाल पुरुष तो बदन खोलकर घूमता रहता है। गर्मी के दिनों में संथाली लड़कियों को नहाने और कपड़े साफ करने जैसी भारी समस्या का सामना करना पड़ता है। यह समस्या भी बीमारियाँ पैदा करती है। एक विशेष बात यह है कि पहले आस-पास जो जलस्रोत होते थे, उनमें मछलियाँ भी मिल जाती थीं जिनका उपयोग आदिवासी लोग खान-पान में करते थे। अब मछलियाँ मूल्यवान चीज होती जा रही हैं। थोड़ी-बहुत अगर मेहनत-मशक्कत के बाद मिलती भी हैं तो वह पुरुषों के हिस्से चली जाती हैं, लड़कियों को नसीब नही होती।
जंगलों के विनाश या उनमें कमी आने से लड़कियों का यह विशिष्ट ज्ञान नष्ट हो रहा है। इसके कारण कई बीमारियों का इलाज जो पहले वे खुद से कर लिया करती थीं, अब इसके लिये उन्हें नीम-हकीम, झोलाछाप डॉक्टरों या फिर बड़े डॉक्टरों से इलाज के लिये दूर चलकर शहर जाना पड़ता है जिसमें शारीरिक कष्ट के साथ-साथ भारी आर्थिक क्षति भी होती है। इसमें सबसे ज्यादा घाटा लड़कियों को उठाना पड़ रहा है। एक तो प्रकृति संबंधित उनके विशिष्ट ज्ञान उनसे छीनते जा रहे हैं, वहीं दूसरी और इसका खमियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ रहा है। स्त्री संबंधी जिन रोगों का इलाज पहले वे खुद कर लिया करती थीं, अब जड़ी-बूटी न मिलने के कारण अपना इलाज वे स्वयं नहीं कर या रही हैं और चुपचाप अंदर ही अंदर उसका दुष्परिणाम झेल रही हैं।प्रकृति के साथ स्त्री जाति के विशिष्ट रिश्ते की उनकी जानकारी के भंडार पर भी असर पड़ता था। जंगल और पेड़ों के साथ रोजमर्रा के सम्पर्क के कारण स्त्री जाति ऐसे कई प्रकार की जड़ी-बूटियों के बारे में जानकारी प्राप्त करती थी या पहचानती थी जो कई तरह की बीमारियों का निदान कर सकती हैं, यह ज्ञान माता के जरिये बेटी के द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहा है। जंगलों के विनाश या उनमें कमी आने से लड़कियों का यह विशिष्ट ज्ञान नष्ट हो रहा है। इसके कारण कई बीमारियों का इलाज जो पहले वे खुद से कर लिया करती थीं, अब इसके लिये उन्हें नीम-हकीम, झोलाछाप डॉक्टरों या फिर बड़े डॉक्टरों से इलाज के लिये दूर चलकर शहर जाना पड़ता है जिसमें शारीरिक कष्ट के साथ-साथ भारी आर्थिक क्षति भी होती है। इसमें सबसे ज्यादा घाटा लड़कियों को उठाना पड़ रहा है। एक तो प्रकृति संबंधित उनके विशिष्ट ज्ञान उनसे छीनते जा रहे हैं, वहीं दूसरी और इसका खमियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ रहा है। स्त्री संबंधी जिन रोगों का इलाज पहले वे खुद कर लिया करती थीं, अब जड़ी-बूटी न मिलने के कारण अपना इलाज वे स्वयं नहीं कर या रही हैं और चुपचाप अंदर ही अंदर उसका दुष्परिणाम झेल रही हैं। इतना ही नहीं, पहले अपने पशुओं को होने वाली बीमारियों का इलाज भी वे स्वयं जड़ी-बूटियों से कर लिया करती थीं लेकिन अब जानवरों के इलाज के लिये भी उनकी निर्भरता जंगलों की बजाय बाहरी लोगों पर बढ़ गयी है।
गहराई में जाकर देखें तो पहले वन आधारित कई कुटीर उद्योग भी इस इलाके में चला करते थे जिसमें बड़े पैमाने पर लड़कियाँ शामिल रहती थीं। आज वे कुटीर उद्योग लुप्त हो रहे हैं। लुप्त होने वाले उद्योगों में तसर, लाख और सवई घास पर आधारित उद्योग प्रमुख हैं। इसका दुष्परिणाम भी स्त्री जाति को ही भुगतना पा रहा है।
अब जैसा कि उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि संथाल आदिवासियों की पूरी सामुदायिक व्यवस्था पर्यावरण असंतुलन का शिकार हो रही है और इस असंतुलन का सबसे ज्यादा जिन्हें बोझ सहन करना पड़ रहा है- वह है आदिवासी लड़कियाँ या स्त्री जाति! सामुदायिक व्यवस्था में आये प्राकृतिक असंतुलन ने लड़कियों को बड़े पैमाने पर आजीविका के लिये गाँव से बाहर जाने के लिए मजबूर किया है। हालाँकि पलायन और विस्थापन इस इलाके की पुरानी समस्या है, लेकिन तथाकथित सरकारी विकास के बावजूद भी यह आज घटा नहीं बल्कि और बढ़ा है। ध्यातव्य हो कि संथाल विद्रोह के बाद ही इन्हें असम, पूर्णियां, उड़ीसा है चम्पारण और यहाँ तक कि मेसोपोटामिया भी सोची-समझी साजिश के तहत भेजा गया, लेकिन आजादी और खासकर इधर हाल के दो-तीन दशकों के बाद का पलायन और विस्थापन पूरी तरह पर्यावरण असंतुलन की देन है। आज भी देश के पूर्वी हिस्से में जहाँ कहीं भी बाँध या बराज बनता है, वहाँ संथाल परगना से न सिर्फ पत्थरों के छोटे-बड़े टुकड़े ले जाये जाते हैं बल्कि उसे ढ़ोने और बिछाने के लिये यहाँ के लोगों, विशेषकर आदिवासी महिलाओं को ले जाया जाता है।
दुमका क्षेत्र के पास से बहती नदी मयूराक्षी पर बाँध बनाकर बंगाल के कई इलाकों में 'हरित क्रांति' लायी गयी, लेकिन नदी के तट पर बसे आदिवासी ‘सूखी क्रांति' के शिकार हो गये। मयूराक्षी पर बाँध बनने से दुमका का चापुरिया गाँव पूरी तरह प्रभावित हो गया है। चापूरिया के गाम प्रधान वकील मुर्मू बताते हैं कि बाँध बनने से पहले यहाँ 200 से अधिक परिवार रहा करते थे, पर अब मात्र 10-12 परिवार बचे हैं। बाँध बनने से पहले यह गाँव बहुत खुशहाल था। बाँध बनने के बाद विस्थापित लोगों को बसने के लिये कई तरह की जमीन दी गयी, लेकिन सभी जमीन 'टांड़ी' निकली। ऐसी जमीन पर रह कर इनकी आजीविका नहीं चल सकती थी, सो सब इधर-उधर हो गये। जमीन से उजड़ने का सबसे बुरा असर लड़कियों पर पड़ा। ऐसे एक नहीं बल्कि कई गाँव हैं। इसका परिणाम है कि आज बड़ी संख्या में आदिवासी, जिनमें लड़कियों की तादाद 70 प्रतिशत के आस-पास है, पश्चिम बंगाल में धान रोपने और काटने के लिये जाते हैं। ये संथाल लड़कियाँ वस्तुत: बंगाल की हरित क्रांति की रीढ़ हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार इस क्षेत्र के लोग साल में चार बार बंगाल जाते हैं। हर बार बीरभूम और बर्दमान जिला का दलाल, जिससे ‘गुमाश्ता’ कहा जाता है, इन्हें लेने आता है। ये लोग पाड़ाहाट, मचंदा, शिमला, मुखड़ा, बाबूनारा, सीलीगुडी आदि इलाकों में जाते हैं। इन इलाकों में धान की मुख्यत: दो फसलें ली जाती हैं अगहनी और गरमा धान। इन दोनों धानों को रोपने और काटने का काम संथाल परगना की मजदूर आदिवासी महिलाएँ ही करती हैं। ये लोग लगभग चार महीने तक बाहर रहती हैं। चूँकि रास्ते का भोजन और किराये का प्रबंध गुमाश्ता करता है, अतः इन्हें एक सप्ताह बेगारी करनी पड़ती है।
सूर्योदय से पहले इन्हें काम पर लग जाना पड़ता है जो सूर्यास्त तक चलता रहता है। इस पूरी अवधि के जो लगभग 14 -15 घंटे का होता है, इन्हें लगभग 40-50 रुपये मिलते हैं। अधिकांश आदिवासी इस इलाके में साक्षरता के व्यापक आंदोलन के बावजूद ठीक से अपने हिसाब का जोड़-घटाव नहीं कर पाते हैं, इसलिये अक्सर ठेकेदार इन्हें पैसा देने में बेईमानी कर लेता है। सबसे आश्चर्य है, इस पूरे श्रम में छोटी-छोटी लड़कियों का लगना। गाँव में जीविका का आधार खत्म हो जाने के कारण पूरा का पूरा परिवार ही मज़दूरी करने निकल पड़ता है। मई-जून के महीने में दुमका बस स्टैण्ड पर एक-दो नहीं बल्कि सैकडों की तादाद में 10-12 साल से लेकर 15-16 तक की लड़कियाँ दिख जायेंगी जो बंगाल में हरित क्रांति लाने गयी थी। पर्यावरण असंतुलन की ऐसी मार शायद ही किसी इलाके की लड़कियों को झेलनी पड़ी हो।
जंगल और जमीन से उजड़ी आदिवासि लड़कियाँ आज अपनी ही जमीन पर पाकुड़ और दुमका-रामपुरहाट मार्ग के शिकारीपाड़ा इलाके में पत्थर उद्योग में लगी दिखाई देती हैं। जमीन से उजड़ी सिद्धों-कान्हू की ये बेटियाँ कहीं ईंट लादते, बालू ढ़ोते दिख जायेंगी। इतना ही नहीं पड़ोसी राज्य बिहार के पटना इलाके के ईंट-भट्ठों पर भी संथाल आदिवासी लड़कियाँ काफी तादाद में मिल जाती हैं, जहाँ इनके साथ छेड़-छाड़, शारीरिक शोषण आदि की घटनाएँ होती रहती हैं। इसी बात-चीत में स्वयं वे लोग भी स्वीकारते हैं कि बंगाल गई लड़कियों के साथ ज्यादातर घटनाएँ घटती है। रात में अक्सर गुमाश्ता या ठेकेदार स्थानीय लोगों के साथ इनके डेरों में घुस आता है और मनचाही लड़कियों को ले जाता है, इन्हें रोकने वाला कोई नहीं होता। यहाँ तक कि उन्हीं महिलाओं में से किसी महिला के माध्यम से लड़कियों को आसानी से पटाकर उठा ले जाने का काम किया जाता है। कई लड़कियाँ तो गर्भवती होकर लौटती है, जहाँ समाज के कठोर दंड का सामना इन्हें करना पड़ता है। आज भी इस इलाके में इस तरह के दर्जनों केस मिल जायेंगे जहाँ बंगाल से गर्भवती होकर लौटी लड़कियों को घर-परिवार और समाज से निष्कासित कर दिया गया है और अंतत: वे वेश्यावृत्ति के पेशे में उतरने को मजबूर हो जाती हैं।
इस प्रकार इन हालात को देखते हुए प्रकृति से महिलाओं के विशेष रिश्ते को नकारना मुश्किल है। इसलिये पर्यावरण को बचाना है तो किसी भी कार्यक्रम में महिलाओं की भागीदारी सबसे पहले सुनिश्चित करनी होगी। लेकिन अफसोस, झारखंड के अलग राज्य बने इतने सालों के बाद भी झारखंड नामधारी पार्टियों सहित आज तक किसी पार्टी ने प्रकृति के साथ सामाजिक रिश्ते को जोड़ा नहीं और न ही इसे मुद्दा बनाया। थोड़ा-बहुत काम अगर इस क्षेत्र ने कार्यरत स्वयंसेवी संस्थाओं और उसके कार्यकर्ताओं ने किया भी तो वे अपने आन्दोलन को किसी निर्णायक मुकाम तक नहीं पहुँचा सके। जब वन प्रबंधन व विकास के लिये सरकार की वर्तमान नीति और ग्राम समितियों के प्रति वन विभाग के रवैये को लेकर कुछ जानकार ग्रामीणों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से बातचीत की गयी तो लोगों ने बताया कि वन संरक्षण व संवर्द्धन के प्रति ग्राम समितियों की उदासीनता के कई कारण हैं। झारखंड राज्य में 1998 में निर्मित वन नियमों में कई नियम ऐसे हैं, जिनपर पुनीर्वचार करने की आवश्यकता है। संकल्प-पत्र के अनुसार संयुक्त वन प्रबंधन समिति में 18 निर्वाचित तथा 7 पदेन सदस्य की बात कही गई है।निर्वाचित सदस्यों में सदस्य सचिव का पद वन विभाग के लिये आरक्षित है और पदेन सदस्य में मुखिया, सरपंच, मानकी मुंडा, परगनैत, माझी जैसे स्थानीय प्रतिनिधियों को रखने का प्रावधान है, लेकिन अफसोस कि इसे व्यावहारिक रूप से जमीन पर लागू नहीं किया जा सका है। संयुक्त वन प्रबंधन समिति को ग्रामीण वन विकास के लिये कुल आय का 90 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण समितियों के माध्यम से खर्च करना है, शेष 10 प्रतिशत राशि वन विभाग के लिये सुनिश्चित की गयी है।
परन्तु समिति को विघटित करने का अधिकार वन पदाधिकारी को प्राप्त है, जो समिति के प्रजातांत्रिक पद्धति के अनुकूल नहीं दिखता। वन सीमाओं में पकड़ी गई लकड़ियों से प्राप्त जुर्माना का अधिकार समिति को प्राप्त है जिसके कारण वे लोग खुले दिल से वन संरक्षण के लिये आगे नहीं आ पाते और वन विभाग तथा समिति की गतिविधियों के प्रति उदासीन रहते हैं। बातचीत में जब सरकार से उनकी अपेक्षाओं को लेकर चर्चा की गयी तो कई महत्त्वपूर्ण बातें उभरकर सामने आई। गाँव के लोग चाहते हैं कि जंगल के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिये ग्राम सभाओं को पूरी जिम्मेदारी मिलनी चाहिये। झारखंड में वन क्षेत्र का नया नक्शा बनाना चाहिये ताकि आम लोगों को पता चल सके कि किस गाँव में कहाँ, कितने जंगल हैं। इस तरह की और भी कई महत्त्वपूर्ण और गौरतलब बाते हैं, जिन शर्तों पर लोग सरकार के साथ मिलकर इस मुद्दे पर काम करना चाहते हैं, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। परिणामत: जंगल का विनाश जारी है, जिससे आदिवासी समाज खासकर लड़कियों व महिलाओं का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। ऐसे में क्या यह नहीं लगता कि आज जंगल को जिस ममता के साथ बचाने की जरूरत है, वह काम माँ बनने की क्षमता रखने वाली स्त्री जाति ही कर सकती है?