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चरखा फिचर्स, अक्टूबर 2013
संताल परगना प्रमण्डल के वन क्षेत्रों को दो भागों में बाँटा गया है। एक तो सरकारी और दूसरा पहाड़िया जनजाति की रैयत संपत्ति। लेकिन अफसोस अशिक्षा, बेकारी एवं भूख की वजह से ये पहाड़िया आदिवासी जहाँ अपने रैयत जंगलों को काटते है, वहीं इनकी कमजोरियों का लाभ उठाकर माफ़िया भी इनसे सरकारी वनों को भी कटवाने से बाज नहीं आते। इन भोले-भाले ग्रामीणों को बहला-फुसलाकर लकड़ी माफिया चिन्हित स्थानों पर लकड़ी पहुँचाने के लिए गरीब आदिवासियों को एडवांस पैसा भी देते हैं। इस तरह लकड़ी को पश्चिम बंगाल भेजा जाता है। वनाधिकार कानून को लागू हुए आज कई वर्ष बीत गए बावजूद वन क्षेत्र में रह रहे आदिवासियों एवं अन्य समुदायों को आज तक उनके वास्तविक अधिकार नहीं मिल सके हैं। ऐसे में जंगल आधारित अर्थव्यवस्था पर जीवनयापन करने वालों के लिए दो वक्त की रोटी हासिल करना भी काफी मुश्किल है। जंगल के लगातार कम होते रकबे की वजह से आदिवासियों व अन्य समुदाय की एक बड़ी आबादी भूख, गरीबी और बेकारी का शिकार है। वैसे तो जंगली इलाकों के बारे में लोगों का मानना है कि जिस इलाके में आज भी भरपूर जंगल है, वहाँ भूख से कोई नहीं मर सकता है। लेकिन साथ में हकीक़त यह भी है कि विभागीय उदासीनता, कर्मचारियों की मिलीभगत व आदिवासी समुदायों में जागरूकता की कमी के कारण आज पूरे संताल परगना में वन माफियाओं द्वारा जंगलों की अवैध कटाई जारी है। जंगलों की लगातार हो रही अवैध कटाई से पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है। पर्यावरण संतुलन बिगड़ने से लोग बीमारी और भूखमरी का शिकार हो रहे हैं। संताल परगना प्रमण्डल कुल 14026 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले छहः जिले, दुमका, देवघर, गोड्डा, साहेबगंज, पाकुड़ व जामताड़ा को समेटे हुए है। वर्तमान में 1939 वर्ग किमी वन क्षेत्र बचा है जो संपूर्ण क्षेत्रफल का 13.65 फीसदी ही है। वनों के घटते रकबे का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पहले 5158 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले दुमका जिले में कुल 49.10 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्रों में लगभग 44 हजार हेक्टेयर यानि 90 प्रतिशत जंगलों का सफाया हो चुका है।
जानकार सूत्रों के मुताबिक संताल परगना प्रमण्डल के वन क्षेत्रों को दो भागों में बाँटा गया है। एक तो सरकारी और दूसरा पहाड़िया जनजाति की रैयत संपत्ति। लेकिन अफसोस अशिक्षा, बेकारी एवं भूख की वजह से ये पहाड़िया आदिवासी जहाँ अपने रैयत जंगलों को काटते है, वहीं इनकी कमजोरियों का लाभ उठाकर माफ़िया भी इनसे सरकारी वनों को भी कटवाने से बाज नहीं आते। इन भोले-भाले ग्रामीणों को बहला-फुसलाकर लकड़ी माफिया चिन्हित स्थानों पर लकड़ी पहुँचाने के लिए गरीब आदिवासियों को एडवांस पैसा भी देते हैं। इस तरह लकड़ी को पश्चिम बंगाल भेजा जाता है। जंगलों के लगातार खात्मे से इसका सीधा असर यहां की गरीब आदिवासी जनता पर पड़ रहा है। खासतौर से आदिवासी महिलाओं की जिदंगी पर इसका असर साफतौर से देखा जा सकता है। इस संबंध में प्रसिद्ध पर्यावरणविद वंदना शिवा का मानना है कि ‘‘तीसरी दुनिया के देशों की महिलाएँ प्रकृति पर निर्भर हैं। वे अपने और परिवार के जीवन के आधार प्रकृति से लेती हैं। इसलिए प्रकृति का विनाश महिलाओं को जिंदा रहने के स्रोत का विनाश है।
संताल समाज में प्रकृति के साथ रिश्ते का आधार लिंग, वर्ग पर आधारित है। परिवार के लिए भोजन जुटाने की जिम्मेवारी लड़कियों की होती है। उन्हें फल-फूल तो जंगल से लाने ही होते हैं, साथ ही जलावन, बाँस, जड़ी-बूटी, चारा, पत्ता, खाद आदि के लिए भी जंगल पर निर्भर रहना पड़ता है। प्रकृति के साथ यही हिंसा, स्त्री जाति के प्रति पुरूषों द्वारा होने वाली हिंसा के रूप में दिखाई पड़ती है। आदिवासी लड़कियों को ही घर में पीने के लिए पानी लाना पड़ता है। जानवरों को चराने के लिए जंगल ले जाना पड़ता है। फसल बोने से लेकर काटने तक की ज़िम्मेदारी भी उसी की होती है। ऐसे में ग्रामीण आदिवासियों को बहला-फुसलाकर वनों की कटाई का सीधा खामियाज़ा तो स्त्रियों को ही उठाना पड़ रहा है। गोड्डा जिले के ललमटिया में कोयला उत्खन्न प्रांरभ होने से पहले एक हजार एकड़ घने जंगल का सफाया कर दिया गया। आज संताल परगना के सभी इलाकों में इस पर्यावरण नुकसान का सीधा असर पड़ा है। ग़ौरतलब है कि जब आसपास जंगल थे, तो लड़कियों को जलावन के लिए लकड़ियाँ बिनने दूर नहीं जाना पड़ता था। वे जलावन की चिंता से मुक्त रहती थी। साथ ही जानवरों को चराने के लिए भी उन्हें दूर नहीं ले जाना पड़ता था। इस मुद्दे को बारीकी से देखें परखें तो आदिवासी समुदाय के घर-परिवार से जुड़े और भी बहुत सारे काम ऐसे हैं जिसकी जिम्मेदारी का बोझ लड़कियाँ एवं महिलाएँ उठाती हैं। जैसे छोटी-मोटी आय के लिए चटाई, झाड़ू और पंखा आदि बनाने का काम भी महिलाओं के ज़िम्मे होता है जिसके लिए उन्हें जंगलों से पत्ते लाने पड़ते हैं। ऐसे में वनों के लगातार खात्मे से आदिवासी महिलाओं की कमाई भी काफी प्रभावित हुई है।
संताल आदिवासी समाज में एक तरह से भोजन उपलब्ध कराने का काम घर की महिलाओं पर ही है। इसलिए उससे संबंधित सारे काम उन्हें ही करने पड़ते हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि संताल समाज कृषि आधारित समाज रहा है और यहाँ जल, जंगल, ज़मीन का उस समाज से अटूट संबंध रहा है। संतालों के खाद्य पदार्थ जुटाने के दो प्रमुख स्रोत थे-ज़मीन और जंगल। जंगल से वे कटहल, आम, बेल, ताड़, खजूर, जामुन आदि कई तरह के फल कंद-मूल इकट्ठा किया करते थे और ये काम स्त्रियाँ ही किया करती थीं। ग़ौरतलब है कि इस स्थिति की मार पुरूष कम स्त्री जाति यानि लड़कियाँ व महिलाएँ ज्यादा झेलती हैं। प्रकृति के साथ स्त्री जाति के विशिष्ट रिश्ते का उनकी जानकारी के भंडार पर भी असर पड़ता था। इसको इस प्रकार से समझा जा सकता है कि जंगल और पेड़ों के साथ रोज़मर्रा के सम्पर्क के कारण स्त्री जाति ऐसे कई प्रकार की जड़ी-बुटियों के बारे में जानकारी प्राप्त करती थी या पहचानती थी जो कई तरह की बीमारियों का निदान कर सकती है। इसके कारण कई बीमारियों का इलाज जो पहले वे खुद से कर लिया करती थी, अब इसके लिए उन्हें नीम-हकीम, झोला छाप डॉक्टरों या फिर बड़े डॉक्टरों से इलाज के लिए दूर चलकर शहर जाना पड़ता है। मुद्दे की गहराई में जाकर देखें तो इसके और भी कई पहलू हैं। पहले वन आधारित कई कुटिर उद्योग भी इस इलाके में चला करते थे जिसमें बड़े पैमाने पर लड़कियाँ शामिल रहती थीं। आज वे कुटीर उद्योग लुप्त हो रहे हैं। लुप्त होने वाले उद्योग में तसर, लाख और सवई घास प्रमुख हैं। इन उद्योगों के बर्बाद होने से आदिवासी महिलाओं के सामने बरोज़गारी की समस्या भी खड़ी हो गई है।
इस प्रकार के उपरोक्त हालात को देखते हुए प्रकृति से महिलाओं के विशेष रिश्ते को नकारना मुश्किल है। झारखंड में वन क्षेत्र का नया नक्शा बनना चाहिए ताकि आमलोगों को पता चल सके किसी गाँव में कहाँ कितना जंगल है। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन की स्थिति भी किसी से छिपी हुई नहीं है। परिणामतः जंगल का विनाश जारी है जिससे आदिवासी समाज खासकर लड़कियों व महिलाओं का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है।
जानकार सूत्रों के मुताबिक संताल परगना प्रमण्डल के वन क्षेत्रों को दो भागों में बाँटा गया है। एक तो सरकारी और दूसरा पहाड़िया जनजाति की रैयत संपत्ति। लेकिन अफसोस अशिक्षा, बेकारी एवं भूख की वजह से ये पहाड़िया आदिवासी जहाँ अपने रैयत जंगलों को काटते है, वहीं इनकी कमजोरियों का लाभ उठाकर माफ़िया भी इनसे सरकारी वनों को भी कटवाने से बाज नहीं आते। इन भोले-भाले ग्रामीणों को बहला-फुसलाकर लकड़ी माफिया चिन्हित स्थानों पर लकड़ी पहुँचाने के लिए गरीब आदिवासियों को एडवांस पैसा भी देते हैं। इस तरह लकड़ी को पश्चिम बंगाल भेजा जाता है। जंगलों के लगातार खात्मे से इसका सीधा असर यहां की गरीब आदिवासी जनता पर पड़ रहा है। खासतौर से आदिवासी महिलाओं की जिदंगी पर इसका असर साफतौर से देखा जा सकता है। इस संबंध में प्रसिद्ध पर्यावरणविद वंदना शिवा का मानना है कि ‘‘तीसरी दुनिया के देशों की महिलाएँ प्रकृति पर निर्भर हैं। वे अपने और परिवार के जीवन के आधार प्रकृति से लेती हैं। इसलिए प्रकृति का विनाश महिलाओं को जिंदा रहने के स्रोत का विनाश है।
संताल समाज में प्रकृति के साथ रिश्ते का आधार लिंग, वर्ग पर आधारित है। परिवार के लिए भोजन जुटाने की जिम्मेवारी लड़कियों की होती है। उन्हें फल-फूल तो जंगल से लाने ही होते हैं, साथ ही जलावन, बाँस, जड़ी-बूटी, चारा, पत्ता, खाद आदि के लिए भी जंगल पर निर्भर रहना पड़ता है। प्रकृति के साथ यही हिंसा, स्त्री जाति के प्रति पुरूषों द्वारा होने वाली हिंसा के रूप में दिखाई पड़ती है। आदिवासी लड़कियों को ही घर में पीने के लिए पानी लाना पड़ता है। जानवरों को चराने के लिए जंगल ले जाना पड़ता है। फसल बोने से लेकर काटने तक की ज़िम्मेदारी भी उसी की होती है। ऐसे में ग्रामीण आदिवासियों को बहला-फुसलाकर वनों की कटाई का सीधा खामियाज़ा तो स्त्रियों को ही उठाना पड़ रहा है। गोड्डा जिले के ललमटिया में कोयला उत्खन्न प्रांरभ होने से पहले एक हजार एकड़ घने जंगल का सफाया कर दिया गया। आज संताल परगना के सभी इलाकों में इस पर्यावरण नुकसान का सीधा असर पड़ा है। ग़ौरतलब है कि जब आसपास जंगल थे, तो लड़कियों को जलावन के लिए लकड़ियाँ बिनने दूर नहीं जाना पड़ता था। वे जलावन की चिंता से मुक्त रहती थी। साथ ही जानवरों को चराने के लिए भी उन्हें दूर नहीं ले जाना पड़ता था। इस मुद्दे को बारीकी से देखें परखें तो आदिवासी समुदाय के घर-परिवार से जुड़े और भी बहुत सारे काम ऐसे हैं जिसकी जिम्मेदारी का बोझ लड़कियाँ एवं महिलाएँ उठाती हैं। जैसे छोटी-मोटी आय के लिए चटाई, झाड़ू और पंखा आदि बनाने का काम भी महिलाओं के ज़िम्मे होता है जिसके लिए उन्हें जंगलों से पत्ते लाने पड़ते हैं। ऐसे में वनों के लगातार खात्मे से आदिवासी महिलाओं की कमाई भी काफी प्रभावित हुई है।
संताल आदिवासी समाज में एक तरह से भोजन उपलब्ध कराने का काम घर की महिलाओं पर ही है। इसलिए उससे संबंधित सारे काम उन्हें ही करने पड़ते हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि संताल समाज कृषि आधारित समाज रहा है और यहाँ जल, जंगल, ज़मीन का उस समाज से अटूट संबंध रहा है। संतालों के खाद्य पदार्थ जुटाने के दो प्रमुख स्रोत थे-ज़मीन और जंगल। जंगल से वे कटहल, आम, बेल, ताड़, खजूर, जामुन आदि कई तरह के फल कंद-मूल इकट्ठा किया करते थे और ये काम स्त्रियाँ ही किया करती थीं। ग़ौरतलब है कि इस स्थिति की मार पुरूष कम स्त्री जाति यानि लड़कियाँ व महिलाएँ ज्यादा झेलती हैं। प्रकृति के साथ स्त्री जाति के विशिष्ट रिश्ते का उनकी जानकारी के भंडार पर भी असर पड़ता था। इसको इस प्रकार से समझा जा सकता है कि जंगल और पेड़ों के साथ रोज़मर्रा के सम्पर्क के कारण स्त्री जाति ऐसे कई प्रकार की जड़ी-बुटियों के बारे में जानकारी प्राप्त करती थी या पहचानती थी जो कई तरह की बीमारियों का निदान कर सकती है। इसके कारण कई बीमारियों का इलाज जो पहले वे खुद से कर लिया करती थी, अब इसके लिए उन्हें नीम-हकीम, झोला छाप डॉक्टरों या फिर बड़े डॉक्टरों से इलाज के लिए दूर चलकर शहर जाना पड़ता है। मुद्दे की गहराई में जाकर देखें तो इसके और भी कई पहलू हैं। पहले वन आधारित कई कुटिर उद्योग भी इस इलाके में चला करते थे जिसमें बड़े पैमाने पर लड़कियाँ शामिल रहती थीं। आज वे कुटीर उद्योग लुप्त हो रहे हैं। लुप्त होने वाले उद्योग में तसर, लाख और सवई घास प्रमुख हैं। इन उद्योगों के बर्बाद होने से आदिवासी महिलाओं के सामने बरोज़गारी की समस्या भी खड़ी हो गई है।
इस प्रकार के उपरोक्त हालात को देखते हुए प्रकृति से महिलाओं के विशेष रिश्ते को नकारना मुश्किल है। झारखंड में वन क्षेत्र का नया नक्शा बनना चाहिए ताकि आमलोगों को पता चल सके किसी गाँव में कहाँ कितना जंगल है। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन की स्थिति भी किसी से छिपी हुई नहीं है। परिणामतः जंगल का विनाश जारी है जिससे आदिवासी समाज खासकर लड़कियों व महिलाओं का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है।