देश को खुले में शौच से मुक्ति के लिये व्यवहार परिवर्तन की जरूरत है और उन्हें इस आवश्यकता से जोड़ना होगा। यह काम किसी एक व्यक्ति का नहीं है, यह पूरे समाज की समस्या है। समुदाय की समस्या को सही तरीके से समुदाय को अवगत कराने की जरूरत है। हमारा समुदाय इस समस्या का समाधान अपने आप करना जानता है। जहां भी समुदाय को साथ लेकर प्रयोग किये गए हैं उन ग्रामों या पंचायतों की स्थति आज ऐसे ग्राम पंचायतों से अलग है।
सांगोद (राजस्थान) । स्वतंत्रता के बाद से ही सरकारें अनुदान देकर देश को निर्मल बनाना चाहती हैं। तीन दशकों के भीतर स्वच्छता अभियान का तीन बार नाम बदला गया। सबसे पहले इसका नाम केंन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम रखा गया था। इसके बाद सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान और अब निर्मल भारत अभियान। बार-बार नाम बदलने से तो इस अभियान पर ही सन्देह होने लगा है। काम एक पर नाम अनेक। निर्मल भारत यात्रा के दौरान केन्द्रीय ग्रामीण एवं पेयजल स्वच्छता मंत्री जयराम रमेश ने बताया कि भारत सरकार रक्षा मंत्रालय के बाद निर्मल भारत अभियान को सर्वाधिक बजट दे रही है। केन्द्रीय ग्रामीण पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय की सहमति से ही निर्मल भारत, सुन्दर भारत बनाने का नारा लेकर इस समय वर्धा महाराष्ट्र से बेतिया बिहार तक निर्मल भारत यात्रा निकाली जा रही है। इस यात्रा की मुख्य आयोजक संस्थाएं जर्मनी बेस वाश युनाइटेड व इंडियन क्विकसैंड डिजाइन स्टूडियो प्रा.लि. ग्रामीणों व स्कूली बच्चों को हाथ धोना सिखा रही हैं।हमारा देश आजाद हुआ उस समय एक प्रतिशत घरों में शौचालय की सुविधा थी और 0.5 प्रतिशत उसका उपयोग होता था। आज 50 से 60 प्रतिशत लोगों के पास शौचालय की सुविधा उपलब्ध है, लेकिन 35 से 40 प्रतिशत ही इसका उपयोग करते हैं (भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक) । पूर्णतः यानि 100 प्रतिशत शौचालय का लक्ष्य कब हासिल होगा यह तो आने वाला समय बतायेगा, लेकिन यह लक्ष्य करोड़ों-अरबों रुपए खर्च कर प्रचार-प्रसार या जन-जागरूकता से पूरा होगा इसमें तो भारी सन्देह है। सवाल यह उठता है कि आजादी के बाद से जागरूकता व प्रचार-प्रसार में ही 66 वर्ष बीत गये तब पर भी हम शौचालय निर्माण व उसके शत-प्रतिशत लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाये। बावजूद इसके यात्रा, रैलियां, नारे और शिविर का आयोजन रुकने के बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं। हम पिछले 66 वर्षों के प्रयास का आकलन क्यों नहीं करना चाहते कि आखिर करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाने के बावजूद प्रत्येक घरों में शौचालय की सुविधा क्यों नहीं दे पाये। लोगों को जागरुक करने के नाम पर खूब धन खर्च हुआ। शौचालय बनवाने के लिये अनुदान की रकम हर तीसरे-चौथे साल बढ़ायी जा रही है। फिर भी किस चीज की कमी रह जा रही है कि देश में महज 35 प्रतिशत ही शौचालय उपयोग में आ पाये, और 60 प्रतिशत आबादी खुले में शौच कर रही है। अनुदान से अच्छा रिजल्ट न होने के बाद भी सरकार इस बात को क्यों नहीं समझ पा रही है कि केवल अनुदान या जागरूकता से ही भारत को शौचमुक्त नहीं बनाया जा सकता।
पिछले करीब एक दशक से व्यवहार परिवर्तन की थीम पर शौचालय निर्माण व उसके उपयोग पर क्रान्तिकारी बदलाव लाने के कार्य में जुटे शिवकुमार शर्मा का कहना है कि देश को खुले में शौचमुक्त कर निर्मल भारत बनाने के लिये कुछ नये और अभिनव कदम उठाने होंगे। सीधी सी बात यह है कि लाख प्रयास के बाद भी हम अभी तक शौचालय को लोगों की आवश्यकता से नहीं जोड़ पाये, जिसके आभाव में हमारे सारे प्रयासों पर पानी फिरता जा रहा है। विचार करने की बात है कि क्या शौचालय की आवश्यकता किसी बाहरी दबाव से संभव है। इसका सीधा सा जवाब है बिल्कुल नहीं। ऐसा होता तो हम कब का शौचमुक्त भारत बनाने की दिशा में ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल कर लिये होते। इतिहास इस बात का साक्षी है। भारतीय समाज ने दबाव या लालच में कभी भी किसी परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया है।
समाज में जो भी परिर्वतन हुए हैं वह किसी अनुदान या बाहरी दबाव से नहीं हुये हैं। आदिम काल में मनुष्य जंगल में रहता था। कच्चा भोजन खाता था। उनके भीतर जब स्वाद का विकास हुआ तो वह पकाकर खाने लगा। शर्म आयी तो शरीर ढकने लगे। भय और सुरक्षा की दृष्टि से वह आवास और समूह में रहने लगा। सामाजिक विकास क्रम में यह सारे विकास स्वतः हुये हैं न कि किसी दबाव में। न तो इसके लिये उन्हें किसी प्रकार का कोई अनुदान ही मिला।
आज मनुष्य को मकान बनाने हैं, शादी करने, श्राद्ध करने हैं, बच्चे पैदा करने एवं उनका लालन-पालन करने के लिए सरकार का कौन सा अनुदान मिलता है। प्रत्येक आदमी चाहे वह अमीर हो या गरीब वह अपनी क्षमता, मर्जी और हंसी-खुशी से करता है, मगर शौचालय निर्माण और उसके उपयोग की बात आती है तब अनुदान की बात कहां से आ जाती है। अनुदान ने लोगों को लालची और लापरवाह बना दिया। इसमें कोई दो राय नहीं कि जब तक हमारी सरकारें इसके लिए अनुदान देती रहेंगी तब तक हमारा देश खुले में शौच से मुक्त नहीं हो सकता।
देश को खुले में शौच से मुक्ति के लिये व्यवहार परिवर्तन की जरूरत है और उन्हें इस आवश्यकता से जोड़ना होगा। यह काम किसी एक व्यक्ति का नहीं है, यह पूरे समाज की समस्या है। समुदाय की समस्या को सही तरीके से समुदाय को अवगत कराने की जरूरत है। हमारा समुदाय इस समस्या का समाधान अपने आप करना जानता है। जहां भी समुदाय को साथ लेकर प्रयोग किये गए हैं उन ग्रामों या पंचायतों की स्थति आज ऐसे ग्राम पंचायतों से अलग है जिन ग्राम पंचायतों ने जुगाढ़ से निर्मल ग्राम पुरस्कार को हासिल कर लिया है, मगर खुले में शौच से मुक्ति आज तक नहीं मिल पायी।
जबकि निर्मल ग्राम पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया जाता है। सोचने की बात है कि जिस पुरस्कार को देश का प्रथम सर्वोच्च पद प्रदान करता हो और जिस कार्य के लिये दिया जा रहा हो वह कार्य हुआ ही न हो तो देश के साथ इससे बड़ा छलावा, धोखा कुछ भी नहीं है। एक आकड़े के मुताबिक पूरे देश में अब तक 28000 गांवों को निर्मल गांव का पुरस्कार दिया जा चुका है। महज पुरस्कार स्वरूप दी गई धनराशि ही अरबों में बैठेगी, जिसका किस तरह से दुरुपयोग किया गया यह किसी से छुपा नहीं है।
सेनिटेशन पर पिछले एक दशक से कार्य कर रहे सुनील चतुर्वेदी कहते हैं राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त निर्मल गांवों की स्थिति आज कैसी है, इसे मध्य प्रदेश के इन्दौर जिले में स्थित प्रथम निर्मल गांव पुरस्कार प्राप्त बिछौड़ा गांव को देखकर अच्छी तरह से जाना जा सकता है। 6-7 वर्ष पहले जब इस गांव को नर्मल गांव घोषित किया गया था, तो खुले में शौचमुक्त गांव का दावा किया गया था। जिसके लिए तत्कालीन सरपंच ने जरूर अथक प्रयास किया था। इसके लिये इस गांव को निर्मल पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया, लेकिन कुछ महीने बाद क्या हुआ। आधा गांव खुले में शौच करने लगा। कूड़े कचरे के लिए रखीं प्लास्टिक की बाल्टियां गायब होने लगीं। गांव के बाहर कूड़े के ढेर लग गए, जिससे पीने का पानी काफी मात्रा में प्रदूषित होने लगा। कमोबेश देश की ज्यादातर निर्मल पंचायतों का हाल ऐसा ही हुआ है या हो रहा है। इस प्रश्न पर सरकारें खामोश क्यों हैं। इस सच्चाई को आज तक कोई क्यों नहीं स्वीकार करना चाहता कि एक बार निर्मल गांव होने के बाद वहां दुबारा खुले में शौच कैसे प्रारंभ हो जाता है। इससे एक बात साफ है कि ऐसे गांव खुले में शौचमुक्त हुए ही नहीं या फिर किसी दबाव में एक खास समय तक के लिए निर्मल पुरस्कार के मानक पर वैसा बनाया गया था। कुछ सरकारी कर्यक्रमों की तरह सुनियोजित तरीके से। इसीलिए अब यह बात स्वयं सिद्ध हो चुकी है कि बाहरी दबाव या महज सरकारी अनुदान के सहारे निर्मल भारत की कल्पना नहीं की जा सकती। सुनील निर्मल गांवों का मूल्यांकन करने वाली एजेंसियों पर भी सवाल उठाते हैं कहते हैं कि निर्मल गांवों के चयन करने की शुरूआत ही गलत तरीके से हुई है।
व्यवहार परिवर्तन के बिना देश को कभी खुले में शौचमुक्त नहीं बनाया जा सकता। इस बात में कोई संन्देह नहीं होना चाहिये कि शौचालय निर्माण के लिए केवल अनुदान देना ही पर्याप्त नहीं हैं। भारत के सबसे निचले पायदान पर गुजर-बसर करने वाले समुदाय से लेकर समस्त देशवासियों से व्यवहार परिवर्तन की दरकार है। जिस दिन लोगों में व्यवहार परिवर्तन होगा किसी प्रचार-प्रसार व अनुदान की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। उस दिन शौचालय निर्माण में क्रांतिकारी बदलाव आयेगा। सरकार को चाहिये कि वह समुदाय में व्यवहार परिवर्तन पर अत्यधिक कार्य करे।