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जनसत्ता, 02 मार्च 2011
नदियों में बढ़ता प्रदूषण केवल पेयजल की दृष्टि से बड़ी समस्या नहीं है। इसके चलते आसपास के इलाकों में भूजल के प्रदूषित होते जाने के कारण लोगों में अनेक बीमारियां घर करती गई हैं। खेतों की उर्वरा-शक्ति लगातार क्षीण हो रही है।
यमुना में जहरीले रसायनों के घुल-मिल जाने से एक बार फिर दिल्ली में पेयजल का संकट पैदा हो गया है। पिछले एक महीने में यह दूसरी बार है जब ऐसी स्थिति के चलते पेयजल शोधन संयंत्रों को रोक देना पड़ा। दिल्ली जल बोर्ड का कहना है कि हरियाणा के कारखानों से निकलने वाले अमोनिया युक्त पानी को यमुना में मिलने से न रोके जा सकने की वजह से यह नौबत आई है। पंद्रह दिन पहले जब यह शिकायत मिली थी तो पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने हस्तक्षेप किया था। मगर स्थिति में कोई सुधार नहीं आ पाया। सवाल है कि बार-बार शिकायतें मिलने के बावजूद सरकारों के सामने कौन-सी मजबूरियां हैं जिनके चलते वे जहरीला पानी छोड़ने वाले कारखानों के खिलाफ कड़े कदम उठाने से हिचकती रही हैं। ताजा स्थिति के लिए हरियाणा को दोषी ठहरा कर दिल्ली सरकार और जल बोर्ड भले पल्ला झाड़ने की कोशिश करें, पर क्या वे अपनी जिम्मेदारियों से आंख मूंद सकते हैं? क्या वजह है कि सफाई अभियान को शुरू हुए एक दशक से अधिक बीत जाने के बावजूद यमुना गंदे नाले की शक्ल में बनी हुई है? राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की जिम्मेदारी मिली तो दिल्ली सरकार ने दावा किया कि यमुना को ब्रिटेन की टेम्स नदी की तरह बना दिया जाएगा।अब तक इस पर अरबों रुपए बहाए जा चुके हैं। लेकिन यमुना में गंदगी दिन पर दिन बढ़ती ही गई है। और अब हालत यह है कि शोधन के लिए संयंत्र भी जवाब दे रहे हैं। गंगा सफाई अभियान के सफल न हो पाने और अन्य नदियों के भी तटीय इलाकों के भूजल में जहरीले रसायनों की मौजूदगी के तथ्य उजागर होने पर कुछ महीने पहले पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को आड़े हाथों लिया था। उन्होंने कहा कि कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी को नदियों में मिलने से रोकने की जवाबदेही बोर्ड पर होगी। मगर हालत यह है कि पर्यावरण मंत्रालय की नाक के नीचे पड़ोसी राज्यों के कारखानों से निकलने वाला लाखों लीटर प्रदूषित पानी रोज यमुना में आकर मिल जाता है और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है। नदियों में बढ़ता प्रदूषण केवल पेयजल की दृष्टि से बड़ी समस्या नहीं है। इसके चलते आसपास के इलाकों में भूजल के प्रदूषित होते जाने के कारण लोगों में अनेक बीमारियां घर करती गई हैं। खेतों की उर्वरा-शक्ति लगातार क्षीण हो रही है। फिर भी सरकारें प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों केखिलाफ कोई कड़ा कदम नहीं उठा पा रहीं तो कुछ वजहें साफ हैं। ज्यादातर औद्योगिक इकाइयां रसूख वाले लोगों की हैं। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड उनके खिलाफ कोई कदम उठाने की कोशिश करता भी है तो वे राजनीतिक प्रभाव के चलते बच निकलते हैं। दिल्ली के शहरी इलाकों में चल रहे कारखानों को बाहर भेजने के लिए चले अभियान के बावजूद बहुत सारे रसूख वाले लोगों की इकाइयां अब भी अपनी जगह पर बनी हुई हैं। फिर गंदे पानी के शोधन के लिए लगाए गए संयंत्रों में से कई समुचित रखरखाव न हो पाने के कारण काम करना बंद कर चुके हैं। एक बार फिर दिल्ली के पेयजल संकट ने गंभीर चेतावनी दी है।
इसे अनसुना किया गया तो बहुत भयावह नतीजे होंगे।