14 मार्च 2022: नदियों के लिए कार्यवाही करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस (International Day of Action for Rivers 2022)

Submitted by Editorial Team on Mon, 03/14/2022 - 12:20

नदियों की चिंता करने वाले लोगों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नदियों के शुभ-लाभ के लिए दो मुबारक दिन मुकर्रर किए हैं। हर साल उन मुबारक दिनों को भारत सहित, लगभग सारी दुनिया में शिद्दत से मनाया जाता है। भारत के संदर्भ में कहें तो लगता है कि ये दोनों दिन, भारतीय नदियों के लिए लगभग स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे हैं। यह बयान विदेशी नदियों पर लागू नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सितम्बर का चौथा रविवार वैश्विक नदी दिवस (World River Day) मनाने के लिए और 14 मार्च नदियों के लिए काम करने के लिए (International Day of Action for Rivers ) मुकर्रर है। भारत के संदर्भ में, सितम्बर का चौथा रविवार आस्था, संस्कार और मानव सभ्यता के विकास का तो 14 मार्च उन मूल्यों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए सतत प्रयास करने का लोकहितकारी दिन है। 

14 मार्च का दिन, महात्मा गांधी तथा नदी प्रेमियों की भावना के अनुरुप, नदियों को अविरल, निर्मल, जीवनदायिनी और अक्षत रखने के लिए समर्पित भाव से संकल्पित होकर काम करने का दिन है। 14 मार्च का यह पावन दिन उसी भावना को जन-जन और व्यवस्था को जिम्मेदारी का भान कराने का दिन है। कार्यवाही की तैयारी और रोडमेप बनाने के लिए है। उसे, आस्था से ओतप्रेत पावन भावना और जिम्मेदारी से निभाने का दिन है - नदियों को लेकर, कागजी कार्यवाही या दिखावटी पहल का नहीं अपितु अपने आप से जवाब-सवाल का दिन है। नदियों की साल-दर-साल बिगडती सेहत के कारण अविलम्ब कार्यवाही का संकल्प लेने का दिन है।

नदियों के लिए कार्यवाही करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस

वैज्ञानिकों का नजरिया आम आदमी से हटकर होता है। वे गहरे पानी में गोता लगाकर ज्ञान के मोती खोजते हैं। उन्ही मोतियों से ज्ञान का अवदान मिलता है। अंधेरा छटता है। चीजें समझ में आती हैं पर हर वैज्ञानिक, अपनी  पृष्ठभूमि के कारण, एक जैसे मोती नहीं एकत्रित करता। उनके मोतयों में विविधता होती है। वे उन मोतियों को लगातार परिष्कृत करते हैं। इस हकीकत को उनकी पृष्ठभूमि प्रभावित करती हैं। कारण साफ है, क्योंकि नदी विज्ञान की अनेक शाखायें तथा उपशाखायें है। कुछ शाखाओं पर बायोलॉजिकल साइंस का दबदबा है, कुछ पर सिविल इंजीनियरों का तो कुछ को भूवैज्ञानिकों ने संभाल रखा है। इसके अलावा, धर्म, आस्था, इतिहास, कला और साहित्य का क्षेत्र अलग है। वैज्ञानिक जगत के अनेक लोगों का मानना है कि सबसे अधिक योगदान पर्यावरण पर काम करने वालों ने दिया है। लब्बोलुआब यह कि, यह पावन दिन, किसी खास विज्ञान का नहीं अपितु अनेक विधाओं के विद्वत जनों तथा नदी प्रेमियों का कार्यक्षेत्र है जिसे, गांधीजी की अपेक्षाओं के अनुरूप राजनैतिक इच्छाशक्ति विस्तार दे सकती है। देती भी है। 

लौटें भारतीय नदियों पर तो वैज्ञानिकों के एक वर्ग के अनुसार उन्हें हिमालयीन नदियों तथा प्रायद्वीपीय नदियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। यदि नदियों पर बांध बनाकर पानी का उपयोग तय करना है तो वह वर्गीकरण बदल जाता है। वह बेसिन प्लानिंग हो जाता है। यदि सूखी या वर्षा आधारित खेती वाले प्यासे इलाकों में खेती को सम्बल प्रदान करना है तो वाटरशेड आधारित वर्गीकरण उपयुक्त प्रतीत होता है। वहीं बायोलॉजिकल साईंस के वैज्ञानिकों की नजर में स्थिर पानी और प्रवाहित पानी की इकालाजी में उल्लेखनीय अन्तर है। यही अन्तर, एक और यदि विविधता को रेखांकित करता है तो दूसरी ओर नदियों पर कार्यवाही करने वाले वैज्ञानिकों, समाज और व्यवस्था को एक प्लेटफार्म पर लाने की पुरजोर पैरवी करता है। संक्षेप में उपरोक्त सभी वर्गीकरण वे अनमोल मोती हैं जिन्हें हमारे वैज्ञानिकों ने अथक परिश्रम से खोजा है और अलग-अलग क्षेत्र में विकास की कहानी लिखी है।

मकसद

नदियों की मौजूदा तस्वीर उस बदलाव का जीता-जागता दस्तावेज है जो पिछले साठ-सत्तर साल में आसमान से धूमकेतु की तरह जमीन पर आ रहा है या कुछ बदहाल नदियों के मामले में धरती पर आ चुका है। सैद्धान्तिक तौर नदियों की समस्या, चाहे वे हिमालयीन नदियाँ हों या प्रायद्वीपीय नदियाँ, लगभग एक जैसी है। कहीं कुछ अधिक तो कहीं कुछ कम। नदी के किसी हिस्से में अधिक तो किसी हिस्से में कुछ कम पर यह हकीकत है कि बहुत सारी नदियों का पानी, पीना तो दूर, स्नानयोग्य भी नहीं रहा। कहीं कहीं वह बीमारी का कारण बन गया है। यह सब मौटे तौर पर दो कारणों से हुआ है। पहला कारण है - नगरीय और रासायनिक खेती से नदी के पानी को प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से मिलने वाली अनुपचारित पानी, गंदगी, जहरीले रसायन इत्यादि। दूसरा है - नदी तंत्र में लगातार कम होता नान-मानसूनी प्रवाह। यह प्रवाह कछारी इलाकों तथा ग्लेसियरों से निकलने वाली नदियों में, प्रायद्वीपीय नदियों और असिंचित इलाकों में प्रवाहित नदियों की तुलना में अपेक्षाकृत कम है। कछारों में रहने वाले लोगों को भले ही यह अन्तर फौरी तौर पर सुखद प्रतीत होता हो पर जब नदी अस्मिता पर काम करने का वक्त आवेगा तब कछारी इलाकों और ग्लेसियरों से निकलने वाली नदियों का पुनर्वास बहुत अधिक चुनौतिपूर्ण होगा। यदि हम गंगा की बात करें तो गंगा की मुख्य धारा को बहुत सारा पानी उन सहायक नदियों से मिलता है जो राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार और उडिसा से आकर गंगा को अपना पानी सोंपकर धन्य हो जाती है। यदि नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा या कावेरी की बात करें तो सारा पानी बरसात से और सूखे माहों में भूजल भंडारों से मिलता है। दोनों ही स्थिति में, यदि इस योगदान की मात्रा घटती है तो प्रदूषण की मात्रा बढ़ती है। यह वह परिदृश्य है जो हमारी पृज्ञा को चुनौति दे रहा है और नदियों पर कार्यवाही करने वाले लोगों, वैज्ञानिकों तथा व्यवस्था को पेयजल, खेती और उद्योंगों इत्यादि पर तेजी से गहराते संकट से निजात पाने के लिए अवसर प्रदान कर रहा है। उनका हौसला बढ़ा रहा है। जंगलों और जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए माकूल अवसर प्रदान कर रहा है। 

अकसर कुछ लोग मानते हैं कि हालात काफी खराब हैं। बहुत सारी नदियां आई.सी.यू में हैं। यह सोचना काफी हद तक गलत है। भारत को बरसात और हिमपात से जितना पानी मिलता है उसकी समानुपातिक मात्रा को अधिकांश नदियों को अविरल और निर्मल बनाने में उपयोग में लाया जा सकता है। एकाकी सोच अनदेखी का शिकार है। 

पूरी दुनिया में मनाया जाता है 

14 मार्च 2022 को हम संकल्प लेकर नदियों का वर्तमान संवार सकते हैं। काम प्रारंभ करने के लिए पहली आवश्यकता सही अवधारणा विकसित करने की है। यह आवश्यकता सभी स्टेकहोल्डर्स, योजना प्रबन्धकों और योजनाकारों को एक प्लेटफार्म पर लाकर विकसित करना होगा। नदी अस्मिता बहाली के संदर्भ में प्रचलित अवधारणा में आमूलचूल बदलाव कराना होगा। नवाचार और निर्णय के अधिकारों का विकेन्द्रीकरण करना होगा। भारत के भूविज्ञान, भूगोल, भूजल दोहन और नदियों की चारित्रिक विविधता को ध्यान में विभिन्न क्षेत्रों में अनुसन्धान पर जोर देना होगा। एकला चलो की नीति को छोड़ना होगा। इस सब के साथ जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, वह है सक्षम टीम जो नदियों को समग्रता में समझती है और जिसमें जिम्मेदारी स्वीकारने की काबलियत है। उल्लेखनीय है कि भगवान राम ने लंकापति रावण को जीतने के लिए अयोध्या या किसी राजा की सेना से मदद नहीं ली थी। उन्होंने वानरों और रीछों की सेना को चुना था। यही आज आवश्यक है। उस आवश्यकता को पूरा कर हम धरती पर पानी के हस्ताक्षर अर्थात नदियों की पुरानी भूमिका को बहाल कर सकते हैं।