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ग्लेशियरों से पिघला पानी हिमालय में एक दर्जन से ज्यादा छोटी-बड़ी झीलों के रूप में इकट्ठा हो रहा है। सतलुज, चेनाब, ब्यास और मन्दाकिनी नदियों के स्रोतों के पास इन झीलों का बढ़ता आकार बहुत खतरनाक है। यहाँ झीलों के भीतर पानी का दबाव इतना बढ़ रहा है कि कभी भी इनके टूटने की स्थिति बन सकती है। लाहौल की गेपांग घाट झील की जद में सामरिक महत्त्व का मनाली-लेह राजमार्ग भी आ रहा है। पार्वती नदी के स्रोत में बना ग्लेशियर भी खतरनाक स्थिति से पिघल रहा है।। केदारनाथ मन्दिर की एक और ऐसी हकीक़त सामने आई है जिससे कम लोग ही वाक़िफ़ होंगे। वैज्ञानिकों के मुताबिक केदारनाथ मन्दिर 400 साल तक बर्फ के नीचे दबा था, लेकिन फिर भी उसे कुछ नहीं हुआ। इसीलिये जियोलॉजिस्ट और वैज्ञानिक इस बात से हैरान नहीं हैं कि ताजा जलप्रलय में केदारनाथ मन्दिर बच गया। शायद यही वजह है कि केदारनाथ मन्दिर को जल प्रलय के थपेड़ों से कोई नुकसान नहीं हुआ।
केदारनाथ मन्दिर के पत्थरों पर पीली रेखाएँ हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक ये निशान दरअसल ग्लेशियर के रगड़ से बने हैं। ग्लेशियर हर वक्त खिसकते रहते हैं और जब वो खिसकते हैं तो उनके साथ न सिर्फ बर्फ का वजन होता है बल्कि साथ में वो जितनी चीजें लिये चलते हैं वो भी रगड़ खाती हुई चलती हैं।
अब सोचिए जब करीब 400 साल तक मन्दिर ग्लेशियर से दबा रहा होगा तो इस दौरान ग्लेशियर की कितनी रगड़ इन पत्थरों ने झेली होगी। वैज्ञानिकों के मुताबिक मन्दिर के अन्दर की दीवारों पर भी इसके साफ निशान हैं। बाहर की ओर पत्थरों पर ये रगड़ दिखती है तो अन्दर की तरफ पत्थर ज्यादा समतल हैं जैसे उन्हें पॉलिश किया गया हो।
दरअसल 1300 से लेकर 1900 ईसवी के दौर को लिटिल आईस एज यानि छोटा हिमयुग कहा जाता है। इस दौरान धरती के एक बड़े हिस्से का एक बार फिर बर्फ से ढँक जाना माना जाता है। इसी दौरान केदारनाथ मन्दिर और ये पूरा इलाक़ा बर्फ से दब गया था और केदारनाथ धाम का ये इलाक़ा भी ग्लेशियर बन गया।
केदारनाथ मन्दिर की उम्र को लेकर कोई दस्तावेजी सबूत नहीं मिलते। इस बेहद मजबूत मन्दिर को बनाया किसने इसे लेकर कई कहानियाँ प्रचलित हैं। कुछ कहते हैं कि 1076 से लेकर 1099 विक्रम संवत तक राज करने वाले मालवा के राजा भोज ने ये मन्दिर बनवाया था। तो कुछ कहते हैं कि आठवीं शताब्दी में ये मन्दिर आदिशंकराचार्य ने बनवाया था।
बताया जाता है कि द्वापर युग में पांडवों ने मौजूदा केदारनाथ मन्दिर के ठीक पीछे एक मन्दिर बनवाया था। लेकिन वो वक्त के थपेड़े सह न सका। वैसे गढ़वाल विकास निगम के मुताबिक मन्दिर आठवीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने बनवाया था। यानि छोटे हिमयुग का दौर जो कि 1300 ईसवी से शुरू हुआ उससे पहले ही मन्दिर बन चुका था।
वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने केदारनाथ इलाके की लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग भी की, लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग एक तकनीक है जिसके जरिए पत्थरों और ग्लेशियर के जरिए उस जगह की उम्र का अन्दाजा लगता है। ये दरअसल उस जगह के शैवाल और कवक को मिलाकर उनके जरिए समय का अनुमान लगाने की तकनीक है।
लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग के मुताबिक छोटे हिमयुग के दौरान केदारनाथ धाम इलाके में ग्लेशियर का निर्माण 14वीं सदी के मध्य में शुरू हुआ। और इस घाटी में ग्लेशियर का बनना 1748 ईसवी तक जारी रहा। अगर 400 साल तक ये मन्दिर ग्लेशियर के बोझ को सह चुका है और सैलाब के थपेड़ों को झेलकर बच चुका है तो जाहिर है इसे बनाने की तकनीक भी बेहद खास रही होगी। जाहिर है कि इसे बनाते वक्त इन बातों का ध्यान रखा गया होगा कि ये बर्फ, ग्लेशियर और सैलाब के थपेड़ों को सह सकता है।
दरअसल केदारनाथ का ये पूरा इलाका चोराबरी ग्लेशियर का हिस्सा है। ये पूरा इलाका केदारनाथ धाम और मन्दिर तीन तरफ से पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ है करीब 22 हजार फीट ऊँचा केदारनाथ। दूसरी तरफ है 21,600 फीट ऊँचा खर्चकुण्ड। तीसरी तरफ है 22,700 फीट ऊँचा भरतकुण्ड। न सिर्फ तीन पहाड़ बल्कि पाँच नदियों का संगम भी है यहाँ मन्दाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णद्वरी। वैसे इसमें से कई नदियों को काल्पनिक माना जाता है।
लेकिन यहाँ इस इलाके में मन्दाकिनी का राज है यानि सर्दियों में भारी बर्फ और बारिश में ज़बरदस्त पानी। जब इस मन्दिर की नींव रखी गई होगी तब भी शिव भाव का ध्यान रखा गया होगा। शिव जहाँ रक्षक हैं वहीं शिव विनाशक भी हैं। इसीलिये शिव की आराधना के इस स्थल को खासतौर पर बनाया गया। ताकि वो रक्षा भी कर सके और विनाश भी झेल सके।
हैरतअंगेज़ यह है कि इतने साल पहले इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊँचाई पर लाकर, यूँ तराश कर कैसे मन्दिर की शक्ल दी गई होगी? जानकारों का मानना है कि केदारनाथ मन्दिर को बनाने में, बड़े पत्थरों को एक दूसरे में फिट करने में इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया होगा।
ये तकनीक ही नदी के बीचों-बीच खड़े मन्दिरों को भी सदियों तक अपनी जगह पर रखने में कामयाब रही है। लेकिन ताजा जलप्रलय के बाद अब वैज्ञानिकों को इस बात का खतरा सता रहा है कि लगातार पिघलते ग्लेशियर की वजह से ऊपर पहाड़ों में मौजूद सरोवर लगातार बढ़ते जा रहे हैं और जैसा कि केदारनाथ में हुआ है।
गाँधी सरोवर ज्यादा पानी से फट कर नीचे सैलाब की शक्ल में आया। वैसा आगे भी हो सकता है और अगर मन्दिर पहाड़ों से गिरे इस चट्टानों के सीधेे जद में आ गया तो उसे बड़ा नुकसान हो सकता है। साथ ही ये खतरा केदारनाथ घाटी पर हमेशा के लिये मँडराता रहेगा।
85 फीट ऊँचा, 187 फीट लम्बा और 80 फीट चौड़ा है केदारनाथ मन्दिर। इसकी दीवारें 12 फीट मोटी हैं और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई हैं। मन्दिर को 6 फीट ऊँचे चबूतरे पर खड़ा किया गया है।
हिमालयी क्षेत्र के इको सिस्टम में बड़े बदलाव हो रहे हैं। एक तरफ तो ग्लेशियर पीछे खिसक रहे हैं और दूसरी तरफ ग्लेशियरों के खिसकने से हिमालय के बीचों-बीच कई छोटी-छोटी झीलें बन रही हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक ग्लेशियरों के बीच में ये झीलें बर्फ के पिघलने से बनी हैं, जो हिमाचल, उत्तराखण्ड में कभी भी तबाही ला सकती हैं। चिन्ताजनक यह है कि इनसे निपटने के लिये सरकारी तंत्र के पास फिलहाल कोई विकल्प तक नहीं है।
मनाली में इसरो आब्जरवेटरी सेंटर की ग्लेशियरों पर ताजा रिपोर्ट चौंकाने वाली है। इसके मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग के चलते ग्लेशियर पिघलने की गति चिन्ताजनक है। ग्लेशियरों से पिघला पानी हिमालय में एक दर्जन से ज्यादा छोटी-बड़ी झीलों के रूप में इकट्ठा हो रहा है। सतलुज, चेनाब, ब्यास और मन्दाकिनी नदियों के स्रोतों के पास इन झीलों का बढ़ता आकार बहुत खतरनाक है। यहाँ झीलों के भीतर पानी का दबाव इतना बढ़ रहा है कि कभी भी इनके टूटने की स्थिति बन सकती है।
इसरो वैज्ञानिक के. कुलकर्णी के साथ रिसर्च कर रहे जीवी पंत पर्यावरण अनुसन्धान केन्द्र, कुल्लू के वैज्ञानिक डॉ. जेसी कुनियाल के अनुसार लाहौल की गेपांग घाट झील की जद में सामरिक महत्त्व का मनाली-लेह राजमार्ग भी आ रहा है। पार्वती नदी के स्रोत में बना ग्लेशियर भी खतरनाक स्थिति से पिघल रहा है।
भागीरथी और अलकनन्दा में ग्लेशियरों पर शोध कर रही उत्तराखण्ड अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र की डॉ. आशा थपलियाल ने भी अपने शोध पत्र में ग्लेशियरों के खिसकने की पुष्टि की है। ग्लेशियरों में आ रहे बदलाव पर वाडिया भूगर्भ संस्थान और उत्तराखण्ड अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र के विज्ञानी भी नजर रखे हुए हैं। विज्ञानी रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं।
वैज्ञानिक जेसी कुनियल के मुताबिक कि हिमालय में नदियों के स्रोतों के पास बनी झीलें दबाव बढ़ने पर भारत के इंडो-गंगेटिक क्षेत्रों के अलावा पाकिस्तान, भूटान, बांग्लादेश और नेपाल में कहर बरपा सकती हैं।
केदारनाथ मन्दिर के पत्थरों पर पीली रेखाएँ हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक ये निशान दरअसल ग्लेशियर के रगड़ से बने हैं। ग्लेशियर हर वक्त खिसकते रहते हैं और जब वो खिसकते हैं तो उनके साथ न सिर्फ बर्फ का वजन होता है बल्कि साथ में वो जितनी चीजें लिये चलते हैं वो भी रगड़ खाती हुई चलती हैं।
अब सोचिए जब करीब 400 साल तक मन्दिर ग्लेशियर से दबा रहा होगा तो इस दौरान ग्लेशियर की कितनी रगड़ इन पत्थरों ने झेली होगी। वैज्ञानिकों के मुताबिक मन्दिर के अन्दर की दीवारों पर भी इसके साफ निशान हैं। बाहर की ओर पत्थरों पर ये रगड़ दिखती है तो अन्दर की तरफ पत्थर ज्यादा समतल हैं जैसे उन्हें पॉलिश किया गया हो।
दरअसल 1300 से लेकर 1900 ईसवी के दौर को लिटिल आईस एज यानि छोटा हिमयुग कहा जाता है। इस दौरान धरती के एक बड़े हिस्से का एक बार फिर बर्फ से ढँक जाना माना जाता है। इसी दौरान केदारनाथ मन्दिर और ये पूरा इलाक़ा बर्फ से दब गया था और केदारनाथ धाम का ये इलाक़ा भी ग्लेशियर बन गया।
केदारनाथ मन्दिर की उम्र को लेकर कोई दस्तावेजी सबूत नहीं मिलते। इस बेहद मजबूत मन्दिर को बनाया किसने इसे लेकर कई कहानियाँ प्रचलित हैं। कुछ कहते हैं कि 1076 से लेकर 1099 विक्रम संवत तक राज करने वाले मालवा के राजा भोज ने ये मन्दिर बनवाया था। तो कुछ कहते हैं कि आठवीं शताब्दी में ये मन्दिर आदिशंकराचार्य ने बनवाया था।
बताया जाता है कि द्वापर युग में पांडवों ने मौजूदा केदारनाथ मन्दिर के ठीक पीछे एक मन्दिर बनवाया था। लेकिन वो वक्त के थपेड़े सह न सका। वैसे गढ़वाल विकास निगम के मुताबिक मन्दिर आठवीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने बनवाया था। यानि छोटे हिमयुग का दौर जो कि 1300 ईसवी से शुरू हुआ उससे पहले ही मन्दिर बन चुका था।
वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने केदारनाथ इलाके की लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग भी की, लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग एक तकनीक है जिसके जरिए पत्थरों और ग्लेशियर के जरिए उस जगह की उम्र का अन्दाजा लगता है। ये दरअसल उस जगह के शैवाल और कवक को मिलाकर उनके जरिए समय का अनुमान लगाने की तकनीक है।
लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग के मुताबिक छोटे हिमयुग के दौरान केदारनाथ धाम इलाके में ग्लेशियर का निर्माण 14वीं सदी के मध्य में शुरू हुआ। और इस घाटी में ग्लेशियर का बनना 1748 ईसवी तक जारी रहा। अगर 400 साल तक ये मन्दिर ग्लेशियर के बोझ को सह चुका है और सैलाब के थपेड़ों को झेलकर बच चुका है तो जाहिर है इसे बनाने की तकनीक भी बेहद खास रही होगी। जाहिर है कि इसे बनाते वक्त इन बातों का ध्यान रखा गया होगा कि ये बर्फ, ग्लेशियर और सैलाब के थपेड़ों को सह सकता है।
दरअसल केदारनाथ का ये पूरा इलाका चोराबरी ग्लेशियर का हिस्सा है। ये पूरा इलाका केदारनाथ धाम और मन्दिर तीन तरफ से पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ है करीब 22 हजार फीट ऊँचा केदारनाथ। दूसरी तरफ है 21,600 फीट ऊँचा खर्चकुण्ड। तीसरी तरफ है 22,700 फीट ऊँचा भरतकुण्ड। न सिर्फ तीन पहाड़ बल्कि पाँच नदियों का संगम भी है यहाँ मन्दाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णद्वरी। वैसे इसमें से कई नदियों को काल्पनिक माना जाता है।
लेकिन यहाँ इस इलाके में मन्दाकिनी का राज है यानि सर्दियों में भारी बर्फ और बारिश में ज़बरदस्त पानी। जब इस मन्दिर की नींव रखी गई होगी तब भी शिव भाव का ध्यान रखा गया होगा। शिव जहाँ रक्षक हैं वहीं शिव विनाशक भी हैं। इसीलिये शिव की आराधना के इस स्थल को खासतौर पर बनाया गया। ताकि वो रक्षा भी कर सके और विनाश भी झेल सके।
हैरतअंगेज़ यह है कि इतने साल पहले इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊँचाई पर लाकर, यूँ तराश कर कैसे मन्दिर की शक्ल दी गई होगी? जानकारों का मानना है कि केदारनाथ मन्दिर को बनाने में, बड़े पत्थरों को एक दूसरे में फिट करने में इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया होगा।
ये तकनीक ही नदी के बीचों-बीच खड़े मन्दिरों को भी सदियों तक अपनी जगह पर रखने में कामयाब रही है। लेकिन ताजा जलप्रलय के बाद अब वैज्ञानिकों को इस बात का खतरा सता रहा है कि लगातार पिघलते ग्लेशियर की वजह से ऊपर पहाड़ों में मौजूद सरोवर लगातार बढ़ते जा रहे हैं और जैसा कि केदारनाथ में हुआ है।
गाँधी सरोवर ज्यादा पानी से फट कर नीचे सैलाब की शक्ल में आया। वैसा आगे भी हो सकता है और अगर मन्दिर पहाड़ों से गिरे इस चट्टानों के सीधेे जद में आ गया तो उसे बड़ा नुकसान हो सकता है। साथ ही ये खतरा केदारनाथ घाटी पर हमेशा के लिये मँडराता रहेगा।
मन्दिर की बनावट
85 फीट ऊँचा, 187 फीट लम्बा और 80 फीट चौड़ा है केदारनाथ मन्दिर। इसकी दीवारें 12 फीट मोटी हैं और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई हैं। मन्दिर को 6 फीट ऊँचे चबूतरे पर खड़ा किया गया है।
ग्लेशियर पर बनी नई झीलों से खतरा
हिमालयी क्षेत्र के इको सिस्टम में बड़े बदलाव हो रहे हैं। एक तरफ तो ग्लेशियर पीछे खिसक रहे हैं और दूसरी तरफ ग्लेशियरों के खिसकने से हिमालय के बीचों-बीच कई छोटी-छोटी झीलें बन रही हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक ग्लेशियरों के बीच में ये झीलें बर्फ के पिघलने से बनी हैं, जो हिमाचल, उत्तराखण्ड में कभी भी तबाही ला सकती हैं। चिन्ताजनक यह है कि इनसे निपटने के लिये सरकारी तंत्र के पास फिलहाल कोई विकल्प तक नहीं है।
मनाली में इसरो आब्जरवेटरी सेंटर की ग्लेशियरों पर ताजा रिपोर्ट चौंकाने वाली है। इसके मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग के चलते ग्लेशियर पिघलने की गति चिन्ताजनक है। ग्लेशियरों से पिघला पानी हिमालय में एक दर्जन से ज्यादा छोटी-बड़ी झीलों के रूप में इकट्ठा हो रहा है। सतलुज, चेनाब, ब्यास और मन्दाकिनी नदियों के स्रोतों के पास इन झीलों का बढ़ता आकार बहुत खतरनाक है। यहाँ झीलों के भीतर पानी का दबाव इतना बढ़ रहा है कि कभी भी इनके टूटने की स्थिति बन सकती है।
इसरो वैज्ञानिक के. कुलकर्णी के साथ रिसर्च कर रहे जीवी पंत पर्यावरण अनुसन्धान केन्द्र, कुल्लू के वैज्ञानिक डॉ. जेसी कुनियाल के अनुसार लाहौल की गेपांग घाट झील की जद में सामरिक महत्त्व का मनाली-लेह राजमार्ग भी आ रहा है। पार्वती नदी के स्रोत में बना ग्लेशियर भी खतरनाक स्थिति से पिघल रहा है।
भागीरथी और अलकनन्दा में ग्लेशियरों पर शोध कर रही उत्तराखण्ड अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र की डॉ. आशा थपलियाल ने भी अपने शोध पत्र में ग्लेशियरों के खिसकने की पुष्टि की है। ग्लेशियरों में आ रहे बदलाव पर वाडिया भूगर्भ संस्थान और उत्तराखण्ड अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र के विज्ञानी भी नजर रखे हुए हैं। विज्ञानी रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं।
इन देशों में मच सकती है तबाही
वैज्ञानिक जेसी कुनियल के मुताबिक कि हिमालय में नदियों के स्रोतों के पास बनी झीलें दबाव बढ़ने पर भारत के इंडो-गंगेटिक क्षेत्रों के अलावा पाकिस्तान, भूटान, बांग्लादेश और नेपाल में कहर बरपा सकती हैं।