धूमधाम से मनाए गए गंगा दशहरा को लेकर यह मान्यता है कि इसी दिन भागीरथ की घोर तपस्या के पश्चात मां गंगा का स्वर्ग से धरती पर अवतरण हुआ था। मां गंगा राजा सगर के साठ हजार पुत्रों का उद्धार करने के लिए धरती पर आईं थीं और तब से लेकर आज तक गंगा पृथ्वीवासियों को मुक्ति, शांति और आनंद प्रदान कर रही है। मां गंगा का दर्शन, स्पर्श, पूजन और स्नान ही मानव मात्र के लिए काफी है।
गंगा उत्तराखंड के गंगोत्री से निकली एक पावन नदी है। भारत जैसे आध्यात्मिक राष्ट्र में गंगा को मां का स्थान दिया गया है। गंगोत्री से पश्चिम बंगाल के गंगासागर तक गंगा के तट पर अनेक तीर्थ हैं।
50 करोड़ से अधिक लोगों की आजीविका केवल गंगा के जल पर निर्भर है। इसमें भी 25 करोड़ लोग तो पूर्ण रूप से गंगा के जल पर आश्रित हैं। स्पष्ट है कि गंगा आस्था ही नहीं, आजीविका का भी स्रोत है। नदियां केवल जल का नहीं बल्कि जीवन का भी स्रोत होती है। विश्व की अनेक संस्कृतियों और सभ्यताओं का जन्म नदियों के तट पर ही हुआ है। नदियां संस्कृति की संरक्षक हैं और संवाहक भी हैं। नदियों ने मनुष्यों को जन्म तो नहीं, परंतु जीवन दिया है। वास्तव में जिस प्रकार मनुष्य को जीने का अधिकार है, उसी प्रकार हमारी नदियों को भी स्वच्छंद होकर अविरल एवं निर्मल रूप से प्रवाहित होने का अधिकार है। नदियों को जीवनदायिनी कहा जाता है, फिर भी लाखों-करोड़ों लीटर प्रदूषित जल इनमें प्रवाहित किया जाता है। आज नदियों में शौच करना, फूल और पूजन सामग्री डालना, उर्वरक कीटनाशक डालना आम बात हो गई है।
समय के साथ अब सब कुछ बदलता नजर आ रहा है। जानकारी के अभाव और अवैज्ञानिक विकास के कारण हमने अपने प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया। जिसका परिणाम जीवनदायिनी नदियों का अमृततुल्य जल विषाक्त होता जा रहा है। नदियां सूखती जा रही हैं। कुछ नदियों का तो अब अस्तित्व ही नहीं बचा है। वे किताबों और कहानियों तक सीमित हो गई हैं। गंगा ने हमें जीवनदान दिया है, अब गंगा को जीवन देने की हमारी बारी है।
इसी तरह से घरों, शहरों, उद्योगों से निकलने वाला अपशिष्ट जल बिना पुनर्नवीनीकरण एवं उपचारित किए विशाल मात्रा में नदियों एवं प्रकृति में प्रवाहित कर दिया जाता है। जो हमारे पर्यावरण को प्रदूषित करता है। इससे प्रकृति के मूल्यवान पोषक तत्व नष्ट हो रहे हैं और जलीय जीवन भी प्रवाहित हो रहा है। अनुपचारित जल से पेचिश, टायफाइड जैसी गंभीर बीमारियों में वृद्धि हो रही है। स्वच्छ जल, स्वच्छता एवं स्वच्छता सुविधाओं की आवश्यकता मनुष्य के साथ जलीय प्राणियों एवं पर्यावरण को भी है। तीव्र वेग से बढ़ती आबादी तथा औद्योगीकरण, शहरीकरण और अवैज्ञानिक विकास के कारण जल संसाधन विशेष रूप से नदियों का अपक्षरण हुआ है। भारत की 14 बड़ी नदियां प्रदूषित ग्रस्त हैं, जिसमें एक गंगा भी है। गंगा और अन्य नदियों में कूड़ा-कचरा, प्लास्टिक, नालों के गंदे पानी के साथ ही अधजले शवों को भी प्रवाहित किया जाता है।
आंकड़ों के अनुसार बनारस में एक साल में 33,000 से अधिक शवदाह होते हैं औन अनुमानतः 700 टन से अधिक अधजले कंकाल को प्रवाहित किया जाता है। इससे पतित पावनी गंगा का जल प्रदूषित हो रहा है। ये आंकड़े तो एक शहर के हैं। देश के अन्य धार्मिक स्थलों, गंगा तटों और कैचमेंट एरिया की स्थिति तो और भी चिंताजनक है। अतः हमारी शवदाह की पद्धति में परिवर्तन करना नितांत आवश्यक है। गंगा में प्रवाहित किए गए शव और अधजले शवों से जलीय जीवन प्रभावित होता है। शव जहां पर जाकर रूकते हैं उसके आस-पास का वातावरण दुर्गंधयुक्त एवं प्रदूषित हो जाता है। जागरूकता के अभाव में लोग मृत जानवरों को भी जल में प्रवाहित करते हैं, जिससे जल प्रदूषित होता है। इसे पूर्ण रूप से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। इसके साथ-साथ भंडारा, धार्मिक आयोजन और कुंभ के दौरान प्लास्टि के थैले, कप-प्लेट, बैग को पूर्ण रूप से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। नहीं तो इसके घातक परिणाम सामने आ सकते हैं।
पृथ्वी को ‘जलीय ग्रह’ कहा गया है और इसका सबसे अच्छा स्रोत महासागर और नदियां हैं। पृथ्वी का 71 प्रतिशत भाग जल से घिरा है। आज बढ़ते प्रदूषण के कारण यह जलीय ग्रह भी बिना जल के होने की कगार पर खड़ा है। तथ्य बताते हैं कि प्रदूषण के कारण एक ओर तो जल संकट बढ़ रहा है वहीं दूसरी ओर जलीय जीवन नष्ट हो रहा है। वर्तमान की बात करें तो विश्व की कुल आबादी का 18 प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है, परंतु यहां कुल जल संसाधनों का केवल चार प्रतिशत भाग ही मौजूद है। जाहिर है देश के जल संकट का समाधन करने के लिए नदियों को जीवंत रखना नितांत आवश्यक है। इसके लिए आदिकाल से ही हमारे ऋषियों-मुनियों ने नदियों और प्राकृतिक संसाधनों को अध्यात्म से जोड़ा था, ताकि उनका संरक्षण किया जा सके।
उनके लिए लोगों के दिलों में आस्था के साथ अपनत्व का भाव भी जाग्रत रहे, लेकिन समय के साथ अब सब कुछ बदलता नजर आ रहा है। जानकारी के अभाव और अवैज्ञानिक विकास के कारण हमने अपने प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया। जिसका परिणाम जीवनदायिनी नदियों का अमृततुल्य जल विषाक्त होता जा रहा है। नदियां सूखती जा रही हैं। कुछ नदियों का तो अब अस्तित्व ही नहीं बचा है। वे किताबों और कहानियों तक सीमित हो गई हैं। गंगा ने हमें जीवनदान दिया है, अब गंगा को जीवन देने की हमारी बारी है। गंगा सहित भारत की अन्य नदियों को स्वच्छ करने के लिए करोड़ों रुपए के प्रोजेक्ट बनाए गए और लागू भी हुए। फिर भी गंगा स्वर्ग लौटाने की स्थिति में पहुंच गई है। गंगा सहित भारत की अन्य नदियों को धरा पर देखना है तो हमें अपने दृष्टिकोंण में परिवर्तन करना होगा, सोच को बदलना होगा और गंगा को नदी की तरह नहीं। बल्कि एक जाग्रत स्वरूप, भारत की पहचान और अमूल्य धरोहर के रूप में संरक्षण प्रदान करना होगा।
यही हमारा संकल्प होना चाहिए। एक अच्छी बात यह है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गंगा के लिए जो कार्य किए जा रहे हैं वे पहले कभी नहीं हो पाए थे। इसे देखते हुए अगले पांच वर्षों में बहुत कुछ होने की संभावना है। फिर भी यदि गंगा को बचाना है तो हमें मां गंगा की ओर लौटना होगा। सरकार के साथ-साथ हम सभी का जो सरोकार है उसे समझना और ईमानदारी से निभाना होगा। इसके लिए एक सेतु बनाना होगा। यह भागीरथ सेतु होगा जो सभी को जोड़ेगा और सबसे जुड़ेगा। इस नवोदित प्रयास से ही हम गंगा जैसी जीवनदायिनी नदी को बचाने में सफल हो पाएंगे।
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