आदिवासी बिना पम्प सदी भर से सींच रहे 125 एकड़ खेत

Submitted by Shivendra on Mon, 01/12/2015 - 13:06
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प्रजातन्त्र लाइव, 12 जनवरी 2014
आदिवासी बिना पम्प सदी भर से सींच रहे 125 एकड़ खेतइस रकबे में खेती कर रहे 13 किसान अपने दादा-परदादा के जमाने से चल रही ‘पाट’ सिंचाई तकनीक के कारण न केवल रबी मौसम की मुख्य फसल गेहूँ उपजाते हैं, बल्कि खरीफ सत्र में भी फल-सब्जियों की खेती करते हैं जबकि इस पहाड़ी क्षेत्र के ज्यादातर किसान सिंचाई के लिए पानी के अभाव में पूरे साल खेती नहीं कर पाते और मानसूनी वर्षा के बूते खरीफ सत्र की फसलें ही उगा पाते हैं।इन्दौर (भाषा)। मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में आदिवासी किसान करीब 100 साल से पारम्परिक ‘पाट’ सिंचाई तकनीक की मदद से करीब 125 एकड़ रकबे को मोटर पम्प के बगैर सींच रहे हैं और अपने पुरखों के बगैर सींच रहे हैं और अपने पुरखों के कमाए ज्ञान का फायदा उठाकर साल भर फसलें उगा रहे हैं। बड़वानी जिला मुख्यालय से केवल 26 किलोमीटर दूर आवली गाँव का लगभग 125 एकड़ रकबा नजदीकी खेतों से एकदम अलग है।

इस रकबे में खेती कर रहे 13 किसान अपने दादा-परदादा के जमाने से चल रही ‘पाट’ सिंचाई तकनीक के कारण न केवल रबी मौसम की मुख्य फसल गेहूँ उपजाते हैं, बल्कि खरीफ सत्र में भी फल-सब्जियों की खेती करते हैं जबकि इस पहाड़ी क्षेत्र के ज्यादातर किसान सिंचाई के लिए पानी के अभाव में पूरे साल खेती नहीं कर पाते और मानसूनी वर्षा के बूते खरीफ सत्र की फसलें ही उगा पाते हैं।

जल संसाधन विभाग के अधिकारियों के हवाले से बताया गया कि आवली गाँव बड़वानी जिले के दुर्गम पाटी विकासखण्ड में स्थित है। पहाड़ी नालों के पानी को बिना मोटर पम्प के खेतों तक पहुँचाने की ‘पाट’ सिंचाई तकनीक के कारण ही इस जगह का नाम पाटी पड़ा था।

आज भी पाटी क्षेत्र में ऐसे कई पाट हैं, जिनका पानी मोटर पम्प के बगैर करीब 100 वर्षों से लगातार बहकर इस आदिवासी क्षेत्र के खेतों को सींच रहा है। आंवली में पाट की मदद से खेती कर रहे 13 आदिवासी किसानों में शामिल हंटा शंकार ने बताया कि इस पारम्परिक तकनीक के कारण बिना किसी सिंचाई खर्च के फसलों को पर्याप्त पानी मिल रहा है।

इसके साथ ही, खेतों की मेड़ों पर बाँस और अरण्डी (एक तरह का तिलहन) उगाकर अतिरिक्त कमाई भी की जा रही है। पाटी के पहाड़ी क्षेत्र में बहने वाले नालों के पानी को किसान छोटी-छोटी नालियाँ बनाकर अपने खेतों तक ले जाते हैं। किसान इस पारम्परिक तकनीक से मिलने वाली पानी का बारी-बारी इस्तेमाल करते हैं, ताकि उन सबके खेतों में पर्याप्त सिंचाई हो सके।