मांडव यानी रानी रूपमती और राजा बाजबहादुर की प्रेम गाथाओं के स्मारक। जहाज महल, हिंडोला महल, तवेली महल और रूपमती महल का जर्रा-जर्रा आपको इतिहास की इस अमर प्रेम कथा को सुनाने के लिए तैयार है। रूपमती महल की छत पर खड़े होइए तो दूर, दूज के चाँद की शक्ल में नर्मदा नदी दिख जायेगी। रानी रूपमती स्नान के बाद हर रोज यहीं से तो नर्मदा मैया के दर्शन के बाद अपनी दिनचर्या शुरू करती थीं।
.........बरसात में माण्डव जाना बहुत अच्छा लगता है। बादलों के झुण्ड प्रेमकथा को सुनने के लिए खण्डहर को अपने आगोश में समा लेते हैं और ये ही बादल आपको छूते हुए निकलने लगते हैं......। इन्हीं बादलों की बेटियों से हम आपकी मुलाकात करा रहे हैं.......।
.......मांडव के आसपास के गांवों में ये शोख और चंचल बूंदें इठलाती हुई घूम रही हैं। ऐसा क्यों?
किसी के पास 25 हजार है तो किसी के पास 40 हजार की पोटली है। कोई एक लाख तो कोई डेढ़ लाख की मालकिन हैं! और जनाब.....इन बूंदों का कोई संगठन रजिस्टर्ड करा दिया जाये तो इनके पास कुल सम्पत्ति 45-50 लाख की हो सकती है। हजार पति, लखपति, या आधी करोड़पति बूंदें!!
धार से मांडव की दूरी 35 किलोमीटर है। नालछा के ब्लाक और माण्डव के बीच में हैं हेमाबर्डी, ज्ञानपुरा, झाबरी, गनेड़ीपुरा, जामनिया, उमरपुरा, कुराड़िया, पन्नाला, जामनघाटी, बड़किया, सेवरीमाल और राकीतलाई। इन गाँवों से एक-दो चावल उठाकर टेस्ट करते हैं, बूंदें थमने के पहले हालात क्या थे?
हेमाबर्डी में पानी समिति के अध्यक्ष मुकुट पिता मांगीलाल औऱ उनके साथी पूरे गांव के फलिए घुमाते पहले के हालात बता रहे थे। इस अनुसार: पहले जमीन सूखी थी. ग्रामीण एक फसल ही ले पाते थे। दशहरे के दौरान ही काम नहीं होने के कारण इन्दौर और देवास नाली खोदने चले जाते थे। गांव में पानी के पीने की भी ठीक व्यवस्था नहीं थी। मवेशी भी प्यासे मारे-मारे फिरते थे। गेहूं औऱ चने की फसल के बारे में कुछ सोच भी नहीं सकते थे। पूरे गांव की आर्थिक स्थिति चरमराई हुई थी। हर छोटे-मोटे काम के लिए साहूकार के पास भारी भरकम ब्याज चुकाकर पैसा लाना पड़ता था। कच्चे मकान और चंद साइकिलें.........! मोटर सायकल और ट्रैक्टर के ख्वाब भी नहीं आते थे। गांव में नैराश्य का माहौल था। महिलाएं घूंघट के पीछे ही अपनी जिंदगी के मायने खोजती थीं। साहूकार 20 किलो मक्का देता था तो 30 से 40 किलो मक्का वापस लेता था। बूंदे नहीं थीं, सो चेतना भी नहीं थीं। स्कूल खाली पड़े रहते थे। तब गांव वाले कोई नया कदम कैसे उठा सकते थे।
चार साल हो गये। एक दिन इन्हीं गांवों में एक स्वयंसेवी संगठन ‘इरकान’ के श्री हंसकुमार जैन और उनकी टीम ने बूंदें रोकने की बात करने के लिए दस्तक दी थी। श्री जैन पर्यावरण विशेषज्ञ के बतौर संयुक्त राष्ट्रसंघ के अलावा बैंकाक, थाईलैण्ड में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। इन्हीं मुद्दों के इर्द-गिर्द वे ऑस्ट्रेलिया, ईरान, म्यामार, फिलिपीन और सिंगापुर की यात्राएं भी कर चुके हैं। गांव वालों से इनकी बातचीत का पहला बिंदू था- बूंदों को रोकना। दूसरा बिंदू था – यदि ऐसा हो गया तो गांव का पैसा गांव में और गांव का अनाज गांव में जैसी अवधारणाओं पर काम किया जा सकेगा।
गांव में काम की शुरुआत की गई। हर गांव में पहाड़ियों पर पानी रोका, उनकी सुरक्षा की। बड़े पैमाने पर वनों का पुनरोत्पादन हुआ। पहाड़ियां घनी होने लगीं। समाज आगे-आगे, संस्था पीछे-पीछे। ताकि नेतृत्व भी इन्हीं तबके से आ सके। हर गांव में औसतन चार-पांच जल संरचनाएं तैयार की गई. तालाबों में जब मेहमाननवाजी के बाद बूंदें रुकने लगीं तो गांव का सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य बदलने लगा। इन गांवों में समाज ने पानी थमने के साथ ही खेतों में मेड़बंदी भी शुरू की थी।
इरकान के सक्रिय कार्यकर्ता श्री रामकृष्ण महाजन और श्री संजय तिवारी ने हमें हेमाबर्ड़ी में बने तालाब दिखाये। महाजन खरगोन के रहने वाले हैं। प्राणीशास्त्र में एमएससी करने के बाद उन्होंने समाजकार्य में उपाधि ली। लम्बे समय से इरकान के साथ ही सेवा का कार्य कर रहे हैं। श्री तिवारी ने वनस्पति शास्त्र में एमएससी किया है। बूंदों को बचाने की बात इनको कुछ यूं जम गई कि सरकारी नौकरी के लिए कभी आवेदन तक नहीं किया। गांवों की पगडंडियों को इन्होंने कबूल कर लिया है।
मुकुट पिता मांगीलाल और भंवर सिंह ने बताया : हेमाबर्ड़ी में तालाब और तलाई बनने के बाद पानी की व्यवस्था अच्छी हो गई है। अब दो फसलें ले रहे हैं। पहले एक फसल ही ले पाते थे। कुछ गांवों में तो तीन-तीन फसलें होने लगीं। गर्मी में भी मूंग और सब्जी लगाई जा रही है। एक तालाब के पास की जमीन में 25 किसानों ने पहली बार साल की खेती शुरू की। वहीं 7 किसानों की जमीन में मक्का और सोयाबीन की उत्पादकता दुगनी हो गई है। काकड़ाखोह में बहकर जाने वाले पानी को समाज ने इन संरचनाओं में रोक लिया है।
महाजन और तिवारी कहने लगे : ‘बूंदे रोकने के बाद फसल उत्पादन एकदम बढ़ने लगा। पहले गांव का समाज समझा था कि यह अब तक चलते आ रहे किसी सरकारी कार्यक्रम जैसा ही होगा। लेकिन जब हर काम में समाज ने ही भागीदारी निभाई तो परिवेश बदला। समाज इस बात के लिए जागृत हो गया कि गांव की समृद्धि का मुख्य आधार ही बूंदों को थामना है। शुरूआती दिनों में गांव के लोग बैठकों में नहीं आते थे। आज एक को बुलाओ तो पूरा गांव दौड़कर चला आता है।’
गांव में एक अनाज बैंक भी बनाया गया है। प्रति घर से 20 किलो अनाज इकट्ठा किया जाता है। करीब 20 क्विंटल एकत्रित हो जाता है। जरूरत पड़ने पर यहां से उधार ले लिया जाता है। यहीं 20 किलो सवा बीस किलों का मात्रा में लौटा देते हैं। जैसा कि आप जानते हैं साहूकार इसी 20 किलो मक्का को वापसी में 30 से 40 किलो की मात्रा में लेता था। इस तरह समाज इस व्यूह रचना में भी सफल हो गया है कि गांव का अनाज गांव में ही रहेगा। ग्रामीणों ने इस अनाज को जमा करने के तीन-चार ठिकाने भी बना रखे हैं। कोठियां भी इन्ही लोगों ने खरीदी हैं।
गांव में बूंदों के थमने से महिलाओं में चमत्कारिक बदलाव आया है। कभी उनकी सोच और पहल घूंघट पार नही कर पाती थी। बैंकों में जाना तो दूर इस बारे में कभी सोचा भी नहीं था। अब वे खुलकर बातें करने लगी हैं। बैंकों में उनकी नियमित मौजूदगी भी देखी जा सकती है। इन 12 गांवों की महिलाओं ने मिलकर 83 बचत समूह बनाये हैं। कोई 20 रुपये तो कोई 50 रुपये हफ्ता एकत्रित कर रही है। भयंकर सूखे में भी इन्होंने अपनी बचत की प्रवृत्ति को बनाये रखा है। आप यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि इन बचत समूह में 4 लाख रुपये एकत्रित हैं। इन आदिवासी महिलाओं ने क्या कभी ऐसा सोचा था कि एक दिन ऐसा आयेगा कि जब वे खुद एक ‘बैंक’ बन जायेंगी! छोटे-मोटे काम के लिए एक-दूसरे को लोन देगी। महिलाओं के नक्शे कदम पर चलते हुए पुरुषों ने भी एक बचत समूह बनाया है। हेमाबर्ड़ी मे इसके सचिव मोहन सिंह है। अभी तक 80 हजार रुपये एकत्रित हो चुके हैं। 18 लोगों को इस समय लोन दे रखा है। यह बचत समूह 100 रुपये पर केवल 2 रुपये प्रतिमाह ब्याज लेते है। जबकि साहूकार 100 रुपये पर प्रतिमाह 10 रुपये ब्याज लेता है। कुछ गांवों में इस बचत समूह के बेहतर प्रदर्शन सामने आये हैं। मसलन, भड़किया में कुल 6 बचत समूह हैं। वहां लगभग 2 लाख रुपये जमा है। इस गांव की आबादी केवल 400 है। इसी तरह सेवरी गांव की महिलाओं ने जोड़-भाग कर बताया कि उनका करीब 40 हजार रुपया साहूकार के पास जाने से रुक गया है। यह इस अकेले गांव का आंकड़ा है। कल्पना करिये.............12 गाँवों की संयुक्त स्थिति क्या होगी? गांव वाले कहते हैं- बूंदे थमने के बाद साहूकारों के दरवाजे जाने की हमारी मजबूरी में बहुत कमी आई। परेशान साहूकारों ने भी अपनी ब्याज दरें घटा दी हैं। गांव में पानी आंदोलन के बाद शिक्षा के प्रति भी जागृति बढ़ी है। बूंदे रुकने से आर्थिक परिदृश्य मजबूद होता है और परिवार के बच्चों की मजदूरी करने की स्थितियों में भी कमी आती है। हेमाबर्ड़ी और भड़किया सहित अन्य गांवों में भी अब स्कूलों में अच्छी उपस्थिति दिख रही है।
धार जल संसाधन विभाग के अनुविभागीय अधिकारी श्री शैलेन्द्र सिंह रघुवंशी और जिला ग्रामीण विकास अभिकरण के परियोजना अधिकारी श्री हेमेन्द्र जैन ने हमें राहत कार्य के तहत बनाया एक तालाब भी दिखाया। पानी आंदोलन में यहां के समाज की अनुकरणीय पहल के बाद गांव को जिला प्रशासन ने भी यह सौगात दे डाली। चारों तरफ पहाड़ों से आने वाला पानी इस तालाब में जमा होगा। अभी तक यह गीदियाखोह में बहकर चल जाया करता था। इससे कुल 3 गांवों के किसानों को फायदा होगा। ज्ञानपुरा, पन्नाला और हेमाबर्ड़ी के 40 आदिवासी किसान परिवार लाभान्वित होंगे। हेमाबर्ड़ी से नालछा-माण्डव मुख्य मार्ग पार करने के बाद सामने की ओर बसा है ज्ञानपुरा। यहां का समाज भी ‘इरकान’ की पहल के बाद जागा। घट्टिया बेड़ा पहाड़ी को समाज ने बूंदों की मनुहार का स्थल बनाया है। पहाड़ी पर जगह-जगह बोल्डर लगाये गये हैं. नालों को भी रोका गया। मिट्टी थमी। और पानी की गति भी धीमी हुई। पहाड़ी के नीचे की ओर मसानिया तालाब बनाया। इस तालाब से 10-12 कुएं भी रीचार्ज होंगे। गांव में पानी जगह-जगह रोकने से 25 किसान परिवार दूसरी फसल लेने की स्थिति में आयेंगे। यहां भी पलायन थमेगा। उम्मीद है कि ये लोग तीसरी फसल भी ले लेंगे। इस तालाब की लागत केवल एक लाख अस्सी हजार रुपये आयेगी। इसे समाज ने अपना कार्य समझकर ही बनाया है। महाजन कहते हैं कि सरकारी विभाग यदि अकेले यह तालब बनाते तो इसकी लागत चार लाख के आसपास आती। इस पहाड़ी का पानी नालों से होता हुआ ज्ञानपुरा, हेमाबर्ड़ी के रास्ते बहता हुआ गिदियाखोह में चले जाया करता था। इस चार किलोमीटर के पहाड़ी और गिदियाखोह के रास्ते के बीच चार जल संरचनाएं तैयार हो गई हैं।
पानी आंदोलन को स्वयंसेवी संगठन ‘इरकान’ के निदेशक श्री एसके जैन से विस्तृत चर्चा हुई। उनके अनुभव कुछ यूं थेः हमने जब दस्तक दी तो शुरू में विश्वास ही नहीं हुआ कि कुछ अच्छा हो सकता है। पहले तो यह समझा गया कि यह सरकारी काम है, मजदूरी मिल जाया करेगी। वे लम्बे समय से तंत्र को देख रहे हैं। रातोंरात को इनमें कोई बदलाव नहीं हो सकता था। तालाब और अन्य जल संरचनाओं से उनको लाभ मिलने लगा। कृषि भूमि का विस्तार हुआ। रबी की फसल भी लेना उनके लिए चमत्कार साबित हुआ। आदिवासी क्षेत्रों में साहूकारों का शोषण बचत समूह गठित करने से इन्हें काफी लाभ पहुंचा है। यह प्रक्रिया हमने ज्यादा जोर देकर इसलिए की कि काम के पहले गांव की अध्ययन रिपोर्ट का सार यहीं था कि साहूकारों के चुंगल से ये आदिवासी निकल नहीं पा रहे थे। पानी और मिट्टी के संरक्षण के साथ यदि इन्हें इस चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकाला जायेगा तो इन कार्यों से आया पैसा वापिस साहूकारों की झोली में चला जायेगा। हालात यह हैं कि उसे अपना उत्पाद बेचने भी इन्हीं साहूकारों के घेरे में जाना पड़ता है। यह उसे अपनी 500 रुपये प्रति क्विंटल वाले कृषि उत्पाद को 400 रुपये में बेचना पड़ता है। यह उसकी विवशता है।
..........यह तो आप जानते हैं कि हमारे जैसे स्वयंसेवी संगठनों में इन ग्रामीणों की आस्था जुड़ जाना बहुत मायने रखता है। वह भी आपको अपनी दृष्टि से उतना ही पड़ता है, जितना आप उस पर नजर रखे होते है। उनका विश्वास प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि आपको अपने व्यवहार में बदलाव लाना होगा। हम लोग तो शुरू से ही उनके साथ नीचे बैठने वालों में से हैं। इन आदिवासियों को ‘हायब्रिड मक्का’ के उपदेश देना बहुत सरल है। लेकिन यह सोचना होगा कि वह यह सब कैसे कर पायेंगे। इसके पास पीने के पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं है। हमारी बातचीत का एप्रोच यही था कि वे अपने परिवेश में रहते हुए कैसे विकास कर सकते है। चार साल बाद अब गांवों में हालत यह हैं कि प्राकृतिक संसाधनों के प्रति समाज पूरी तरह से फिर जागृत हो गया है। तालाब बनता है तो यह समाज पूरी-पूरी रात वहीं बैठा रहता है। इसके लिए उन्हें किसी को निर्देशित करने की जरूरत भी नही रहती। पहली बरसात में ही वह वेस्टवेयर देखता है। सरकारी कामकाज में इतनी चिंता नहीं रहती है।
श्री जैन ने आगे कहा : हमने 12 गांवों में अभी एक अध्ययन कराया है निष्कर्ष है कि बूंदे रुकने से सामाजिक और आर्थिक स्तर पर व्यापक जागृति आयी है। चार-साढ़े चार साल की अवधि में रबी फसल लेने की शुरुआत, खरीफ की उत्पादकता में वृद्धि, कृषि क्षेत्र का फैलाव, अन्य श्रम से जनित आय, पलायन में कमी, गांव का पैसा गांव में और गांव का अनाज गांव में रहने तथा बचत समूह की गतिविधियों से साहूकारों के पास पैसा जाने से रुका है। इस सबसे इस समाज की कुल आय का आंकड़ा चौप्पन लाख रुपये तक पहुंच चुका है।
...........हमें याद आया। हेमाबर्ड़ी से बिदाई के पूर्व गांव के मुकुट, भंवर और मोहन बता रहे थे : बूंदें रोकने के बाद गांवों में व्यापक बदलाव आया है। अब हम एक हजार क्विंटल गेहूं पका लेते है।
..........पहले गांव में चन्द साइकिलें थीं। अब सात ट्रेक्टर औऱ 15 मोटर साइकिलें हैं। गांव के 90 फीसदी मकान बदल गये हैं। पहले बल्लियां गाड़कर टापरे बने थे, अब शनैः शनैः यह पक्के बन गये हैं। पलायन किसी हद तक थम गया है। जामनिया में सोलह आदिवासी किसानों ने सूखे में भी कपास बोया है।
.........आपको याद होगा, शुरू में जिक्र किया था : माण्डव के खण्डहरों को छूकर आ रहे बादलो की बेटियों से आपकी मुलाकात कराने जा रहे हैं............!
........यह मुलाकात आपको कैसी लगी?
........किसी के घर मोटर साइकिल, तो किसी के यहां ट्रैक्टर! किसी का पक्का मकान, तो किसी को साहूकारों के चुंगल से मुक्ति! दरअसल मुकुट, भंवर और मोहन को निमित्त मात्र हैं। इन पर पहला हक तो इन शोख और चंचल बूंदों का ही है। इसलिए तो यह माण्डव के पास इन गांवों में इठलाती घूम रही हैं।
आप इन्हें क्या कहेंगे?
हजारपति, लखपति या आधी करोड़पति बूंदे......?
..............और जो महिलाओं के घूंघट हटने से लगाकर बच्चों के स्कूल जाने तथा तालाब, पर्वत और पौधों को अपने परिवार का समझने की समाज में जागृति आयी है, उसके लिए क्या इन्हें अरबपति कहेंगे?
नहीं!
यह तो इनकी आंकड़ों से दूर, आसमान के पास एक निराली दुनिया है!
इनका मकसद!
इनकी मंजिल!!
बूँदों की मनुहार (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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