धार जिले के बदनावर से तीन किलोमीटर दूर एक नदी बहती है, नाम है बागेड़ी। नदी का बहना भी बस बरसात के आसपास ही होता है। बाकी तो यह सदैव सूखी ही रहती है। हम चिलचिलाती धूप में इस नदी के किनारे पहुंचे। हीरा-मोती चम्पावन के पास फुलजी बा को आजादी के बाद दूसरी लड़ाई लड़ते देखा। कभी इसी शख्स ने 1942 से 1947 तक बदनावर क्षेत्र में अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया था।......और जनाब, आजादी का जुनून भी ऐसा सवार था कि फिरंगियों के कारिंदे नाल वाले जूते पहनकर इनके कंधों को रौंदते हुए निकलते थे। और भी कई तरह से अत्याचार.........! लेकिन फुलजी बा भला कोई टस से मस होने वाले थे! वे तो बदनावर में प्रभात फेरियां निकालने की नुमाईंदगी जारी रखे हुए थे। कलालियां और आबकारी महकमों के गोदामों को बंद कराना तो इनका मानों शगल था.........!
इस बागेड़ी ने फुलजी बा का वह रूप भी देखा था और आज का नया रूप भी यह नदी देख रही है। कौन जाने फुलजी बा को इस नदी को देखकर ही कुछ अच्छा करने का संकल्प जाग्रत हो जाता हो। यह शख्स फिर ‘जंग’ के मैदान में है। थोड़ा संशोधित कर लें तो इस जंग का बड़ा हिस्सा अपने खेत से ही लड़ रहे हैं। इस बार इस योद्धा के साथ भले ही ‘मतवालों’ की ज्यादा भीड़ न हो लेकिन अपने ही जैसा युवा सुपुत्र राजेश जैन तो साथ में है। और जिसने अपने पिता के संस्कार और संकल्प को पूरी तरह से आत्मसात् कर लिया हो तो भला उसकी ताकत किसी भीड़ की ताकत से कम हो सकती है......!
फुलजी बा की यह जंग इस बार सूखे से है। उनके हौसले तो आजादी के पहले से ही बुलंद हैं। जिसके पास फिरंगियों को विदा करने वाले अनुभवों की पोटली हो वह सूखे सामने कैसे परास्त हो सकता है? बागड़ी के किनारे हम देख रहे हैं- फिर एक नई मिसाल। खेत में करीब 11 हजार फीट लंबी नालियां, जिनमें बरसात की बूंदों को रोकने की समस्त तैयारियां कर ली गई हैं। इससे आगे तलैया, चेकडेम और बड़े तालाब।....कहानी अभी और भी आगे है। क्योंकि तालाब के आगे है कुआ, पोखर!! थोड़ा और आगे चलिए....ये जो बागड़ी नदी आपको गहरी दिख रही है ना, यह भी इन्हीं का कमाल है। अब थो़ड़ा नहीं चंद किलोमीटर चलते हैं- इनके कुएं से बदनावर के अनेक वार्डों में जल प्रदाय हो रहा है। कुछ एक तालाब और गहरे कराए हैं।......हमारी तरह आप भी अवाक् रह जाएंगे! बूंदों की पूजा – यह शख्स पूरी तरह से अपने निजी क्षेत्र और निजी व्यय से कर रहा है। आसपास के दस गांव भी लाभान्वित होने जा रहे हैं।........और इन्हें ‘आभार-मुद्रा’ में कुछ कहा जाए तो बड़ी अदब के साथ अर्ज करते हैं- यह तो महात्मा गांधी की ट्रस्टीशिप की भावना की दिशा में बढ़े एक-दो कदम ही तो हैं........!!
सबसे पहले हम समझें, खेत में जल प्रबंधन कैसे किया। फुलजी बा (पूरा नाम श्री चांदमलजी जैन) और उनके बेटे श्री राजेश जैन ने ऐसी व्यूह रचना तैयार की है कि खेत का इक्टठा पानी आसपास के जल स्रोतों को भी रिचार्ज कर सकेगा। फुलजी बा के बेटे राजेश हमें अपने विशाल खेत का मुआयना कराते हुए विस्तार से बताते हैं :
किसी जमाने में इस खेत की मिट्टी अपेक्षाकृत पथरीली थी। दस बारह साल तक उड़द-मूंग आदि की खेती की। लेकिन सफलता नहीं मिली। एक सुबह ख्याल आया कि क्यों न इसे पुराने स्वरूप में ले आएं। पहले यह जंगली बैर की झाड़ियां थीं। पुनः साढ़े चार सौ बैर के तथा डेढ़ सौ आंवले के पौधे लगा दिए। अगले साल से हम पौधे से 50 से 75 किलो फल आने के आसार हैं। जमीन की रचना सुधारने के लिए इसमें 400 ट्रॉली तालाब की मिट्टी डाल दी गई। दो हेक्टेयर इस हिस्से के लिए 60 हजार रुपये विकास पर खर्च किए गए। वृक्ष खेती के कुल 11 हेक्टेयर जमीन उपयोग में लाई जा रही है। पहले जमीन कटकर पानी के साथ बह जाया करती थी। अब यह सब बंद हो गया। घास की पैदावार भी होने लगी।
बरसात की बूंदों को खेत में रुकने की मनुहार करने के लिए इस खेत को आठ टुकड़ों में बांट दिया गया। संरचना ऐसी तैयार की गई कि पानी की इस कमी को अभिशाप के बजाये वरदान में बदलने के लिए अनेक स्थानों पर समाज में जागृति आ रही है। लोगों को अब यह समझ में आ रहा है कि अपने खेत के पानी को यदि खेत में ही नहीं रोका गया तो ‘गति मुक्ति’ नहीं हो सकेगी। इसी दिशा में इस खेत में 11 हजार फीट नालियां बनाई। दरअसल ये छोटी खाइयां जैसी ही हैं। दो फीट चोड़ी और ढा़ई फीट गहरी हैं। इस मिट्टी से यहीं छह-छह फीट चौड़ी क्यारियां तैयार की गई। यहां जोतपुर के अनुसंधान केंद्र से बीज लाकर औषधीय पौंधों की खेती की जाएगी। इनमें लगभग 55 हजार घन फीट पानी पहले इस जमीन में रिसेगा। इसके बाद यदि पानी अतिरिक्त बचता है तो ही बाहर जा पाएगा। खेत का पानी खेत में रहते हुए आसपास के खेतों में नमी के अलावा ट्यूबवेलों और कुओं को भी रिचार्ज करेगा।
अब जरा पथरीली जमीन से परेशान किसान भाई थोड़ा और गौर से सुनें कि किस तरह वृक्ष खेती की डगर पर यात्रा करते हुए फुलजी बा और राजेश जैन ने पानी और मिट्टी के बेहतर प्रबंधन के साथ सफलता का परचम फहराया।
राजेश कहते हैं – यूकेलिप्टस की खेती को लेकर कई भ्रांतियां हैं। यूकेलिप्टस वाले खेत में इस बार 50 हजार रुपये की घास हुई है। आम मान्यता है कि यूकेलिप्टस जमीन से तेज गति के साथ पानी खींचता है, इस कारण क्षेत्र के तीस फीट गहराई वाले कुएं भी समाप्त जाते हैं। लेकिन पठारी जमीन पर मेरे अनुभव पर कुछ और रहे हैं। इस जमीन में अन्न, सब्जी व दलहन की खेती की जा रही थी लेकिन विशेष मुनाफा नहीं मिल रहा था। 1988 से यूकेलिप्टस की खेती की शुरुआत ढाई हेक्टेयर जमीन के साथ की थी। आज यह विस्तार साढ़े 8 हेक्टेयर तक हो चुका है। पौध रोपण के बाद सातवें, आठवें और नवे सालों में 9 लाख रुपये लकड़ी के मिल चुके हैं। इसके पहले पूरे साल में हमें 25 से 30 हजार रुपये ही मिल पाते थे। तब खेती से हम परेशान हो गए थे। बाद में वृक्ष खेती की ओर मुखातिब हुए।
खेत से निकलकर हम तैयार हो रही जल संरचनाओं के किनारे पर आ खड़े हुए। सूखे की भीषण आपदा से इस बुजुर्ग स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ने फिर लोहा लेने की ठानी। आजादी मिलने के बाद फुलजी बा कई क्षेत्रों में सामाजिक स्तर पर लड़ाइयां लड़ते रहे। लेकिन सूखे से यह उनकी बड़ी लड़ाई थी। पानी आंदोलन पर हम अनेक गांवों की मिट्टी से रूबरू हो चुके थे। लेकिन बागेड़ी नदी के किनारे का यह पानी अपने आप में बेमिसाल लगा। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी की जल संरचनाओं वाली जमीन निजी है। निर्माण की लागत भी निजी। और बुलंद इरादे भी तो निजी हैं.......! लेकिन सबसे बड़ी बात है कि इससे आसपास के गांवों में लोग और मवेशी भी लाभान्वित होने जा रहे हैं। राजेश हमें तलैया और तालाब ऐसे बता रहे थे मानो उनके द्वारा तैयार कोई कलाकृति हो।
वे सुनाते हैं- हमारे पास दो कुए हैं। एक 63 फीट और दूसरा 43 फीट गहरा। दो ट्यूबवेल भी हैं लेकिन पानी की पूर्ति ठीक से नहीं हो पाती है। बरसों पहले मेरे दादाजी कहा करते थे- अपनी जमीन में ‘पड़िया पाट’ पानी पीना चाहिए। यानी बिना इंजिन या किसी मोटर के खेतों तक पानी पहुंचना चाहिए। बड़वानी-खरगोन, झाबुआ के अनेक आदिवासी पानी को पहाड़ों तक इस तरह ऊपर तक पहुंचाने की कला में माहिर होते हैं। इसे ‘पाट सिस्टम’ के नाम से जाना जाता है। 25 साल से दादाजी की यह बात हमारे गले नहीं उतर रही थी। इस बार जब भीषण सूखा पड़ा तो हमने तलैया, चेक डेम, तालाब और पोखर बनाने की ठान ही ली। जल संरचनाओं की इस श्रृंखला में सबसे पहले एक तलाई बनाई गई। इसके तल से 10 फीट ऊंची दीवार बनाई गई जब इसका निर्माण चल रहा था तो दादाजी वाली पुरानी बातें याद आ रही थी।
सितम्बर-अक्टूबर में अनेक बार बिजली की समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है। तब खेतों में सिंचाई व्यवस्था का सवाल खड़ा होने लगता है। इस समय खेतों में सिंचाई करने का हम नया प्रबंधन करने जा रहे हैं। तलैया की एक तरफ वाली मिट्टी की पाल को पचास फीट आगे बढ़ाएंगे। सामने दिख रहे पत्थरों पर रेत की बोरियां जमा देंगे। इससे तलैया का पानी चेनल से होता हुआ सवा सौ फीट दूर नाली नंबर दो में पहुंच जाएगा. इस तरह बिना पाइप या मोटर के एक नाली से दूसरी नाली में होता हुआ यह पानी लगभग 25 बीघा जमीन को सिंचित कर देगा।
इस तलैया और तालाब के बीच एक चेक डेम बनाया गया है। आसपास के खेतों व नालियों से आया पानी पहले तलैया में इकट्ठा होगा। इस डेम से पानी रिसकर फिर बड़े तालाब में जाएगा। मिट्टी के कण इन पत्थरों से रूबरू होने के बाद वहीं थम जाएंगे। स्वच्छ पानी तालाब में इकट्ठा होगा। गाद जमा नहीं होने के कारण इस तालाब की जल ग्रहण क्षमता प्रभावित नहीं होगी।
तालाब की लंबाई 240 फीट और चौड़ाई 200 से 300 फीट तक की है. इसकी ऊंचाई तल से 25 फीट की है। मोटे अनुमान के अनुसार 22-23 फीट ऊंचाई तक पानी भरा रहेगा। इन जल संरचनाओं से करीब पांच गांव आम्बापाड़ा, काबराझाड़ी, गायनपाड़ा, चेराखान, हरकाजल के लोगों को फायदा होगा। इन गांवों के मवेशी भी यहां पानी पीने आते हैं। जबकि नीचे की तरफ के 10 गांवों के कुएं और ट्यूबवेल इन जल संरचनाओं की भूमिगत रिसन के कारण रीचार्ज होते रहेंगे। इस तालाब के आगे एक कुआं है। इसके बाद फिर एक पोखर बनाया गया है। इस भीषण गर्मी में भी कुएं से मोटर द्वारा पानी इस पोखर में उड़ेला जाता है। मवेशी यहां आकर पानी पीते हैं।
यह सब देखकर हमने राजेश से पूछा : जब इस गर्मी में सभी कुएं और ट्यूबवेल सूख चुके हैं तब इस कुएं से मवेशियों के लिए पानी की व्यवस्था कैसे हो रही है?
राजेश आध्यात्मिक अंदाज में जवाब देते हैं- ‘हम इस मान्यता पर विश्वास करते हैं, जिसकी जैसी दानत होती है, उसकी वैसी बरकत होती है। जो कष्ट में है, उनको पानी दिया जा रहा है! सो, प्रकृति भी हमारी सुन रही है।’........जल संरचनाओं के निर्माण की तरह फुलजी बा और राजेश की ‘दानत’ भी कम रोमांचकारी नहीं है।
.........आपको आश्चर्य होगा, पानी आंदोलन का यह एकल योद्धा परिवार बदनावर की पेयजल व्यवस्था की 60 प्रतिशत पूर्ति अपने नगर क्षेत्र में स्थित एक कुएं से कर रहा है। दो दिन में एक बार टंकी भरी जा रही है। पानी की इस व्यवस्था के चलते कुएं से लगे उस खेत में गेहूं भी बहुत कम बोया। हर साल यहां से 60 क्विंटल गेहूं पकता है जबकि इस बार केवल 4 क्विंटल गेहूं ही हाथ लगा है। राजेश कहते हैं : मेरे पिताजी की सीख है- गांधी जी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत पर सदैव अमले करो। हमारे पास जो भी उपलब्ध संसाधन हैं, यह मत समझो कि वे केवल हमारे ही हैं। समाज को भी उसमें भागीदार बनाओ।
...........और हमें पता ही नहीं चला कि इस भीषण गर्मी में भी हम कब जल संरचनाओं को देखते-देखते बागेड़ी नदी के किनारे पर आ खड़े हुए।
आपको पहले भी बता दिया था कि यह नदी पूरी तरह सूख चुकी है। जब भूमिगत जल के स्रोत ही जवाब देने लग गए तो फिर उसकी क्या बिसात! लेकिन फुलजी बा से इस नदी की वेदना भी नहीं देखी गई। पिछले साल भी पानी का संकट आया था। बदनावर में बन रही कपास मण्डी के लिए भी यहां से 4-5 हजार ट्रॉली मिट्टी ले जाई गई। राजेश के मुताबिक- विनोबा भावे कहते थे : इंसान को सदैव यज्ञ करते रहना चाहिए। यानी जहां जिस चीज की क्षति ही गई हो वहां उसकी पूर्ति कर दी जाना चाहिए। हमने इसी भाव से बागेड़ी नदी को देखा। 25-30 साल पहले यहां एक छोटा बांध बना था, तब केवल यह पत्थरों वाली नदी थी। बाद में सालों में इसमें गाद भरती गई। 10 से 12 फीट तक मिट्टी हो गई।
........एक दिन सुबह हमने इस नदी को अपने स्तर पर गहरा करने का प्रण ले लिया। अभी तक 1500 ट्राली मिट्टी यहां से निकाली जा चुकी है। 100 ट्रॉली और निकाल लेंगे। दो हजार फीट की लम्बाई में यह नदी 6 से 8 फीट तक गहरी हो चुकी है। अभी तक इस कार्य में एक लाख रुपये की लागत आई है। यह मिट्टी हमारे खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाने का काम कर रही है। इसके अलावा बदनावर के खोकरिया तालाब से भी 200 ट्रालियां मिट्टी निकलवाकर उसके भी गहरीकरण की कोशिश की गई है।
धार जिला कलेक्टर डॉ. राजेश राजौरा कहते हैं – जिले में अनेक स्थानों पर निजी क्षेत्रों में जल संरचनाएं तैयार की जा रही हैं। फुलजी बा जैसी हस्तियां पानी आंदोलन को जन आंदोलन बनाने में शक्ति और ऊर्जा का कार्य कर रही है।
फुलजी बा से जब विदा लेनी चाही तो वे बोले: आजादी के आंदोलन के दौरान ही चुनौतियां स्वीकार करने की आदत सी हो गई है।
वे कहने लगे : एक समय था जब लोग राजा की बेगार करते थे। दूसरा समय आया श्रमदान का। और अब समय चल रहा है, हर काम के लिए सरकार पर आश्रित रहने का। यदि समाज में श्रमदान की भावना फिर आ जाए तो देश की खुशहाली में कोई समय नहीं लगेगा। सरकार पर आश्रित रहने के लम्बे काल के कारण हममें आलस्य भर गया है। हम पानी रोको अभियान के माध्यम से आजादी की ‘दूसरी लड़ाई’ लड़ रहे है। यह जंग सूखे से है। इसके पीछे समाज की जागृति का मकसग भी छुपा है। कई क्षेत्रों में जागृति आ रही है। समाज खुद पहल कर रहा है। जो हम कर रहे हैं, यह भी इसी का एक रूप है।
आपकी जानकारी के लिए बता दें, फुलजी बा का परिवार एक गौशाला भी संचालित कर रहा है। इसमें 500 गाएं हैं। एक आयुर्वेदिक अस्पताल और शासकीय अनुदान की मदद से बाल मंदिर भी चल रहे है।
बूंदों के इस सफर में सागर सी गहराई लिए फुलजी बा से बागेड़ी के खेतों में मुलाकात-चिरस्थाई याद बनकर रह गई। उन्हें देखकर लगता है, पुरानी पीढ़ी अपने अच्छे संस्कार यदि नई पीढ़ी में ठीक से हस्तांतरित कर दे तो वह परिवार ही नहीं बल्कि समाज भी धन्य हो उठता है। राजेश जैन इसी तरह की एक मिसाल हैं। नए समय में वे पिता की परंपरागत राह पर जो चल रहे हैं- फुलजी बा बूंदों को सहेजने के साथ-साथ इसलिए भी तो बधाई के पात्र हैं!
.........क्या आपके आसपास भी कोई फुलजी बा हैं?
........कृपया खोजते रहिए!
.........कौन जाने, किसी के भीतर का सोया हुआ फुलजी बा ही जाग जाए!!
यकीन कीजिए, ऐसा हो सकता है।
शुक्रिया!!
बूँदों की मनुहार (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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