घग्गर नदी का बहाव क्षेत्र आज ‘नाली’ के नाम से जाना जाता है। यदि कोई इस क्षेत्र से अनभिज्ञ है तो वह अपनी कल्पना में इस क्षेत्र को हरा-भरा ही समझता होगा। यह कल्पना किसी और की नहीं, मेरी ही थी। पिछले सप्ताह हनुमानगढ़ और इसके आसपास के क्षेत्र में शोध कार्य के लिए मेरा वहां जाना हुआ। जहां सबसे पहले हनुमानगढ़ टाउन के रेलवे स्टेशन से बाहर आए तो एक-दो पेड़ की छीछली छांव के अलावा दूर-दूर तक हरियाली लेशमात्र भी नहीं थी और जो हमें स्टेशन पर लेने पहुंचे महेश सुथार जी उनसे कह बैठे कि यहां तो सब सूना-सूना नजर आ रहा है। उन्होंने कहा कि आपको हनुमानगढ़ में जहां हरियाली है वह जगह जरूर दिखाएंगे।
वृक्षारोपण का यह कार्य स्थानीय लोगों को दिया जाना चाहिए और युवा वर्ग को वन संरक्षण, वृक्षारोपण और पारंपरिक समाज के जल संरक्षण की पारंपरिक प्रणाली के प्रति जागरूक होना और स्थानीय स्तर पर इस कार्य को करने वालों को प्रोत्साहित करना चाहिए। नष्ट होती वन संपदा और जल की एक-एक बूंद को अपनी भावी पीढ़ी के लिए अपनों से ही नहीं बल्कि विश्व के समृद्ध देशों के आधुनिकीकरण के घातक कुचक्रों से भी बचाना होगा। तभी हम प्रकृति की इस अमूल्य घरोहर का संरक्षण कर पाएंगे।
कुछ देर बाद अपने परिचित सुरेश रोझ के साथ हनुमानगढ़ जंक्शन की ओर जाना हुआ। जहां मैं घग्गर के बहाव क्षेत्र को देखने के लिए काफी उत्सुक थी। कुछ दूर जाने पर मित्र ने बताया कि यहां से नाली शुरू होती है। उस जगह को देखते ही प्रश्न किया कि यह घग्गर का बहाव क्षेत्र है? यहां तो आबादी आबाद हो चुकी है। फिर वर्षा के समय नदी कहां बहती है? तो मित्र का जवाब मिला वह वाकई सोचने समझने लायक था कि यह अब घग्गर नदी नहीं बल्कि ‘नाली’ के नाम से जानी जाती है और नाली के लिए इतनी जगह पर्याप्त है। फिर बातचीत के इसी क्रम में पूछा गया कि बारिश के समय यह क्षेत्र जल की अधिकता से प्रभावित नहीं होता? तो बताया गया कि आसपास का क्षेत्र उस समय जलमग्न हो जाता है। यदि वर्षा ऋतु में यह क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित होता है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन हैं? सरकार ने यहां आबादी आबाद करने की स्वीकृति कैसे दी? सरकार को कैसी नीतियां बनी हुई है जो चोर को कहे लाग और साहूकार को कहे जाग। बहाव क्षेत्र में ये घर रातों-रात तो नहीं बनाए गए जो न किसी ने देखे और न किसी को कुछ कहने सुनने का मौका मिला। बातों का सिलसिला जारी था और हम हनुमानगढ़-सूरतगढ़ मार्ग पर शोध यात्रा के लिए आगे बढ़े। मार्ग दृश्य देखकर लग रहा था जैसे कि जैसलमेर-बाड़मेर के किसी सबसे मरुस्थलीय मार्ग से हम गुजर रहे हों। मार्ग काफी चौड़ा है परंतु दोनों तरफ एक पेड़ क्या छोटा-सा पौधा भी नजर नहीं आ रहा?
आश्चर्य तो इस बात का था कि मार्गों की विभाजक पट्टी को भी कंक्रीट से पाटा जा चुका है, जहां आजकल मार्ग को सुसज्जित करने के लिए रंग-बिरंगे फूलों से युक्त पेड़-पौधे लगाये जाते हैं वहीं यहां इस विभाजक पट्टी को पूर्णतः कंक्रीट युक्त करने के पीछे क्या तर्क रहा है? मार्ग के दोनों और पेड़ न होने का कारण मित्र द्वारा, मार्ग का चैड़ीकरण बताया गया। पेड़ काटने के बदले में यहां कई गुना पेड़ लगाने की बात हुई थी परंतु ऐसा नहीं हुआ और अब तो ऐसे लगता है जैसे पेड़ लगाने की प्रक्रिया कागजों में दफन हो चुकी है। क्या पेड़ लगाने की कोई निश्चित अवधि नहीं थी? जिसमें पौधारोपण करना अनिवार्य था। सरकार के किसी उपकरण की अनदेखी से यदि ऐसा हो रहा है तो क्या उससे उपर कोई सिस्टम नहीं? इन पेड़ों की कटाई से निःसंदेह पर्यावरण प्रभावित हुआ है। अगर शुरुआत में ही यहां पर पौधे लगा दिए जाते तो आज वो कुछ बड़ हो गए होते।
पर्यावरण से जुड़ा हुआ यह ऐसा मामला है जिसे गंभीरता से लेना चाहिए। प्रदूषण के कारण पर्यावरण की स्थिति दिन-प्रतिदिन बदतर होती जा रही है। पेड़ काटे गए पर लगाये नहीं गये, यह पर्यावरण के लिए एक अपूरणीय क्षति हुई है। पर्यावरण को हुए इस नुकसान की जिम्मेदारी तय करना जरूरी है और दोषियों को दंडित करना। आज पर्यावरण संरक्षण के लिए संपूर्ण विश्व चिंतिंत है वहीं हम साधन संपन्न होते हुए भी पौधारोपण के लिए निरूत्साही होते जा रहे हैं। शोध कार्य का कार्य कर जब वापस हनुमानगढ़ पहुंचे तो अचानक आंधी-बारिश शुरू हो गई और इसके साथ ही ओले गिरने लगे। क्या प्रकृति बिना मौसम के बारिश ओले गिराकर हमें पर्यावरण संरक्षण के लिए सचेत कर रही?
ये सोचते हुए, बारिश के पानी से भरे रास्ते से होते हुए हनुमानगढ़ टाउन परिचित के घर पहुंचे। दूसरे दिन किसी मित्र विनोद नोखववाल के साथ मोटरसाइकिल से हड़प्पा सभ्यता के कालीबंगा स्थल की ओर जाना हुआ। उस रास्ते का भी यही हाल कि सूरज की तपिश से बचने के लिए दूर-दूर तक पेड़ तक नहीं। कुछ देर बाद हम रामसरा गांव पहुंचे, वहां दूर से किसी कुंअे के अवशेष नजर आए और खुशी हुई कि अब अवश्य यहां आना सार्थक होगा। एक कुंआ मिलने से कार्य सिद्धी की बात इसलिए कही क्योंकि इस क्षेत्र के जानकार व्यक्तियों से यहां की पारंपरिक जल प्रणाली के बारे में पूछा तो जवाब मिला कि यहां कुंअे-बावड़ी, तालाब मिलने मुश्किल है क्योंकि यहां तो नहर का पानी बड़ी आसानी से मिल जाता है फिर किसलिए इन स्रोतों की आवश्यकता।
सोचने वाली बात यह थी कि कुछ दशकों पहले आई इस जल व्यवस्था से यह समाज इतना बेफिक्र होकर कैसे अपने पूर्वजों से मिली पारंपरिक जल प्रणाली को दरकिनार कर सकता है? जब इसका उदाहरण भी इनके सामने है कि कैसे एक वैदिक काल की सदानीरा नदी आज नाली में तब्दील हो चुकी है। फिर कितने सालों तक जल के अनुचित उपभोग और कुप्रबंधन से यह आधुनिक जल प्रणाली सुचारू रूप से जल उपलब्ध करा पायेगी? ये सब सोचते-सोचते कुंअे के पास पहुंचे और कुंअे के खंडहरों और उसकी बनावट को देखकर अनुमान लगाया कि यह कुआं लगभग 90-100 वर्षों पुराना अवश्य होगा। कुआं के पास एक काफी लंबा-चौड़ा गहरा गडढा बना हुआ है जिसके बारे में बताया गया कि यहां ईट भट्टा था। जो सरकारी जमीन पर बना होने के कारण इसे यहां से बाद में हटवाया गया।
हो न हो यह जगह कुंअे के नीचे बाड़ी की जमीन रही होगी और वर्तमान में यह कोई नई बात भी नहीं रही है कि सरकारी नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए जलाशयों को पाटकर और उसके आगोर पर अतिक्रमण पर, उस सार्वजनिक भूमि का व्यक्तिगत उपभोग हो। यहां तक कि 25 जुलाई 2001 को सुप्रीम कोर्ट ने यह नियम पारित था कि किसी सार्वजनिक जलाशय की जमीन किसी अन्य कार्य के लिए न बदली जा सकती है और न ही स्थानांतरित की जा सकती है। ऐसा नहीं है कि यह आज के इस वाटर हार्वेस्टिंग नाम लेने वाले इस आधुनिक युग में ही यह नियम बना हो बल्कि यदि 17-18वीं सदी की बात करें तो उस समय भी ऐसे कानून बने थे। जिसमें जलाशय बनाने की अनुमति इसी शर्त पर दी जाती थी कि जलाशय के रूप में सार्वजनिक उपभोग होने वाली जमीन का कभी भी व्यक्तिगत उपभोग नहीं होगा।
इसी यात्रा के अगले पड़ाव में हम हनुमानगढ़ टाउन से से 10-12 किमी. दूर फतेहगढ़ गांव पहुंचे। जहां अपने पारंपरिक जल प्रणाली को देखा तो दंग रह गए कि वर्षा-जल को संग्रहित करने वाले कच्चे-पक्के तालाबों के आगोर कोष्ठक तालाब के चारों और का वह स्थान जहां से तालाब में पानी एकत्रित होता है जिसे पायतन भी कहते हैं कोष्ठक को जो समाज बिना किसी चेतावनी बोर्ड के साफ-सथुरा रखता था। आज वही समाज उस जगह पर सरकारी जल बोर्ड के आफिस के होते हुए भी पानी की टंकी के आसपास और तालाब के आगोर में गांव का कूड़ा-कचरा एवं गोबर डाल रहा है। यह वह समाज है जो अपनी आवश्यकताओं पर किसी दूसरे पर या सरकारी तंत्र पर निर्भर नहीं रहता था बल्कि अपने सीमित संसाधनों से ही अपने और समाज के लिए सभी संसाधन जुटाता था। तालाब को देखकर बातें करते हुए मोटरसाइकिल से हम पीलीबंगा की ओर कालीबंगा कैंची पहुंचे। जहां किसी दुकान के आगे प्लास्टिक और तिरपाल के तंबू के नीचे जूस पीने के लिए रुके। वहां पर भी एक-दो पेड़ के अलावा, इतने बड़े चैराहे पर हरियाली के नाम पर कुछ भी नहीं था। भरी दोपहरी में अपने आपको सूती कपड़े से ढकते हुए मित्र के साथ कालीबंगा थेड़ को देखने पहुंचे। यहां भारत के सबसे पुराने कुअे को देखने का जो सौभाग्य मिलने वाला था। यहां के शोध अधिकारी ने हमें वह जगह दिखाई जहां पर कुंअे बने हुए थे।
कुओं को अच्छे से तो नहीं देख पाए क्योंकि कुआं वाली जगह को मिट्टी से वापस पाट दिया गया ह। उस जगह पर भी झाड़-झंखाड़ उग आए हैं परंतु वहां के अधिकारी कार्यालय में स्थित अपनी रिपोर्ट से उन कुओं के बारे में अच्छे से समझाष्या कि आज भी जब घग्घर में पानी आता है तो ये भी रिचार्ज होते हैं। कंअे को देखकर बहुत खुश थे परन्तु एक निराशा और चिंता भी थी कि जब यह सभ्यता नदी किनारे बसी हुई थी फिर भी इन कुंओं की उन्हें कहां जरूरत पड़ी? वर्तमान में दो इंच की नाली से घर-घर जो पानी पहुंच रहा है उसके लिए अपनी पारंपरिक जल प्रणाली का नामोनिशान मिटाने पर तले हुए हैं। यहीं से अपनी शोधयात्रा को विराम देते हुए वापस हनुमानगढ़ पहुंची। वहां पहुंचने के बाद एक नहीं अनेक प्रश्न में दिमाग में उठ रहे थे कि इन सबके लिए जिम्मेदार कौन हैं? इस प्रकार सरकार की उदासीनता और कुप्रबंधन के कारण पारंपरिक जल प्रणाली और वृक्षों की अंधाधुंध कटाई से जहां जल की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। वहीं प्राकृतिक वन संपदा भी नष्ट होती जा रही है। प्रतिवर्ष वृक्षारोपण की रस्म अदायगी तो की जाती है परंतु उसे लगाने के बाद उसे भुला दिया जाता है। यदि प्रतिवर्ष पेड़ लगाने और उसकी सार संभाल का क्रम चलता रहता तो आज वृक्षों की संख्या करोड़ों में पहुंच गई होती।
वृक्षारोपण का यह कार्य स्थानीय लोगों को दिया जाना चाहिए और युवा वर्ग को वन संरक्षण, वृक्षारोपण और पारंपरिक समाज के जल संरक्षण की पारंपरिक प्रणाली के प्रति जागरूक होना और स्थानीय स्तर पर इस कार्य को करने वालों को प्रोत्साहित करना चाहिए। नष्ट होती वन संपदा और जल की एक-एक बूंद को अपनी भावी पीढ़ी के लिए अपनों से ही नहीं बल्कि विश्व के समृद्ध देशों के आधुनिकीकरण के घातक कुचक्रों से भी बचाना होगा। तभी हम प्रकृति की इस अमूल्य घरोहर का संरक्षण कर पाएंगे।