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काव्य संचय- (कविता नदी)
दृग के प्रतिरूप सरोज हमारे उन्हें जग ज्योति जगाती जहाँ,
जल बीच कलंव-करंवित कूल से दूर छटा छहराती जहाँ,
घन अंजन वर्ण खड़े तृण जाल की झाईं पड़ी दरसाती जहाँ,
बिखरे बक के निखरे सित पंख बिलोक बकी बिक जाती जहाँ,
द्रुम अंकित, दूब भरी, जलखंड-जड़ी धरती छवि छाती जहाँ,
हर सीरक-हेम-मरक्त-प्रजा, ढल चंद्रकला है चढ़ाती जहाँ,
हँसती मृद, मूर्ति कलाधर की कुमुदों के कलाप खिलाती जहाँ,
घन चित्रित अंबर अंक धरे, सुषमा सरसी सरसती जहाँ,
निधि खोल किसानों के धूल-सने श्रम का फल भूमि बिछाती जहाँ,
चुन के, कुछ चोंच चला करके चिड़िया निज भाग बटाती जहाँ,
कगरों पर काँस की फैली हुई धवली अवली लहराती जहाँ,
मिल गोपों की टोली कछार के बीच है गाती औ’ गाय चराती जहाँ,
जननी धरणी निज अंक लिए बहु कीट-पतंग खेलाती जहाँ,
ममता से भरी हरी बाँह की छाँह पसार के नीड़ बसाती जहाँ,
मृदु वाणी, मनोहर वर्ण अनेक लगाकर पंख उड़ाती जहाँ,
उजली कंकरीली तटी से धँसी तन, धार लटी बल खाती जहाँ,
दलराशि उठी खरे आतप में हिल चंचल चौंध मचाती जहाँ,
उस एक हरे रंग में हलकी गहरी लहरी पड़ जाती जहाँ,
कल कर्वरता नभ की प्रतिबिंबित खंजन में मन भाती जहाँ,
कविता वह! हाथ उठाए हुए, चलिए कवि वृंद बुलाती वहाँ।
जल बीच कलंव-करंवित कूल से दूर छटा छहराती जहाँ,
घन अंजन वर्ण खड़े तृण जाल की झाईं पड़ी दरसाती जहाँ,
बिखरे बक के निखरे सित पंख बिलोक बकी बिक जाती जहाँ,
द्रुम अंकित, दूब भरी, जलखंड-जड़ी धरती छवि छाती जहाँ,
हर सीरक-हेम-मरक्त-प्रजा, ढल चंद्रकला है चढ़ाती जहाँ,
हँसती मृद, मूर्ति कलाधर की कुमुदों के कलाप खिलाती जहाँ,
घन चित्रित अंबर अंक धरे, सुषमा सरसी सरसती जहाँ,
निधि खोल किसानों के धूल-सने श्रम का फल भूमि बिछाती जहाँ,
चुन के, कुछ चोंच चला करके चिड़िया निज भाग बटाती जहाँ,
कगरों पर काँस की फैली हुई धवली अवली लहराती जहाँ,
मिल गोपों की टोली कछार के बीच है गाती औ’ गाय चराती जहाँ,
जननी धरणी निज अंक लिए बहु कीट-पतंग खेलाती जहाँ,
ममता से भरी हरी बाँह की छाँह पसार के नीड़ बसाती जहाँ,
मृदु वाणी, मनोहर वर्ण अनेक लगाकर पंख उड़ाती जहाँ,
उजली कंकरीली तटी से धँसी तन, धार लटी बल खाती जहाँ,
दलराशि उठी खरे आतप में हिल चंचल चौंध मचाती जहाँ,
उस एक हरे रंग में हलकी गहरी लहरी पड़ जाती जहाँ,
कल कर्वरता नभ की प्रतिबिंबित खंजन में मन भाती जहाँ,
कविता वह! हाथ उठाए हुए, चलिए कवि वृंद बुलाती वहाँ।