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अंतिम जन, अक्टूबर 2014
भारतीय राष्ट्रवाद बहुजातीय; बहुविध, बहुपक्षीय और अनंत ध्वनियों को रूपायित करने की क्षमता वाला माना जाता है। कई समाजशास्त्रियों का मानना है कि ''भारतीय राष्ट्रवाद की अपूर्णता की तलाश हम तब तक नहीं कर सकते, जब तक राजनीतिक घटनाओं के मोह से थोड़ा मुक्त होकर राष्ट्रवादी चेतना के निर्माण की प्रक्रिया का अध्ययन नहीं कर लेते।”हिन्दी के उपन्यास-कथा साहित्य में कोटिवार विभाजन केवल आदर्शवादी और यथार्थवादी साहित्य के बीच ही रहा हो, ऐसा नहीं है। दुनिया की अन्य प्रमुख भाषाओं जैसे- अंग्रेजी, फ्रेंच और रूसी कथा-साहित्य की ही तरह हिन्दी में भी राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को एक दूसरे ही ढंग से यहां के कथा-साहित्य में बनते या आकार लेते देखा जा सकता है। अंग्रेजी के आरंभिक उपन्यासों में विक्टोरिया काल की नैतिकता और उससे भी पूर्व 18वीं सदी के नए अर्थ-राजनैतिक समाज की निर्माण-प्रक्रिया जो राष्ट्र-राज्य के आज के तंत्र के गढ़ रही थी, वह कहीं-कहीं क्षेपकांशों में देखने को जरूर मिल जाती है। दरअसल 19वीं सदी में लंबी कहानियों और उपन्यासों का कथाशिल्प अपने फॉर्मेट में जिस तरह उच्च-मध्य वर्ग की रुचि से बना था, ठीक वैसे ही उसकी भावधारा भी उसी समाज के नए राजनैतिक वर्ग के रूप में गठित होने की कहानी है। अंग्रेजी के उपन्यासों में इसे थॉमस हार्डी एवं चार्ल्स डिकेंस जैसे उपन्यासकारों के 'द मेयर ऑफ कॉस्टरब्रिज' और 'ए टेल ऑफ टू सिटीज’ जैसी रचनाओं में एक आहट के रूप में देख-सुन सकते हैं। सर वॉल्टर स्कॉट के उपन्यासों में विक्टोरियन नैतिकता एवं राजनैतिक हलचलों के सहारे नगर परिवेश में 'मैनरिज्म' को समग्र स्कॉटिश, वेल्स, हाइलैंडर्स और 'यो मैन्स‘ के दक्षिण-पूर्व, के अपेक्षाकृत आधुनिक सभ्य ट्यूडर चरित्र पर हावी होते जाने की बात को कई समीक्षकों ने रेखांकित किया है।
रूसी उपन्यासकारों में इस श्रेणी के रचनाकार वर्ग में मिखाइल शोलोखोव का नाम सबसे ऊपर लिया जाता है जिनकी ‘धीरे बहे दोन रे' (हिन्दी अनुवाद) अंचल की संघर्ष-गाथा के रूप में एक क्लासिक है। हिन्दी में पहले-पहल हरिऔध का 'ठेठ हिन्दी का ठाठ' वैसे कथा-विन्यास और भावभूमि के सहारे नहीं बल्कि भाषा के सहारे ही अंचल के बोध को उभारने की कोशिश करता है। यह जरूर हुआ कि वहां से 'गोदान' तक समस्याओं के पहचान का एक क्षेत्र 'अंचल का संघर्ष और उसकी अपनी समस्याएं' बनकर उभर गईं। शिवपूजन सहाय की 'देहाती दुनिया' संस्मरण शैली में लिखी गई रचना है, जिसमें गंवई जीवन को उसकी अपनी 'भाषा-शैली और उपक्रमों के साथ छोड़कर प्रदर्शित किया है। घरों का टूटना, खेतों में बंटवारा, और भी कई तरह के सामाजिक विघटनों में बदल रहे अंचल के जीवन और आंचलिक संस्कार के 'समावेशी चरित्र' के विघटन को बड़ी बारीकी से दिखाने की कोशिश की गई है। सहाय ने देहाती दुनिया के चरित्र को पहले-पहल देहाती भाषा में जिस रूप में रखा है वह ''असल में गाजीपुर का पुराना नाम गाधिपुर है वहीं से त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग भेजा था। जब वहां जगह न मिली तब मुनि की कृपा से उसने नक्षत्रों में जगह पा ली। वही अब त्रिशंकु तारा उगता है उसी त्रिशंकु के पीछे इंद्र से और मुनिजी से खटक गई। बस खिसियाकर नया इंद्रासन बनाने लगे। इस पर ब्रह्माजी से भी अनबन हो गई। अब डाह के मारे नई सृष्टि करने लगे। ललकारकर कह दिया कि ब्रह्मा अगर आदमी पैदा करते हैं, तो हम पेड़ में आदमी फरावेंगे। इस नीयत से नारियल बनाया। देख लो ठीक खोपड़ी की ही तरह उसका फूल होता है। दो आंखें होती हैं, बाल होते हैं। भीतर मगज में गूदा होता है। इतना ही नहीं, अब आदमी की शीश होने ही से शुभ कामों में बरता जाता है। ... उसके बनते ही ब्रह्मा घबड़ा उठे। बहुत कोशिश पैरवी से सृष्टि रुकवाई।”
तथापि तब तक इसे अंचल बनाम ‘पॉलिटिकल सेंटर के रूप में शहर' के बीच के रिश्ते के तईं व्याख्यायित करने की तमीज हिन्दी में विकसित नहीं हो पाई थी। पचास के दशक के पूर्व हिन्दी बांग्ला और अंग्रेजी फिक्शन (उपन्यास अथवा लंबी कहानियां’) के पर्याप्त अनुकरण के बावजूद अंचल की गाथा एक स्वतंत्र विधा गाथा के रूप में सामने नहीं आ सकी थी।
II
औपनिवेशिक समाज में किसानों के लोकप्रिय प्रतिरोधों का अध्ययन आधुनिक इतिहासकारों के लिए अत्यंत आकर्षण का विषय रहा है। औपनिवेशिक संघर्षों में इन किसान संघर्षों ने मेट्रोकेंद्रित संघर्ष को नीचे से बल दिया। यही कारण रहा कि भिन्न-भिन्न इतिहासकारों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से लोकप्रिय प्रतिरोधों के स्वरूपों के अध्ययन के लिए सार्थक प्रयत्न जारी रखे। रणजीत गुहा ने औपनिवेशिक भारत में विद्रोहों एवं किसान प्रतिरोधों के स्वरूप का परीक्षण कर उसके कुछ अनछुए पक्षों को पहचानने का सार्थक प्रयास किया है। आंचलिक कथाएं ऐसे ही संघर्ष के मिथक कथाओं से आपूरित हैं। लंबी कहानियों या उपन्यासों में ठोस आंचलिक आचारों का महाजनी, भूपतित्ववाद एवं कृषि के व्यवसायीकरण के परिणामस्वरूप कृषक उभारों के चित्रण का प्रयास विशुद्ध आंचलिक रचनाधर्मिता के साथ रेणु के द्वारा ही शुरू होता है। “डॉक्टर का रिसर्च पूरा हो गया, एकदम कम्पलीट। वह बड़ा डॉक्टर बन गया। डॉक्टर ने रोग की जड़ पकड़ ली है...? गरीबी और जहालत इस रोग के दो कीटाणु हैं।' अंचल की गाथा सतही तौर पर नहीं बल्कि वाजिब तरीके से अपने निष्कर्षों पर पहुंचती है, जिसके मूल में अंचल की एक समस्या यह भी है- “साले सब चुपचाप दफा-40 में दरखास्त देकर समझते थे कि जमीन हो गई। अब समझो। बौना और बालदेव से जमीन लो। सब सालों से जमीन हुआ लेने को कहा है मैनेजर साहब ने। लो जमीन। राम-नाम की लूट है... अरे कांग्रेसी राज है तो क्या जमींदारों को घोलकर पी जाएगा?'' अंचल के परिवेश में परिवर्तन एकरेखीय नहीं है, यहां के घूर्णन आवर्तन को गति आंचलिक रचनाकारों ने ही पकड़ी है। यही कारण था कि आंचलिकता और उसकी शैली को केवल विधा के रूप में नहीं ‘वर्ग’ के रूप में मान्यता मिली।
रेणु स्वयं अपने एक निबंध 'पतियाते हैं तो मानिए आंचलिकता भी एक विधा है' में इसी तथ्य को सप्रमाण प्रस्तुत करते हैं- 'सुना है, मिखाइल शोलोखोव की एक नई आंचलिक किताब आई है- ‘कुमारी धरती का जागरण’ (वर्जिन सॉयल अपटनर्ड) का दूसरा खंड है। सुना है इस खंड के बारे में- दन अंचल के ग्रेमियाची लंग कागासी गांव में- इस शतक के चतुर्थ दशक में घटने वाली घटनाएं हैं। कागासी अंचल की गंध से ओत-प्रोत नवनिर्माण कार्य में लगे हुए वहां के लोग, उनके वैर-विरोध, हंसी-रुदन, जीवन के अनेक द्वन्द्व, मधुर चित्रों से भरपूर। पढ़ने वालों का कहना है कि इस उपन्यास के प्रकाशन के बाद सोवियत रूस में और बहार फैली हुई कई शंकाएं दूर हो गई हैं। शोलोखोव की धारा (आंचलिक) सूख नहीं गई है। ... हैमसुन के ‘ग्रोथ ऑफ सॉयल' का संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद आप 'सारिका' में धारावाहिक रूप में क्यों नहीं प्रकाशित करते?' रेणु ने आंचलिकता को एक तकनीक और विधा के रूप में जानने-समझने को जिस हिकमत की बात की है, उसके पक्ष में उन्होंने इसी परिचर्चा में यूगोस्लावियन लेखक इवो आन्द्रिच के लिखे सर्बिया प्रांत के बार्स्तनमा अंचल की कहानी ‘द्रिना नदी का पुल’, स्वात दरवेश, नाजिम हिकमत और उनके ‘अंकारा का बन्दी’ को वैश्विक आंचलिक धारा के रूप में दस्तावेज की तरह रखा है। रेणु यहां तक मानते हैं कि बांग्ला के 'शैलजानन्द ताराशंकर बंद्योपाध्याय, सतीनाथ भादुड़ी, मानिक बंद्योपाध्याय, समरेश बसु के हिन्दी के अनुवाद आंचलिक भाषा के बगैर नहीं हो सकते... दुराशा और शंका होती है- बंकिम, रवीन्द्र, शरतचन्द्र के आम हिन्दी अनुवादों को पढ़कर मेरा विश्वास है इन उपन्यासों के अनुवाद ‘आंचलिक लेखक' ही कर सकते हैं।” रेणु ने अपने इसी निबन्ध में औपन्यासिक रचनाओं के स्थाई मूल्य का प्रश्न उठाया है कि 'स्थाई मूल्य किन उपन्यासों का है? जीवन में स्थाई मूल्य किन चीजों का है? जीवन के स्थाई मूल्य क्या हैं? जाहिर है सतीनाथ भादुड़ी के 'ढोढ़ायचरित मानस' और उसके बाद हिन्दी में जिस ‘स्थाई मूल्य' के सवालों की बुनियाद ‘मैला आंचल' द्वारा डाली जा रही थी, वह पचास और उसके बाद के दशक में बन रहे राष्ट्र और उसके भीतर के कई एक लंबी स्थाई लघु राष्ट्रीयताओं (अंचलों) के बीच की रगड़ एवं घर्षण में नए राजनैतिक निर्माणों और 'पॉलिटिकल एडमिनिस्ट्रेटिव' स्थापत्य में एक प्रकार की जोर-आजमाइश मुख्य विषय थी।
रेणु के ही समकालीन नागार्जुन के उपन्यासों में अंचलों की बिगड़ रही पारंपरिक पारिवारिक-सामाजिक व्यवस्था, टूट रहे सामाजिक ताने-बाने और आर्थिक संबंधों के अन्योन्याश्रित रूपों को धीरे-धीरे अपनी आकार एवं आकृति के नए रूप में डालने की प्रक्रिया देखी जा सकती है। गांव के पोखर भिंड पर शासन के बल से कब्जाने की कोशिश को रोकने में गांव समाज का हर जाति-बिरादर तत्पर है- 'पंडित शशिनाथ ठाकुर हैं, हाजी करीम बक्स हैं, मोसम्मात झुनिया है, अहीरों की बिरादरी के गोनऊड़ महतो और सहदेव राऊत हैं, भुट्टू पासवान है, विजय बहादुर सिंह सिसोदिया हैं, जहदल्ली जोलहा है, सोनमा ढोलिया है, अचकमनि मोसम्मात है..”
अपने समय की गति एवं परिवर्तन के चिन्हों को आंचलिक भाषा एवं अंचलों की कहानी के माध्यम से नागार्जुन ने पचास के दशक में रेणु के समकालीन ही परंतु उनसे थोड़ी अलग भंगिमा के साथ दिखाने को कोशिश की है। सद्य: स्वतंत्र भारत में राष्ट्र के प्रति भावना के समक्ष अंचल की कहानी नागार्जुन में एक राजनैतिक गंध के साथ है; पर है आंचलिक भावबोध के ही रंग में- 'मुदा कुछ पहिले अगर तुम इसी भांति सतमहला बाल छंटाये, दाढ़ी मूंछ साफ किये मेरी बस्ती में पहुंच जाते, तो परलय (प्रलय) मच जाता। ... मेरा बाबू एक बार ढाका से आया, बाबड़ी छंटा कर। बूढ़े मालिक उन दिनों महजूद (मौजूद) थे। उन्होंने मेरे बाप को बड़ा ही फटकारा। पछवारी टोला के पंडित बबुअन झा बुलाए गए और उन्होंने फतवा दिया। नदी के किनारे जाकर असतूरा (उस्तरा) से बाल कटाना होगा।” यहां तक आकर आंचलिक रचनाधर्मिता की प्रतिबद्धताएं और कसौटियां दोनों ही तय हो जाती हैं। बदल रहा समाज, वर्ण-व्यवस्था के नए प्रकारों का उभार, अंचलों में प्रचलित व्यवस्था के प्रति मोहभंग और बन गई भावात्मक जरूरतें, साथ-ही-साथ नगर और प्रशासनिक केंद्रों के हस्तक्षेप के प्रति आक्रोश भी; सब कुछ अंचल की अभिव्यक्ति के रूढ़ विषय बनते चले जाते हैं।
III
भारतीय राष्ट्रवाद बहुजातीय, बहुविध, बहुपक्षीय और अनंत ध्वनियों को रूपायित करने की क्षमता वाला माना जाता है। कई समाजशास्त्रियों का मानना है कि “भारतीय राष्ट्रवाद की अपूर्णता की तलाश हम तब तक नहीं कर सकते, जब तक राजनीतिक घटनाओं के मोह से थोड़ा मुक्त होकर राष्ट्रवादी चेतना के निर्माण की प्रक्रिया का अध्ययन नहीं कर लेते।”
गांवों में उभर रही राष्ट्र-राज्य के प्रतीकों के प्रति क्षोभ भरी चेतना में हम इसके संकेत हासिल कर सकते हैं; जिनके बारे में यह तो स्पष्ट है कि 'यहां राष्ट्रवाद की चेतना नागरीय चेतना की तरह योजनाबद्ध नहीं, किंतु स्वत:स्फूर्त, अत्यंत आवेगमय और तीव्रता से परिपूर्ण रही है।” ‘मैला आंचल' तक आंचलिकता का मुख्य विषय अंचल गाथा भर थी, जिसमें परिवर्तन की शैली और उसके अवसर खुद-ब-खुद मुख्य वर्ण्य-विषय बन गए। साथ में कई-कई खानों में बंटे अन्य-अन्य सवालों को प्रश्नचिन्हों के साथ अनबटी रस्सी की तरह भविष्य के लिए छोड़ दिया गया। 'परती परिकथा' में रेणु ने उन सवालों को वहीं से उठाया, जहां से उन्होंने उसे ‘मैला आंचल' में छोड़ा था। एक किस्सागो का सपना उसके अंचल में कोशी एवं दुलारीदाय नदी के ' कछुआपीठा, धूसर, वीरान, पतित भूमि जहां बालूचरों की शृंखला भर है, उसके 'शस्य श्यामला सुजला सुफला’ रूप में परिवर्तित होने की कथा है। एक अधूरे उपन्यास अंश में रेणु इसे टूटते-बनते सपने के रूप में दिखाते हैं- 'युवक कैमरामैन भवेशनाथ भी इसी इलाके का लड़का है। एम.ए की परीक्षा देकर आया है- परती के विभिन्न रूपों की स्टडी करता है। ... वह मन-ही-मन सोचता है- तीस साल बस और तीस साल। इसके बाद तो सारी धरती इन्द्रधनुषी हो जाएगी।” रेणु इस उपन्यास के अंतिम पंक्तियों में लिखते हैं- 'जित्तू अधूरी कहानी के सपने देखता सोया पड़ा है, बंध्या रानी मां के कलश का उद्धार कैसे हो, ... विशाल धरती पर इन्द्रधनुषी जिंदगी कैसे उतरे, आदि ‘चाक्रिक पद्धति' के प्रश्नों का उत्तर दिए बगैर वे कहानी नहीं बढ़ा सकेंगी... क्योंकि ‘विजूबन-बिजूखंड' में बंध्या रानी की सुख-समृद्धि एक 'कलश' में बंद पड़ी है। जित्तू उठे तब तो कुछ हो।” एक उच्च शिक्षा प्राप्त नायक के अंचल पुनरागमन के बहार से रेणु अंचलों के विकास के लिए आज के 'समावेशी विकास' के साधन के रूप में लगभग आधी सदी पूर्व ही एक नजरिया दे देते हैं। हिन्दी के औपन्यासिक कथाभूमि में तब यह एक यूटोपिया की ही तरह था, जो आज भी कमोबेश यूटोपिया ही है।
साठ के दशक की हरित क्रांति और इसके बाद के दशकों में अंचल की कहानी अपनी कई एक त्रासदियों के बीच से उपन्यासों में जैसे अपने-अपने विषय चुन लेती है। रेणु ने पचास के दशक के शुरुआती वर्षों में जिस त्रासदी की स्थिति को टुकड़ों में कहानियों के माध्यम से प्रकट किया है, वह यूं है 'सभी एक-एक कर गांव छोड़कर जा रहे हैं। सच्चिदा भी चला जाएगा तो गांव की कबड्डी में अकेले पांच जन को मारकर अब दांव कौन जीतेगा... होली में जोगीड़ा और भड़ौआ गाने वाला- अखाड़े में ताल ठोंकने वाला... सच्चिदा भैया। ... पिछले साल से होली का रंग फीका पड़ गया है। आठ-नौ साल की चुरमुनियां की नन्हीं-सी जान, न जाने किस संकट की छाया देखकर डर गई है। क्या रह जाएगा? चुरमुनिया गा-गाकर रोना चाहती है, करुण सुर में...।” वह दुश्चिन्ता विकास मानदंडों के नारों- नक्कारों में दब जाती है। हिन्दी औपन्यासिक विधा में श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’, शिवप्रसाद सिंह के ‘अलग-अलग वैतरणी’ से लेकर अस्सी के दशक में मनोहर श्याम जोशी के 'कसप’, 'कुरु कुरु स्वाहा’ और राजू शर्मा के 'हलफनामा' तक यह यात्रा विभिन्न रास्तों के बनते जाने की कहानी है। ‘राग दरबारी’ तक आकर अंचल की मुख्य चिंता केवल और केवल ‘जड़ समाज' और आजीविका को समस्या बनी नहीं रह जाती। भारत गांवों का देश है और गांवों में कृषि ने अपने परंपरागत विकास और उद्यमों से समझौते की प्रक्रिया में अंचलों की मुख्य जीवनधारा के रूप में ‘कृषि संस्कृति’ को नकारने का जो तौर-तरीका अपनाया गया, यहां उसी पर एक सपाट व्यंग्य है- “शिवपालगंज में इन दिनों एक ऐसा विज्ञापन खास तौर पर मशहूर हो रहा था, जिसमें एक तन्दुरुस्त काश्तकार सिर पर अंगोछा बांधे, कानों में बालियां लटकाये और बदन पर मिर्जई पहने गेहूं की ऊंची फसल को हंसिये से काट रहा था। एक औरत उसके पीछे खड़ी हुई, अपने-आप से बहुत खुश, कृषि विभाग के अफसरों वाली हंसी हंस रही थी। नीचे और ऊपर अंग्रेजी और हिन्दी अक्षरों में लिखा है “अधिक अन्न उपजाओ”। मिर्जई और बाली वाले काश्तकारों में जो अंग्रेजी के विद्वान थे, उन्हें अंग्रेजी से और जो हिन्दी के विद्वान थे, उन्हें हिन्दी से परास्त करने की बात सोची गई थी।” अंचल के जीवनानुभव और उससे राष्ट्र के बनावटी प्रगतिशीलता वाले संबंधों के योजक चिन्हों की हास्यास्पद स्थिति को बाद में और व्यंग्यात्मक ढंग से एक खेती के प्रयोग से की- 'पकने के समय तक खेत में महत्व की एकमात्र चीज पौधों की कतार भर रह गई थी। खाद, बीज और पानी का कहीं जिक्र ही नहीं आया। इसलिए खेती की यह प्रगतिशीलता आंख को दो महीने सुख देकर किसान के लिए शर्म और जगहंसाई का कारण बन चुकी है। अब मुआयना करने वाले अफसर लोग नहीं आते थे, वे दूसरे प्रकार की कतारों का मुआयना करने के लिए शायद दूसरी ओर निकल गए थे। गेहूं की फसल, जो बैलों ने इतने परिश्रम से पैदा की थी, बैलों को ही अर्पित हो जाने वाली थी।” तथापि विशुद्ध तौर पर एक अंचल की कथा होने के बावजूद ‘राग दरबारी’ गांव नहीं बल्कि शहर को छूते हुए एक कस्बे की कहानी बन जाती है। और यहां स्वातंत्र्योत्तर भारत में फिर से ‘मैला आंचल’ के विश्वनाथ प्रसाद की तरह ही वैद्यजी के हाथों में गांव की प्रधानी, इंटर कॉलेज की मैनेजरी और कोऑपरेटिव यूनियन की अध्यक्षी का सिमटते जाना मुख्य कथासार बन जाता है। गांवों की बिखरती सामाजिक समरसता, पलायन, कृषि समस्या और आत्मनिर्भरता का टूटना अंचल कथा के मुख्य वर्ण्य-विषयों में या तो परे हो जाता है या सायास उस समस्या को छोटा करार दे दिए जाने की मनोवृत्ति बढ़ने लगती है।
IV
भारत की संसद ने एक वामपक्षीय लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने की प्रस्तावना यहां के संविधान में रखी थी। यह एक लोक-कल्याणकारी गणराज्य की संकल्पना थी। इस भावना में राज्य केवल नागरिकों के परस्पर हितों का ट्रस्टी भर नहीं था, उसे विकास को ‘अंतिम जन’ तक पहुंचाने के लिए भी कृतसंकल्प होना था और कहीं-न-कहीं वह 'अंतिम जन’ किसी शहर में नहीं अपितु अंचल के दूरस्थ कोने में ही था। मगर नब्बे के दशक के बाद तो पूरा परिवेश ही बदल गया है। वस्तुत: हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों में किसी भी अन्य भाषा के उपन्यासों की ही तरह घट रही घटनाओं और उसके स्थाई प्रभावों के सफरनामे को एक परिवर्तन यात्रा की ही तरह देखा जा सकता है। साठ के दशक की परिस्थितियां और प्राथमिकताएं सत्तर के दशक या अस्सी के दशक में आते-आते अपना महत्व खो चुकी थीं। हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों ने अपने शुरू के ही रोमानी भाव ढोये या उनके स्थापित सवालों में कुछ वजन भी था, यह विषय आज के परिप्रेक्ष्य में सबसे अधिक मौजूं बन गया है। जब फिर तराई के अंचल, कोशी के अंचल, बुंदेलखंड के अंचल, पूर्वोत्तर का पूरा भाग, नर्मदा अंचल, मालवा अंचल, विदर्भ क्षेत्र, तेलंगाना और सीमांध्र के अंचल जैसे दर्जनों क्षेत्र अपने-अपने विकास टापुओं के बरअक्स उतनी ही समस्याओं से घिरे आज भी प्रश्नचिन्ह बनकर खड़े हैं। और अब तो शासन का ही एक संगठित विन्यस्त सूत्र लोकतंत्र के दूसरे बाजू को संवैधानिक प्रावधानों के तहत अंचलों की राय जानने को बाध्य कर रहा है। आजादी के बाद के दौर में ग्रामांचल के कस्बाई अंचल में ढलने और शासन के तौर-तरीकों तथा उसके प्रकृति के कारण ही किसी खास व्यक्ति या संस्था के हाथ में केंद्रित होने कर विषय ‘राग दरबारी' ने अपने ढंग से उठाया है। ‘अलग-अलग वैतरणी' में जातिगत विभाजन एवं वर्ण-व्यवस्था की समस्या का जटिलतम रूप जिस विद्रूप और घिनौने स्तर पर जा पहुंचा है, वह कहानी उस अंचल की ‘समस्या प्रधान' जीवनशैली को बुनती-उधेड़ती है।
भारत की संसद ने एक वामपक्षीय लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने की प्रस्तावना यहां के संविधान में रखी थी। यह एक लोक-कल्याणकारी गणराज्य की संकल्पना थी। इस भावना में राज्य केवल नागरिकों के परस्पर हितों का ट्रस्टी भर नहीं था, उसे विकास को ‘अंतिम जन' तक पहुंचाने के लिए भी कृतसंकल्प होना था और कहीं-न-कहीं वह ‘अंतिम जन' किसी शहर में नहीं अपितु अंचल के दूरस्थ कोने में ही था। मगर नब्बे के दशक के बाद तो पूरा परिवेश ही बदल गया है। राज्य की भूमिका को बाजार के बनिस्बत कमतर करने की मुहिम प्रकारांतर से फिर उसी ताकत को हासिल करने की कोशिश बन जाती है, जो दूसरी ओर पूरे शिक्षित युवा-वर्ग की सोच को ही भटका देती है। इस परिवर्तन को सूचना आधारित समाज की ओर प्रस्थान का नाम देते हुए इस रूप में परिभाषित किया गया है कि 'गांधीवादी प्रतिनिधित्व गांव के आस-पास और नेहरूवादी प्रतिनिधित्व अर्थव्यवस्था के आस-पास गोलबंद होता था। लेकिन नब्बे के दशक का नया परिदृश्य उपभोग और कामनाओं के नए आख्यानों पर आधारित पहलकदमियों के जरिए अपना प्रतिनिधित्व कराना चाहता है। इन जटिल पहलकदमियों का ऐतिहासिक वर्गीकरण मुमकिन नहीं है। इस पर टेलीविजन, वीडियो, संगीत और दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग हावी है... इस नए सांस्कृतिक परिदृश्य में राष्ट्रीय, क्षेत्रीय एवं भूमंडलीय संस्कृतियां डूब-उतरा रही हैं। सब कुछ के केन्द्र में एक नया माध्यम है- ‘उपभोक्ता'।” हिन्दी के परवर्ती आंचलिक उपन्यासों में मनोहरश्याम जोशी के 'कसप' और 'कुरु कुरु स्वाहा' इस भटकाव को कहीं-कहीं पकड़ तो पाए हैं, परंतु उनका लेखक घटना प्रधान रूपकों तक सिमट जाता है। औपन्यासिक भावभूमि के शोध एवं प्रचलित संस्कारों के पक्ष में यह बात कितनी महत्वपूर्ण है इसे राजेन्द्र यादव इन वजहों से जरूरी मानते हैं कि 'मैं मानता हूं कि हमें पिछड़े इलाकों, वहां के लोगों, उनके रहन-सहन, रीति-रिवाज, संस्कृति और लोकगीतों का सहानुभूति से चित्रण करना चाहिए- भूशास्त्र एवं नृतत्वशास्त्र को भी कथान्तरित करना चाहिए। इस दृष्टि से ये आंचलिक उपन्यास हमारे लिए उतने ही महत्वपूर्ण होंगे जितने कि ऐतिहासिक उपन्यास।”
पिछले दशक में विकास का लेखा-जोखा उन मानकों के आधार पर बना जिसे परंपरा से एक त्रासदी मानी जाती है, जैसे- रोजगार के लिए विस्थापन, कर्ज, उपभोक्तावाद और फैशन पर अंधाधुंध खर्च। हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों ने अपने बदलते चरित्र के अनुरूप कहीं कोई छोटा सामाजिक या पारिवारिक मुद्दा थाम लिया तो कहीं लैंगिक भेदभाव का। महिला उपन्यासकारों के अधिकांश क्षेत्रीय भावबोध से भरे उपन्यास अंचल के जीवन की समग्र कहानी नहीं बल्कि अपनी लैंगिक व्यथा-भर बता पाते हैं जैसे- वर्ष 1965 में आई सुनीता जैन की 'बोज्यू' या वर्ष 1967 में प्रकाशित कृष्णा सोबती की 'मित्रों मरजानी', वर्ष 1970 में शानी की 'नदी और सीपियां’ वर्ष 1977 में आई मेहरून्निसा परवेज की ‘कोरजा’, वर्ष 1990 की प्रभा खेतान की ‘आओ पेपे घर चलें’ या वर्ष 2000 की मैत्रेयी पुष्पा की ‘अल्मा कबूतरी'। कृष्णा सोबती अलबत्ता अपने 'जिंदगीनामा’ उपन्यास में अंचल और उसके बाशिंदगी की पहचान को दूसरे रोमानियत से प्रस्तुत करती है। एक देश, एक जाति के भीतर अंचलों की अपनी खालिस पहचान वाली उपजातीयता जरूर बोलती है 'कोई पूछे, हमारे मुंह मात्थे ऐसी क्या बनौत बनी है कि दूर से अपने पिंड का नाम प्रकट हो जाए- बन्दा ज़लालपुरिया है, आलमगढ़िया या भागोवालिया।” ... बराबर रमजानया, आंखें देखते ही सही कर लेती हैं कि जना अपना हलन्दे का है, पोठोहार का, मुल्तान या मांझे का। मतलब यह कि मिट्टी-पानी आप उठ-उठकर बोलते हैं। फिर कद-बुत और आदमी की वजह-कतह भी। और इसी पहचान से कटने का परिणाम है मेट्रो कल्चर का अजनबियत। हिन्दी के आंचलिक रचनाक्रम में मेट्रो संस्कृति और स्लम बस्तियों की बाढ़, अपार्टमेंट का जीवन और उसका क्रूर बेगानापन, बढ़ते बलात्कार और यौन-उत्पीड़न, आर्थिक दबावों के कारण बढ़ता पारिवारिक बिखराव, छोटे से लेकर बड़े शहरों तक में दलाल/ब्रोकर संस्कृति का उदय, नए भूमि संबंध आदि के साथ आंचलिक जीवन का नववृत्तांत कथा का परिचय एक नई आवश्यकता है। उदय प्रकाश की कई कहानियों जैसे- 'तिरिछ’, ‘पॉल गोमरा का स्कूटर’ और काशीनाथ सिंह की कहानियों में जादुई यथार्थवाद के सहारे इससे अंकन की नई तकनीक विकसित हो गई है।
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बहरहाल आंचलिक रचनाकर्म राष्ट्र-राज्य की निर्माण-प्रक्रिया के तौर-तरीकों की बहस में उलझकर अपने घरेलू संज्ञा-सर्वनामों का प्रयोग करना भूल रहा है। एक प्रकार से कहें तो अंचल के अपने अर्थ- राजनैतिक मुद्दे, सामाजिक सरोकार धीरे-धीरे छूटने के कगार पर हैं। मॉरीशस के प्रमुख उपन्यासकार अभिमन्यु अनत अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘लाल पसीना' में जिस तरह से अंचल के लोगों के 'विस्थापन और मॉरीशस जैसे नई जगह पर उनकी त्रासदी को दिखाया है', वह अंतत: अंचल के जीवन के सदा के श्रम, संघर्षमय सौंदर्यशास्त्र को एक दिशा देता है। उन्मुक्त बाजार एवं साइबर-नेट के युगमें भारतीय अंचलों के संदर्भ में ऐसी ही रचनाओं की जमीन तलाशी जानी बाकी है। वर्ष 2012 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त चीनी उपन्यासकार मो यान की विश्वप्रसिद्ध रचना ‘रेड सोर्घम’ को 'सुदूर अंचल की दरिद्रता, अकाल और राष्ट्रीय केंद्रों से उनकी पृथकता से उपजे विद्रूप और उसके चीनी नेशन स्टेट के विकास, को प्रश्नांकित करने की महान क्षमता’ के कारण ही सफलता हासिल हो सकी है। वर्ष 1998 में आया अलका सरावगी का उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाईपास’ में एक जातीय अस्मिता का उत्थान और उसके साथ-साथ ही पनपी दूसरी जाति को प्रवासी मानने की प्रक्रिया का विश्लेषण एक जरूरी विषय बनता चला जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि अंचल के प्रति व्यामोह एवं पीढ़ियों का संस्कार प्रवासी अंचल और अपनी मातृभूमि के बीच के द्वन्द्व को भंग नहीं कर पाता। सदियों की प्रक्रिया से निर्मित राष्ट्र-राज्य के केंद्र वहां के भूमिपुत्र और प्रवासियों के बीच के अंतर को खत्म नहीं कर पाते। कथानायक किशोर बाबू अपने ग्रेट ग्रैंड फादर रामविलास बाबू उर्फ बड़े बाबू (1860-1926 ) की डायरी के आधार पर एक विगत कथा लिखवाने लगते हैं। उनका मानना है कि “दूर देश से आने वाली चिड़ियों की तरह अपनी जन्मभूमि से बहुत दूर स्थानांतरण कर आ बसी एक जाति मारवाड़ी जाति और एक शहर-मानी कलकत्ते महानगर के साझे इतिहास में ही उनकी कथा का मर्म है।” यहां भी अंचल से बिछुड़ाव के अहम कारक के रूप में 'राजस्थान-मारवाड़ अंचल में' 'छपनिया के अकाल' की मार दोयम अवान्तर कथा बनकर रह जाती है जिसमें 'लोगों ने भूख के मारे कच्चा बाजरा या चना ही फांक लिया, अपने बच्चे तक बेच डाले। कई जगह लाशों की कमर में अंटी में सिक्के बंधे हुए मिले। अनाज इतना महंगा हो गया था कि उसे खरीदने के लिए उन पैसों को खर्च करने के बजाए लोगों ने मौत को चुना।” यहां विस्थापन से उपजे मूलवासी-प्रवासी के बीच के विभेद संकेतक दो सौ वर्षों के लंबे सहवासीय इतिहास को झुठलाने तथा उसके माध्यम से अंचल के प्रति एक मोह जगाने का माध्यम बनते हैं। यहां आजीविका के लिए वास एवं प्रवासन की समस्या आंचलिक भावबोध को पीछे छोड़ देती है। वस्तुत: आज आंचलिक रचनाकर्म की मुख्य चिंता नवपूंजीवादी दौर में उसके प्रासंगिक विषयों को फिर-फिर छूने की प्रतिबद्धता से भटक जाने या भटका दिए जाने का ही है।
1. The VICTORIAN AGE, Page-46; English Literature “Enlarged Edi-William J.Long [A.I.T.B.S Publi & distri-Krishnanagar Delhi]
2. Houshold and Famili in Past time, page- 27 (Ed.P.Lasslet, R.Wall) Cambridge-1972(स्रोत IGNOU)
3. History of England (1815-1918) [J.R.M.Butter, H.U.L. 1928] Page-14
4. हिंदी साहित्य का इतिहास (सं.) डॉ. नगेन्द्र, मयूर पेपरबैक्स: नोएडा संस्करण-1998, पृ.512-13
5. देहाती दुनिया- शिवपूजन सहाय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.152
6. एलिमेंट्री ऑस्पेक्ट ऑफ़ पीजेंट इमरजेंसी इन कोलोनियल इंडिया- रणजीत गुहा (ओ.यू.पी.दिल्ली 1983)
7. मैला आंचल, रेणु रचनावली भाग-2, राजकमल प्रकाशन/ तीसरा संस्करण 2007, पृ.181
8. वही, पृ.129
9. पतियाते हैं तो मानिए आंचलिकता भी एक विधा है, (जनवरी 1962 में सारिका में आंचलिकता पर आयोजित एक परिचर्चा के तहत प्रकाशित) संकलन- रेणु रचनावली भाग- 5 (सं.) भारत यायावर, राजकमल प्रकाशन, पृ.280-282
10. वही, पृ.282
11. बाबा बटेसरनाथ- नागार्जुन, नागार्जुन रचनावली- भाग- 4, राजकमल प्रकाशन, पृ.427
12. बलचनमा, नागार्जुन रचनावली भाग-4, राजकमल प्रकाशन, पृ.155
13. लोक संस्कृति और इतिहास- बद्री नारायण, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1994, पृ.21
14. वही, पृ.25
15. परती परिकथा, रेणु रचनावली भाग-2, राजकमल प्रकाशन, पृ.627
16. परिवर्त, उपन्यास अंश, फणीश्वरनाथ रेणु, निकष, सं. धर्मवीर भारती, लक्ष्मीकांत वर्मा, दूसरे अंक में 1956 में प्रकाशित, पृ.375
17. वही, पृ.377
18. विघटन के क्षण (कहानी), रेणु रचनावली-1, सं. भारत यायावर, राजकमल प्रकाशन पृ.453
19. राग दरबारी- श्रीलाल शुक्ल; राजकमल पेपर बैक्स: 2001, पृ.58
20. वही, पृ.269
21. उड़ीसा के नियमगिरि अंचल में वेदांता उत्खनन के मसले पर दी गई सर्वोच्च न्यायालय की रूलिंग
22. ‘राष्ट्रवाद का कारागार और साइबर प्रेस की बगावत- रविसुन्दरम्, भारत का भुमंडलिकरण (सं.) अभय कु. दुबे सीएसडीएस,वाणी प्रकाशन, पृ.151
23. उपन्यास स्वरूप और संवेदना, राजेंद्र यादव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.252
24. जिंदगीनामा- कृष्णा सोबती, राजकमल पेपरबैक्स, पंचम संस्करण- 2012, पृ.142
25. नवनीत हिंदी डाइजेस्ट, (दिसंबर-2013), पृ.105
26. http://web.cocc.edu/cagatucci/classes/hum210/Redsorghum/redsargchrom.htm//
27. कलिकथा वाया बाइपास-अलका सरावगी, आधार प्रकाशन, पंचकुला, हरियाणा, चतुर्थ संस्करण- 2009, पृ.27
28. वही, पृ.37
संपर्क- 09572022923
रूसी उपन्यासकारों में इस श्रेणी के रचनाकार वर्ग में मिखाइल शोलोखोव का नाम सबसे ऊपर लिया जाता है जिनकी ‘धीरे बहे दोन रे' (हिन्दी अनुवाद) अंचल की संघर्ष-गाथा के रूप में एक क्लासिक है। हिन्दी में पहले-पहल हरिऔध का 'ठेठ हिन्दी का ठाठ' वैसे कथा-विन्यास और भावभूमि के सहारे नहीं बल्कि भाषा के सहारे ही अंचल के बोध को उभारने की कोशिश करता है। यह जरूर हुआ कि वहां से 'गोदान' तक समस्याओं के पहचान का एक क्षेत्र 'अंचल का संघर्ष और उसकी अपनी समस्याएं' बनकर उभर गईं। शिवपूजन सहाय की 'देहाती दुनिया' संस्मरण शैली में लिखी गई रचना है, जिसमें गंवई जीवन को उसकी अपनी 'भाषा-शैली और उपक्रमों के साथ छोड़कर प्रदर्शित किया है। घरों का टूटना, खेतों में बंटवारा, और भी कई तरह के सामाजिक विघटनों में बदल रहे अंचल के जीवन और आंचलिक संस्कार के 'समावेशी चरित्र' के विघटन को बड़ी बारीकी से दिखाने की कोशिश की गई है। सहाय ने देहाती दुनिया के चरित्र को पहले-पहल देहाती भाषा में जिस रूप में रखा है वह ''असल में गाजीपुर का पुराना नाम गाधिपुर है वहीं से त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग भेजा था। जब वहां जगह न मिली तब मुनि की कृपा से उसने नक्षत्रों में जगह पा ली। वही अब त्रिशंकु तारा उगता है उसी त्रिशंकु के पीछे इंद्र से और मुनिजी से खटक गई। बस खिसियाकर नया इंद्रासन बनाने लगे। इस पर ब्रह्माजी से भी अनबन हो गई। अब डाह के मारे नई सृष्टि करने लगे। ललकारकर कह दिया कि ब्रह्मा अगर आदमी पैदा करते हैं, तो हम पेड़ में आदमी फरावेंगे। इस नीयत से नारियल बनाया। देख लो ठीक खोपड़ी की ही तरह उसका फूल होता है। दो आंखें होती हैं, बाल होते हैं। भीतर मगज में गूदा होता है। इतना ही नहीं, अब आदमी की शीश होने ही से शुभ कामों में बरता जाता है। ... उसके बनते ही ब्रह्मा घबड़ा उठे। बहुत कोशिश पैरवी से सृष्टि रुकवाई।”
तथापि तब तक इसे अंचल बनाम ‘पॉलिटिकल सेंटर के रूप में शहर' के बीच के रिश्ते के तईं व्याख्यायित करने की तमीज हिन्दी में विकसित नहीं हो पाई थी। पचास के दशक के पूर्व हिन्दी बांग्ला और अंग्रेजी फिक्शन (उपन्यास अथवा लंबी कहानियां’) के पर्याप्त अनुकरण के बावजूद अंचल की गाथा एक स्वतंत्र विधा गाथा के रूप में सामने नहीं आ सकी थी।
II
औपनिवेशिक समाज में किसानों के लोकप्रिय प्रतिरोधों का अध्ययन आधुनिक इतिहासकारों के लिए अत्यंत आकर्षण का विषय रहा है। औपनिवेशिक संघर्षों में इन किसान संघर्षों ने मेट्रोकेंद्रित संघर्ष को नीचे से बल दिया। यही कारण रहा कि भिन्न-भिन्न इतिहासकारों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से लोकप्रिय प्रतिरोधों के स्वरूपों के अध्ययन के लिए सार्थक प्रयत्न जारी रखे। रणजीत गुहा ने औपनिवेशिक भारत में विद्रोहों एवं किसान प्रतिरोधों के स्वरूप का परीक्षण कर उसके कुछ अनछुए पक्षों को पहचानने का सार्थक प्रयास किया है। आंचलिक कथाएं ऐसे ही संघर्ष के मिथक कथाओं से आपूरित हैं। लंबी कहानियों या उपन्यासों में ठोस आंचलिक आचारों का महाजनी, भूपतित्ववाद एवं कृषि के व्यवसायीकरण के परिणामस्वरूप कृषक उभारों के चित्रण का प्रयास विशुद्ध आंचलिक रचनाधर्मिता के साथ रेणु के द्वारा ही शुरू होता है। “डॉक्टर का रिसर्च पूरा हो गया, एकदम कम्पलीट। वह बड़ा डॉक्टर बन गया। डॉक्टर ने रोग की जड़ पकड़ ली है...? गरीबी और जहालत इस रोग के दो कीटाणु हैं।' अंचल की गाथा सतही तौर पर नहीं बल्कि वाजिब तरीके से अपने निष्कर्षों पर पहुंचती है, जिसके मूल में अंचल की एक समस्या यह भी है- “साले सब चुपचाप दफा-40 में दरखास्त देकर समझते थे कि जमीन हो गई। अब समझो। बौना और बालदेव से जमीन लो। सब सालों से जमीन हुआ लेने को कहा है मैनेजर साहब ने। लो जमीन। राम-नाम की लूट है... अरे कांग्रेसी राज है तो क्या जमींदारों को घोलकर पी जाएगा?'' अंचल के परिवेश में परिवर्तन एकरेखीय नहीं है, यहां के घूर्णन आवर्तन को गति आंचलिक रचनाकारों ने ही पकड़ी है। यही कारण था कि आंचलिकता और उसकी शैली को केवल विधा के रूप में नहीं ‘वर्ग’ के रूप में मान्यता मिली।
रेणु स्वयं अपने एक निबंध 'पतियाते हैं तो मानिए आंचलिकता भी एक विधा है' में इसी तथ्य को सप्रमाण प्रस्तुत करते हैं- 'सुना है, मिखाइल शोलोखोव की एक नई आंचलिक किताब आई है- ‘कुमारी धरती का जागरण’ (वर्जिन सॉयल अपटनर्ड) का दूसरा खंड है। सुना है इस खंड के बारे में- दन अंचल के ग्रेमियाची लंग कागासी गांव में- इस शतक के चतुर्थ दशक में घटने वाली घटनाएं हैं। कागासी अंचल की गंध से ओत-प्रोत नवनिर्माण कार्य में लगे हुए वहां के लोग, उनके वैर-विरोध, हंसी-रुदन, जीवन के अनेक द्वन्द्व, मधुर चित्रों से भरपूर। पढ़ने वालों का कहना है कि इस उपन्यास के प्रकाशन के बाद सोवियत रूस में और बहार फैली हुई कई शंकाएं दूर हो गई हैं। शोलोखोव की धारा (आंचलिक) सूख नहीं गई है। ... हैमसुन के ‘ग्रोथ ऑफ सॉयल' का संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद आप 'सारिका' में धारावाहिक रूप में क्यों नहीं प्रकाशित करते?' रेणु ने आंचलिकता को एक तकनीक और विधा के रूप में जानने-समझने को जिस हिकमत की बात की है, उसके पक्ष में उन्होंने इसी परिचर्चा में यूगोस्लावियन लेखक इवो आन्द्रिच के लिखे सर्बिया प्रांत के बार्स्तनमा अंचल की कहानी ‘द्रिना नदी का पुल’, स्वात दरवेश, नाजिम हिकमत और उनके ‘अंकारा का बन्दी’ को वैश्विक आंचलिक धारा के रूप में दस्तावेज की तरह रखा है। रेणु यहां तक मानते हैं कि बांग्ला के 'शैलजानन्द ताराशंकर बंद्योपाध्याय, सतीनाथ भादुड़ी, मानिक बंद्योपाध्याय, समरेश बसु के हिन्दी के अनुवाद आंचलिक भाषा के बगैर नहीं हो सकते... दुराशा और शंका होती है- बंकिम, रवीन्द्र, शरतचन्द्र के आम हिन्दी अनुवादों को पढ़कर मेरा विश्वास है इन उपन्यासों के अनुवाद ‘आंचलिक लेखक' ही कर सकते हैं।” रेणु ने अपने इसी निबन्ध में औपन्यासिक रचनाओं के स्थाई मूल्य का प्रश्न उठाया है कि 'स्थाई मूल्य किन उपन्यासों का है? जीवन में स्थाई मूल्य किन चीजों का है? जीवन के स्थाई मूल्य क्या हैं? जाहिर है सतीनाथ भादुड़ी के 'ढोढ़ायचरित मानस' और उसके बाद हिन्दी में जिस ‘स्थाई मूल्य' के सवालों की बुनियाद ‘मैला आंचल' द्वारा डाली जा रही थी, वह पचास और उसके बाद के दशक में बन रहे राष्ट्र और उसके भीतर के कई एक लंबी स्थाई लघु राष्ट्रीयताओं (अंचलों) के बीच की रगड़ एवं घर्षण में नए राजनैतिक निर्माणों और 'पॉलिटिकल एडमिनिस्ट्रेटिव' स्थापत्य में एक प्रकार की जोर-आजमाइश मुख्य विषय थी।
रेणु के ही समकालीन नागार्जुन के उपन्यासों में अंचलों की बिगड़ रही पारंपरिक पारिवारिक-सामाजिक व्यवस्था, टूट रहे सामाजिक ताने-बाने और आर्थिक संबंधों के अन्योन्याश्रित रूपों को धीरे-धीरे अपनी आकार एवं आकृति के नए रूप में डालने की प्रक्रिया देखी जा सकती है। गांव के पोखर भिंड पर शासन के बल से कब्जाने की कोशिश को रोकने में गांव समाज का हर जाति-बिरादर तत्पर है- 'पंडित शशिनाथ ठाकुर हैं, हाजी करीम बक्स हैं, मोसम्मात झुनिया है, अहीरों की बिरादरी के गोनऊड़ महतो और सहदेव राऊत हैं, भुट्टू पासवान है, विजय बहादुर सिंह सिसोदिया हैं, जहदल्ली जोलहा है, सोनमा ढोलिया है, अचकमनि मोसम्मात है..”
अपने समय की गति एवं परिवर्तन के चिन्हों को आंचलिक भाषा एवं अंचलों की कहानी के माध्यम से नागार्जुन ने पचास के दशक में रेणु के समकालीन ही परंतु उनसे थोड़ी अलग भंगिमा के साथ दिखाने को कोशिश की है। सद्य: स्वतंत्र भारत में राष्ट्र के प्रति भावना के समक्ष अंचल की कहानी नागार्जुन में एक राजनैतिक गंध के साथ है; पर है आंचलिक भावबोध के ही रंग में- 'मुदा कुछ पहिले अगर तुम इसी भांति सतमहला बाल छंटाये, दाढ़ी मूंछ साफ किये मेरी बस्ती में पहुंच जाते, तो परलय (प्रलय) मच जाता। ... मेरा बाबू एक बार ढाका से आया, बाबड़ी छंटा कर। बूढ़े मालिक उन दिनों महजूद (मौजूद) थे। उन्होंने मेरे बाप को बड़ा ही फटकारा। पछवारी टोला के पंडित बबुअन झा बुलाए गए और उन्होंने फतवा दिया। नदी के किनारे जाकर असतूरा (उस्तरा) से बाल कटाना होगा।” यहां तक आकर आंचलिक रचनाधर्मिता की प्रतिबद्धताएं और कसौटियां दोनों ही तय हो जाती हैं। बदल रहा समाज, वर्ण-व्यवस्था के नए प्रकारों का उभार, अंचलों में प्रचलित व्यवस्था के प्रति मोहभंग और बन गई भावात्मक जरूरतें, साथ-ही-साथ नगर और प्रशासनिक केंद्रों के हस्तक्षेप के प्रति आक्रोश भी; सब कुछ अंचल की अभिव्यक्ति के रूढ़ विषय बनते चले जाते हैं।
III
भारतीय राष्ट्रवाद बहुजातीय, बहुविध, बहुपक्षीय और अनंत ध्वनियों को रूपायित करने की क्षमता वाला माना जाता है। कई समाजशास्त्रियों का मानना है कि “भारतीय राष्ट्रवाद की अपूर्णता की तलाश हम तब तक नहीं कर सकते, जब तक राजनीतिक घटनाओं के मोह से थोड़ा मुक्त होकर राष्ट्रवादी चेतना के निर्माण की प्रक्रिया का अध्ययन नहीं कर लेते।”
गांवों में उभर रही राष्ट्र-राज्य के प्रतीकों के प्रति क्षोभ भरी चेतना में हम इसके संकेत हासिल कर सकते हैं; जिनके बारे में यह तो स्पष्ट है कि 'यहां राष्ट्रवाद की चेतना नागरीय चेतना की तरह योजनाबद्ध नहीं, किंतु स्वत:स्फूर्त, अत्यंत आवेगमय और तीव्रता से परिपूर्ण रही है।” ‘मैला आंचल' तक आंचलिकता का मुख्य विषय अंचल गाथा भर थी, जिसमें परिवर्तन की शैली और उसके अवसर खुद-ब-खुद मुख्य वर्ण्य-विषय बन गए। साथ में कई-कई खानों में बंटे अन्य-अन्य सवालों को प्रश्नचिन्हों के साथ अनबटी रस्सी की तरह भविष्य के लिए छोड़ दिया गया। 'परती परिकथा' में रेणु ने उन सवालों को वहीं से उठाया, जहां से उन्होंने उसे ‘मैला आंचल' में छोड़ा था। एक किस्सागो का सपना उसके अंचल में कोशी एवं दुलारीदाय नदी के ' कछुआपीठा, धूसर, वीरान, पतित भूमि जहां बालूचरों की शृंखला भर है, उसके 'शस्य श्यामला सुजला सुफला’ रूप में परिवर्तित होने की कथा है। एक अधूरे उपन्यास अंश में रेणु इसे टूटते-बनते सपने के रूप में दिखाते हैं- 'युवक कैमरामैन भवेशनाथ भी इसी इलाके का लड़का है। एम.ए की परीक्षा देकर आया है- परती के विभिन्न रूपों की स्टडी करता है। ... वह मन-ही-मन सोचता है- तीस साल बस और तीस साल। इसके बाद तो सारी धरती इन्द्रधनुषी हो जाएगी।” रेणु इस उपन्यास के अंतिम पंक्तियों में लिखते हैं- 'जित्तू अधूरी कहानी के सपने देखता सोया पड़ा है, बंध्या रानी मां के कलश का उद्धार कैसे हो, ... विशाल धरती पर इन्द्रधनुषी जिंदगी कैसे उतरे, आदि ‘चाक्रिक पद्धति' के प्रश्नों का उत्तर दिए बगैर वे कहानी नहीं बढ़ा सकेंगी... क्योंकि ‘विजूबन-बिजूखंड' में बंध्या रानी की सुख-समृद्धि एक 'कलश' में बंद पड़ी है। जित्तू उठे तब तो कुछ हो।” एक उच्च शिक्षा प्राप्त नायक के अंचल पुनरागमन के बहार से रेणु अंचलों के विकास के लिए आज के 'समावेशी विकास' के साधन के रूप में लगभग आधी सदी पूर्व ही एक नजरिया दे देते हैं। हिन्दी के औपन्यासिक कथाभूमि में तब यह एक यूटोपिया की ही तरह था, जो आज भी कमोबेश यूटोपिया ही है।
साठ के दशक की हरित क्रांति और इसके बाद के दशकों में अंचल की कहानी अपनी कई एक त्रासदियों के बीच से उपन्यासों में जैसे अपने-अपने विषय चुन लेती है। रेणु ने पचास के दशक के शुरुआती वर्षों में जिस त्रासदी की स्थिति को टुकड़ों में कहानियों के माध्यम से प्रकट किया है, वह यूं है 'सभी एक-एक कर गांव छोड़कर जा रहे हैं। सच्चिदा भी चला जाएगा तो गांव की कबड्डी में अकेले पांच जन को मारकर अब दांव कौन जीतेगा... होली में जोगीड़ा और भड़ौआ गाने वाला- अखाड़े में ताल ठोंकने वाला... सच्चिदा भैया। ... पिछले साल से होली का रंग फीका पड़ गया है। आठ-नौ साल की चुरमुनियां की नन्हीं-सी जान, न जाने किस संकट की छाया देखकर डर गई है। क्या रह जाएगा? चुरमुनिया गा-गाकर रोना चाहती है, करुण सुर में...।” वह दुश्चिन्ता विकास मानदंडों के नारों- नक्कारों में दब जाती है। हिन्दी औपन्यासिक विधा में श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’, शिवप्रसाद सिंह के ‘अलग-अलग वैतरणी’ से लेकर अस्सी के दशक में मनोहर श्याम जोशी के 'कसप’, 'कुरु कुरु स्वाहा’ और राजू शर्मा के 'हलफनामा' तक यह यात्रा विभिन्न रास्तों के बनते जाने की कहानी है। ‘राग दरबारी’ तक आकर अंचल की मुख्य चिंता केवल और केवल ‘जड़ समाज' और आजीविका को समस्या बनी नहीं रह जाती। भारत गांवों का देश है और गांवों में कृषि ने अपने परंपरागत विकास और उद्यमों से समझौते की प्रक्रिया में अंचलों की मुख्य जीवनधारा के रूप में ‘कृषि संस्कृति’ को नकारने का जो तौर-तरीका अपनाया गया, यहां उसी पर एक सपाट व्यंग्य है- “शिवपालगंज में इन दिनों एक ऐसा विज्ञापन खास तौर पर मशहूर हो रहा था, जिसमें एक तन्दुरुस्त काश्तकार सिर पर अंगोछा बांधे, कानों में बालियां लटकाये और बदन पर मिर्जई पहने गेहूं की ऊंची फसल को हंसिये से काट रहा था। एक औरत उसके पीछे खड़ी हुई, अपने-आप से बहुत खुश, कृषि विभाग के अफसरों वाली हंसी हंस रही थी। नीचे और ऊपर अंग्रेजी और हिन्दी अक्षरों में लिखा है “अधिक अन्न उपजाओ”। मिर्जई और बाली वाले काश्तकारों में जो अंग्रेजी के विद्वान थे, उन्हें अंग्रेजी से और जो हिन्दी के विद्वान थे, उन्हें हिन्दी से परास्त करने की बात सोची गई थी।” अंचल के जीवनानुभव और उससे राष्ट्र के बनावटी प्रगतिशीलता वाले संबंधों के योजक चिन्हों की हास्यास्पद स्थिति को बाद में और व्यंग्यात्मक ढंग से एक खेती के प्रयोग से की- 'पकने के समय तक खेत में महत्व की एकमात्र चीज पौधों की कतार भर रह गई थी। खाद, बीज और पानी का कहीं जिक्र ही नहीं आया। इसलिए खेती की यह प्रगतिशीलता आंख को दो महीने सुख देकर किसान के लिए शर्म और जगहंसाई का कारण बन चुकी है। अब मुआयना करने वाले अफसर लोग नहीं आते थे, वे दूसरे प्रकार की कतारों का मुआयना करने के लिए शायद दूसरी ओर निकल गए थे। गेहूं की फसल, जो बैलों ने इतने परिश्रम से पैदा की थी, बैलों को ही अर्पित हो जाने वाली थी।” तथापि विशुद्ध तौर पर एक अंचल की कथा होने के बावजूद ‘राग दरबारी’ गांव नहीं बल्कि शहर को छूते हुए एक कस्बे की कहानी बन जाती है। और यहां स्वातंत्र्योत्तर भारत में फिर से ‘मैला आंचल’ के विश्वनाथ प्रसाद की तरह ही वैद्यजी के हाथों में गांव की प्रधानी, इंटर कॉलेज की मैनेजरी और कोऑपरेटिव यूनियन की अध्यक्षी का सिमटते जाना मुख्य कथासार बन जाता है। गांवों की बिखरती सामाजिक समरसता, पलायन, कृषि समस्या और आत्मनिर्भरता का टूटना अंचल कथा के मुख्य वर्ण्य-विषयों में या तो परे हो जाता है या सायास उस समस्या को छोटा करार दे दिए जाने की मनोवृत्ति बढ़ने लगती है।
IV
भारत की संसद ने एक वामपक्षीय लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने की प्रस्तावना यहां के संविधान में रखी थी। यह एक लोक-कल्याणकारी गणराज्य की संकल्पना थी। इस भावना में राज्य केवल नागरिकों के परस्पर हितों का ट्रस्टी भर नहीं था, उसे विकास को ‘अंतिम जन’ तक पहुंचाने के लिए भी कृतसंकल्प होना था और कहीं-न-कहीं वह 'अंतिम जन’ किसी शहर में नहीं अपितु अंचल के दूरस्थ कोने में ही था। मगर नब्बे के दशक के बाद तो पूरा परिवेश ही बदल गया है। वस्तुत: हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों में किसी भी अन्य भाषा के उपन्यासों की ही तरह घट रही घटनाओं और उसके स्थाई प्रभावों के सफरनामे को एक परिवर्तन यात्रा की ही तरह देखा जा सकता है। साठ के दशक की परिस्थितियां और प्राथमिकताएं सत्तर के दशक या अस्सी के दशक में आते-आते अपना महत्व खो चुकी थीं। हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों ने अपने शुरू के ही रोमानी भाव ढोये या उनके स्थापित सवालों में कुछ वजन भी था, यह विषय आज के परिप्रेक्ष्य में सबसे अधिक मौजूं बन गया है। जब फिर तराई के अंचल, कोशी के अंचल, बुंदेलखंड के अंचल, पूर्वोत्तर का पूरा भाग, नर्मदा अंचल, मालवा अंचल, विदर्भ क्षेत्र, तेलंगाना और सीमांध्र के अंचल जैसे दर्जनों क्षेत्र अपने-अपने विकास टापुओं के बरअक्स उतनी ही समस्याओं से घिरे आज भी प्रश्नचिन्ह बनकर खड़े हैं। और अब तो शासन का ही एक संगठित विन्यस्त सूत्र लोकतंत्र के दूसरे बाजू को संवैधानिक प्रावधानों के तहत अंचलों की राय जानने को बाध्य कर रहा है। आजादी के बाद के दौर में ग्रामांचल के कस्बाई अंचल में ढलने और शासन के तौर-तरीकों तथा उसके प्रकृति के कारण ही किसी खास व्यक्ति या संस्था के हाथ में केंद्रित होने कर विषय ‘राग दरबारी' ने अपने ढंग से उठाया है। ‘अलग-अलग वैतरणी' में जातिगत विभाजन एवं वर्ण-व्यवस्था की समस्या का जटिलतम रूप जिस विद्रूप और घिनौने स्तर पर जा पहुंचा है, वह कहानी उस अंचल की ‘समस्या प्रधान' जीवनशैली को बुनती-उधेड़ती है।
भारत की संसद ने एक वामपक्षीय लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने की प्रस्तावना यहां के संविधान में रखी थी। यह एक लोक-कल्याणकारी गणराज्य की संकल्पना थी। इस भावना में राज्य केवल नागरिकों के परस्पर हितों का ट्रस्टी भर नहीं था, उसे विकास को ‘अंतिम जन' तक पहुंचाने के लिए भी कृतसंकल्प होना था और कहीं-न-कहीं वह ‘अंतिम जन' किसी शहर में नहीं अपितु अंचल के दूरस्थ कोने में ही था। मगर नब्बे के दशक के बाद तो पूरा परिवेश ही बदल गया है। राज्य की भूमिका को बाजार के बनिस्बत कमतर करने की मुहिम प्रकारांतर से फिर उसी ताकत को हासिल करने की कोशिश बन जाती है, जो दूसरी ओर पूरे शिक्षित युवा-वर्ग की सोच को ही भटका देती है। इस परिवर्तन को सूचना आधारित समाज की ओर प्रस्थान का नाम देते हुए इस रूप में परिभाषित किया गया है कि 'गांधीवादी प्रतिनिधित्व गांव के आस-पास और नेहरूवादी प्रतिनिधित्व अर्थव्यवस्था के आस-पास गोलबंद होता था। लेकिन नब्बे के दशक का नया परिदृश्य उपभोग और कामनाओं के नए आख्यानों पर आधारित पहलकदमियों के जरिए अपना प्रतिनिधित्व कराना चाहता है। इन जटिल पहलकदमियों का ऐतिहासिक वर्गीकरण मुमकिन नहीं है। इस पर टेलीविजन, वीडियो, संगीत और दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग हावी है... इस नए सांस्कृतिक परिदृश्य में राष्ट्रीय, क्षेत्रीय एवं भूमंडलीय संस्कृतियां डूब-उतरा रही हैं। सब कुछ के केन्द्र में एक नया माध्यम है- ‘उपभोक्ता'।” हिन्दी के परवर्ती आंचलिक उपन्यासों में मनोहरश्याम जोशी के 'कसप' और 'कुरु कुरु स्वाहा' इस भटकाव को कहीं-कहीं पकड़ तो पाए हैं, परंतु उनका लेखक घटना प्रधान रूपकों तक सिमट जाता है। औपन्यासिक भावभूमि के शोध एवं प्रचलित संस्कारों के पक्ष में यह बात कितनी महत्वपूर्ण है इसे राजेन्द्र यादव इन वजहों से जरूरी मानते हैं कि 'मैं मानता हूं कि हमें पिछड़े इलाकों, वहां के लोगों, उनके रहन-सहन, रीति-रिवाज, संस्कृति और लोकगीतों का सहानुभूति से चित्रण करना चाहिए- भूशास्त्र एवं नृतत्वशास्त्र को भी कथान्तरित करना चाहिए। इस दृष्टि से ये आंचलिक उपन्यास हमारे लिए उतने ही महत्वपूर्ण होंगे जितने कि ऐतिहासिक उपन्यास।”
पिछले दशक में विकास का लेखा-जोखा उन मानकों के आधार पर बना जिसे परंपरा से एक त्रासदी मानी जाती है, जैसे- रोजगार के लिए विस्थापन, कर्ज, उपभोक्तावाद और फैशन पर अंधाधुंध खर्च। हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों ने अपने बदलते चरित्र के अनुरूप कहीं कोई छोटा सामाजिक या पारिवारिक मुद्दा थाम लिया तो कहीं लैंगिक भेदभाव का। महिला उपन्यासकारों के अधिकांश क्षेत्रीय भावबोध से भरे उपन्यास अंचल के जीवन की समग्र कहानी नहीं बल्कि अपनी लैंगिक व्यथा-भर बता पाते हैं जैसे- वर्ष 1965 में आई सुनीता जैन की 'बोज्यू' या वर्ष 1967 में प्रकाशित कृष्णा सोबती की 'मित्रों मरजानी', वर्ष 1970 में शानी की 'नदी और सीपियां’ वर्ष 1977 में आई मेहरून्निसा परवेज की ‘कोरजा’, वर्ष 1990 की प्रभा खेतान की ‘आओ पेपे घर चलें’ या वर्ष 2000 की मैत्रेयी पुष्पा की ‘अल्मा कबूतरी'। कृष्णा सोबती अलबत्ता अपने 'जिंदगीनामा’ उपन्यास में अंचल और उसके बाशिंदगी की पहचान को दूसरे रोमानियत से प्रस्तुत करती है। एक देश, एक जाति के भीतर अंचलों की अपनी खालिस पहचान वाली उपजातीयता जरूर बोलती है 'कोई पूछे, हमारे मुंह मात्थे ऐसी क्या बनौत बनी है कि दूर से अपने पिंड का नाम प्रकट हो जाए- बन्दा ज़लालपुरिया है, आलमगढ़िया या भागोवालिया।” ... बराबर रमजानया, आंखें देखते ही सही कर लेती हैं कि जना अपना हलन्दे का है, पोठोहार का, मुल्तान या मांझे का। मतलब यह कि मिट्टी-पानी आप उठ-उठकर बोलते हैं। फिर कद-बुत और आदमी की वजह-कतह भी। और इसी पहचान से कटने का परिणाम है मेट्रो कल्चर का अजनबियत। हिन्दी के आंचलिक रचनाक्रम में मेट्रो संस्कृति और स्लम बस्तियों की बाढ़, अपार्टमेंट का जीवन और उसका क्रूर बेगानापन, बढ़ते बलात्कार और यौन-उत्पीड़न, आर्थिक दबावों के कारण बढ़ता पारिवारिक बिखराव, छोटे से लेकर बड़े शहरों तक में दलाल/ब्रोकर संस्कृति का उदय, नए भूमि संबंध आदि के साथ आंचलिक जीवन का नववृत्तांत कथा का परिचय एक नई आवश्यकता है। उदय प्रकाश की कई कहानियों जैसे- 'तिरिछ’, ‘पॉल गोमरा का स्कूटर’ और काशीनाथ सिंह की कहानियों में जादुई यथार्थवाद के सहारे इससे अंकन की नई तकनीक विकसित हो गई है।
V
बहरहाल आंचलिक रचनाकर्म राष्ट्र-राज्य की निर्माण-प्रक्रिया के तौर-तरीकों की बहस में उलझकर अपने घरेलू संज्ञा-सर्वनामों का प्रयोग करना भूल रहा है। एक प्रकार से कहें तो अंचल के अपने अर्थ- राजनैतिक मुद्दे, सामाजिक सरोकार धीरे-धीरे छूटने के कगार पर हैं। मॉरीशस के प्रमुख उपन्यासकार अभिमन्यु अनत अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘लाल पसीना' में जिस तरह से अंचल के लोगों के 'विस्थापन और मॉरीशस जैसे नई जगह पर उनकी त्रासदी को दिखाया है', वह अंतत: अंचल के जीवन के सदा के श्रम, संघर्षमय सौंदर्यशास्त्र को एक दिशा देता है। उन्मुक्त बाजार एवं साइबर-नेट के युगमें भारतीय अंचलों के संदर्भ में ऐसी ही रचनाओं की जमीन तलाशी जानी बाकी है। वर्ष 2012 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त चीनी उपन्यासकार मो यान की विश्वप्रसिद्ध रचना ‘रेड सोर्घम’ को 'सुदूर अंचल की दरिद्रता, अकाल और राष्ट्रीय केंद्रों से उनकी पृथकता से उपजे विद्रूप और उसके चीनी नेशन स्टेट के विकास, को प्रश्नांकित करने की महान क्षमता’ के कारण ही सफलता हासिल हो सकी है। वर्ष 1998 में आया अलका सरावगी का उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाईपास’ में एक जातीय अस्मिता का उत्थान और उसके साथ-साथ ही पनपी दूसरी जाति को प्रवासी मानने की प्रक्रिया का विश्लेषण एक जरूरी विषय बनता चला जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि अंचल के प्रति व्यामोह एवं पीढ़ियों का संस्कार प्रवासी अंचल और अपनी मातृभूमि के बीच के द्वन्द्व को भंग नहीं कर पाता। सदियों की प्रक्रिया से निर्मित राष्ट्र-राज्य के केंद्र वहां के भूमिपुत्र और प्रवासियों के बीच के अंतर को खत्म नहीं कर पाते। कथानायक किशोर बाबू अपने ग्रेट ग्रैंड फादर रामविलास बाबू उर्फ बड़े बाबू (1860-1926 ) की डायरी के आधार पर एक विगत कथा लिखवाने लगते हैं। उनका मानना है कि “दूर देश से आने वाली चिड़ियों की तरह अपनी जन्मभूमि से बहुत दूर स्थानांतरण कर आ बसी एक जाति मारवाड़ी जाति और एक शहर-मानी कलकत्ते महानगर के साझे इतिहास में ही उनकी कथा का मर्म है।” यहां भी अंचल से बिछुड़ाव के अहम कारक के रूप में 'राजस्थान-मारवाड़ अंचल में' 'छपनिया के अकाल' की मार दोयम अवान्तर कथा बनकर रह जाती है जिसमें 'लोगों ने भूख के मारे कच्चा बाजरा या चना ही फांक लिया, अपने बच्चे तक बेच डाले। कई जगह लाशों की कमर में अंटी में सिक्के बंधे हुए मिले। अनाज इतना महंगा हो गया था कि उसे खरीदने के लिए उन पैसों को खर्च करने के बजाए लोगों ने मौत को चुना।” यहां विस्थापन से उपजे मूलवासी-प्रवासी के बीच के विभेद संकेतक दो सौ वर्षों के लंबे सहवासीय इतिहास को झुठलाने तथा उसके माध्यम से अंचल के प्रति एक मोह जगाने का माध्यम बनते हैं। यहां आजीविका के लिए वास एवं प्रवासन की समस्या आंचलिक भावबोध को पीछे छोड़ देती है। वस्तुत: आज आंचलिक रचनाकर्म की मुख्य चिंता नवपूंजीवादी दौर में उसके प्रासंगिक विषयों को फिर-फिर छूने की प्रतिबद्धता से भटक जाने या भटका दिए जाने का ही है।
संदर्भ
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6. एलिमेंट्री ऑस्पेक्ट ऑफ़ पीजेंट इमरजेंसी इन कोलोनियल इंडिया- रणजीत गुहा (ओ.यू.पी.दिल्ली 1983)
7. मैला आंचल, रेणु रचनावली भाग-2, राजकमल प्रकाशन/ तीसरा संस्करण 2007, पृ.181
8. वही, पृ.129
9. पतियाते हैं तो मानिए आंचलिकता भी एक विधा है, (जनवरी 1962 में सारिका में आंचलिकता पर आयोजित एक परिचर्चा के तहत प्रकाशित) संकलन- रेणु रचनावली भाग- 5 (सं.) भारत यायावर, राजकमल प्रकाशन, पृ.280-282
10. वही, पृ.282
11. बाबा बटेसरनाथ- नागार्जुन, नागार्जुन रचनावली- भाग- 4, राजकमल प्रकाशन, पृ.427
12. बलचनमा, नागार्जुन रचनावली भाग-4, राजकमल प्रकाशन, पृ.155
13. लोक संस्कृति और इतिहास- बद्री नारायण, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1994, पृ.21
14. वही, पृ.25
15. परती परिकथा, रेणु रचनावली भाग-2, राजकमल प्रकाशन, पृ.627
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19. राग दरबारी- श्रीलाल शुक्ल; राजकमल पेपर बैक्स: 2001, पृ.58
20. वही, पृ.269
21. उड़ीसा के नियमगिरि अंचल में वेदांता उत्खनन के मसले पर दी गई सर्वोच्च न्यायालय की रूलिंग
22. ‘राष्ट्रवाद का कारागार और साइबर प्रेस की बगावत- रविसुन्दरम्, भारत का भुमंडलिकरण (सं.) अभय कु. दुबे सीएसडीएस,वाणी प्रकाशन, पृ.151
23. उपन्यास स्वरूप और संवेदना, राजेंद्र यादव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.252
24. जिंदगीनामा- कृष्णा सोबती, राजकमल पेपरबैक्स, पंचम संस्करण- 2012, पृ.142
25. नवनीत हिंदी डाइजेस्ट, (दिसंबर-2013), पृ.105
26. http://web.cocc.edu/cagatucci/classes/hum210/Redsorghum/redsargchrom.htm//
27. कलिकथा वाया बाइपास-अलका सरावगी, आधार प्रकाशन, पंचकुला, हरियाणा, चतुर्थ संस्करण- 2009, पृ.27
28. वही, पृ.37
संपर्क- 09572022923