अरवरी जल संसद

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पानी, समाज और सरकार (किताब)

अरवरी जल संसद की कहानी, राजस्थान के एक पिछड़े इलाके में कम पढ़े लिखे संगठित लोगों द्वारा अपने प्रयासों एवं संकल्पों की ताकत से लिखी कहानी है। इस कहानी में देश में लागू जलनीति और समाज की अपेक्षाओं का यदि टकराव दिखता है तो यह कहानी काफी हद तक समाज और पानी के योग क्षेम की जीवंत कहानी भी है। यह कहानी प्रकृति के पुनर्वास, लाभप्रद खेती और आजीविका का बीमा और सरकारों तथा प्रबंधकों के लिए लाइटहाउस भी है। तकनीकी और जनतांत्रिक संगठनों के लिए इसमें सीखने के लिए बहुत कुछ है।अरवरी जल संसद की कहानी एक छोटी-सी गुमनाम सदानीरा नदी के सूखने और उसके फिर से जिंदा होने की कहानी है, इसलिए पहले इस कहानी से जुड़े घटनाक्रम को समझ लें फिर पानी और समाज के रिश्तों को जनतांत्रिक स्वरूप देने वाली उन परिस्थितियों की बात करें जो वांछित परिणाम देने या सूखी नदी को जिंदा करने के लिए जिम्मेदार हैं। इस कहानी का विस्तृत विवरण तरुण भारत संघ द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘अरवरी संसद’ में दिया है। नीचे वर्णित विवरण उसी पुस्तक से लिया गया है। विवरण के अनुसार-

1. अठारहवीं सदी में अरवरी नदी राजस्थान के अलवर जिले में प्रतापगढ़ नाले के रूप में पहचानी जाती थी। उस समय इसके कैचमेंट में घने जंगल थे। लोग पशुपालन करते थे और पानी की मांग बहुत कम थी।

2. समय बदला, परिवार बढ़े और बढ़ती खेती ने जंगल की जमीन को निगलना शुरू किया। इस बदलाव ने पानी की खपत बढ़ाई। बढ़ती खपत ने जमीन के नीचे के पानी को लक्ष्मण रेखा पार करने के लिए मजबूर किया।

3. अरवरी नदी के सूखने की कहानी झिरी गांव से शुरू होती है। इस गांव में सन 1960 के आसपास संगमरमर की खदानों में संगमरमर निकालने (खुदाई) का काम शुरू हुआ। खदानें शुरू होने के कारण जंगल भी कटे। संगमरमर की खुदाई जारी रखने के लिए खदानों में जमा पानी को लगातार निकाला गया। इस प्रक्रिया ने पानी की कमी को आगे बढ़ाया। अरवरी नदी सन 1960 के बाद के सालों में सूख गई। झिरी गांव में पानी का संकट गहराया और धीरे-धीरे संकट आसपास के गांवों में फैल गया।

4. जल संकट के कारण, प्यासे पशुओं को आवारा छोड़ने की परिस्थितियां बनने लगीं और नौजवान लोग रोजी-रोटी के लिए लोग जयपुर, सूरत, अहमदाबाद, दिल्ली की ओर पलायन करने लगे। बचे खुचे परेशान लोगों ने विधानसभा के सामने धरना दिया और मुख्यमंत्री तक गुहार लगाई। समस्या का निदान नहीं मिलने के कारण उनकी आस टूटी और निराशा हाथ आई।

5. इसी कठिन समय में स्वयंसेवी संस्था (तरुण भारत संघ) ने इस इलाके को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। गांव के बड़े बूढ़ों ने उनसे पानी का काम करने को कहा। जोहड़ बनाने का काम शुरू हुआ और फिर एक के बाद एक जोहड़ बने। ये सब जोहड़ छोटे-छोटे थे और पहाड़ियों के नीचे की जमीन पर बनाए गए थे। पहली ही बरसात में उनमें पानी जमा हुआ, यद्यपि अरवरी नदी सूखी रही पर कुओं में पानी लौटने लगा और लौटते पानी ने लोगों की आस भी लौटाई। सफलता ने लोगों को रास्ता दिखाया और उन्हें एकजुट किया।

6. सन 1990 में अरवरी नदी में पहली बार अक्टूबर माह तक पानी बहता दिखा। इस घटना से लोगों का भरोसा मजबूत हुआ और उनके हौसलों को नई ताकत मिली। काम और आगे बढ़ा तथा सन 1995 के आते-आते पूरी अरवरी नदी जिंदा हो गई। तब से अब तक वह नदी सदानीरा है।

7. लोगों के मन में सवाल कौंधने लगे - अरवरी नदी को आगे भी सदानीरा कैसे बनाए रखा जाए? यदि सही इंतजाम नहीं किया तो क्या नदी फिर सूख जाएगी? इसलिए, गांव वालों ने अरवरी नदी के पानी को साफ सुथरा बनाए रखने तथा नदी के जीव-जंतुओं को बचाने और कैचमेंट के जंगल को सुरक्षित रखने के बारे में खूब सोच विचार किया तथा जरूरी कदम उठाए।

8. सन 1996 में राजस्थान सरकार के मछली पालन विभाग ने अरवरी नदी में पनप रही मछलियों को मारने का ठेका दिया। लोग आंदोलित हो उठे और उन्होंने सरकार और प्रशासन के सामने विरोध दर्ज कराया।

9. नवम्बर 1996 में जलचर बचाओ आंदोलन हुआ। सरकारी ठेकेदार ने फरवरी एवं जून 1997 में अरवरी नदी के पानी में जहर डालकर मछलियों की सामूहिक हत्या की। इस घटना ने उद्वेलित लोगों को संगठित किया। उन्होंने पुलिस में रपट लिखाई पर अपराधियों को छुट्टा घूमते देख गांव के लोगों ने अपनी निगरानी व्यवस्था बनाई। दोषियों को पकड़ा तथा उन्हें दंडित किया।

अरवरी संसद से हरा भरा हुआ समाजउपर्युक्त हालात ने लोगों सोचने पर मजबूर किया कि क्या गांव जिस प्रकृति के साथ जिंदा रहता है, जिसे अपनी मेहनत से संरक्षित और जिंदा रखता है जिसके साथ उसका पीढ़ी-दर-पीढ़ी रिश्ता है। क्या उस पर स्थानीय समाज का कोई अधिकार नहीं है?

इस मुदे पर देश के विद्वानों और पढ़े लिखे लोगों की राय जानने के लिए अरवरी नदी के किनारे बसे हमीरपुर गांव में 19 दिसम्बर, 1998 को जन सुनवाई कराने का फैसला हुआ। इस सुनवाई में विश्व जल आयोग के तत्कालीन आयुक्त अनिल अग्रवाल, राजस्थान के पूर्व मुख्य सचिव एम. एल. मेहता, हिमाचल के पूर्व मुख्य न्यायाधीश गुलाब गुप्ता, राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति टी. के. उन्नीकृष्णन, वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के तत्कालीन सचिव एस. रिजवी जैसे अनेक गणमान्य व्यक्तियों ने भाग लिया।

तरूण भारत संघ के अरूण तिवारी कहते हैं कि इस जन सुनवाई में मुदई, गवाह, वकील, जज, विचारक, नियंता सब मौजूद थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता जस्टिस गुलाब गुप्ता ने की। गांव वालों ने अपनी बेबाक राय जाहिर की और बाहर से आए लोगों को ध्यान से सुना।

अनिल अग्रवाल ने जन सुनवाई के दौरान कहा कि “सरकार नदी, प्रकृति और समाज के हित में कानून बनाए, न बनाएं, अरवरी नदी और उसके किनारे के 70 गांव का समाज यदि जीवंत और टिकाऊ बना रहना चाहता है, तो वह पानी-प्रकृति के उपयोग और नित्य जीवन में संयम के अपने कानून बनाए और खुद ही उनका पालन करे। नदी और उसका पर्यावरण हमारी जीवनरेखा है। हमें इन्हें बचाए रखना है।

इन्हें बचाने के लिए नेताओं वाली संसद की ओर ताकना छोड़कर अरवरी तट के 70 गांव मिलकर अपनी जल संसद का गठन करें। हर गांव से आबादी के अनुसार सांसद चुनें। यह सर्वसम्मति से हो। स्थानीय ग्राम सभाएं तथा अरवरी संसद मिलकर आम सहमति से इसके लिए कानून-दस्तूर बनाएं। उसी के अनुसार अरवरी का जल प्रबंधन व संवर्धन हो। जल संसद के निर्णय सर्वसम्मत व सर्वमान्य हों। ध्यान रहे कि संसदीय व्यवस्था, इन निर्णयों का पालन सुनिश्चित करने की ही व्यवस्था है। ऐसे में समाज तो अरवरी संसद के कानूनों व दस्तूरों का पालन करेगा ही, एक दिन सरकार को भी इनका पालन करना पड़ेगा।” बैठक में मौजूद बहुत सारे लोगों ने अपनी बात कही।

कार्यक्रम के अध्यक्ष जस्टिस गुलाब गुप्ता ने जन सुनवाई के दौरान अपने फैसले में कहा कि-

“जहां तक पानी पर अधिकार की बात है, अधिकार मांगना गांव वालों का हक तो हो सकता है पर ऐसा कानून नहीं है। कानूनी हिसाब से गांव वालों की मांग नाजायज है। इस तरह तो कोई भी व्यक्ति या संस्था जमीन और पानी का संरक्षण करके हक मांग सकती हैं; लेकिन वर्तमान कानूनों के तहत उन्हें इसका हक नहीं दिया जा सकता।”

अरवरी संसदतरूण भारत संघ के अरूण तिवारी कहते हैं कि भारतीय कानून की किताब इसे नाजायज मानती है, लेकिन क्या नीति और लोकतंत्र का वह आधार भी इसे गलत मानता है, जिस पर भारतीय गणतंत्र की स्थापना हुई है। इसलिए जन सुनवाई के दौरान राय बनी कि कानून और सरकार कुछ भी कहें, पर नीति यही कहती है कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। अतः पहले उसी का हक है। पहले वही उपभोग करे, उसी का मालिकाना हक हो। सरकार और कानून को चाहिए कि वह भी इसी नीति का अनुसरण करे। इसे प्राथमिकता दे। इंसान कानून बनाता है न कि कानून इंसान को। अतः ऐसे खिलाफ कानून जो समाज हितैषी नहीं हों, उन्हें बदल डालें। आखिर हम सरकारों को भी तो बदलते रहते हैं।

अरुण तिवारी द्वारा अरवरी संसद पर सम्पादित पुस्तक के पेज 23 पर लिखा है कि गांव, समाज, अतिथि और जन सुनवाई के निर्णायक जस्टिस गुलाब गुप्ता आदि सभी ने मिलकर औपचारिक या अनौपचारिक तौर पर अरवरी नदी संसद के गठन पर अपनी मोहर लगा दी। यह निर्णय गांव वालों के लिए रामबाण बन गया और उनका बचाखुचा संदेह मिट गया, उन्हें पता चल गया कि वे सही हैं क्योंकि इतने नामी-गिरामी लोगों की मौजूदगी में आम सहमति से संसद बनाने का फैसला हुआ है। गांव वालों के पास अहिंसा और संयम की शक्ति पहले ही थी; अब नया उत्साह था नया रास्ता! नया सपना !!

26 जनवरी 1999, मंगलवार को सबेरे 11 बजे प्रसिद्ध गांधीवादी सर्वोदयी नेता सिद्धराज ढड्ढा, की अध्यक्षता में हमीरपुर गांव में संकल्प ग्रहण समारोह आयोजित हुआ और 70 गांवों की अरवरी संसद अस्तित्व में आई। सब लोग समझ रहे थे और अनुभव भी कर रहे थे कि अरवरी संसद, हकीकत में एक जिंदा नदी की जीवंत संसद है। इसलिए नदी है तो संसद है, यदि नहीं, तो संसद भी नहीं। उन्होंने अपनी संसद के निम्नानुसार उद्देश्य तय किए-

1. प्राकृतिक संसाधनों का संवर्धन करनाा
2. समाज की सहजता को तोड़े बिना अन्याय का प्रतिकार करना
3. समाज में स्वाभिमान, अनुशासन, निर्भयता, रचनात्मकता तथा दायित्वपूर्ण व्यवहार के संस्कारों को मजबूत करना
4. स्वावलम्बी समाज की रचना के लिए आवश्यक विचार-बिंदुओं को लोगों के बीच ले जाना
5. निर्णय प्रक्रिया में समाज के अंतिम व्यक्ति की भागीदारी सुनिश्चित करना
6. ग्राम सभा की दायित्वपूर्ति में संसद सहयोगी की भूमिका अदा करेगी, लेकिन जहां ग्रामसभा तमाम प्रयासों के बावजूद निष्क्रिय ही बनी रहेगी वहां संसद स्वयं पहल करेगी।

अरवरी संसद के दायित्व निम्नानुसार हैं-

1. संसद में अपनी ग्रामसभा का नियमित तथा सक्रिय प्रतिनिधित्व करना
2. ग्राम सभा तथा संसद दोनों के कार्यों, निर्णयों तथा प्रगति से एक दूसरे को अवगत कराना तथा उनका लागू होना सुनिश्चित करनाग्रामसभा के कार्यों एवं दिक्कतों के समाधान में दूसरी गामसभाओं से सहयोग लेना एवं सहयोग देना।

अरवरी नदी का सांसद कौन होगा-


1. गांव की ग्राम सभा द्वारा संसद में प्रतिनिधित्व के लिए चुना गया व्यक्ति सांसद होगा। ध्यान रहे कि उल्लेखित ग्रामसभा सरकारी चुनाव वाली ग्राम पंचायत से पूरी तरह भिन्न संगठन है। यह ग्रामसभा प्रकृति और समाज के संरक्षण एवं संवर्धन की दृष्टि से बनाई गई एक साझी व्यवस्था है। इसे पंचायत से नहीं जोड़ा जा सकता।

2. अरवरी सांसद का चुनाव सर्वसम्मति से हो। इसे प्राथमिकता दें। अपरिहार्य स्थिति में भी चयनित प्रत्याशी को ग्रामसभा के कम से कम 50 प्रतिशत सदस्यों का समर्थन अवश्य प्राप्त होना चाहिए।

3. सांसद की निष्क्रियता अथवा अन्य कारणों से असन्तुष्ट होने पर चाहे तो ग्राम सभा उसे दात्विमुक्त कर सकती है। उसकी जगह ग्रामसभा जो नया सांसद चुनकर भेजेगी, संसद को वह स्वीकार्य होगा; लेकिन यदि संसद ग्रामसभा को पुनर्विचार के लिए कहेगी, तो ग्राम सभा को पुनर्विचार करना होगा।

1999 के गणतंत्र दिवस पर अस्तित्व में आई अरवरी संसद ने तब से आज तक पीछे मुड़कर नहीं देखा। उसकी नियमित बैठकें होती हैं, फैसले होते हैं और उनका क्रियान्वयन होता है।

अरवरी संसद से हरा भरा हुआ समाजविभिन्न विभागों का सरकारी अमला प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और संवर्धन के कामों पर अनेक सालों से काम कर रहा है। तकनीकी रूप से सक्षम सरकारी अमले और भारी-भरकम बजट के बाद भी नदी नालों का सूखना लगातार बढ़ रहा है इसलिए अनेक लोगों को लगता है कि नदी को जिंदा करना और फिर उसे निरंतर जिंदा बनाए रखना बहुत ही कठिन काम है। ऐसे में यह देखना और समझना दिलचस्प होगा कि अरवरी नदी को जिंदा करने वाली गांव वालों की यह संसद किस तरह के कामों को महत्व देती है और कौन से विषय उसकी प्राथमिकता पर हैं। पहले दिन से ही लोगों के अजेन्डे पर निम्न विषय हैं-

1. लोगों ने अरवरी नदी से सिंचाई करने के नियम बनाए। इन नियमों को बनाते समय स्थानीय परिस्थितियों एवं नदी घाटी के भूजल विज्ञान को भलीभांति समझा गया। इसी समझ के आधार पर लोगों को लगा कि नदी के चट्टानी क्षेत्र में स्थित होने के कारण, उसके एक्वीफर उथले तथा भूजल पुनर्भरण क्षेत्र छोटा है इसलिए थोड़ा सा पुनर्भरण होते ही उसका जल भंडार भरकर ऊपर बहने लगता है। इस हकीकत का अर्थ है नदी जितने जल्दी बहना शुरू होती है उतने ही जल्दी सूखती भी है। इसलिए तय हुआ कि होली के बाद नदी से सीधा पानी उठाकर सिंचाई नहीं की जाएगी। होली तक सरसों और चने की खेती करने वाले किसानों को नदी से पानी उठाने की अनुमति होगी। पशुओं के पीने के पानी और नए पौधों की सिंचाई के लिए कोई बंदिश नहीं होगी।

2. लोगों ने कुओं से सिंचाई के नियम बनाए। ये नियम बनाते समय उन्होंने स्थानीय एक्वीफर की स्थिति और उसकी क्षमता को अनुभव की रोशनी में समझा। उन्हें लगा कि चूंकि यह पूरा इलाका भूजल की छोटी-छोटी धाराओं पर टिका है इसलिए यहां ज्यादा गहरे कुएं या नलकूप बनाना ठीक नहीं है। अरवरी नदी के साल भर बहने की प्रक्रिया का विश्लेषण आरएन आठवले, पूर्व वैज्ञानिक राष्ट्रीय भू-भौतिकी अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद ने किया है। अरवरी संसद ने इसी विश्लेषण के आधार पर आवश्यक कानून बनाए और तय किया कि नदी के दो से तीन प्रतिशत पानी का ही उपयोग किया जाए। उन्होंने पानी की कम खपत वाली फसलें पैदा करने पर जोर दिया। रासायनिक खाद और जहरीली दवाओं का कम से कम उपयोग करने का फैसला लिया। गन्ना, मिर्च और चावल की फसल नहीं लेने और नहीं लेने देने का इंतजाम किया। उपर्युक्त फसलों को जबरन लेने वाले लोगों को जोहड़, कुएं या नदी से पानी नहीं लेने दिया। पानी की बर्बादी रोकी और गर्मी की फसलें नहीं लीं। उन्होंने अधिक से अधिक पशु चारा उगाया और चारे की सिंचाई के लिए पानी का उपयोग सुनिश्चित कराया।

3. संसद ने पानी की बिक्री पर रोक लगाई। संसद ने तय किया कि नदी पर इंजन लगाकर कोई भी व्यक्ति पानी की बिक्री नहीं करेगा। पानी का उपयोग व्यावसायिक काम में नहीं होगा। गहरी बोरिंग करने और उसके पानी को बाहर ले जाने पर रोक रहेगी। पानी की बिक्री करने वाले उद्योग नहीं लगने देंगे। गरीब आदमी को पानी की पूर्ति निशुल्क की जाएगी। गरीब को केवल डीजल या बिजली और इंजन की घिसाई का दाम देना होगा। पानी की कीमत लेना दंडनीय अपराध होगा।

4. संसद ने उद्योगपतियों और भूमि उपयोग बदलने वाले बाहरी व्यक्तियों को जमीन बेचने पर रोक लगाई। संसद को लगता है कि ऐसा करने से बदहाली, प्रदूषण, बीमारी और बिखराव होगा। इसलिए जमीन की बिक्री आपस में ही की जाएगी और जमीन की बिक्री का रुझान रोकने का भरसक प्रयास किया जाएगा।

5. अरवरी संसद के निर्णय के अनुसार अधिक जल दोहन करने वालों का पता लगाया जाएगा और उन्हें नियंत्रित किया जाएगा। लोगों ने फैसला किया कि वे अपने इलाके में पानी का अधिक उपयोग करने वाले कल-कारखाने नहीं लगने देंगे। अतिदोहन को शुरू होने के पहले रोकेंगे और अतिदोहन पर हर समय निगाह रखेंगे।

6. अरवरी संसद के निर्णय के अनुसार जो व्यक्ति धरती को पानी देगा, वही धरती के नीचे के पानी का उपयोग कर सकेगा। राजस्थान की गर्म जलवायु में पानी का बहुत अधिक वाष्पीकरण होता है इसलिए पानी को वाष्पीकरण से बचाने के लिए उसे बरसात के दिनों में जमीन के नीचे उतारना होगा। स्थानीय एक्वीफर की क्षमता और व्यक्ति की पानी की जरूरत में तालमेल रखने वाले सिद्धांत का पालन किया जाएगा। इसके अलावा जो जल पुनर्भरण का काम करेगा उसे पुनर्भरण नहीं करने वाले की तुलना में अधिक पानी लेने का अधिकार होगा। इस अधिकार की सीमा पुनर्भरण का 15 प्रतिशत होगी। गांव के लोग और संसद मिलकर एक्वीफर की क्षमता का अनुमान लगाने का काम करेंगे और क्षमता के अनुसार पुनर्भरण के काम को अंजाम देंगे।

7. अरवरी संसद ने नदी घाटी के जीव-जंतुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अरवरी नदी क्षेत्र को ‘शिकार वर्जित क्षेत्र’ घोषित किया हैं संसद ने हर गांव वाले जागरूक और प्रशिक्षित करने, शिकार प्रभावित इलाके की पहचान करने और जंगल जीव बचाओ अभियान चलाने की जिम्मेदारी सौपी है।

8. अरवरी संसद के सांसदों ने अपने क्षेत्र में बाजार मुक्त फसल उत्पादन के नियम तथा स्थानीय जरूरत पूरा करने वाली व्यवस्था पर विचार कर फैसला लिया कि क्यों न हम अपनी आवश्यकता की चीजें खुद पैदा करें, अपना बाजार खुद विकसित करें और आपस में लेनदेन करें। ऐसा करने से गांव का पैसा गांव में रहेगा और खुशहाली आएगी। गांव वालों का मानना है कि आज किसान का सबसे ज्यादा शोषण बाजार ही कर रहा है। इस शोषण के कारण किसान को अपनी मेहनत का सौवां हिस्सा भी नहीं मिल पाता है। किसान की सारी आमदनी बीज, दवाई, खाद, फसल बुआई तथा कटाई में खर्च हो जाती है। वे मानते हैं कि नए बीज शुरू में तो अधिक पैदावार देते दिखते हैं पर बाद में जमीन की उर्वरा शक्ति कम कर देते हैं।

9. अरवरी संसद ने नदी क्षेत्र में हरियाली और पेड़ बचाने का फैसला किया है। इस काम को पूरा करने के लिए उसने कायदे कानून बनाए हैं। उन्होंने गांवों की साझा जमीनों और पहाड़ों को हरा-भरा रखने के लिए बाहरी मवेशियों की चराई पर बंदिश लगाई है। उन्होंने हरे वृक्ष काटने पर पाबंदी, दिवाली बाद पहाड़ों की घास की कटाई करने, गांव-गांव में गोचर विकास करने, नंगे पहाड़ों पर बीज छिड़काव करने, लकड़ी चोरों पर नियंत्रण करने, स्थानीय धराड़ी परंपरा को फिर से बहाल करने, क्षेत्र में ऊंट, बकरी और भेड़ों की संख्या कम करने तथा नई खदानों और प्रदूषणकारी उद्योगों को रोकने का फैसला लिया है। उनका मानना है कि इन कदमों से उनके इलाके की हरियाली बढ़ेगी और नदी बारहमासी बनी रहेगी।

10. अरवरी नदी के सांसदों के अनुसार नदी क्षेत्र में चल रहे खनन के कारण गांव के कुछ लोगों को रोजगार मिलता है पर बाद में जमीन और पानी बर्बाद हो जाता है। अतः दोनों को बचाने की जुगत करनी चाहिए। इसके लिए उनकी संसद ने नियम बनाया कि क्षेत्र में खदानें बंद कराने का प्रयास किया जाए, खदान मालिकों से बातचीत कर समस्या का हल खोजा जाए और खनन के कारण बर्बाद इलाके को दुरुस्त किया जाए।

11. अरवरी नदी के जलग्रहण क्षेत्र में प्राकृतिक संरक्षण की बहुत अच्छी एवं जीवंत परंपराएं यथा धराड़ी, थाई, देवबनी, देवअरण्य, गोचर तथा मछली और चींटियों की सुरक्षा हैं। अरवरी संसद ने इन परंपराओं के अनुसार प्रकृति संरक्षण परंपराओं का पता लगाकर प्रकृति के हित में उन्हें पुनर्जीवित करने का फैसला लिया।

12. सांसदों ने जलस्रोतों के उचित प्रबंध में संसद और ग्रामसभा की भूमिका तथा उसके उत्तरदायित्वों के निर्धारण के लिए स्थायी व्यवस्था कायम की ताकि देखभाल की कमी से गांवों की साझा प्राकृतिक संपदा बर्बाद नहीं हो। इसके लिए उन्होंने पूरी जागरूकता और समझदारी से विकेन्द्रित, टिकाऊ और स्वावलंबी व्यवस्था कायम की। इसके लिए नियम और कायदे बनाए हैं और उन्हें पूरी तरह लागू किया है।

अरवरी संसदसत्याग्रह मीमांशा (अंक 169, जनवरी 2000) में छपे लेख में प्रख्यात गांधीवादी नेता सिद्धराज ढड्ढा ने अरवरी जल संसद पर अपनी प्रतिक्रिया में लिखा था कि “अरवरी नदी की स्थापना और उसके कार्य का महत्व केवल अरवरी नदी के पानी के उपयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आधुनिक जनतंत्र के इतिहास का एक अभिनव प्रयोग है।

सांसद चुनने के अलावा, जनतंत्र के संचालन में जनता की और कोई भूमिका नहीं रही है। इसके कारण, जनतंत्रीय व्यवस्था दिनों-दिन कमजोर हो गई है। जनतंत्र की सफलता के लिए उसकी प्रक्रिया में लोगों की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है।

जनशक्ति जितनी मजबूत होगी, जनतंत्र उतना मजबूत होगा। आज की संसद के निर्णयों तथा उनके बनाए हुए कानूनों के पालन का अंतिम आधार पुलिस, फौज, अदालतें और जेल हैं। ‘अरवरी संसद’ के पास अपने निर्णयों के पालन के लिए ऐसे कोई आधार नहीं हैं और न होना चाहिए। जन-संसदों का एकमात्र आधार लोगों की एकता, अपने वचन पालन की प्रतिबद्धता एवं परस्पर विश्वास हैं यही जनतंत्र की वास्तविक शक्तियां हैं अतः अरवरी संसद का प्रयोग केवल अरवरी क्षेत्र के लिए ही नहीं, जनतंत्र के भविष्य के लिए भी महत्वपूर्ण है।”

दूसरी टिप्पणी केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री की है। इस टिप्पणी में मंत्री ने 25 सितंबर, 2006 को तरुण भारत संघ के राजेन्द्र सिंह को लिखे पत्र में उल्लेख किया था कि “अरवरी संसद पर लिखी पुस्तक को पढ़कर गांव-समाज के लोग जल को समझकर सहेजने में जुटेंगे तथा पानी के प्रदूषण और लूट को रोकने के लिए अरवरी नदी क्षेत्र की जनता की तरह दूसरी नदी घाटियों में भी ऐसा काम शुरू होगा। हमारी सरकार भी इससे सीखेगी।”

अरवरी जल संसद की कहानी, राजस्थान के एक पिछड़े इलाके में कम पढ़े लिखे संगठित लोगों द्वारा अपने प्रयासों एवं संकल्पों की ताकत से लिखी कहानी है। इस कहानी में देश में लागू जलनीति और समाज की अपेक्षाओं का यदि टकराव दिखता है तो यह कहानी काफी हद तक समाज और पानी के योग क्षेम की जीवंत कहानी भी है। यह कहानी प्रकृति के पुनर्वास, लाभप्रद खेती और आजीविका का बीमा और सरकारों तथा प्रबंधकों के लिए लाइटहाउस भी है। तकनीकी और जनतांत्रिक संगठनों के लिए इसमें सीखने के लिए बहुत कुछ है।

लेखक का मानना है कि देश में पानी से जुड़े बहुत से विषयों पर भारी मतभेद हैं और अनेक मुद्दों पर मुश्किलें हैं, इसके बावजूद अरवरी नदी के किनारे बसे 70 गांवों के लोगों ने अपने फैसलों से बहुत सी मुश्किलों को आसान किया है। इन लोगों की एकजुटता और इच्छाशक्ति, वास्तव में देश के लाखों लोगों की प्रेरणा की स्थायी स्रोत है जो पानी से जुड़े, देश के अनेक कानूनों को मानवीय चेहरा प्रदान करने का संदेश देती है।