लेखक
इस काम की सबसे बड़ी बात यह रही कि इसने संवाद, सहमति, सहयोग, सहभाग और सहकार की सभी शर्तों से कभी समझौता नहीं किया। तरुण भारत संघ ने जिस भी गांव में पानी का काम किया, वहां शर्त यह रखी कि गांव उसमें साझा करेगा। जहां गांव का साझा नहीं होगा, वहां वह काम नहीं करेगा। कहां-कौन से जोहड़ में काम होगा? कैसा काम होगा-कच्चा या पक्का? डिज़ाइन कैसा होगा? गांव में कौन कितना साझा करेगा? यह सब तय करना गांव का काम होगा। पैसे का हिसाब भी गांव ही रखेगा। राजस्थान, जिला अलवर की तहसील थानागाजी में कभी गाजी का थाना था। प्रतापगढ़ में कभी अनाज की मंडी थी। इससे एक बात तो तय है कि यह इलाक़ा कभी पानीदार था। 1984 के साल में यहां पहुंचे राजेंद्र सिंह ने इसे बेपानी पाया। सरकार के रिकार्ड में डार्कजोन! आखिर क्योंकर सूखे होंगे यहां के जोहड़? कैसे टूटी होंगी मेड़बंदियां? कैसे उजड़ी होगी सरिस्का जैसे विशाल जंगल की समृद्धि? इन सवालों के जवाब में गोपालपुरा के मांगू पटेल ने जो कहा, वह मुझे कभी नहीं भूला:
“आजादी के आई भाईसाब!.. म्हारी तो बर्बादी आगी। पैली लड़ाई बाहरी थी। मैं एकजुट था। मुट्ठी बंधी थी। फेर लड़ाई भित्तर की होगी। बंद मुट्ठी खुलगी। नियम-कायदा सब टूटगा। एक-दूसरे को रौंद के आगे बढ़वा के चक्कर में हम पिछड़ गे। पैली समाज टूटा, फेर खेतां की मेड़बंदियां और जोहड़ा की पालें। भगवाण को नी लाया छ, हम लाये छ इस इलाके में अकाल।’’
मांगू पटेल के इस जवाब के बाद इस प्रश्न पर अब यहां कागद कारे की जरूरत शायद नहीं है कि अरवरी नदी कैसे सूखी? एकता और स्व-अनुशासन... इनके टूटने से ही टूटी पालें, बढ़ा दोहन और सूखी अरवरी। ‘80 के दशक में अरवरी के पुनर्जीवन की प्रक्रिया से बात समझनी शुरू करते हैं। राजेंद्र सिंह ने इन दो सूत्रों का सिरा पकड़कर की इस इलाके को आबाद करने की शुरुआत।
हम दूसरे से जैसी अपेक्षा करते हैं, पहले खुद वैसा करके दिखाना पड़ता है। राजेंद्र सिंह ने पहले खुद अपनी जिंदगी में अनुशासन बनाया। फावड़ा-कुदाल संभाला। श्रम को साधन बनाया नशा, आलस्य और पराश्रय से विमुख हुए। दुनिया क्या करती और कहती है... की चिंता छोड़कर चिंतन को व्यवहार में उतारना शुरू किया। पहले गोपालपुरा जोहड़ की पाल बनाई, फिर समाज की पाल बनाने में जुट गए। गोपालपुरा की पाल के चलते जोहड़ में पानी लौटा, तो लोगों की आंखों में भी पानी लौट आया। गोपालपुरा की आंखों में लौटे पानी ने विवश किया कि गोपालपुरा के लोग अपने रिश्तेदारों को भी उनके जोहड़ों को पानीदार बनाने के लिए प्रेरित करें। फिर यह सिलसिला चल पड़ा। एक जोहड़ के पुनरोद्धार से शुरू हुई इकाई अब दहाई, सैकड़ा से आगे हजारों में निकल चुकी है।
इस काम की सबसे बड़ी बात यह रही कि इसने संवाद, सहमति, सहयोग, सहभाग और सहकार की सभी शर्तों से कभी समझौता नहीं किया। तरुण भारत संघ ने जिस भी गांव में पानी का काम किया, वहां शर्त यह रखी कि गांव उसमें साझा करेगा। जहां गांव का साझा नहीं होगा, वहां वह काम नहीं करेगा। कहां-कौन से जोहड़ में काम होगा? कैसा काम होगा-कच्चा या पक्का? डिज़ाइन कैसा होगा? गांव में कौन कितना साझा करेगा? यह सब तय करना गांव का काम होगा। पैसे का हिसाब भी गांव ही रखेगा। सहमति के लिए चाहे कितनी रातें लगीं, संवाद तब तक जारी रहा, जब तक कि सहमति नहीं हो गई। सहमति हुए बगैर काम शुरू करने की जल्दी कभी नहीं दिखाई। तरुण भारत संघ ने कभी किसी जोहड़ पर अपना नाम नहीं लिखा। कोई पट्टिका नहीं लगाई, सिवाय खास मौकों के; वह भी गांव की ओर से प्रस्ताव आने पर। गाँवों ने हमेशा अपने गांव, ग्रामदेवता या बुर्जुगों के नाम पर जलसंरचनाओं के नाम रखे - जोगियों वाली जोहड़ी, सांकड़ा का बांध.. आदि आदि। क्यों? ताकि गांव इन्हें अपना माने और अपना मानकर इनकी देखभाल खुद करे। आज इलाके का पार्षद-विधायक यदि कहीं खंभे पर एक लाइट भी लगाते हैं, तो पट्टी लगाते हैं - “यह काम पार्षद फंड से कराया गया है।’’ इसी से आप सरकारी और इस गैर सरकारी काम के अंतर को समझ सकते हैं। समझ सकते हैं कि सरकारी काम टिकता क्यों नहीं है?
इस पूरे काम को करने के दौरान एक परिस्थिति ऐसी बनी, जिसने ’अरवरी संसद’ को जन्म दिया। हुआ यूं कि लंबे अरसे के बाद 1995 में अरवरी नदी पहली बार बारहमास बही। 1996 में सरकार ने इसमें मछली का ठेका दे दिया। लोगों ने सोचा- “जब नदी में पानी नहीं था, तब सरकार कहां थी? तब तो मुख्यमंत्री से गुहार लगाने और विधानसभा से धरना देने के बावजूद वह नहीं आई। नदी हमने जिंदा की है। मछलियां भी हमारी हैं।’’ लोगों ने ठेकेदार को मछली पकड़ने से मना किया। वह नहीं माना। गांव ने नदी पर पहरा देने लगा। ठेकेदार ने नदी में जहर डाल दिया। मछलियां मर गईं। लोगों ने रपट लिखाई। इस लड़ाई में पहला ठेका स्वतः रद्द हो गया; लेकिन फिशरी एक्ट के मुताबिक तो मछली सरकार की होती है। जनसुनवाई हुई। गांव की अपील थी कि सरकार ने मदद नहीं की,तो अड़चन भी पैदा न करे। निर्णय हुआ कि कानूनन मछली सरकार की है, लेकिन नीति के मुताबिक जो प्रबंधन करे, नदी के उपयोग का पहला हक उसका है। मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। पहले वही उपयोग करे। सहमति हुई कि इंसान कानून बनाता है, कानून इंसान को नहीं बनाता। अतः जो कानून सुनीति के खिलाफ हो, उसे बदल डालो। आखिर हम सरकारों को बदलते ही हैं। अरवरी के 70 गाँवों के समुदाय ने तय किया कि वह अरवरी नदी-जीव के संरक्षण के लिए खुद नियम-कायदे बनाएगा और खुद ही उनकी पालना भी करेगा। इसके लिए अरवरी संसद बनाई गई। 70 गांव: 184 सांसद।
नियम बने -सांसद का चुनाव सर्वसम्मति से हों। अपरिहार्य स्थिति में भी कम से कम 50 प्रतिशत सदस्यों का समर्थन अवश्य प्राप्त हो। जब तक ऐसा न हो जाए, उस गांव का प्रतिनिधित्व संसद में शामिल न किया जाए। उससे असंतुष्ट होने पर ग्रामसभा सांसद बदल डाले।
फिर नदी के साथ व्यवहार के नियम बने: होली से पहले सिर्फ चना-सरसों जैसी कम पानी की फसल के लिए ही सीधी सिंचाई की अनुमति होगी। होली के बाद नदी से सीधी सिंचाई नहीं करेंगे। अनुकूल वृक्षों के नए पौधों के लिए सिंचाई की छूट होगी। पीने का पानी अनुकूल जगह से लिया जा सकेगा। अधिक वर्षा होने पर भी गन्ना-चावल-मिर्च जैसी अधिक पानी की खपत वाली फसलें नहीं बोएंगे। कोई जबरन बो ले, तो उसे कुंआ, नदी, जोहड़.. कहीं से भी पानी नहीं लेने देंगे। गर्मी में कम से कम फसल करेंगे। सब्ज़ियाँ उतनी बोएंगे, जितनी जरूरत हो। पशुओं के लिए चारा उपजाने पर सिंचाई में बाधा नहीं डालेंगे। नदी पर इंजन लगाकर पानी की बिक्री न खुद करेंगे, न किसी को करने देंगे। बड़े किसान गरीब किसान को पानी देंगे; बदले में सिर्फ डीजल खर्च और इंजन घिसाई लेंगे। बोरिंग करके अन्यत्र पानी को नहीं ले जाने देंगे। पानी का व्यावसायिक उपयोग पूरी तरह प्रतिबंधित होगा। अति दोहन पर रोक लगाएंगे।
जमीन को लेकर नियम बना कि पहला प्रयास यही हो कि किसी को जमीन बेचनी न पड़े। अतिआवश्यक हो जाए, तो लेन-देन आपसी होगा, बाहरी नहीं। किसी भी हालत में बाहरी व्यक्ति को जमीन बेचने पर रोक रहेगी। खेती की जमीन खेती-बागवानी के उपयोग करेंगे। बाहर के मवेशियों को इस इलाके में चरने नहीं देंगे। दीपावली से पहले पहाड़ों पर घास कटाई नहीं करेंगे। नए गोचर बनायेंगे। हरी डाल काटना प्रतिबंधित है। हरी डाल काटने वाले को दंड और जिसने देखने पर बताया नहीं, उस पर भी दंड। गाय-भैंसों की संख्या बढ़ाएंगे। भेड़-बकरी-ऊंट की संख्या सीमित करेंगे। एक के पास 200 भेड़ें, तो बाकी के पास 20-20; यह असमानता नहीं चलेगी। खनन रोकेंगे। ऐसे सभी कायदों को सख्ती से रोकेंगे। साल में संसद के दो सत्र के अलावा जरूरत हुई तो क्षेत्रीय और आपातकालीन सत्र भी बुलाएंगे।
अरवरी संसद के बनाए ये सारे नियम 70 गाँवों की व्यवस्था को स्वनुशासन की ओर ले जाते हैं। ऐसे कितने ही उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि अरवरी संसद ने सिर्फ नियम बनाए ही नहीं, इनकी पालन भी की। कितनों को दंडित होना पड़ा। एक साहूकार अपनी भेड़ें बेचने पर विवश हुआ। शासन ने अलवर-जयपुर के इलाके में शराब-चीनी जैसी ज्यादा पानी पीने वाली 21 फ़ैक्टरियों को लाइसेंस दे दिए थे। ताक़तवर होने के बावजूद स्वनुशासित गरीब-गुरबा समुदाय के आगे सरकार को झुकना पड़ा। लाइसेंस रद्द हुए।
इस स्वनुशासन का ही नतीजा है कि स्वास्थ्य, शिक्षा से लेकर प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों में यह इलाका पहले से आगे है। अपराध घटे हैं और टूटन भी। इस बीच अरवरी के इस इलाके में एक-दो नहीं तीन-तीन साला अकाल आए; लेकिन नदी में पानी रहा। कुंए अंधे नहीं हुए। आज इस इलाके में देश ‘पब्लिक सेंचुरी’ है। ‘पब्लिक सेंचुरी’ यानी जनता द्वारा खुद आरक्षित वनक्षेत्र। शायद ही देश में कोई दूसरी घोषित पब्लिक सेंचुरी हो। अरवरी के गाँवों में खुद की संचालित पाठशालाएं हैं। खुद के बनाए जोहड़, तालाब, एनीकट.. मेड़बंदियां हैं। यहां भांवता-कोल्याला जैसे अनोखे गांव हैं, जिन्होंने एक लाख रुपए का पुरस्कार लेने के लिए राष्ट्रपति भवन जाने से इंकार कर दिया, तो तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन खुद वहां उनके गांव गए। संघ के पूर्व प्रमुख स्व. श्री सुदर्शन से लेकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रो. राशिद हयात सिद्दिकी तक... देश की पानी मंत्री-सांसदों से लेकर परदेश के प्रिंस चार्ल्स तक सबने आकर स्वनुशासन और एकता की इस मिसाल को बार-बार देखा।
‘अरवरी संसद’ एक ऐसी मिसाल है, जो कुशासन के इस दौर में भी सुशासन की उम्मीद जगाती है। अकाल में भी सजल बने रहना इस बात का स्वयंसिद्ध प्रमाण है कि यदि कोई समुदाय स्वनुशासित होना तय कर ले, तो वह दुर्दिन भी सुदिन की भांति टिका रह सकता है। संवाद, सहमति, सहयोग, सहकार और सहभाग - यह मिसाल संचालन के इन पांच प्रकियाओं के सातत्य और सक्रियता के नतीजे भी बताती है। क्या कभी देश की संसद इससे सीखेगी?
“अरवरी संसद की स्थापना और इसके कार्यों का महत्व केवल नदी के पानी के उपयोग तक सीमित नहीं है; बल्कि इसे आधुनिक जनतंत्र में अभिनव प्रयोग के रूप देखा जाना चाहिए। जनतंत्र की वर्तमान धारा सभाओं तथा संसद के लिए प्रतिनिधि चुनने तक सीमित हो गई है। जनतंत्र के संचालन में जनता किसी और भूमिका का निर्वाह करती दिखाई नहीं दे रही है। इस कारण से जनतांत्रिक व्यवस्था दिन-ब-दिन कमजोर हो रही है। जनतंत्र की सफलता के लिए उसकी प्रक्रिया में लोगों की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। जनशक्ति जितनी मजबूत होगी, जनतंत्र उतना मजबूत होगा। आज की संसद के निर्णयों तथा उसके बनाए कानूनों की पालना का अंतिम आधार पुलिस, फौज, अदालतें और जेल हैं। अरवरी संसद के पास अपने निर्णयों की पालना के लिए ऐसे कोई आधार नहीं हैं.... न ही होने चाहिए। जनसंसद का एकमात्र आधार लोगों की एकता, अपने वचनपालन की प्रतिबद्धता ओर परस्पर विश्वास है। यही जनतंत्र की वास्तविक शक्तियां हैं। अतः अरवरी संसद का प्रयोग केवल अरवरी क्षेत्र के लिए नहीं....समूचे जनतंत्र के भविष्य के लिए भी महत्वपूर्ण है।’’
(सत्याग्रह मीमांसा-अंक 169, जनवरी 2000 से साभार )
“आजादी के आई भाईसाब!.. म्हारी तो बर्बादी आगी। पैली लड़ाई बाहरी थी। मैं एकजुट था। मुट्ठी बंधी थी। फेर लड़ाई भित्तर की होगी। बंद मुट्ठी खुलगी। नियम-कायदा सब टूटगा। एक-दूसरे को रौंद के आगे बढ़वा के चक्कर में हम पिछड़ गे। पैली समाज टूटा, फेर खेतां की मेड़बंदियां और जोहड़ा की पालें। भगवाण को नी लाया छ, हम लाये छ इस इलाके में अकाल।’’
मांगू पटेल के इस जवाब के बाद इस प्रश्न पर अब यहां कागद कारे की जरूरत शायद नहीं है कि अरवरी नदी कैसे सूखी? एकता और स्व-अनुशासन... इनके टूटने से ही टूटी पालें, बढ़ा दोहन और सूखी अरवरी। ‘80 के दशक में अरवरी के पुनर्जीवन की प्रक्रिया से बात समझनी शुरू करते हैं। राजेंद्र सिंह ने इन दो सूत्रों का सिरा पकड़कर की इस इलाके को आबाद करने की शुरुआत।
सीख का पहला पाठ हम खुद
हम दूसरे से जैसी अपेक्षा करते हैं, पहले खुद वैसा करके दिखाना पड़ता है। राजेंद्र सिंह ने पहले खुद अपनी जिंदगी में अनुशासन बनाया। फावड़ा-कुदाल संभाला। श्रम को साधन बनाया नशा, आलस्य और पराश्रय से विमुख हुए। दुनिया क्या करती और कहती है... की चिंता छोड़कर चिंतन को व्यवहार में उतारना शुरू किया। पहले गोपालपुरा जोहड़ की पाल बनाई, फिर समाज की पाल बनाने में जुट गए। गोपालपुरा की पाल के चलते जोहड़ में पानी लौटा, तो लोगों की आंखों में भी पानी लौट आया। गोपालपुरा की आंखों में लौटे पानी ने विवश किया कि गोपालपुरा के लोग अपने रिश्तेदारों को भी उनके जोहड़ों को पानीदार बनाने के लिए प्रेरित करें। फिर यह सिलसिला चल पड़ा। एक जोहड़ के पुनरोद्धार से शुरू हुई इकाई अब दहाई, सैकड़ा से आगे हजारों में निकल चुकी है।
जहां सहमति-सहयोग-सहकार, वहीं काम
इस काम की सबसे बड़ी बात यह रही कि इसने संवाद, सहमति, सहयोग, सहभाग और सहकार की सभी शर्तों से कभी समझौता नहीं किया। तरुण भारत संघ ने जिस भी गांव में पानी का काम किया, वहां शर्त यह रखी कि गांव उसमें साझा करेगा। जहां गांव का साझा नहीं होगा, वहां वह काम नहीं करेगा। कहां-कौन से जोहड़ में काम होगा? कैसा काम होगा-कच्चा या पक्का? डिज़ाइन कैसा होगा? गांव में कौन कितना साझा करेगा? यह सब तय करना गांव का काम होगा। पैसे का हिसाब भी गांव ही रखेगा। सहमति के लिए चाहे कितनी रातें लगीं, संवाद तब तक जारी रहा, जब तक कि सहमति नहीं हो गई। सहमति हुए बगैर काम शुरू करने की जल्दी कभी नहीं दिखाई। तरुण भारत संघ ने कभी किसी जोहड़ पर अपना नाम नहीं लिखा। कोई पट्टिका नहीं लगाई, सिवाय खास मौकों के; वह भी गांव की ओर से प्रस्ताव आने पर। गाँवों ने हमेशा अपने गांव, ग्रामदेवता या बुर्जुगों के नाम पर जलसंरचनाओं के नाम रखे - जोगियों वाली जोहड़ी, सांकड़ा का बांध.. आदि आदि। क्यों? ताकि गांव इन्हें अपना माने और अपना मानकर इनकी देखभाल खुद करे। आज इलाके का पार्षद-विधायक यदि कहीं खंभे पर एक लाइट भी लगाते हैं, तो पट्टी लगाते हैं - “यह काम पार्षद फंड से कराया गया है।’’ इसी से आप सरकारी और इस गैर सरकारी काम के अंतर को समझ सकते हैं। समझ सकते हैं कि सरकारी काम टिकता क्यों नहीं है?
अरवरी संसद: जवाबदारी से हकदारी
इस पूरे काम को करने के दौरान एक परिस्थिति ऐसी बनी, जिसने ’अरवरी संसद’ को जन्म दिया। हुआ यूं कि लंबे अरसे के बाद 1995 में अरवरी नदी पहली बार बारहमास बही। 1996 में सरकार ने इसमें मछली का ठेका दे दिया। लोगों ने सोचा- “जब नदी में पानी नहीं था, तब सरकार कहां थी? तब तो मुख्यमंत्री से गुहार लगाने और विधानसभा से धरना देने के बावजूद वह नहीं आई। नदी हमने जिंदा की है। मछलियां भी हमारी हैं।’’ लोगों ने ठेकेदार को मछली पकड़ने से मना किया। वह नहीं माना। गांव ने नदी पर पहरा देने लगा। ठेकेदार ने नदी में जहर डाल दिया। मछलियां मर गईं। लोगों ने रपट लिखाई। इस लड़ाई में पहला ठेका स्वतः रद्द हो गया; लेकिन फिशरी एक्ट के मुताबिक तो मछली सरकार की होती है। जनसुनवाई हुई। गांव की अपील थी कि सरकार ने मदद नहीं की,तो अड़चन भी पैदा न करे। निर्णय हुआ कि कानूनन मछली सरकार की है, लेकिन नीति के मुताबिक जो प्रबंधन करे, नदी के उपयोग का पहला हक उसका है। मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। पहले वही उपयोग करे। सहमति हुई कि इंसान कानून बनाता है, कानून इंसान को नहीं बनाता। अतः जो कानून सुनीति के खिलाफ हो, उसे बदल डालो। आखिर हम सरकारों को बदलते ही हैं। अरवरी के 70 गाँवों के समुदाय ने तय किया कि वह अरवरी नदी-जीव के संरक्षण के लिए खुद नियम-कायदे बनाएगा और खुद ही उनकी पालना भी करेगा। इसके लिए अरवरी संसद बनाई गई। 70 गांव: 184 सांसद।
खुद ही नियंता: खुद ही पालक
नियम बने -सांसद का चुनाव सर्वसम्मति से हों। अपरिहार्य स्थिति में भी कम से कम 50 प्रतिशत सदस्यों का समर्थन अवश्य प्राप्त हो। जब तक ऐसा न हो जाए, उस गांव का प्रतिनिधित्व संसद में शामिल न किया जाए। उससे असंतुष्ट होने पर ग्रामसभा सांसद बदल डाले।
फिर नदी के साथ व्यवहार के नियम बने: होली से पहले सिर्फ चना-सरसों जैसी कम पानी की फसल के लिए ही सीधी सिंचाई की अनुमति होगी। होली के बाद नदी से सीधी सिंचाई नहीं करेंगे। अनुकूल वृक्षों के नए पौधों के लिए सिंचाई की छूट होगी। पीने का पानी अनुकूल जगह से लिया जा सकेगा। अधिक वर्षा होने पर भी गन्ना-चावल-मिर्च जैसी अधिक पानी की खपत वाली फसलें नहीं बोएंगे। कोई जबरन बो ले, तो उसे कुंआ, नदी, जोहड़.. कहीं से भी पानी नहीं लेने देंगे। गर्मी में कम से कम फसल करेंगे। सब्ज़ियाँ उतनी बोएंगे, जितनी जरूरत हो। पशुओं के लिए चारा उपजाने पर सिंचाई में बाधा नहीं डालेंगे। नदी पर इंजन लगाकर पानी की बिक्री न खुद करेंगे, न किसी को करने देंगे। बड़े किसान गरीब किसान को पानी देंगे; बदले में सिर्फ डीजल खर्च और इंजन घिसाई लेंगे। बोरिंग करके अन्यत्र पानी को नहीं ले जाने देंगे। पानी का व्यावसायिक उपयोग पूरी तरह प्रतिबंधित होगा। अति दोहन पर रोक लगाएंगे।
जमीन को लेकर नियम बना कि पहला प्रयास यही हो कि किसी को जमीन बेचनी न पड़े। अतिआवश्यक हो जाए, तो लेन-देन आपसी होगा, बाहरी नहीं। किसी भी हालत में बाहरी व्यक्ति को जमीन बेचने पर रोक रहेगी। खेती की जमीन खेती-बागवानी के उपयोग करेंगे। बाहर के मवेशियों को इस इलाके में चरने नहीं देंगे। दीपावली से पहले पहाड़ों पर घास कटाई नहीं करेंगे। नए गोचर बनायेंगे। हरी डाल काटना प्रतिबंधित है। हरी डाल काटने वाले को दंड और जिसने देखने पर बताया नहीं, उस पर भी दंड। गाय-भैंसों की संख्या बढ़ाएंगे। भेड़-बकरी-ऊंट की संख्या सीमित करेंगे। एक के पास 200 भेड़ें, तो बाकी के पास 20-20; यह असमानता नहीं चलेगी। खनन रोकेंगे। ऐसे सभी कायदों को सख्ती से रोकेंगे। साल में संसद के दो सत्र के अलावा जरूरत हुई तो क्षेत्रीय और आपातकालीन सत्र भी बुलाएंगे।
स्वनुशासन से हासिल ताकत: सुशासन की गारंटी
अरवरी संसद के बनाए ये सारे नियम 70 गाँवों की व्यवस्था को स्वनुशासन की ओर ले जाते हैं। ऐसे कितने ही उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि अरवरी संसद ने सिर्फ नियम बनाए ही नहीं, इनकी पालन भी की। कितनों को दंडित होना पड़ा। एक साहूकार अपनी भेड़ें बेचने पर विवश हुआ। शासन ने अलवर-जयपुर के इलाके में शराब-चीनी जैसी ज्यादा पानी पीने वाली 21 फ़ैक्टरियों को लाइसेंस दे दिए थे। ताक़तवर होने के बावजूद स्वनुशासित गरीब-गुरबा समुदाय के आगे सरकार को झुकना पड़ा। लाइसेंस रद्द हुए।
नतीजा अद्वितीय !
इस स्वनुशासन का ही नतीजा है कि स्वास्थ्य, शिक्षा से लेकर प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों में यह इलाका पहले से आगे है। अपराध घटे हैं और टूटन भी। इस बीच अरवरी के इस इलाके में एक-दो नहीं तीन-तीन साला अकाल आए; लेकिन नदी में पानी रहा। कुंए अंधे नहीं हुए। आज इस इलाके में देश ‘पब्लिक सेंचुरी’ है। ‘पब्लिक सेंचुरी’ यानी जनता द्वारा खुद आरक्षित वनक्षेत्र। शायद ही देश में कोई दूसरी घोषित पब्लिक सेंचुरी हो। अरवरी के गाँवों में खुद की संचालित पाठशालाएं हैं। खुद के बनाए जोहड़, तालाब, एनीकट.. मेड़बंदियां हैं। यहां भांवता-कोल्याला जैसे अनोखे गांव हैं, जिन्होंने एक लाख रुपए का पुरस्कार लेने के लिए राष्ट्रपति भवन जाने से इंकार कर दिया, तो तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन खुद वहां उनके गांव गए। संघ के पूर्व प्रमुख स्व. श्री सुदर्शन से लेकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रो. राशिद हयात सिद्दिकी तक... देश की पानी मंत्री-सांसदों से लेकर परदेश के प्रिंस चार्ल्स तक सबने आकर स्वनुशासन और एकता की इस मिसाल को बार-बार देखा।
‘अरवरी संसद’ एक ऐसी मिसाल है, जो कुशासन के इस दौर में भी सुशासन की उम्मीद जगाती है। अकाल में भी सजल बने रहना इस बात का स्वयंसिद्ध प्रमाण है कि यदि कोई समुदाय स्वनुशासित होना तय कर ले, तो वह दुर्दिन भी सुदिन की भांति टिका रह सकता है। संवाद, सहमति, सहयोग, सहकार और सहभाग - यह मिसाल संचालन के इन पांच प्रकियाओं के सातत्य और सक्रियता के नतीजे भी बताती है। क्या कभी देश की संसद इससे सीखेगी?
जनतंत्र के लिए महत्वपूर्ण एक अभिनव प्रयोग
“अरवरी संसद की स्थापना और इसके कार्यों का महत्व केवल नदी के पानी के उपयोग तक सीमित नहीं है; बल्कि इसे आधुनिक जनतंत्र में अभिनव प्रयोग के रूप देखा जाना चाहिए। जनतंत्र की वर्तमान धारा सभाओं तथा संसद के लिए प्रतिनिधि चुनने तक सीमित हो गई है। जनतंत्र के संचालन में जनता किसी और भूमिका का निर्वाह करती दिखाई नहीं दे रही है। इस कारण से जनतांत्रिक व्यवस्था दिन-ब-दिन कमजोर हो रही है। जनतंत्र की सफलता के लिए उसकी प्रक्रिया में लोगों की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। जनशक्ति जितनी मजबूत होगी, जनतंत्र उतना मजबूत होगा। आज की संसद के निर्णयों तथा उसके बनाए कानूनों की पालना का अंतिम आधार पुलिस, फौज, अदालतें और जेल हैं। अरवरी संसद के पास अपने निर्णयों की पालना के लिए ऐसे कोई आधार नहीं हैं.... न ही होने चाहिए। जनसंसद का एकमात्र आधार लोगों की एकता, अपने वचनपालन की प्रतिबद्धता ओर परस्पर विश्वास है। यही जनतंत्र की वास्तविक शक्तियां हैं। अतः अरवरी संसद का प्रयोग केवल अरवरी क्षेत्र के लिए नहीं....समूचे जनतंत्र के भविष्य के लिए भी महत्वपूर्ण है।’’
(सत्याग्रह मीमांसा-अंक 169, जनवरी 2000 से साभार )