देश के अन्य प्रांतों की तरह पर्वतीय भू-भागों में भी जल संरक्षण, संग्रहण और उपयोग की काफी भव्य परम्परा रही है। पहाड़ों में जल संग्रहण की प्राचीन व्यवस्था के तहत अनेक ढांचों का निर्माण किया गया। यहां इन्हें नौला, चपटौला, नौली, कुय्यो, धारा, मूल, कूल, बान आदि अनेक नामों से जाना जाता है। यहां अपना पानी अपना प्रबंध की सामूहिक भावना से पानी की शुद्धता और निरंतरता बनाए रखी जाती है।
ये प्राचीन ढांचे सदियों के अनुभवों से परिष्कृत होती हुई आज भी उतनी ही खरी हैं। बैराठ की प्राचीन जल व्यवस्था भी इसी परम्परा की देन है, जो पर्वतीय संस्कृति और कला के उदगम का भी केन्द्र रहा है। बैराठ की पट्टी उत्तरांचल राज्य के मध्य भू-भाग अल्मोड़ा से 110 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पिश्चमी रामगंगा घाटी पर बसा है, जो आज पहाड़ों की गिनी-चुनी उपजाऊ घाटियों में से एक है। इस घाटी के मध्य में खेती की जमीन है, जिसके बीचोंबीच गजाघट बान नामक एक प्राचीन नहर निकलती है, जिससे यहां के ढांग गाँव की 24 हेक्टेयर कृषि भूमि की सिंचाई होती है।
आज भी यह गाँव पारम्परिक जल संग्रहण की उन्नत परम्परा का प्रतीक है, जहां गाँव के जंगल, नौला (पेयजल स्रोत) और पन चक्की तथा सिंचाई स्रोतों का सामूहिक रूप से संरक्षण और संचालन किया जाता है।
ढांग गाँव के निचले हिस्से में एक प्राचीन नौला है, जिसका निर्माण दसवीं शताब्दी में कत्यूरी राजाओं के शासनकाल में हुआ था। इस सदी के भयंकर सूखे में भी इस नौले में बराबर पानी बना रहा। यहां के लोगों के लिए यह नौला मंदिर से कम नहीं है। कोई भी शुभ कार्य इस नौले की अर्चना से शुरू होता है। वर्ष में तीन- चार बार इसकी सफाई की जाती है, जिसके बाहरी भाग में वर्ष में एक बार लिपाई- पुताई भी होती है। इसकी स्वच्छता बनाए रखने के लिए अनेकों कायदे-कानून बनाए गए हैं, जैसे जूते-चप्पल को एक निश्चित स्थान पर उतार कर स्रोत से पानी लेना, नहाने का निश्चित स्थान होना। साथ ही इसके निर्माण तकनीक से भी इसकी शुद्धता बनी रहती है। यह नौला तीन तरफ से बंद रखा गया है और इसका मुख्य द्वार ढलान की ओर खुलता है। इसे ऊपर से मंदिर की तरह ढक दिया गया है। गाँव वालों का कहना है कि यहां कभी भी पानी की कमी महसूस नहीं हुई। ऐसा इस कारण है क्योंकि यहां बूंद- बूंद पानी से कुंड भरने की उन्नत तकनीक मौजूद है। इस नौले के भीतर गर्भ गृह में 4.5 फीट गहरा कुंड बना है, जो अपनी सतह से नौ वर्गाकार सीढ़ियों से घिरा है। इसमें अतिरिक्त पानी के निकास के लिए भूमिगत नालियां बनी हैं।
शुरू में कम परिवार होने के कारण यहां काफी कम खेती की जाती थी और सिंचाई के लिए ज्यादा पानी की आवश्यकता नहीं पड़ती थी, इसलिए इस नहर का ज्यादातर उपयोग कई गाँवों के पनचक्की चलाने में किया जाता था। ये पनचक्की 10 वर्ष पूर्व तक चलते रहे हैं, लेकिन आज इससे ढांग गाँव की एक ही पनचक्की चलती है।
पर्वतीय क्षेत्रों में ढालू जमीन, बनावट तथा विशिष्ट परिस्थिति होने के कारण बड़ी नदियों में कच्चे बंधा बनाकर नहरों द्वारा खेतों तक पानी ले जाना काफी कठिन होता है। लेकिन बैराठ के सामुदायिक प्रबंधन की भावना ने इसे साकार कर दिखाया। यहां के गाँव वाले इस जल व्यवस्स्था के ढांचे की निरंतर रूप से देखरेख करते हैं, जिसके लिए प्रत्येक परिवार से एक- एक व्यक्ति मरम्मत या निर्माण के समय अपना श्रमदान करता है। जिन परिवारों से कोई सदस्य नहीं पहुंचता है, उन परिवारों को 25 रुपए प्रति कार्य दिवस के हिसाब से शुल्क देना पड़ता है। साथ ही इसमें इस बात का पूरा ख्याल रखा जाता है कि प्रत्येक परिवार के खेतों की आवश्यकता अनुसार पानी मिले। इसके लिए फसल बुवाई से पहले गाँव की आम सभा होती है।
इस प्रकार यहां समान सहभागिता और समान उपयोग की भावना से पानी का प्रबंधन किया जाता है। यह परम्परा पिछले पाँच सौ वर्षों में और भी ज्यादा परिष्कृत हुई है। लेकिन आज यह व्यवस्था बदलते सामाजिक-आर्थिक मूल्यों के प्रभाव से वंचित नहीं है। गाँव के 75 वर्षीय बुजर्ग गोपाल बिष्ट अपने बचपन की याद करते हुए बताते हैं कि “एक समय था जब ढोल की आवाज से छः सात गांवों के लोग एकत्रित हो जाया करते थे और देखते ही देखते टूटा बांध जोड़ लिया जाता था।“
पहले पत्थर, लट्ठ् आदि सभी सामग्री पर गाँव समाज का अधिकार था और लोगों में उत्साह भी रहता था। लेकिन अब पनचक्की का स्थान डीजल/विद्युत चालित पम्पों ने ले लिया है। पत्थर, रेता और लकड़ी पर प्रतिबंध है और नई पीढ़ी को सरल तकनीकी तथा पारम्परिक आत्म-निर्भर प्रणालियां आकर्षित नहीं करती हैं।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें : दीवान नागरकोटी, उ.से.नि. पर्यावरण शिक्षा संस्थान अल्मोड़ा- 263601, उत्तरांचल फोन : 05962 -233887
ये प्राचीन ढांचे सदियों के अनुभवों से परिष्कृत होती हुई आज भी उतनी ही खरी हैं। बैराठ की प्राचीन जल व्यवस्था भी इसी परम्परा की देन है, जो पर्वतीय संस्कृति और कला के उदगम का भी केन्द्र रहा है। बैराठ की पट्टी उत्तरांचल राज्य के मध्य भू-भाग अल्मोड़ा से 110 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पिश्चमी रामगंगा घाटी पर बसा है, जो आज पहाड़ों की गिनी-चुनी उपजाऊ घाटियों में से एक है। इस घाटी के मध्य में खेती की जमीन है, जिसके बीचोंबीच गजाघट बान नामक एक प्राचीन नहर निकलती है, जिससे यहां के ढांग गाँव की 24 हेक्टेयर कृषि भूमि की सिंचाई होती है।
आज भी यह गाँव पारम्परिक जल संग्रहण की उन्नत परम्परा का प्रतीक है, जहां गाँव के जंगल, नौला (पेयजल स्रोत) और पन चक्की तथा सिंचाई स्रोतों का सामूहिक रूप से संरक्षण और संचालन किया जाता है।
ढांग गाँव के निचले हिस्से में एक प्राचीन नौला है, जिसका निर्माण दसवीं शताब्दी में कत्यूरी राजाओं के शासनकाल में हुआ था। इस सदी के भयंकर सूखे में भी इस नौले में बराबर पानी बना रहा। यहां के लोगों के लिए यह नौला मंदिर से कम नहीं है। कोई भी शुभ कार्य इस नौले की अर्चना से शुरू होता है। वर्ष में तीन- चार बार इसकी सफाई की जाती है, जिसके बाहरी भाग में वर्ष में एक बार लिपाई- पुताई भी होती है। इसकी स्वच्छता बनाए रखने के लिए अनेकों कायदे-कानून बनाए गए हैं, जैसे जूते-चप्पल को एक निश्चित स्थान पर उतार कर स्रोत से पानी लेना, नहाने का निश्चित स्थान होना। साथ ही इसके निर्माण तकनीक से भी इसकी शुद्धता बनी रहती है। यह नौला तीन तरफ से बंद रखा गया है और इसका मुख्य द्वार ढलान की ओर खुलता है। इसे ऊपर से मंदिर की तरह ढक दिया गया है। गाँव वालों का कहना है कि यहां कभी भी पानी की कमी महसूस नहीं हुई। ऐसा इस कारण है क्योंकि यहां बूंद- बूंद पानी से कुंड भरने की उन्नत तकनीक मौजूद है। इस नौले के भीतर गर्भ गृह में 4.5 फीट गहरा कुंड बना है, जो अपनी सतह से नौ वर्गाकार सीढ़ियों से घिरा है। इसमें अतिरिक्त पानी के निकास के लिए भूमिगत नालियां बनी हैं।
शुरू में कम परिवार होने के कारण यहां काफी कम खेती की जाती थी और सिंचाई के लिए ज्यादा पानी की आवश्यकता नहीं पड़ती थी, इसलिए इस नहर का ज्यादातर उपयोग कई गाँवों के पनचक्की चलाने में किया जाता था। ये पनचक्की 10 वर्ष पूर्व तक चलते रहे हैं, लेकिन आज इससे ढांग गाँव की एक ही पनचक्की चलती है।
पर्वतीय क्षेत्रों में ढालू जमीन, बनावट तथा विशिष्ट परिस्थिति होने के कारण बड़ी नदियों में कच्चे बंधा बनाकर नहरों द्वारा खेतों तक पानी ले जाना काफी कठिन होता है। लेकिन बैराठ के सामुदायिक प्रबंधन की भावना ने इसे साकार कर दिखाया। यहां के गाँव वाले इस जल व्यवस्स्था के ढांचे की निरंतर रूप से देखरेख करते हैं, जिसके लिए प्रत्येक परिवार से एक- एक व्यक्ति मरम्मत या निर्माण के समय अपना श्रमदान करता है। जिन परिवारों से कोई सदस्य नहीं पहुंचता है, उन परिवारों को 25 रुपए प्रति कार्य दिवस के हिसाब से शुल्क देना पड़ता है। साथ ही इसमें इस बात का पूरा ख्याल रखा जाता है कि प्रत्येक परिवार के खेतों की आवश्यकता अनुसार पानी मिले। इसके लिए फसल बुवाई से पहले गाँव की आम सभा होती है।
इस प्रकार यहां समान सहभागिता और समान उपयोग की भावना से पानी का प्रबंधन किया जाता है। यह परम्परा पिछले पाँच सौ वर्षों में और भी ज्यादा परिष्कृत हुई है। लेकिन आज यह व्यवस्था बदलते सामाजिक-आर्थिक मूल्यों के प्रभाव से वंचित नहीं है। गाँव के 75 वर्षीय बुजर्ग गोपाल बिष्ट अपने बचपन की याद करते हुए बताते हैं कि “एक समय था जब ढोल की आवाज से छः सात गांवों के लोग एकत्रित हो जाया करते थे और देखते ही देखते टूटा बांध जोड़ लिया जाता था।“
पहले पत्थर, लट्ठ् आदि सभी सामग्री पर गाँव समाज का अधिकार था और लोगों में उत्साह भी रहता था। लेकिन अब पनचक्की का स्थान डीजल/विद्युत चालित पम्पों ने ले लिया है। पत्थर, रेता और लकड़ी पर प्रतिबंध है और नई पीढ़ी को सरल तकनीकी तथा पारम्परिक आत्म-निर्भर प्रणालियां आकर्षित नहीं करती हैं।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें : दीवान नागरकोटी, उ.से.नि. पर्यावरण शिक्षा संस्थान अल्मोड़ा- 263601, उत्तरांचल फोन : 05962 -233887