बात चाहे देश की राजधानी दिल्ली की हो अथवा सुदूर इलाकों के गांवों की-हर जगह पेयजल की किल्लत पिछले वर्षो के मुकाबले अधिक नजर आ रही है। यह घोर निराशाजनक है कि आजादी के साठ वर्षो के बाद भी देश की एक तिहाई जनता को पीने के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है। इसी तरह करीब 70 प्रतिशत आबादी सामान्य जन सुविधाओं से भी वंचित है। शायद यही कारण है कि प्रतिवर्ष जल जनित बीमारियों के चलते 15 लाख बच्चे काल के गाल में समा जाते है और काम के अनगिनत घंटों का नुकसान होता है। समस्या यह है कि केंद्र एवं राज्य सरकारे पेयजल संकट को दूर करने के लिए गंभीर नहीं, जबकि वे इससे परिचित है कि आने वाले समय में पानी के लिए युद्ध छिड़ सकते है।
देश के विभिन्न हिस्सों में पेयजल किल्लत इस कदर बढ़ रही है कि उसका लाभ उठाने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां आगे आ गई है। कुछ ने जमीन से पानी निकाल कर तो कुछ ने सामान्य जल आपूर्ति के जरिये मिलने वाले पानी को ही बोतल बंद रूप में बेचना शुरू कर दिया है। देश में बोतल बंद पानी का व्यवसाय लगातार बढ़ता जा रहा है। नि:संदेह यह कोई खुशखबरी नहीं। तमाम शहरी इलाकों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में औसत गृहणियों का अच्छा-खासा समय पेयजल एकत्रित करने में बर्बाद हो जाता है। चिंताजनक यह है कि इस स्थिति में सुधार होता नहीं दिखता। पेयजल के मामले में ऐसे चिंताजनक हालात तब हैं जब पानी पर अधिकार जीवन के अधिकार के बराबर है। सरकारों की यह जिम्मेदारी है कि वे हर नागरिक को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराएं, लेकिन वे इसके लिए सजग नहीं। भारत में पेयजल संकट बढ़ती आबादी और कृषि की जरूरतों के कारण भी गंभीर होता जा रहा है। करीब 65-70 प्रतिशत जल कृषि कार्यो में खप जाता है। इसके अतिरिक्त उद्योगों के संचालन में भी जल का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। विडंबना यह है कि न तो उद्योग एवं कृषि क्षेत्र को अपनी आवश्यकता भर पानी उपलब्ध हो पा रहा है और न ही आम आदमी को।
आजादी के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल की समस्या का समाधान करने के लिए गांव-गांव में हैडपंप लगाने की जो अनेक योजनाएं शुरू की गई वे अब असफल नजर आ रही है। कृषि कार्यो के लिए भू-जल के लगातार दोहन ने उसका स्तर कम कर दिया है। अब हैडपंप थोड़े समय में ही अनुपयोगी साबित हो जाते है। समस्या केवल भू-जल के गिरते स्तर की नहीं, बल्कि उसके प्रदूषित होते जाने की भी है। जमीन से जिस मात्रा में जल का दोहन किया जा रहा है उतनी मात्रा में प्रकृति से हासिल नहीं हो रहा है और यदि होता भी है तो उसके संरक्षण का काम सही ढंग से नहीं हो रहा। ऐसा नहीं है कि अकेले भारत ही पेयजल और सिंचाई के पानी की कमी का सामना कर रहा हो। इस तरह की समस्या से अन्य देश भी ग्रसित है। यद्यपि सभी इससे परिचित हैं कि धरती पर जीवन है तो जल के कारण ही और मनुष्य जल के बगैर नहीं रह सकता, फिर भी जल प्रबंधन में ढिलाई बरती जा रही है। तमाम अनुसंधान के बावजूद मनुष्य अभी तक जल का उचित प्रबंधन करना नहीं सीख पाया है।
हमारे देश में जल संकट जब-तब गंभीर रूप ले लेता है। बात चाहे कावेरी जल विवाद के कारण तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच की तनातनी की हो अथवा यमुना जल के बंटवारे को लेकर दिल्ली एवं हरियाणा के बीच की-ऐसे विवाद लगातार बढ़ते जा रहे है। अब तो जल बंटवारे को लेकर राजनीति भी होने लगी है और एक प्रांत के लोगों को दूसरे प्रांत के लोगों के समक्ष खड़ा करने में संकोच नहीं किया जा रहा है। इन दिनों होगेंक्काल पेयजल परियोजना को लेकर तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच यही हो रहा है। नदियों और अन्य जल स्त्रोतों का पानी राष्ट्रीय धरोहर होना चाहिए, लेकिन अनेक राज्य ऐसा मानने से इनकार कर रहे है। नदियों के सुविधाजनक जल बंटवारे को लेकर अनेक बार उच्च स्तर पर चर्चा हुई, लेकिन आम सहमति का अभाव अभी भी कायम है। फिलहाल ऐसे आसार नजर नहीं आते कि पेयजल और सिंचाई के जल की कमी को दूर करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारे आम सहमति के आधार पर कोई उपाय कर सकेंगी। एक अन्य समस्या यह भी है कि नदियों को जोड़ने और बांध बनाने के मामले में मतभेद ही अधिक नजर आते है। रही-सही कसर वर्षा जल के संरक्षण के उपायों पर अमल न करने तथा पुराने जल स्त्रोतों की उपेक्षा ने पूरी कर दी है। वर्षा जल संरक्षण और पुराने जल स्त्रोतों को बचाए रखने की दिशा में जो भी प्रयास हो रहे है वे आधे-अधूरे और अपर्याप्त है।
हमारे देश को यह प्राकृतिक वरदान है कि वर्षा के दिनों में उसे पर्याप्त मात्रा में जल प्राप्त हो जाता है, लेकिन उसका एक बड़ा हिस्सा विभिन्न नदियों के जरिये समुद्र में व्यर्थ चला जाता है। चूंकि बारिश के पानी का संग्रह नहीं किया जाता इसलिए गर्मियां आते ही पानी की किल्लत पैदा हो जाती है। इस कारण और भी, क्योंकि जल संसाधन के मामले में जो तत्परता दिखानी चाहिए उसका अभाव है। पेयजल से लेकर जल संरक्षण की योजनाओं पर अत्यंत शिथिलता बरती जा रही है। दो वर्ष पूर्व आम बजट में ऐसी योजनाओं के लिए तमाम प्रावधान किए गए थे, लेकिन इस बजट में वे सिरे से गायब है। देश को विकसित राष्ट्र बनाने में जल संसाधन का उतना ही महत्व है जितना ऊर्जा और अन्य साधनों का, लेकिन पता नहीं क्यों जल प्रबंधन एक उपेक्षित मुद्दा बना हुआ है? यह स्थिति देश के विकास की रफ्तार को धीमा करने वाली है। गनीमत है कि जल संकट मामले में स्थिति इतनी गंभीर नहीं हुई कि यह कहा जाए कि पानी सिर के ऊपर से बहने लगा है, लेकिन बहुत दिनों तक हाथ पर हाथ रखकर भी बैठे नहीं रहा जा सकता। सर्वप्रथम कृषि क्षेत्र में इस्तेमाल हो रहे जल के उपयोग को नियंत्रित करना होगा। इसके लिए फसल के चयन में बदलाव के साथ सिंचाई के आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल करना होगा। बरसाती पानी को संजोकर रखने तथा गंदे पानी को दोबारा प्रयोग में लाने योग्य बनाने की दिशा में गंभीरतापूर्वक काम करने की जरूरत है। इसी तरह भू-जल को प्रदूषण से बचाने पर भी प्राथमिकता के आधार पर ध्यान देना आवश्यक है। आवश्यकता पड़ने पर समुद्र के जल को सिंचाई के पानी के रूप में इस्तेमाल करने की विधि भी विकसित की जानी चाहिए, लेकिन यह ध्यान रहे कि ऐसी कोई विधि पर्यावरण को क्षति न पहुंचाए।
यदि जल प्रबंधन के लिए ठोस कदम नहीं उठाए गए तो पानी का संकट लोकतंत्र के लिए संकट पैदा कर सकता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वर्तमान में जल संसाधन राजनीतिक दलों के एजेंडे से बाहर नजर आता है। न केवल पेयजल और सिंचाई के पानी के संकट को दूर करने में शिथिलता बरती जा रही है, बल्कि जल संसाधन की जिम्मेदारी योग्य और अनुभवी हाथों में देने से भी इनकार किया जा रहा है। यह स्थिति अपने हाथों अपने भविष्य को संकट में डालने वाली है।
[संजय गुप्त]
साभार - जागरण /बेकाबू होता जल संकट
संजय गुप्त जागरण प्रकाशन लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और संपादक के रूप में कार्यरत हैं। श्री गुप्त के ऊपर उत्तरी क्षेत्र नई दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और जम्मू और कश्मीर के जागरण प्रकाशन की जिम्मेवारी है। उनका प्रिंट मीडिया उद्योग में अनुभव 23 साल से अधिक का है।