बिना नाम की नदी

Submitted by admin on Mon, 09/30/2013 - 16:34
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काव्य संचय- (कविता नदी)
मेरे गाँव को चीरती हुई
पहले आदमी से भी बहुत पहले से
चुपचाप बह रही है वह पतली-सी नदी
जिसका कोई नाम नहीं

तुमने कभी देखा है
कैसी लगती है बिना नाम की नदी?

कीचड़, सिवार और जलकुंभियों से भरी
वह इसी तरह बह रही है पिछले कई सौ सालों से
एक नाम की तलाश में
मेरे गाँव की नदी

कहीं कोई मरता है
लोग उठाते हैं
और नदी जहाँ सबसे ज्यादा चुप और अकेली होती है
उसी के आजू-बाजू फूँक आते हैं

जब मैं छोटा था तो अक्सर सोचता था
लोग जिसे फूँक आते हैं
उसका क्या करती है नदी!

सूरज निकलने के काफी देर बाद
आती हैं भैंसें
नदी में नहाने के लिए
नदी कहीं गहरे में हिलती है पहली बार
फिर आते हैं झुम्मन मियाँ
साथ में लिए हुए बंसी और चारा

नदी में पहली बार चमक आती है
जैसे नदी पहचान रही हो झुम्मन मियाँ को

फिर सूरज डूबने तक
वहीं के वहीं
बंसी लगाए हुए
एकटक बैठे रहते हैं झुम्मन मियाँ

दिन-भर में कितनी मछलियाँ
फँसती हैं उनकी बंसी में?
कितने झींगे कितने सिवार
पानी से कूदकर आ जाते हैं
उनके थैले के अंदर
कोई नहीं जानता

नदी को कौन देता है नाम
तुमने कभी सोचा है?

क्या सुबह से शाम तक
नदी के किनारे
नदी के लिए किसी नाम की तलाश में
एकटक बैठे रहते हैं झुम्मन मियाँ?