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काव्य संचय- (कविता नदी)
मैंने गंगा को देखा
एक लंबे सफर के बाद
जब मेरी आँखें
कुछ भी देखने को तरस रही थीं
जब मेरे पास कोई काम नहीं था
मैने गंगा को देखा
प्रचंड लू के थपेड़ों के बाद
जब एक शाम
मुझे साहस और ताजगी की
बेहद जरूरत थी
मैंने गंगा को देखा एक रोहू मछली थी
डब-डब आँख में
जहाँ जीने की अपार तरलता थी
मैंने गंगा को देखा जहाँ एक बूढ़ा मल्लाह
रेती पर खड़ा था
घर जाने को तैयार
और मैंने देखा-
बूढ़ा खुश था
वर्ष के उन सबसे उदास दिनों में भी
मैं हैरान रह गया यह देखकर
कि गंगा के जल में कितनी
और शानदार लगती है
एक बूढ़े आदमी के खुश होने की परछाई।
अब बूढ़ा जरा हिला
उसने अपना जाल उठाया
कंधे पर रखा
चलने से पहले
एक बार फिर गंगा की ओर देखा
और मुस्कराया
यह एक थके हुए बूढ़े मल्लाह की
मुस्कान थी
जिसमें कोई पछतावा नहीं था
यदि थी तो एक सच्ची
और गहरी कृतज्ञता
बहते हुए चंचल जल के प्रति
मानों उसकी आँखें कहती हों-
‘अब हो गई शाम
अच्छा भाई पानी
राम! राम!’
1984
एक लंबे सफर के बाद
जब मेरी आँखें
कुछ भी देखने को तरस रही थीं
जब मेरे पास कोई काम नहीं था
मैने गंगा को देखा
प्रचंड लू के थपेड़ों के बाद
जब एक शाम
मुझे साहस और ताजगी की
बेहद जरूरत थी
मैंने गंगा को देखा एक रोहू मछली थी
डब-डब आँख में
जहाँ जीने की अपार तरलता थी
मैंने गंगा को देखा जहाँ एक बूढ़ा मल्लाह
रेती पर खड़ा था
घर जाने को तैयार
और मैंने देखा-
बूढ़ा खुश था
वर्ष के उन सबसे उदास दिनों में भी
मैं हैरान रह गया यह देखकर
कि गंगा के जल में कितनी
और शानदार लगती है
एक बूढ़े आदमी के खुश होने की परछाई।
अब बूढ़ा जरा हिला
उसने अपना जाल उठाया
कंधे पर रखा
चलने से पहले
एक बार फिर गंगा की ओर देखा
और मुस्कराया
यह एक थके हुए बूढ़े मल्लाह की
मुस्कान थी
जिसमें कोई पछतावा नहीं था
यदि थी तो एक सच्ची
और गहरी कृतज्ञता
बहते हुए चंचल जल के प्रति
मानों उसकी आँखें कहती हों-
‘अब हो गई शाम
अच्छा भाई पानी
राम! राम!’
1984