तालाबों के नामकरण की परंपरा को सबसे पहले जीवित किया गया। तीनो तालाबों के गुण और स्वभाव को देखते हुए एक सादे और भव्य समारोह में इनका नामकरण किया गया। पहले तालाब का नाम रखा गया देवसागर, दूसरे का नाम फूलसागर और तीसरे का नाम अन्नसागर। पहले दो तालाबों से समाज के लिए पानी न लेने का नियम बनाया गया। फूलसागर के आस-पास अच्छे पेड़-पौधे जैसे- सफेद आकड़ा, बेलपत्र के पौधे और बगीची आदि लगाई गई। देवसागर की पाल पर छतरी, पनघट, पक्षियों के लिए चुगने का स्थान और धर्मशाला आदि स्थापित की गई।
सन 2004: जयपुर जिले के एक छोटे से गाँव लापोड़िया के लिये इस तारीख, इस सन का मतलब है 4 और 2 यानी 6 साल का अकाल। आस-पास के बहुत सारे गाँव इस लंबे अकाल में टूट चुके हैं, लेकिन लापोड़िया आज भी अपना सिर, माथा उठाए मज़बूती से खड़ा हुआ है। लापोड़िया का माथा घमंड के बदले विनम्र दिखता है। उसने 6 साल के अकाल से लड़ने के बदले उसके साथ जीने का तरीका खोजने का प्रयत्न किया है। इस लंबी यात्रा ने लापोड़िया गाँव को लापोड़िया की ज़मीन में छिपी जड़ों ने ऊपर के अकाल को भूलकर ज़मीन के भीतर छिपे पानी को पहचानने का मेहनती काम किया है। इस मेहनत ने आज 6 साल के अकाल के बाद भी लापोडि़या को अपने पसीने से सींच कर हरा-भरा बनाया है।कोई भी अच्छा काम सूख चुके समाज में आशा की थोड़ी नमी बिखेरता है और फिर नई जड़ें जमती हैं, नई कोंपलें फूटती हैं। राजस्थान के ग्राम विकास नवयुवक मंडल, लापोड़िया के प्रयासों से गोचर को सुधारने का यह काम अब धीरे-धीरे आस-पास के गांवों में भी फैल चला है। गागरडू, डोरिया, सीतापुर, नगर, सहल सागर, महत्त गांव, गणेशपुरा आदि गांवों में आज चौका पद्धति से गोचर को सुधारने का काम बढ़ रहा है। इनमें से कोई पन्द्रह गांवों में यह काफी आगे जा सका है। लापोड़िया के इस सफल प्रयोग ने कुछ और बातों की तरफ भी ध्यान खींचा है। 1998 के बाद से देश के कोई आधे हिस्से में अकाल पड़ता रहा है। अनेक हिस्सों में औसत से आधी और कहीं-कहीं उससे भी कम वर्षा हुई है। इस भयानक परिस्थिति से निपटने के लिए अनेक संस्थाओं ने और फिर उनके प्रभाव से सरकारों ने भी वर्षा जल संग्रह के लिए तरह-तरह की योजनाएं बनायी हैं और उन्हें पूरा करने के लिए कदम उठाए हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में पुराने तालाबों को ठीक करने और नए तालाब बनाने की तरफ ध्यान गया है।
जयपुर जिले के एक छोटे-से गांव लापोड़िया के आस-पास के बहुत सारे गांव लंबे अकाल में टूट चुके हैं, लेकिन लापोड़िया आज भी अपना सिर, माथा उठाए मजबूती से खड़ा हुआ है। लापोड़िया का माथा घमंड के बदले विनम्र दिखता है। उसने 6 साल के अकाल से लड़ने के बदले उसके साथ जीने का तरीका खोजने का प्रयत्न किया है। इस लंबी यात्रा ने लापोड़िया गांव को लापोड़िया की जमीन में छिपी जड़ों तक पहुंचायी है। इन जड़ों ने ऊपर के अकाल को भूल कर जमीन के भीतर छिपे पानी को पहचानने का मेहनती काम किया है और इस मेहनत ने आज 6 साल के अकाल के बाद भी लापोड़िया को अपने पसीने से सींच कर हरा-भरा बनाया है।
कोई भी समाज शून्य में जीवित नहीं रह सकता। उसे अपने लोगों, अपने पशुओं, अपनी जमीन, अपने पेड़-पौधों, अपने कुएं, अपने तालाबों, अपने खेतों के लिए कोई न कोई ऐसी व्यवस्था बनानी पड़ती है, जो समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध हो। काल के किसी खंड विशेष में समाज के सभी सदस्यों के साथ मिल-जुलकर जो व्यवस्था बनती है, उसे फिर सभी सदस्य मिल-जुलकर पाल-पोसकर बड़ा करते हैं और मजबूत बनाते हैं। अपने ऊपर खुद लगाया हुआ यह अनुशासन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपा जाता है। एक पीढ़ी अपनी उम्र पूरी करे, उससे पहले वैसी ही परिपक्व पीढ़ी फिर सामने आ जाती है, इस धरोहर की रखवाली करने तब समाज का जीवन बिना रुके, अबाध गति से चलता रहता है। पिछले दो सौ वर्षों की उथल-पुथल ने समाज को चलाने वाले इन नियमों को, अनुशासन को काफी हद तक तोड़ा था। समाज को जो चीजें टिकाती थीं, संचालित करती थीं, उनकी प्रतिष्ठा को इस दौर ने नष्ट किया। पुरानी व्यवस्थायें टूटीं, लेकिन इनके बदले कोई नई कारगर व्यवस्था उनकी जगह नहीं ले पाई।
आज लापोड़िया का माथा फिर ऊंचा हुआ है, अपनी जड़ों को पहचानने, उनको तलाशने की यह यात्रा बहुत लंबी रही है। लेकिन प्रकृति में कोई भी काम बिना धीरज के फल नहीं देता है। बहुत पहले लापोड़िया गांव टूट चुका था, उसके खेत उजड़ गए थे, उसका गोचर सूख गया था। गोचर पर यहां-वहां कब्जे हो चले थे और उसके दो पुराने तालाब भी पाल टूटने के कारण नष्ट हो गए थे। लापोड़िया के लोगों ने इस बुरे दौर में गांव से 80 किलोमीटर दूर जयपुर जैसे शहर में धीरे-धीरे पलायन कर अपने को बचाने का प्रयत्न किया था। कभी जो परिवार इस पूरे गांव की व्यवस्था संभालता था, इस बुरे समय में उसके सबसे अच्छे सदस्य भी लापोड़िया छोड़कर कहीं और नौकरी करने चले गए थे। इन्हीं में एक थे श्री लक्ष्मण सिंह। जो 'बनाजी' भी कहलाते थे।
लेकिन लापोड़िया गांव को 'बनाजी' से कोई बड़ा काम लेना था। इसीलिए बनाजी 1988 में इसी प्रदेश के अलवर जिले में काम प्रारंभ कर रही संस्था तरुण भारत संघ में जा पहुंचे। तरुण भारत संघ में लक्ष्मण सिंह ने राजेन्द्र सिंह जी के साथ काम करते हुए अकाल से उजड़े गांव में पानी का छोड़ पकड़कर जीवन की खुशी लाने का रहस्य जानना शुरू किया। लेकिन फिर उनको लगा कि इस रहस्य की बाकी परतें खोलने का प्रयोग उन्हें अपने उजड़े गांव में ही लौटकर करना चाहिए। लापोड़िया के 'बनाजी' यानी लक्ष्मण सिंह वापस लापोड़िया लौटे। उनके पीछे धीरे-धीरे लापोड़िया का पुराना वैभव भी लौटने लगा- वह वैभव जो यहां की कुछ पीढ़ियों की तरह बाहर पलायन कर गया था।
गांव छोड़ने से पहले लक्ष्मण सिंह जी ने गांव के युवकों के लिए खेलकूद के माध्यम से जो साधारण संगठन बनाया था, उसी संगठन को फिर से आधार बनाकर उन्होंने ग्राम सेवा और ग्राम विकास के पिछले छूटे हुए कामों को उठाना शुरू किया। 1984 में भी ऐसे कुछ काम शुरू करके ही वे गांव से बाहर गए थे। इन कामों को करने के लिए कोई पैसा या बजट नहीं था। सार्वजनिक काम की कोई विशेष समझ भी तब नहीं रही होगी। जो काम लोगों ने तब करने बंद कर दिये थे, उन्हीं को धीरे-धीरे फिर से शुरू करने का वातावरण बनाना था। इसमें गांव के पशुओं की सेवा के लिए पीने का पानी जुटाना, खेती करना भी शामिल था। कभी वे गांव के उपेक्षित चौक से सफाई शुरू करते, तो कभी पूरे दिन गांव के इस कोने से उस कोने तक बगरा हुआ गोबर उठाते और फिर उसे रात को खेतों में डालते, कचरे को खाद में बदलते थे।
इस काम में उनके मित्र श्री रामअवतार कुमावत भी साथ थे। ये दोनों युवक रोज गांव के फूट चुके बड़े तालाब को देखते, लेकिन इसे ठीक कैसे करना है, यह उनकी समझ और क्षमता से बाहर की बात लगती। लेकिन फिर एक दिन अचानक इन दोनों ने अपने कुदाल-फावड़े उठाये और लग गए बड़े तालाब को ठीक करने। कितने बरस लगते उसे ठीक करने में, यह उन्हें नहीं मालूम था। लोगों ने उन्हें रोका और समझाने की कोशिश की कि इस तरीके से कुछ होने वाला नहीं है। लेकिन तभी गांव के प्रतिष्ठित पुजारी स्वामी सियाराम जी भी धरती की इस पूजा में शामिल हुए। फिर श्योकरण बैरवा भी साथ हो गए। चारों लोग मिलकर दिन भर मिट्टी खोदते और एक-दो पीढ़ी से टूटे पड़े तालाब की पाल पर एक-एक टोकरी मिट्टी डालकर धीरे-धीरे पाल ऊपर उठाने लगे। फिर कुछ दिन बाद इनकी मेहनत और धीरज देखकर लापोड़िया के 15-20 और लोग भी साथ हो गए। एक से दो और अब दो से बीस लोगों के हाथ लगे तो पहली बार इन सबने अपना दिमाग भी लगाया। एक बैठक हुई और इसमें तय किया गया कि यह गांव का काम है, तो पूरे गांव को बुलाना चाहिए।
गांव के घरों की जिम्मेदारी बांटी गयी। सब मिलकर सबका काम करें, ऐसी कड़ी जो टूट गई थी, अब फिर से जुड़ गई थी। गर्मी के दो महीनों में सबने मिलकर बड़े तालाब की टूटी पाल को सुधारा। लेकिन प्रकृती शायद अभी लापोड़िया की परीक्षा लेना चाहती थी, पहली बरसात में ही तालाब फिर टूट गया। लेकिन लापोड़िया में वर्षों बाद उभर रहे संगठन ने धीरज नहीं खोया। लाउडस्पीकर से आवाज देकर पूरे गांव को इकट्ठा किया और मिट्टी से भरी बोरियां डालकर टूटी हुई पाल को किसी तरह संभाल लिया। आने वाले वर्षों में तरुण भारत संघ ने इस बड़े तालाब को ठीक करने में मदद दी। और तब दस वर्ष की तपस्या के बाद लापोड़िया को बड़े तालाब का फिर से वरदान मिला। तालाब में इतना पानी रुका कि उसके नीचे के खेतों से धीरे-धीरे बहुत से परिवारों को सुधरती खेती से कुछ कहने लायक लाभ भी मिलने लगा। उस समय गांव के 100 बीघा 100 बीगोड़ी में सिंचाई उपलब्ध होने लगी थी। बड़े तालाब को सुधारने के बाद फिर गांव में उससे पहले बने दो छोटे तालाबों को भी सुधारने का काम हाथ में लिया। तीनों तालाबों में यहां होने वाली वर्षा को अपने खजाने में भरना शुरू किया और फिर उसे गांव के कुओं के माध्यम से साल भर तक उपयोग में लाने का रास्ता खोला।
तालाबों के नामकरण की परंपरा को सबसे पहले जीवित किया गया। तीनो तालाबों के गुण और स्वभाव को देखते हुए एक सादे और भव्य समारोह में इनका नामकरण किया गया। पहले तालाब का नाम रखा गया देवसागर, दूसरे का नाम फूलसागर और तीसरे का नाम अन्नसागर। पहले दो तालाबों से समाज के लिए पानी न लेने का नियम बनाया गया। फूलसागर के आस-पास अच्छे पेड़-पौधे जैसे- सफेद आकड़ा, बेलपत्र के पौधे और बगीची आदि लगाई गई। देवसागर की पाल पर छतरी, पनघट, पक्षियों के लिए चुगने का स्थान और धर्मशाला आदि स्थापित की गई। तीसरे सबसे बड़े तालाब से गांव की जरूरत के मुताबिक सिंचाई की व्यवस्था फिर से खड़ी की गई। पहले दो तालाबों से अपने लिए नहीं, लेकिन पशु-पक्षियों, पौधों के लिए पानी लेना और अन्नसागर से अपने लिए पानी निकालना तय किया गया। अपने उपकार और परोपकार का एक सुदर ढांचा फिर खड़ा हो सका।
गांव में खेती की परिस्थिति कुछ सुधर चली थी। लेकिन किसानी केवल खेती पर नहीं टिकती। पशुपालन उसका एक मजबूत आधार होता है। लापोड़िया का गोचर पूरी तरह से उजड़ चुका था। देख-रेख के अभाव में गांव की यह सार्वजनिक भूमि अब किसी की नहीं रही थी। गोचर की घास तो छोड़िये, वहां के पेड़ भी कट चले थे। गांव की जो सार्वजिनक बुद्धि तालाबों को सुधारने में लगी थी, अब उस बुद्धि ने गोचर को भी सुधारने का निश्चय किया। फिर से छोटी-छोटी बैठकें शुरू हुई। कुछ मोटे-मोटे निर्णय लिए गए। अब गोचर में कोई कुल्हाड़ी लेकर नहीं जायेगा। घास नहीं खोदी जायेगी। वन्य जीवों को नहीं मारना, उनका पूरा संरक्षण और गोचर में उनके लिए पानी की व्यवस्था और घोंसले, अण्डे देने की जगहों को बचाने का निर्णय लिया गया। बड़े तालाब अन्नसागर में तालाब के बीच में बने लाखेटा को भी इन्हीं सब कारणों से सुरक्षित रखने का मन बनाया गया। गोचर के पुराने वैभव को याद किया गया।
किसी बुजुर्ग ने बताया कि एक समय में इस गोचर में इतने पेड़ थे कि इन पर इस कोने से उस कोने तक गांव के युवक पेड़ों पर चलने की प्रतियोगिता में भाग लेते थे। घास और उपयोगी पेड़ों से ढंके ऐसे गोचर की बात, तब फिर से एक नया सपना बनकर सामने आई। लेकिने इसे पूरा करना तालाब के काम से कहीं ज्यादा कठिन था। गोचर को सुधारने का संकल्प था मगर उसका अनुभव किसी के पास नहीं था। इसीलिए बैठकों में तय हुआ कि इस बारे में जहां कहीं से भी कुछ सीखा जा सकता हो, उसे सीखकर लापोड़िया में उतारना चाहिए। उन दिनों सरकार के ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में गोचर की कहीं कोई जगह नहीं थी, जो जमीन सार्वजनिक उपयोग की थी अब वह केवल ऐसी सरकारी जमीन मानी जाती थी, जिस पर चाहे जब, चाहे जो कोई कब्जा कर ले। गोचर को फिर से ठीक किया जा सकता है- ऐसा अनुभव कहीं था नहीं। फिर भी लापोड़िया के नवयुवक आस-पास जानकारी बटोरने के लिए घूमते रहे। कंटूर बंडिंग का एक तरीका उन्हें बताया गया। लापोड़िया के लोग कंटूर बंडिंग का काम देखने गए।
अजमेर के पास तिहरी नामक एक गांव में विश्व बैंक जैसी प्रसिद्ध संस्था की मदद से भारी पैसा बहाकर पांच साल तक एक गोचर को बंद रखा गया और यहां पशुओं को नहीं जाने दिया। गांव में खूब तनाव रहा। लड़ाई-दंगे हुए और बाद में तो लोगों ने गोचर की सीमा पर सुरक्षा के लिए बनी खाई को पाटकर अपने पशु घुसा दिये। सामाजिक इंजीनियरिंग की इन कमियों को फिलहाल भूल भी जाएं तो यहां तकनीकी रूप से जो काम किया था, उसे खुद प्रकृति भी याद नहीं रखना चाहती थी। पैसा खूब था, इसीलिए सारा काम धीरज और हाथ के बदले ट्रैक्टर से किया गया। डेढ़ फुट की ऊंचाई के कंटूर ट्रैक्टर के काम के कारण भीतर से पोले थे। पहली बरसात में ही ये पानी के दाब से दबकर 6 इंच के हो गए और फिर तेज बहता पानी इनको तोड़कर गोचर विकास का सारा काम अपने साथ बहाकर ले गया।
इसी तरह के एक और काम में गोचर में ट्रेंच या खाई बनाकर नमी लाने का प्रयत्न किया गया था। यहां भी सफलता हाथ नहीं आयी। इसका कारण यह समझ में आया कि बरसात के दौरान खाई में पूरा पानी भर जाता है। ऐसे में, उसमें घास नहीं पनप पाती। फिर गर्मी के दिनों में यह पानी तेजी से उड़ने लगता है और खाई की गहराई से जुड़ी भूमि की परतों में समाई जा चुकी नमी भी इस तेज तापमान के दौरान वापस तेजी से सूखने लगती है। यह प्रयोग यदि सफल भी होता, तो लापोड़िया को उसमें कुछ अन्य कमियां भी दिखी थी। इस काम के लिए काफी समय तक गोचर को बंद करके रखना पड़ता। फिर जो कंटूर बनाये गए थे वे गोचर से आस-पास के गांवों से निकलने वाले रास्तों के बीच आते थे। अपना गांव इस रुकावट को स्वीकार भी कर लेता तो दूसरे गांव वाले भला उसे क्यों मानते? फिर कुछ समय के लिए गोचर बंद करते तो गांव के पशु कहां जाते?
ऐसे बहुत-से प्रश्नों का उत्तर न तो बैठकों में मिला और न आस-पास देखे गए कामों से मिला। लेकिन लापोड़िया के लोग उजड़े पड़े गोचर के चक्कर लगाते रहे। ऐसे ही किसी चक्कर में ही लक्ष्मण सिंह को सूझा की गोचर में बरसने वाले पानी को वहीं के वहीं भीतर डालकर इसकी बरसों पुरानी प्यास बुझानी चाहिए और यह काम कुछ इस ढंग से हो सके कि न पशु रुके और न रास्ता। गोचर खुला रखा जाये, पानी इस प्रकार से रोका जाये कि गांव का भूमिगत जल भी बढ़े और फिर नमी बढ़ने से गोचर हरा-भरा बने।
गोचर की साज-सम्भाल करने की इच्छा रखने वाले इन लोगों के पास अपने खेतों में पानी के प्रबंध का, सिंचाई का, नमी फैलाने का अनुभव तो पीढ़ियों से था। लेकिन गोचर खेत नहीं है। इसमें घास, झाड़ी, पेड़-पौधे पनपाने के लिए अब जो कुछ भी तरीका अपनाना था, वह उनके हाथ में नहीं था। इसका एक कारण तो यह था कि गोचर में इससे पहले ऐसा कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ी थी। उन्हें गोचर पीढ़ियों से हरा-भरा मिला था। लेकिन पिछले दौर में यह सब उजड़ गया था, उसमें कोई नई युक्ति लगाये बिना पानी ठहरने वाला नहीं था।
किसानी के अनुभव ने इतना तो बता ही दिया था कि गोचर में पानी को ठहराना जरूरी नहीं है। पानी का संग्रह तालाब में होता है। यहां तो वर्षा के दौरान तुरंत बह जाने वाले पानी को थोड़ी देर के लिए थामना है। पूरा पानी रोक लें तो घास अच्छी नहीं होती। प्रकृति को इतनी नमी भर चाहिए कि वह गोचर भूमि में घास की कोमल जड़ें जमा सके। एक बार घास जम जाये तो उसे बाद की वर्षा में फिर इतना पानी, इतनी नमी चाहिए कि वह सूरज के प्रकाश के साथ इस नमी को जोड़कर घास को और ऊपर उठा सके।
गोचर में क्या नहीं करना चाहिए और क्या-क्या करना है- इन दोनों का पूरा ध्यान रखकर 'बनाजी' ने पहली बार चौका शब्द खोज निकाला। लेकिन जब इस चौका पद्धति को गोचर में उतारा तो चौके की चार भुजाओं में से एक भुजा हटा दी। अब यह चौका एक बड़ी भुजा और दो छोटी भुजाओं का रूप ले बैठा। संभवत: गोचर विकास के इतिहास में यह ‘बनाजी’ की देन की तरह दर्ज होने लायक घटना घटी थी। इस ढांचे में अब तीन भुजायें और दो कोने थे। लेकिन वर्षा में जब पानी भरेगा तो यह एक लंबी आयत यानी चार कोनों का रूप ले लेगा। इसीलिए नाम चौका ही रहा।
उजड़ चुके गोचर को फिर से ठीक करने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ-साथ पूरी सावधानी बरती गई। ये युवक गांव के बुजुर्ग लोगों के साथ पूरे गोचर में दो-चार बार घूमे। इससे पता चला कि ढाल किस तरफ है, कितना है। फिर देखना था कि सारे गोचर में चौका बन जाने के बाद उनमें से बहने वाला पानी निकल कर किस जगह आयेगा? इस अतिरिक्त पानी को वहां किसी तालाब या नाड़ी में डालना था। जहां पशु चरें, वहीं पास में पानी चाहिए। यदि पानी दूर हुआ तो दोपहर को पानी पीने दूर जाना पड़ेगा और फिर दुबारा वापसी कठिन होगी।
बुजुर्ग लोगों के साथ गोचर घूमने से ये सब बातें अच्छी तरह से ध्यान में आ गई थी। तब फिर कागज पर एक कच्चा नक्शा बनाया गया। फिर गोचर में काम शुरू करने से पहले इस नक्शे के अनुसार जमीन पर भी निशान लगाये गए। कहां से कितनी मिट्टी उठेगी और कहां कैसे पड़ेगी, इसे देखा-परखा गया। खुदाई और पटकाई वाली जगह में कोई पांच फुट का अंतर छोड़ा, ताकि पटकाई से बनी मेड़ या दीवार पर पानी का दवाब न पड़े और यहां की मिट्टी भी धीरे-धीरे खिसककर खुदाई वाली चौकड़ी में वापस न भर जाये। अंतर और संतरा शब्द सभी ने सुने हैं, लेकिन यहां अंतरा के साथ संतरा शब्द भी वापस आया है। अंतरा चौकड़ी और मेड़ के बीच का अंतर और संतरा खुदाई की जगहों के बीच थोड़ी दूरी को कहते हैं। इसका पूरा ध्यान रखा गया। इतना सब हो जाने के बाद चौके की बारी आयी। इसे बनाने से पहले सबके साथ बातचीत की गई। सबके मन में कागज और जमीन पर खींची रेखाएं, नक्शा ठीक से बसाया गया।
आज हमारे गांव जिस तरह से टूट चुके हैं, उनमें चौके के माध्यम से पूरे गांव को, किसानों को, पशुपालकों को जोड़ने का काम चुटकी भर में हो जाता, ऐसा मान लेना बहुत भोलापन होगा। इस काम को शुरू करते ही घास पनपने से पहले गांव में गंदी और स्वार्थी राजनीति पनप उठी। पूरे गांव की एकता को तोड़ते हुए कुछ लोग उठ खड़े हुए। उन्होंने चौके का विरोध किया। अफवाह फैल गयी कि संस्था के लोग गोचर पर कब्जा करना चाहते हैं। बचे-खुचे पेड़ों को न काटने का जो संकल्प गांव ने लिया था, उसी पर इन लोगों ने कुल्हाड़ी मार दी। चुने हुए जन-प्रतिनिधि के साथ गांव की पंचायत उनके साथ हो गई। पंचायत ने 16 सितंबर, 1995 को मात्र दो हजार रुपये में पूरे गोचर में कटाई का ठेका उठा दिया। यह भी घोषणा उन्होंने की कि यदि गोचर को सुधारना है, उसका विकास करना है तो यह काम ग्राम पंचायत ही करेगी।
लेकिन सत्य गांव के साथ था, संस्था के साथ था। इसीलिए इस बेहद अप्रिय प्रसंग में लोगों ने सत्य का आग्रह भी जता दिया- गोचर में सत्याग्रह शुरू हुआ। ठंड के दिन थे। दिन भर स्त्री-पुरुष पूरे गोचर में घम-घम कर उसकी रखवाली करने लगे। लेकिन दिन की रखवाली पर्याप्त नहीं हुई। तब गोचर बचाने वाले ठंड की रात में अपने घरों को छोड़कर रजाई और कंबल लेकर गोचर में सोये। भविष्य में पूरा गांव चैन की नींद सो सके, इसके लिए 1995 की ठंड में गोचर के ये रखवाले खुले आकाश के नीचे बैठे रहे और बारी-बारी से पहरा देते रहे। बड़ी उमर के लोगों के साथ युवा, महिलाएं और परिवार के छोटे बेटे-बेटियों ने भी अपने दादा, काका, पिता और मां का साथ दिया। फिर पुलिस आयी, कलेक्टर आये, छोटे-बड़े अधिकारी, पटवारी आये। सबने दोनो पक्षों के साथ बैठकर सारी परिस्थिति समझी। गोचर में पेड़ काटने का ठेका निरस्त किया गया। उसके बदले तय हुआ कि गोचर के लिए नुकसानदेह पेड़ विलायती बबूल ही काटा जायेगा। धरती का अच्छा काम किया तो पुण्य मिला और गोचर बच गया।
इस बैठक में निर्णय लिया गया कि गोचर पर से कब्जे भी हटेंगे। पटवारी जरीब लेकर इस काम में आगे आये। गांव के नक्शे के आधार पर पूरी नपाई हुई और इसमें न रिश्तों का ध्यान रखा गया और न दोस्ती का। लक्ष्मण जी ने पूरे प्रेम के साथ, लेकिन पूरी दृढ़ता से बता दिया था कि दोस्ती सिर्फ गोचर से है, क्योंकि इस गोचर से पूरे गांव की खुशहाली जुड़ी है।
बेगसा इसी बड़ी व्यवस्था का एक छोटा-सा अंग था। आज जब गांवों में गोचर ही नहीं बचा है, तो किस गांव में बेगसा या गोठान मिल पायेगा? कभी लापोड़िया में पुरानी पीढ़ियों ने गांव के पास ही इतनी बड़ी जगह पशु समाज के आराम के लिए छोड़ी थी। लेकिन नई पीढ़ियों को यह कीमती जगह की बर्बादी लगी होगी। इसलिए इस पर भी कब्जे होते गए।
बरसों का कब्जा छुड़ाना आसान काम नहीं होता। जिसका कब्जा हटाया जाता है, उसमें बहुत कड़वाहट आ जाती है। इस कड़वाहट को दूर करने के लिए गोचर में ही पूरे गांव का सामूहिक भोज रखा गया। पूरी के साथ सीरा, हलवा परोसा गया। गांव के 200 घरों से कोई 400 लोगों ने भोजन किया। सहभोज में परोसे गए मीठे सीरे ने सारी कड़वाहट मिटा दी। इसी भोज के बाद गोचर से विलायती बबूल हटाने का काम शुरू हुआ। सभी लोग जानते हैं कि गोचर गांव के पशुओं के चरने की जगह है। लेकिन पिछले दौर में गोचर के पेड़ काटे गए थे। घास खोद ली गयी थी। फिर इस तरह की गलती को छिपाने के लिए सूखे और उजड़े गोचरों में यहां-वहां हरा रंग बिखेरने के लिए, हरियाली दिखाने के लिए कुछ समय पहले विलायती बबूल का रोपण किया गया था। यह लापोड़िया के गोचर में भी आ जमा था। इसमें कोई शक नहीं कि यह जल्दी बढ़ता है। लेकिन कोई भी पशु इसे खाता नहीं है। फिर इसके आस-पास कोई उपयोगी पौधा भी नहीं पनप पाता। हर मौसम में इसकी फलियां चारों तरफ बिखरती हैं और विलायती बबूल का साम्राज्य बढ़ता जाता है और पूरे गोचर को अपना गुलाम बना लेता है। इसलिए इस सामूहिक भोज के बाद विलायती बबूल को पूरे गोचर से हटाने का सुंदर देसी अभियान भी प्रारंभ हुआ।गांव के लोगों ने पूरे गोचर में घूमकर विलायती बबूल की गिनती की। फिर उस गिनती को गांव के कुल परिवारों में बांटा। कोई छ: सौ पेड़-पौधे विलायती बबूल के थे और गांव में 200 परिवार थे। तय किया गया कि प्रति परिवार तीन विलायती बबूल जड़ समेत उखाड़ना है। इस पेड़-झाड़ी का जरा-सा हिस्सा भी छूट जाये तो इसे फिर से बढ़ने में देर नहीं लगती। इसलिए बिना देर किये अगले छ: महीने में गोचर से हटाना तय हुआ। जड़ समेत खोदने के बाद जो गड्ढे निकले, उनमें इन्हीं परिवारों ने देसी बबूल, बेर, तरह-तरह की उपयोगी घास के बीजों का रोपण किया।
शुरू के दिनों में चौका बनाने के बाद उत्साह में बाहर से पौधे और तरह-तरह की घास के बीज भी लाकर लगाये गए। लेकिन इनके परिणाम बहुत अच्छे नहीं निकले। गोचर में जितना जरूरी था उतना पानी रोका गया था। बाकी अतिरिक्त पानी चौकों को बिना तोड़े आगे बहता रहा था। इसलिए भले ही बाहर से लाकर बोये गए बीज अंकुरित नहीं हुए, लेकिन बिना बोये बीजों ने तर हुई गोचर की भूमि में अपना सिर उठाकर इसे हरा-भरा करना शुरू कर दिया। वर्षा के दिनों में पूरे गोचर में जैसे पानी चलता, उसके सूखते ही नमी वाली उस जगह पर प्रकृति तरह-तरह की घास से हरे रंग की जाजम, दरी बिछा देती। पिछली कुछ पीढ़ियों ने घास के जो प्रकार खो दिये थे, उनकी स्मृति और बोलियों में घास और झाड़ियों के जो नाम गायब हो गए थे, वे एक-एक कर लापोड़िया के गोचर में लौटने लगे। विलायती बबूल हटा दिया गया, देसी बबूल बोया नहीं गया था, लेकिन नमी मिलते ही पुरानी दबी जड़ों में प्राण आ गए और जगह-जगह उपयोगी घास, पौधे और झाड़िया बढ़ने लगीं। प्रकृति की स्मृति में यह मिटा नहीं था, इसलिए फिर लापोड़िया के समाज की स्मृति में भी ये नाम एक-एक करके वापस आने लगे।
अपने गोचर को सुधारने के इस संकल्प को लापोड़िया ने कर्म में बदला और फिर उसका विस्तार भी किया। आस-पास के सभी गांव में युवा मंडल बनाये गए। सभी से संपर्क किया गया और गोचर, तालाब, पेड़-पौधों और वन्य जीवों को बचाने के लिए बैठकें की गईं, पदयात्रायें निकाली गईं। आस-पड़ोस के गांव से शुरू हुआ यह काम बाद में और आगे बढ़कर 84 गांव में फैल गया। शुरू से ही गांव को गोचर से जोड़ने की चाल और व्यवस्था बनायी गयी। अभी पेड़ नहीं थे, लेकिन छोटी-छोटी झाड़ियां मजबूत होने लगी थी, उन्हें और अधिक सहारा देने के लिए वातावरण बनाया जाना था। इसीलिए इन झाड़ियों की रखवाली के लिए कानून या सख्ती के बदले प्रेम और श्रद्धा का सहारा लिया गया। लापोड़िया गांव के स्त्री-पुरुषों ने इन छोटी-छोटी झाड़ियों को राखी बांधी और इनकी रक्षा का वचन लिया। शायद इन झाड़ियों ने भी मन ही मन लापोड़िया की रक्षा करने का संकल्प ले लिया था।
तभी तो आज 6 साल के अकाल के बाद भी लापोड़िया में इतना हरा चारा है, पशु इतने प्रसन्न है कि यहां अकाल के बीच में भी दूध की बड़ी न सही, लेकिन एक छोटी नदी तो रही ही है। आज लापोड़िया में कोई 1600 लीटर दूध हो रहा है। घर-परिवार और बच्चों की जरूरतें पूरी करने के बाद ही दूध की बिक्री की जाती है। जयपुर डेयरी यहां से हर महीने ढाई लाख रुपये का दूध खरीद रही है। इस तरह आज लापोड़िया हर वर्ष लगभग 30 लाख रुपये का दूध पैदा कर रहा है। और यह दूध गांव में लौटी हरियाली से है।
उजड़े हुए गोचर में आज चौका पद्धति के कारण न जाने कितने तरह की घास और तरह-तरह के पौधे वापस आये हैं। इन सबकी गोचर में अपनी-अपनी विशेष जगह तय हो रही है। ऐसा लगता है कि प्रकृति इनके स्थान का आरक्षण करती चल रहीं है। अब गोचर में लोग प्रवेश करते हैं तो उत्सुकता के साथ निकल रही हर कोंपल को, पत्ती को, अंकुर को पहचानने की, नाम बताने की या नाम पूछने की कोशिश करते हैं। लापोड़िया का गोचर वनस्पति शास्त्र की एक नई पाठशाला बन गया है। आपस की बातचीत में किसान, पशुपालक और ग्वालों की टोली में नये नामों को पहचानने और खोजने की होड़-सी लग गयी है। कोई बतायेगा कि इस घास का क्या नाम है, तो कोई उसके गुण और लाभ बतायेगा, तो कोई सबके आगे बढ़कर उस घास के स्वभाव का ऐसा वर्णन करेगा- जैसे वह उसके परिवार का सदस्य हो।
घास के साथ-साथ फिर लापोड़िया गांव का ध्यान गोचर और गांव में पेड़ों पर गया है। विलायती बबूल पूरे गांव ने मिलकर गोचर से हटा दिया था। अब प्रकृति को थोड़ी राहत मिली थी, इसीलिए गोचर में नमी पाते ही देसी बबूल, रौंझ, खेजड़ी, कैर, जाल, जहां जो संभव हुआ धीरे-धीरे पनपने लगा। प्रकृति में तेजी से बढ़ने वाले पेड़ों की कोई खास जगह नहीं होती। यह धीरज का काम है। इसीलिए लापोड़िया गांव ने अपना धीरज नहीं खोया और जो पेड़ आने लगे थे, उन्हें बचाने और बढ़ने का अवसर देने का वातावरण बनाया। लेकिन इसके लिए पशुओं को रोका नहीं। गांव ने माना कि पशु इस व्यवस्था में शत्रु नहीं हैं। वे मित्र हैं और उनकी मित्रता गोचर को हरा-भरा बनाती है। गाय का गोबर, बकरी और खरगोश की मेंगनी अपने में तरह-तरह की घास और पेड़ों के बीज लिए रहती है। पशु-पक्षी के पेट की रासायनिक क्रिया इनके कठोर कवच को नरम बनाती है और मेंगनी आदि के रूप में इन बीजों के आसपास खाद बांधती है। पूरे गोचर में बिखरी मेंगनी चौके में पानी भरने, बहने और फिर यहां-वहां आने-जाने के कारण अपने-अपने भार को देखते हुए तैरती हैं और उचित मौका देखकर ठहर जाती है। फिर नमी और धूप इनके अंकुरण में सहायक बनती हैं।
लापोड़िया में गोचर के विकास के इन प्रारंभिक कामों के साथ-साथ लोगों का ध्यान गोचर की पूरी व्यवस्था की ओर भी जाने लगा है। गांव पिछले दौर में जिस परंपरा को, जिस ज्ञान को और जिस अनुशासन को खो बैठा था, भूला बैठा था, अब उसका थोड़ा-सा अंश जब वापस आने लगा, तो उसके संपूर्ण रूप, संपूर्ण दर्शन की स्मृति भी लौटने लगी है।
आज लापोड़िया में पशुओं की संख्या बढ़ी है, पक्षियों की संख्या भी बढ़ी है और उनकी जातियां भी। इसी तरह वन्य जीवों की भी उपस्थिति दिखने लगी है। मोर, कोयल, पपीहा, खरगोश, नेवला, जंगली बिल्ली, गिलहरी, झामूसा और तरह-तरह के मित्र कीट-पतंगे खेतों और गोचर में सहज मिलने-दिखने लगे हैं। गांव में मकानों पर, दीवारों पर पशुपक्षियों के जो चित्र बनाये जाते थे, आज वे दीवारों से उतर कर गांव में फैल गए हैं।
गांव में अब 'बेगसा' की बात होती है। बेगसा यानी गांव और गोचर के बीच पशुओं के बैठने की, एकत्र होने की या आराम करने की जगह। कुछ क्षेत्रों में बेगसा को गोठान भी कहा जाता है, जो संस्कृत शब्द ‘गोस्थान’ से बना है। राजस्थान के इन क्षेत्रों में वर्षा कम ही होती है, इसलिए परंपरा से यहां के किसान खेती के साथ-साथ पशुपालन पर पूरा ध्यान देते रहे हैं। पशु उनके लिए सिर्फ कमाई का साधन नहीं थे। ये उनके सांस्कृतिक और दार्शनिक समाज के जीवंत सदस्य थे। इसलिए इन्हें यहां से वहां हांक कर नहीं ले जाना है। उसकी पूरी व्यवस्था बनायी गयी थी। बेगसा इसी बड़ी व्यवस्था का एक छोटा-सा अंग था। आज जब गांवों में गोचर ही नहीं बचा है, तो किस गांव में बेगसा या गोठान मिल पायेगा? कभी लापोड़िया में पुरानी पीढ़ियों ने गांव के पास ही इतनी बड़ी जगह पशु समाज के आराम के लिए छोड़ी थी। लेकिन नई पीढ़ियों को यह कीमती जगह की बर्बादी लगी होगी। इसलिए इस पर भी कब्जे होते गए। आज जिन पंचायतों के हाथ में गांव के विकास की जिम्मेदारी है, वहां का नेतृत्व इस कीमती जगह को गुमटी, दुकान या हाट-बाजार में बदलने के लिए आतुर है। लेकिन लापोड़िया 'बेगसा' को भी बचाने का मन बना रहा है।
आज जब गोचर की तरफ फिर से ध्यान जा रहा है, तब इस बात की भी याद दिलानी चाहिए कि हमारे ग्रामीण समाज ने अपने पशुओं की देखेरेख के लिए एक सुविचारित ढांचा खड़ा किया था। गोचर उसका एक हिस्सा था।
6 साल के अकाल के बाद आज इस गांव में दूध का खूब उत्पादन हो रहा है। इसमें भी संतुलन बनाकर रखा गया है। अपने घर की जरूरत का दूध बचा लिया जाता है। शेष मात्रा जयपुर की डेयरी को दी जाती है। अकाल के बाद भी लापोड़िया में जमा होने वाला दूध डेयरी के अन्य केंद्रों में से मात्रा में भी ज्यादा है और गुणवता में भी। लापोड़िया के पास शुद्ध चारा है।
कुराड़ गांव में आज भी पुरानी परंपरा के हिसाब से एक बड़े गोचर की रखवाली हो रही है। इसमें न खाई है, न कटीले तार हैं और न किसी विभाग के चौकीदार। लेकिन लंबे-चौड़े गोचर में एक भी पत्ती, एक भी टहनी की चोरी नहीं होती। समय-समय पर गोचर और ओरण की सीमा पर ‘कार' मंत्रों और पूजा से पवित्र किये गए दूध, गोमूत्र और गंगाजल का मिश्रण होता है। इसे एक ऐसे धातु के पात्र में, घड़े में डाला जाता है जिसमें नीचे एक छोटा-सा छेद होता है। पात्र का मुंह दो तरफ झूलने वाली रस्सी से बांध कर दो लोग इसे उठाते हैं और तेजी से चलते हैं। इस तरह गोचर की पूरी सीमा पर 'कार' से रेखा खींची जाती है। पीछे पूरा गांव चलता है। मिट्टी में गिरने वाले दूध और गंगाजल की यह बारीक रेखा कुछ ही क्षणों बाद सूख जाती है, लेकिन पूरे गांव के मन पर यह अपनी अमिट छाप छोड़ जाती है। 'कार' लगने के बाद सब लोग जमीन से मिट चुकी, लेकिन मन में खिंच गयी उस अमिट रेखा का पालन करते है। कुराड में आज सूखा और गिरा पेड़ भी कोई बाहर नहीं लाता। पेड़ काटने की तो बात ही छोड़िये।कोई भी अच्छा काम सूख चुके समाज में आशा की थोड़ी नमी बिखेरता है और फिर नई जड़ें जमती हैं, नई कोंपलें फूटती हैं। ग्राम विकास नवयुवक मंडल, लोपाड़िया के प्रयासों से गोचर को सुधारने का यह काम अब धीरे-धीरे आसपास के गांवों में भी फैल चला है। गागरडू, डोरिया, सीतापुर, नगर, सहल सागर, महत्त गांव, गणेशपुरा आदि अनेक गांवों में आज चौका पद्धति से गोचर को सुधारने का काम बढ़ रहा है। सब जगह ऐसे काम की जरूरत है, लेकिन ऐसे काम के पीछे जैसा संगठन, जैसा धीरज चाहिए यदि वैसा न हो तो यह काम खड़ा नहीं हो पाता। आज कोई अस्सी गांवों में यह काम बढ़ रहा है। इनमें से कोई पन्द्रह गांवों में यह काकी आगे जा सका है।
लापोड़िया के इस सफल प्रयोग ने कुछ और बातों की तरफ भी ध्यान खींचा है। सन् 1998 के बाद से देश के कोई आधे हिस्से में अकाल पड़ता रह है। अनेक हिस्सों में औसत से आधी और कहीं-कहीं उससे भी कम वर्षा हुई। इस भयानक परिस्थिति से निपटने के लिए अनेक संस्थाओ ने और फिर उनके प्रभाव से सरकारों ने भी वर्षा जल संग्रह के लिए तरह-तरह की योजनाएं बनायी हैं और उन्हें पूरा करने के लिए कदम उठाये हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में पुराने तालाबों को ठीक करने और नये तालाब बनाने की तरफ ध्यान गया है।
आज लापोड़िया गांव में कोई 200 घरों के बीच बस्ती और उनके खेतों में 103 कुएं हैं। 6 साल के अकाल के बाद भी आज इनमें से हर कुएं में पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध है। इस छिपे खजाने का उपयोग लापोड़िया गांव फसल उगाने के अलावा अपने पशुओं के लिए हरा चारा पैदा करने के काम में भी कर रहा है। अकाल के जिन दिनों में आस-पास के दूसरे गांवों में बाहर से सूखा चारा लाना पड़ा है या अपने पशुओं को राहत शिविरों ने भेजना पड़ा है, वहीं लापोड़िया का लगभग हर घर अपने खेत के एक छोटे-से टुकड़े पर, आधा बीघा, एक बीघा पर अपने पशुओं के लिए हरा चारा उगाता है।
अपने गोचर और तालाबों में श्रम का पसीना बहाकर जो पानी रोका गया है, उसने लापोड़िया को बहुत हद तक हरा बना दिया है। अब इस हरियाली का रंग लोगों के मन पर भी दिखने लगा है। अब उन्हें लगता है कि उन्होंने लापोड़िया में इन सब कामों को करने के लिए कुछ वर्ष पहले जो संघर्ष किया था, जो आंदोलन चलाया था वही सब दूसरे गांवों में भी करना जरूरी है। गांव के मन को हरा बनाने का काम आनंद और सहयोग की नींव पर खड़ा होना चाहिए। आज लापोड़िया के लोग गोचर की परंपरा के बारे में पुरानी भूल चुकी बातों को तरह-तरह से इकट्ठा कर रहे हैं, पुराने नियम और कायदे समझ रहे हैं। इनमें से क्या दोबारा अपनाने लायक है, इसका परीक्षण कर रहे हैं। 'गोचर' शब्द गाय को, गोवंश को केन्द्र में रखकर बना है। लेकिन गोचर में गाय, बैल के अलावा ऊंट, भेड़ और बकरी भी चरने आ सकती हैं। प्रतिबंध यदि है तो केवल पड़ोसी गांव के पशुओं के लिए। उसका सीधा-सा कारण बस यही है कि पड़ोसी गांव को भी मेहनत कर अपना गोचर इतना अच्छा बना लेना चाहिए कि उनके पशुओं को दूसरे गोचर ने जाने की जरूरत न पड़े। एक गांव के पशु अपने गोचर की हद से बाहर चरने के लिए दूसरे गोचर में नहीं जा सकते- इसका सबसे बड़ा उदाहरण राजस्थान के भरतपुर क्षेत्र में मिलता है। इस क्षेत्र में एक स्थान का नाम 'गोहद' है।
गोचर के उपयोग का यह व्यवस्थित ढांचा अपने गांव, पड़ोसी गांव और दूर के गांव की भी जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाया गया था। बाहर के पशुओं का झुंड गांव के गोचर से गुजर सकता था, उन पर रोक नहीं थी। लेकिन वे छोटे से गांव को, छोटे से गोचर को पूरी तरह से न उजाड़े इसकी सावधानी रखी जाती थी। वे गोचर से गुजर सकते थे, चर सकते थे। खेतों में पानी पी सकते थे, लेकिन लंबे समय तक चरने के लिए उसी गांव के खेतों में किसान के साथ सहमति के आधार पर बैठाये जाते थे। इस बिठाई का मतलब था कि खेतों में फसल कटाई के बाद बचे डंठल ये पशु चर सकते हैं। खेतों में इनकी उपस्थिति से भूमि को मिंगने, गोबर और मूत्र से कीमती खाद मिलती थी।
आज लापोड़िया में अनेक किसान गांव के उठे हुए जलस्तर के कारण एक बीघा-दो बीघा में हरा चारा ले रहे हैं। यह कोई छोटी अवधि की फसल नहीं है। वर्ष भर, बारह मास यानी तीन सौ पैंसठ दिन लगभग एक मन चारा रोज निकालना अपने-आप में एक बड़ी उपलब्धि है। वह भी उस गांव में जहां अकाल का छठवां साल बैठा हो। किसान पशुपालन में कई बातों को ध्यान रखते हैं। जिस तरह से हम लोग एक साथ भोजन खाते-खाते तंग आ जाते हैं उसी तरह पशु भी हैं। इन्हें वर्ष भर अलग-अलग ढंग से चारा देने का पूरा केलेण्डर गांव-समाज ने व्यवस्थित रूप से बनाया था। गोचर और चौइली तथा बीड़ के अलावा किसानों के अपने घरों मे, बाड़ों में 'भुखारा' और 'भुरियां' बनाये जाते रहे हैं। भुखारा कोई 7-8 हाथ चौड़ा इतना ही ऊंचा और 50-70 हाथ लंबा एक कच्चा ढांचा होता है। इसमें तीस-चालीस ट्राली चारा वर्ष भर के लिए जमा रखा जाता है। एक ट्राली में कोई 40 मन आता है। भुखारा में कटा हुआ चारा जमा किया जाता है। यह गुवार, बाजरा, ज्वार और गेहूं की फसलों के डंठल और भूसे से बनता है।
इस ढांचे में लंबाई वाले हिस्से में खिड़कीनुमा दो झरोखे होते हैं, जिन्हें खोलकर जरूरत के अनुसार चारा निकाला जाता है। शेष चारा पूरे वर्ष भर सुरक्षित रखा रहता है। भूरियां में साबुत चारा एकत्र किया जाता है। इसका आकार कोई 25 फुट ऊंचा और 15 फुट चौड़ा भौंरेनुमा होता है। इसमें कटी फसल के डंठल इस विशेष ढंग से जमाये जाते हैं कि बिलकुल खुले आकाश के नीचे रखे रहने के बाद भी यह चारा भीगता नहीं, सड़ता नहीं। ऊपर से लेकर नीचे तक चिनाई उसी चारे से होती है। फिर भी एक बूंद पानी भीतर नहीं जाता है। इस व्यवस्था के माध्यम से पशुओं को पूरे साल भर तक सार्वजनिक स्थानों के अलावा घर से भी पौष्टिक खुराक मिलती रहती थी।
ऊपर बनाये गए ढांचो के अलावा एक और ढांचा बनाया जाता था। उसका नाम था 'बागर'। यह ढांचा आजादी से पहले तक चलन में था। फिर ठिकानेदारी, रियासतों के राज जाने के बाद यह भी चलन से हट गया। बागर की सुरक्षा के लिए बाड़ लगाई जाती थी। इसमें कोई पच्चीस हाथ चौड़ा, चालीस हाथ लंबा और पन्द्रह हाथ ऊंचा घास का ढेर होता था। इसलिए इसे गांव की मुख्य आबादी से थोड़ा हटकर बनाया जाता था- कभी आग आदि की दुर्घटना हो ही जाये तो बस्ती पर उसका बुरा असर न पड़े। इस व्यवस्था में भी कोई रखवाला नहीं होता था और यह भी किसी की निजी संपत्ति नहीं मानी जाती थी। पूरा गांव चलते-फिरते इसकी रखवाली करता था।
बागर एक तरह का चारा बैंक, कोष होता था जो संकट के समय में खुल जाता था। तब इसमें से जो जितना चारा लेता, उतना ही चारा अच्छी फसल आने पर इस कोष में वापस भर देता था। बागर के कोष से चारा देते समय तराजू का उपयोग नहीं होता था। यह गांव की अपनी व्यवस्था थी और अपने लोगों के लिए थी। फिर भी चारा लेते और देते समय एक मोटा हिसाब रखा जाता था। इसके लिए पगड़ी का उपयोग होता था। प्रति परिवार जितना बंडल सात हाथ की पगड़ी में बंध जाये, इतना चारा दिया जाता था और ऐसे ही सात हाथ की पगड़ी में जितना बंडल बंधता है, उतना वापस हो जाता था। अकाल से लड़ने के लिए गांव की इस व्यवस्था में, तरकश में कई तीर होते थे। जैसे चारे की व्यवस्था थी, उसी तरह संकट के दौर को पार करने के लिए अनाज का भंडार भी जमा किया जाता था।
इसके लिए खाई नामक एक ढांचा बनाया जाता था। यह व्यवस्था भी रियासत के बाद पूरी तरह से टूट चुकी है। खाई एक तरह का सूखा कुआं होता था। इसमें अनाज का भंडार सुरक्षित रखा जाता था। हरेक खाई कोई 10 से 15 हाथ गहरी और 7 हाथ के व्यास की होती थी, जिसकी गोलाई नीचे से ऊपर आते समय थोड़ी कम हो जाती थी। पूरा अनाज भर जाने पर इसे मिट्टी के घोल से ढक्कन बनाकर बंद कर दिया जाता था। सभी खाइयां थोड़े ऊंचे स्थानो पर बनाई जाती धी, ताकि बरसात की नमी और पानी इनमें न जा पाये। खाई के भीतर बहुत सावधानी से गोबर और मिट्टी से लिपाई की जाती थी। इसमें कुछ भाग राख का भी होता था ताकि अनाज में कीड़े न लगें।
लापोड़िया गांव में आजादी से पहले तक बीस खाइयां थीं। अच्छी फसल आने पर हर घर से इसमें एक निश्चित मात्रा में अनाज डालकर बंद कर दिया जाता था। जब तक गांव की सभी खाइयां भर नहीं जाती थी, तब तक गांव से एक दाना भी बाहर बेचा नहीं जा सकता था। इन खाइयों में तीन वर्ष तक अनाज सुरक्षित रखा जाता था। यदि इस अवधि में अकाल नहीं पड़े तो खाई खोलकर उसका अनाज वापस किसानो में वितरित हो जाता था। यदि अकाल आ ही गया तो ये खाइयां उस संकट को सहने के लिए खोल दी जाती थीं। अकाल का संकट आने पर खाई खोलने का निर्णय गांव के दो पटेल और ठिकानेदार की एक छोटी-सी बैठक में तुरंत लिया जाता था। उसके बाद गांव के घरों की जरूरत देखते हुए एक के बाद एक खाई खुलती जाती थी और अनाज का वितरण होता जाता था। एक मोटे हिसाब से प्रति परिवार प्रति माह कोई एक मन अनाज बांटा जाता था। अकाल समाप्त होने पर अच्छी पैदावार आने पर इन्हीं परिवारों से 40 किलो के बदले 50 किलो अनाज वापस लेकर फिर से खाई में सुरक्षित रख दिया जाता था।
गांव की बीस खाइयों में से केवल चार खाइयां ठिकानेदार के गढ़ के भीतर थीं शेष 16 गांव के सार्वजनिक स्थानों पर बनी थीं। इन सोलह खाइयों की सुरक्षा की जिम्मेदारी उनके सामने पड़ने वाले घरों की होती थी। ये परिवार भी सभी जातियों और सभी तरह की आर्थिक स्थिति के होते थे। एक खाई मंदिर के सामने थी और उसकी रखवाली पुरोहित खुद करते थे। भगवान की पूजा में गांव की पूजा भी शामिल रहती थी। गढ़ के भीतर चार खाइयां इसलिए रखी जाती थीं कि कहीं किसी हमले में गांव की खाइयों में आग लगा दी जाये तो कम से कम गढ़ की चार खाइयां सुरक्षित रह सकेंगी। जबकि भारतीय खाद्य निगम अनाज गांव से बाहर निकालकर कहीं दूर शहरों में जमा करता है और संकट के समय उसे ठीक समय पर गांवों में वापस नहीं कर पाता। खाद्य सुरक्षा का गांवों में बेहतर प्रबंध था।
आज 200 घरों का छोटा-सा लापोड़िया गांव पशुपालन और किसानी के बीच टूट चुके इन संबंध को जोड़ने का एक बड़ा काम कर रहा है। 6 साल के अकाल के बाद आज इस गांव में दूध का खूब उत्पादन हो रहा है। इसमें भी संतुलन बनाकर रखा गया है। अपने घर की जरूरत का दूध बचा लिया जाता है। शेष मात्रा जयपुर की डेयरी को दी जाती है। अकाल के बाद भी लापोड़िया में जमा होने वाला दूध डेयरी के अन्य केंद्रों में से मात्रा में भी ज्यादा है और गुणवता में भी। लापोड़िया के पास शुद्ध चारा है। यहां ज्वार, बाजरा, ग्वार और हरे चारे के उत्पादन में किसी भी रासायनिक खाद और कीटनाशक बिलकुल नहीं डाला जाता। इसलिए आज शुद्ध दूध है, अच्छी फसल है और लगभग हर घर के पास भुरियां हैं। कुछ के पास एक से भी ज्यादा। इन भुरियों में फसल कटाई के बाद बचे डंठल चारे की तरह संग्रह किये जाते हैं और इनका उपयोग अगले किसी संकट के दौर में होता है।
लापोड़िया गांव में किसी भी सड़क, गली या चौराहे का नाम किसी जन-नायक के नाम पर नहीं मिलेगा। गांव में कहीं भी गांधीजी की मूर्ति नहीं है। लेकिन आज पूरा गांव गांधीजी के आदर्शों का मूर्तरूप बनने का प्रयत्न कर रहा है।
साफ माथे का समाज (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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