.......ईसा से तीन सदी पूर्व की जल संचय प्रणाली के बारे में जानना-समझना है तो हमें चलना होगा सांची...! भोपाल से विदिशा मार्ग पर 50-51 कि.मी. का सफर तय करते ही सड़क के दायीं ओर की पहाड़ी पर दिखायी पड़ती है गोलाकार डोमनुमा संरचनाएँ। हाँ, यही है- सांची स्तूप। विश्व पुरातात्विक धरोहर में शामिल यह सांची स्तूप असल में बौद्ध परम्परा के वाहक हैं। सम्राट अशोक ने ‘तथागत’ की अस्थियाँ यहाँ संचित कर स्तूप का निर्माण कराया था। उसके बाद से लम्बे समय तक तथागत भगवान के अनुयायी बौद्ध भिक्षुओं की यह विहार स्थली रही है।
पहाड़ी के पश्चिमी ढलान पर तत्कालीन विहार स्थली के अवशेष आज भी इस बात के गवाह हैं कि यहाँ कभी ध्यान की ऊर्जा प्रवाहित होती थी...। इसी ‘स्व की खोज’ के रास्ते पर चलकर सैकड़ों ‘बुद्धावलम्बी निर्वाण’ के लिए प्रयासरत थे। आज भी ‘खोज’ की चाह से उठे प्रश्नों का उत्तर जानने के लिये आपको यहाँ पसरे गहरे मौन में प्रवेश करना होगा। स्वयं जानो-समझो और पाओ- यही बुद्ध का मार्ग था।
पहाड़ी की पश्चिमी ढलान पर तीन तालाब बने हैं। एक पहाड़ी के ऊपर दूसरा करीब आधा कि.मी. नीचे ढलान के मध्य में और तीसरा पहाड़ी की तलहटी में, भोपाल-विदिशा मार्ग के दायीं ओर। बेतवा नदी यहाँ से दो कि.मी. की दूरी पर है। कुल मिलाकर बेतवा नदी और पहाड़ी पर बने इन तीन जलाशयों को तत्कालीन समय की स्वतंत्र जल प्रणाली कहा जा सकता है।
पहला जलाशय प्रमुख स्तूप (स्तूप क्रमांक 01) के ठीक नीचे बना हुआ है। इसे देखकर पहली बार में सहज ही यह सवाल मन में उठता है कि इस जलाशय में आखिर पानी कहाँ से आता होगा? क्या इस जलाशय तक पानी पहुँचाने के लिये कोई स्वतंत्र प्रणाली विकसित की गई है? इसका जवाब खोजने के लिये हम ऊपर लौटते हैं। प्रमुख स्तूप के सामने एक मंदिर के भग्नावशेष के पास एक नाली दिखाई पड़ती है। इस नाली के साथ-साथ आगे बढ़ते जाइये। अरे! हम तो जलाशय के किनारे पहुँच गये। हमें अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया।
पहाड़ी पर गिरने वाली वर्षा बूँदों को थामने के लिये यहाँ नालियाँ विकसित की गई थीं। पहाड़ी के ऊपर ढलान में ‘विहार स्थली’ के अवशेषों के शिल्प का अध्ययन करें तो वहाँ भी पानी को निकालने के लिये पत्थर को काटकर छोटी-छोटी नालियाँ बनायी गई हैं और यह सभी नालियाॅं नीचे जाकर प्रमुख पक्की नाली में मिल जाती हैं और यह पक्की नाली जलाशय तक पहुँचकर गुम हो जाती हैं।
अद्भुत! ऊपरी ढलान पर वर्षा जल बूँदों के विहार के लिये- 32 मीटर लम्बे और 13 मीटर चौड़े और करीब 2 मीटर गहरे जलाशय का निर्माण और इस जलाशय तक ‘परिव्राजक बूँदों’ को पहुँचाने के लिये एक सुव्यवस्थित मार्ग का निर्माण। इस जलाशय में ठहरी बूँदों का उपयोग बौद्ध भिक्षुओं द्वारा अपनी प्यास बुझाने के लिये किया जाता होगा। इस जलाशय से नीचे उतरने पर स्तूप क्रमांक 02 के पास एक और जलाशय है और इससे नीचे पहाड़ी की तलहटी में तीसरा जलाशय है, जिसे ‘कनक सागर’ कहा जाता है। इन तालाबों को देखने से यह स्पष्ट है कि ढलान के नीचे प्राकृतिक रूप से बने आगोर में ही बनाये गये हैं। कहने का तत्पर्य यह है कि प्राकृतिक रूप से ढलान से बहने वाला पानी जहाँ ठहरता था, वहाँ इस पानी को स्थायी रूप से बसाने लिये जलाशयों का निर्माण करवाया गया।
जातकों द्वारा तैयार की गई यह जल संचय प्रणाली वास्तव में आज के समाज के लिये एक चुनौती साबित हो सकती है, लेकिन दुःखद पक्ष यह है कि इस जल संचय प्रणाली की ओर न तो यहाँ के स्थानीय समाज की कोई रुचि है और न ही यहाँ पहुँचने वाले पर्यटकों के लिये इसका कोई आकर्षण।
इसी उपेक्षा के चलते इन तालाबों में गाद जमा हो गई थी और यूनेस्को से आर्थिक मदद लेकर इन तालाबों की गाद निकाली गई। पहले जलाशय की तलहटी में दरारें पैदा हो गई थीं, जिससे पानी नीचे रिस जाता था। वर्ष 1994‘95 में चली इसी मुहिम में दरारें भी भर दी गईं, लेकिन पहले जलाशय से रिसाव आज भी जारी है। स्थानीय निवासी फतेहसिंह के अनुसार अभी इस तालाब से रिसाव पूरी तरह बंद नहीं हुआ है। पिछले एक सप्ताह में चार-पाँच फुट पानी इस जलाशय में कम हो गया है।
इन जलाशयों की साफ-सफाई की भी कोई व्यवस्था नहीं है। इन जलाशयों में पानी की ऊपरी सतह काई से आच्छादित है, जिससे संचित जल हरा दिखाई पड़ता है। इस बौद्ध विहार में विकसित जल संचयन प्रणाली के उचित प्रबंधन के लिये न तो समाज की कोई विशेष रुचि है, न सरकार की और न ही भगवान तथागत के मंदिर से होने वाली आय पर अपना अधिकार समझने वाले बौद्ध भिक्षु संघ की।
दुःख और दुःख का कारण समझाने वाले बुद्ध के अनुयायियों द्वारा बनायी गई यह मोनेस्टरी जलसंकट के दुःख से जूझते आज के समाज के लिये एक सबक है। समाज के साथ मिलकर पानी पर काम करने वाले लोगों के लिये व्यर्थ बहती वर्षा बूँदों को कैसे थामा जाये जैसे प्रश्न का सजीव उत्तर है- सांची के स्तूप की यह जल संचयन प्रणाली।
समय के साथ बौद्ध धर्म नष्ट हुआ। मोनेस्टरी, उजड़ी, यहाँ का पर्यावरण उजड़ा। यदि कुछ पहले जैसा ही है तो वह है यहाँ के जलाशयों में ठहरा पानी। हर वर्ष परिव्राजक बूँदें आसमान से छूटकर यहाँ उनके लिये तैयार किये गये जल विहार में ठहरती हैं- ध्यानस्थ होती हैं.... और कुछ तपते सूरज की गर्मी के साथ फिर आसमान में पहुँच जाती हैं। पुनर्जन्म के लिये बूँदें निर्वाण नहीं चाहतीं। चाहती हैं सिर्फ-सिर्फ पुनर्जन्म।
बूँदों का निर्वाण इसी में है कि वे फिर-फिर बरसती रहें और जीवन धड़कता रहे।
इन जलाशयों में पसरे गहरे मौन में छुपा बुद्ध का सन्देश ‘दुःख कारण और निवारण’ समाज को कब दिखायी पड़ेगा यह तो कहा नहीं जा सकता, लेकिन यह सुनिश्चित है कि देर-सवेर जब भी जल संकट का दुःख भोगने वाला यह समाज दुःख की अति पर पहुँचेगा तो उसे यही ज्ञान आजमाना होगा, तभी उसे जल संकट के दुःख से मुक्ति मिल पायेगी।
जल संकट के कोहराम से अशांत समाज यदि कुछ देर इन जलाशयों के करीब पहुँचे तो इन तीन जलाशयों में आज भी शांति के लिए सुझाये बुद्ध के तीनों सूत्र स्पष्ट सुनायी पड़ सकते हैं।
‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि!’
जरूरत है सिर्फ पानी के प्रति संवेदनशील होने की....
.....इति!
मध्य प्रदेश में जल संरक्षण की परम्परा (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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