......कहीं चड़स तो कहीं ओढ़ी, कहीं गट्टा तो कहीं ओटा! .... कहीं आड़ा हल तो कहीं खंतिया......!
......तो जनाब, कहीं घर-घर के आगे ‘डाॅक्टर साहब’ भी मौजूद हैं.....!
रूठे बादलों को मनाने के लिए मालवा-निमाड़ के ग्रामीण अंचलों में अनेक जतन किये जाते थे। बूँदों से लकदक काले घने बादल ही यहाँ के जीवन का एकमात्र आधार था। मेघ जमकर बरसेंगे तो ही नदी, नाले, कुएँ, बावड़ी वर्षभर जल से भरे रहेंगे। पानी होगा तो खेत हरे-भरे होंगे। पानी से ही प्यास भी बुझेगी और पानी से ही पेट भी भरेगा। जिस बरस बिना बरसे बादल लौट गये तो समझो सूखे का साल है।
खपरैल वाले मकान के कच्चे ओटले पर बैठी गाँव की बूढ़ी काकी फिर सुनाने लगती है, इसलिए आषाढ़ यदि सूखा जाने लगे तो गाँव के लोग उज्जैणी करते हैं। असल में यह शब्द उजड़नी है बाद में उज्जैणी हो गया। गाँव में उस दिन एक भी चूल्हा नहीं जलता। सब के सब गाँव के बाहर रोटी-पानी करते हैं और इन्द्र देवता से मेहरबान होने की गुहार लगाते हैं। औरतें गीत गाकर बादलों को बरसने के लिए मनाती हैं। ‘‘इंदर राजा आप बरसो, धरती निमजे ने पानी दीजो।’’ इसके अलावा और भी टोटके होते थे। जैसे मेंढक-मेंढकी का ब्याह, शिवपिण्डी को पानी में डुबोकर रातभर भजन-कीर्तन, केड़े वाली गाय को बछड़े सहित जंगल में छोड़ आना। एक गाँव से दूसरे गाँव मांगने जाना जिसे मंगनी कहते थे। इन टोटकों से कई बार इन्द्र देवता ‘प्रसन्न’ हो जाते और खूब पानी बरसाते। सूखे की आशंका से बदहवास गाँव में खुशियाँ लौट आतीं।
इतनी मन्नतों के बाद बरसी जल बूँदों को यूँ ही बहकर व्यर्थ नहीं होने दिया जाता था। उन्हें खूब सहेज-सम्हाल कर रखने की व्यवस्थाएँ समाज में प्रचलित थीं। खेतों में मेड़ पर खंतियाँ खोद दी जाती थीं। खेतों में बहने वाला बरसात का पानी इन खंतियों में इकट्ठा हो जाता था। इससे खेत की मिट्टी भी बचती थी और खेत में नमी भी बनी रहती थी।
खेतों से बहने वाले पानी को खेत में ही झिरपाने के लिए खेतों में ढलान के विपरीत आड़े हल चलाये जाते थे। इससे पूरे खेत में छोटी-छोटी गडारें पड़ जाती थीं, जिनमें पानी रुक-रुककर बहता था और खेत की मिट्टी का कटाव भी कम होता था।
नालों के किनारे पर चौकोर कुँए नुमा गहरा गड्ढा खोदा जाता था, जिसे पत्थर या ईंटों की चुनाई कर पक्का कर दिया जाता था। इससे नाले में पानी संग्रहण की क्षमता बढ़ जाती थी और कार्तिक, अगहन के महीने में रहट बनाकर इससे खेतों में पलेवा किया जाता था। इस संरचना को मालवा क्षेत्र में ओड़ी- कहा जाता था।
गाँवों में आवश्यकता के मान से तालाब खोदे जाते थे। गाँव के बाहर बहने वाले नालों पर मिट्टी के छोटे-छोटे बाँध बनाकर भी पानी रोका जाता था।
प्राकृतिक एवं तत्कालीन समाज द्वारा कृत्रिम रूप से तैयार ये छोटे-छोटे जलग्रहण क्षेत्र गाँव भर के लिए पानी के प्रमुख स्रोत होेते थे।
कुएँ बावड़ी खुदवाने का प्रचलन भी तत्कालीन समाज में था। यही वजह है कि मालवा क्षेत्र में आज भी लाखों की संख्या में कुएँ मौजूद हैं। बड़े किसानों द्वारा जल संग्रहण के लिए बड़ी-बड़ी बावड़ियाँ बनाने का भी प्रचलन था। शिल्प की दृष्टि से ये बावड़ियाँ आज भी देखने योग्य हैं। कुएँ ज्यादातर गोल होते थे और बावड़ियाँ चौकोर। बावड़ियों में पत्थर की और चूने की चारों ओर चुनाई की जाती थी। बावड़ी में उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनाई जाती थीं। बावड़ियाँ ऊपर से चौड़ी और नीचे जाकर संकरी हो जाती थीं। बावड़ी के इस शंक्वाकार आकार के कारण वाष्पीकरण की दर भी कम हो जाती थी, जिससे गर्मियों में भी बावड़ियों में पानी मिलता था।
मालवा-निमाड़ में सदियों से चली आ रही जल संग्रहण की यह परम्पराएँ देखते-देखते ही हाशिये में सिमट गई और नलकूप, हैण्डपम्प जैसी एकाकी व्यवस्थाएँ प्रचलन में आ गई हैं।
लेकिन, अब हालात बदलने लगे हैं। मात्र 30-35 वर्षों में ही यह नई व्यवस्था दम तोड़ती नजर आने लगी है। लगातार धरती से पानी उलीचते नलकूप अब थकने लगे हैं। तालाब रीतने लगे हैं। धरती प्यासी हो चली है। अब आसमान को तकते समाज की आँखों में पुरानी परम्पराओं को भूलने का पश्चाताप साफ नजर आ रहा है। प्रायश्चित में जुड़े हाथ और जलसंचय पर गाँवों में काम कर रही संस्था ‘विभावरी’ की यह प्रर्थना सुनिए.......
हे नन्हीं बूँदों
जीवन के लिए
धरा पर, कुछ देर थमो
जमीन की नसों में बहो
और
धरती की सूनी कोख,
पानी से भर दो।
रूफवाटर हार्वेस्टिंग बनाम साल का गट्टा ‘डग-डग रोटी और पग-पग नीर’ वाली लोकोक्ति से पहचाने जाने वाले मालवा में पिछले 10-15 वर्षों में जिस तरह पानी का संकट समाज के सामने उठ खड़ा हुआ है, उसने समाज को एक बार फिर जल संग्रहण की पुरानी परम्पराओं की ओर लौटने पर मजबूर कर दिया है। आज शासन द्वारा शहरी क्षेत्र में छतों से बहकर व्यर्थ जाने वाले बरसात के पानी को ‘रूफ वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम’ के माध्यम से जमीन के नीचे उतारने को अनिवार्य कर दिया है। छत के पानी को संग्रहित करने की यह तकनीक मालवा के लिए कोई नई नहीं है। यहाँ सदियों पहले छत के पानी को इकट्ठा करने की व्यवस्था समाज में मौजूद थी। मांडव, असीरगढ़ जैसे जिलों में मुगलकाल के दौरान किए प्रयोग आज भी जिन्दा हैं।
इनके अलावा गेहूँ, भूसा और पीली मिट्टी से बने कच्चे मकानों की कवेलू वाली ढालू छत के नीचे पनाल (यू आकार की मुड़ी हुई चद्दर) लगाकर बरसात का पानी कच्ची नाली के जरिए घर के बाहर बाड़े में छोड़ा जाता था। इसे ‘साल का गट्टा’ कहा जाता था। बाड़े में एकत्रित छत के इस पानी में धान की खेती तत्कालीन समाज में प्रचलित थी और मालवा में धान को साल कहते हैं, इसलिए यह तकनीक बोलचाल की भाषा में ‘साल का गट्टा’ कहलाती थी। इस बरसाती पानी को रोकने के लिए जो मिट्टी की मेड़ बनायी जाती थी, उस पर अरहर बोने का रिवाज भी था। इस तरह धान और अरहर को एक साथ बोने को ‘मेला-धान’ कहा जाता था।
बरसों पहले मालवा से यह-साल का गट्टा’ वाली परम्परा गायब हो गई। इसका कारण गाँवों में जनसंख्या विस्फोट के कारण आबादी क्षेत्र का अधिक सघन होना है। घरों से बाड़े खत्म हुए, कवेलू वाले मकानों की जगह पक्के मकान बनने लगे, इससे यह व्यवस्था एकदम लुप्त हो गई।
इसी व्यवस्था को आधार बनाकर जल संकट से सर्वाधिक ग्रस्त देवास में ‘विभावरी’ संस्था द्वारा शहर के गिरते भूजलस्तर में वृद्धि के लिए रूफ वाटर हार्वेस्टिंग तकनीक विकसित की गई। इस तकनीक में छत से आने वाले पाइप को एक फिल्टर जोड़कर छत के पानी को सीधे नलकूप में उतारा जाता है। वर्ष 1999 से प्रारम्भ किये गये इस प्रयास के कारण ही आज देवास के 1500 से ज्यादा घरों में जल संग्रहण की यह पद्धति कार्यरत है और इसके अपेक्षित परिणाम भी सामने आये हैं। फरवरी-मार्च तक सूखने वाले नलकूप अब मई-जून तक चलने लगे हैं।
इसी विभावरी संस्था द्वारा इस तकनीक का इसके परम्परागत रूप में ही जिले के पानपाट गाँव में भी उपयोग किया है। पानपाट में सबसे पहले इस तकनीक को अपनाने वाले शेरसिंह कहते हैं कि हम तो हमारे बाप-दादाओं की इस तरकीब को पूरी तरह भुला बैठे थे, लेकिन जब घर में मेला-धान पैदा हुआ, तब समझ में आया कि बीमारी की दवा हमारी ही जेब में थी और हम भूल बैठे थे। विंध्य क्षेत्र के सतना में घर के पिछले बाड़े में भी पानी रोकने की इस तरह की परम्पराएँ प्रचलन में थी। इन्हें स्थानीय भाषा में ‘गढ़िन’ कहा जाता है।
मालवा में अनेक क्षेत्रों में पुराने जमाने में पत्थर व मिट्टी को मिलाकर पानी को रोकने या डायवर्ट करने की परम्परा भी प्रचलित थी। इस रोक को स्थानीय भाषा में ‘ओट’ कहा जाता था। उज्जैन जिले की बड़नगर तहसील के पलसोड़ा गाँव में आज भी इस परम्परा को लोग याद करते हैं।
....कहानी कुछ यूँ है, इस गाँव में देवाजी नाम के एक किसान रहा करते थे। बरसात के दरमियान उनके खेत में नाले का पानी आ जाया करता था। देवाजी ने खुद एक संरचना तैयार कर पानी दूसरी ओर मोड़ दिया, जहाँ वह रुकने लगा। इस पानी का उपयोग भी किया जाने लगा। याने खेत भी बच गया और पानी भी काम आ गया। तभी से इस स्थान को देवाजी का ओटा के नाम से जानने लगे। देवाजी धुन के पक्के थे- पानी को व्यवस्था के लिए बिना किसी बाहरी मदद के उन्होंने अपने घर में ही एक 35 फीट कुई तैयार कर ली थी।
इसी तरह घर की जल निकासी को साइड में पाँच फीट गड्ढे खोदकर उसमें एकत्रित करने की परम्परा भी पश्चिमी मध्य प्रदेश के अनेक स्थानों पर देखने को मिलती है। निमाड़ क्षेत्र बुरहानपुर के पास साडंस गाँव में स्वाध्याय आन्दोलन के प्रणेता स्व. पांडुरंग शास्त्री आठवले के मार्गदर्शन में इस परम्परा को पुनजीर्वित किया गया। उन्होंने नारा दिया था- घर-घर के आगे ‘डाक्टर साहब’ होना चाहिए। ‘डाक्टर साहब’ याने सोख गड्ढे। यह नाम उन्होंने इसलिए दिया था- घर का पानी जब इधर-उधर जमा होता है तो उसमें मच्छर होते हैं। मलेरिया सहित अनेक संक्रामक रोग फैलते हैं।
यह पानी जमीन में रिसकर भूमिगत जल को भी बढ़ाता है। उनका कहना था कि यदि सोख गड्ढों में पानी जाता रहा तो आपको डाॅक्टर को बुलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, इसलिए इन्हें ही डाॅक्टर साहब के नाम से पुकारने लगे। गाँव वालों ने इस प्रयोग के सफल परिणाम देखे। आस-पास के खेतों में नमी भी बनी रहती है। पूरा घर का पानी फिर जमीन में! इस परम्परा को देवास के पानपाट में भी हमने देखा- वहाँ विभावरी संस्था से जुड़े कार्यकर्ता कहते हैं, गाँव वाले इस पानी को रोककर खुश हैं। यहाँ कहा जाता है कि पूरा पानी अब धरती में समा रहा है। साल भर में धरती के भीतर इन गड्ढों की वजह से एक ‘अदृश्य तालाब’ बन जाता है। मजाक में गाँव वाले इन गड्ढों को ‘ब्यूटीपार्लर’ भी कहते हैं, क्योंकि गाँव की गलियाँ सुंदर दिखने लगी हैं। कीचड़ और गंदगी गायब हो रही है!
इसी तरह मध्यप्रदेश के अनेक स्थानों पर बावड़ियों और चौपड़ों से पानी खींचकर सिंचाई व कुण्डों में एकत्रित करने की प्रणालियों को चड़स, मोठ और रहट के नाम से जाना जाता है। चड़स में चमड़े की थैलीनुमा रचना होती है, जबकि रहट में लोहे के डिब्बे लगे रहते हैं। इन्हें स्टैण्ड व रस्सी की सहायता से डालकर जलस्रोत से पानी निकाला जाता है। यह पानी पत्थरों से बनी एक रचना में उड़ेला जाता है, जिसे थाल या ठाणा कहा जाता है। यह पानी आस-पास बनी कुण्डियों में एकत्रित होता है। ये रचनाएँ प्रायः ऊँचाई पर बनी होती हैं। यहीं से पानी छोड़ा जाता है जो नालियों ने नेटवर्क से खेतों तक पहुँचाया जाता है। बिजली आने के पहले प्रायः सिंचाई इसी पद्धति से होती रही है।
........अनेक स्थानों पर समाज इन परम्पराओं को फिर आत्मसात करने के बारे में सोचने लगा है।
......शायद, पानी संचय के मामले में ‘पीछे लौटने’ में ही प्रगति निहित हो.....!!
मध्य प्रदेश में जल संरक्षण की परम्परा (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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