रामभजलो और कृत्रिम नदी

Submitted by Hindi on Sat, 10/24/2015 - 12:14
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‘मध्य प्रदेश में जल संरक्षण की परम्परा’ किताब से साभार

सेंधवा के किले की खाई पिछले 20 साल पहले तक बेहतर स्थिति में थी व जल संरक्षण के कारण आस-पास के अनेक क्षेत्रों के जलस्रोत जिन्दा रहा करते थे। इसमें किले के भीतर का कुआँ व अन्य जलस्रोत भी शामिल हैं। लेकिन वर्तमान स्थितियों में कतिपय लोगों ने जल संरक्षण परम्परा को बाधित कर रखा है।

मध्यप्रदेश की वर्तमान राजधानी भोपाल। ....और भोपाल की राजधानी किसी जमाने में इस्लामनगर हुआ करता था।

यहाँ एक कुण्ड से किले के भीतर का पूरा जल प्रबंधन-काफी दिलचस्प माना जाता है।...!

......लेकिन किले के बाहर भी इसी तरह की एक कहानी है.......!

.....यहाँ सदियों पहले-सत्ता पुरुषों और उनके ‘इंजीनियरों’ ने न होते हुए भी एक ‘कृत्रिम नदी’ तैयार कर दी थी...! साथ में है, इसी से मिलती-जुलती एक और कहानी- सेंधवा के किले की....!

भोपाल से 11 कि.मी. दूर, भोपाल-बेरसिया मार्ग पर बसी है- सदियों पुराने इतिहास को अपने में समेटे एक बस्ती। नाम है इस्लाम नगर। किले की दीवार के भीतर बस्ती भी है और महल भी। कहते हैं, यहाँ गौंड राजाओं ने राज किया सन 1405 में गौंड राजा नरसिंह देवड़ा के समय यह इलाका जगदीशपुरा के नाम से जाना जाता था। 1715 में देवरा चौहान नाम के राजा का राज था। सन 1715 में औरंगजेब की फौज के सिपहसालार अफगानी दोस्त मोहम्मद खान ने जगदीशपुरा पर अपना अधिकार कर लिया था। इसके बाद जगदीशपुरा का नाम बदलकर इस्लामनगर रख दिया गया। इसके बाद से भोपाल में नवाबों का राज शुरू हो गया था।

.....अब इस किले के भीतर महलों का जल प्रबंधन देखते हैं.....!

...... महल के एक किनारे सदियों पुराना एक अष्टकोणीय कुआँ बना हुआ है- इसमें अभी भी पानी रहता है। इसका नाम है ‘रामभजलो....!’ इस नाम के पीछे भी एक वर्षों पुरानी कहानी है। गाँव के मूल निवासी, इतिहास, जल प्रबंधन और पुरातत्व की जानकारी रखने वाले श्री रमाकान्त मालवीय कहते हैं- “यहाँ चड़स चलवाने वाले को बैलों के साथ दूसरे छोर तक बार-बार आना-जाना पड़ता था। किसी ने उसे सलाह दी कि इस काम के साथ यदि भगवान राम का नाम भजोगे तो तुम्हारा जीवन सुधर जाएगा। उसे यह पसंद आया। सो, वह आते-जाते जोर-जोर से बोलता था- रामभजलो...... रामभजलो....!! वह आदमी तो राम के दरबार में चला गया, लेकिन उसकी याद में अभी भी गाँव वाले इस क्षेत्र को ‘रामभजलो’ के नाम से ही पुकारते हैं। याने गाहे-बगाहे- ‘रामभजलो’ तो यहाँ अभी भी मुँह से निकलता ही रहता है।”

इस रामभजलो की दो विशेषताएँ हैं- इसकी अष्टकोणीय संरचना और इसके ऊपर दो मंजिला चड़स की व्यवस्था। दोनों मंजिलों पर अलग-अलग हौज बने हुए हैं। इसमें से एक हौज का कनेक्शन तो गार्डन, कुण्ड व फव्वारे के लिए था। दूसरे हौज का कनेक्शन महल के भीतरी क्षेत्रों में हमाम व अन्य कार्यों के लिए पानी की जरूरतों के लिए था। चड़स की थाल से पानी मोरियों के माध्यम से हौज में एकत्रित कर लिया जाता था। हौज से ताम्बे व मिट्टी के पाइप के माध्यम से पानी वितरण नीचे गार्डन में होता था। इस गार्डन में कुछ खूबसूरत कुण्ड बने हुए हैं। बीच में इसी सिस्टम से फव्वारे भी चलते थे। सबसे पहले टैंक से पानी पाइप के माध्यम से झरनेनुमा आकृति के ऊपर गिरता था। यह पत्थर की बनी हुई है। इस तरह की संरचना मांडव में नीलकण्ठेश्वर महादेव मंदिर और उज्जैन के कालियादेह महल में भी मिलती है। बीच में पुरातत्व विभाग ने इसमें रंगीन बल्ब भी लगाये थे- जो बाद में हटा दिए गए।

दरअसल, रियासतकाल में इस आकृति में बीच में रंगीन मोमबत्तियाँ जला दी जाती थीं। इनकी रोशनी में झरता पानी- एक खूबसूरत अंदाज में नजर आता था। इसके बाद पानी नालियों के माध्यम से नीचे बने कुण्डों को भर देता था। कुण्डों (हौज) का ओवर-फ्लो एक-दूसरे में चले जाता था। सामने की ओर भी यही सिस्टम था। इनका ओवर-फ्लो पानी अंततः महल के बाहर चला जाता था। श्री रमाकान्त मालवीय कहते हैं- “1954 में केन्द्रीय पुरातत्व विभाग ने बगीचे का जीर्णोद्धार किया था- तब नीचे तीन मंजिला भवन और निकला था....! पानी से भरे कुण्ड, बगीचा, फव्वारे, झरने- यह दृश्य अभी भी अच्छा लगता है तो उस वक्त की बात के क्या कहने- जब यह सम्पूर्ण रूप से अपने प्राकृतिक स्वरूप में था।”

महल के भीतर का जल प्रबंधन मांडव के शाही महलों जैसा है। यहाँ अलग-अलग नालियों से पानी सप्लाई होता था। गर्म पानी के लिए अलाव जलाकर फर्श को गर्म किया जाता था। गर्म व ठण्डे पानी की अलग-अलग नालियाँ हमाम में आकर मिलती हैं। तत्कालीन समय का बना- खड़े-खड़े नहाने का पत्थरों का एक टब भी बना हुआ है। उजाले के लिए यहाँ छत में काँच लगाए गए थे। यह प्रबंधन तत्कालीन समय में बिना किसी मोटर या पम्प के- अपनी जरूरतों के लिए पानी के स्व-संचालन की मिसाल रही है।

किले के चारों ओर एक तरह से ‘कृत्रिम नदी’ तैयार कर, अद्भुत तरीके से जल प्रबंधन किया गया है। सबसे पहले चारों ओर खाई बनाई गई। इसका मुख्य मक्सद दुश्मनों के आक्रमण के समय पानी से भरी खाई का इस्तेमाल सुरक्षा कवच के रूप में होता था।

श्री रमाकान्त मालवीय के अनुसार, इस संरचना में मगर भी छोड़े जाते थे, ताकि उनका भय भी नदी क्रॉस करने के दौरान रहे। यह 5 फीट से लगाकर तो कहीं-कहीं 40 फीट तक गहरी है। चौड़ाई भी 30-40 तक है।

..... किले के चारों ओर घिरी इस खाई में पानी आखिर आया कहाँ से?

..... खाई दो हिस्सों में है- जो नहरों के माध्यम से आपस में जुड़ी है। इसके एक हिस्से में पानी भोपाल के छोटे तालाब से नहर बनाकर लाया गया, जबकि दूसरे हिस्से में पूर्व में बेस व वर्तमान में हलाली नदी में पानी काटकर लाया गया। छोटे तालाब से आया पानी वाला हिस्सा पातरा नदी व हलाली से आया पानी- बागुआ नाला कहलाता है। इन दोनों हिस्सों के बीच प्रबंधन का एक बेहतर तरीका- वर्षों पहले दूर से पानी लाने वाले ‘इंजीनियरों’ ने ईजाद कर लिया था- जो आज भी उनकी सामान्य तकनीकी समझ से बड़े प्रबंधन की मिसाल पेश करता है। किले के मुख्य गेट के सामने दोनों ओर की नहरें मिलती हैं। इसमें सिस्टम यह है कि जिस साइड में भी पानी का लेबल कम होगा- दूसरी साइड का पानी उसे आकर बराबर कर देगा। किले के पीछे की ओर दोनों संरचनाओं में बंधान बने हुए है, जो नाली संरचना के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।

मध्यप्रदेश के ख्यात भूजलविद और पारम्परिक जल संरचनाओं को लेकर चिन्तित श्री के.जी. व्यास तथा श्री रमाकांत मालवीय उसे यूँ कहते हैं- यहाँ का जल प्रबंधन स्पष्ट है- दो केनाल हैं, जो दोनों अलग-अलग स्रोतों से आती हैं। दोनों में ऐसी व्यवस्था है कि एक सिस्टम से जब पानी आना शुरू होता है तो उसे उसके अन्तिम बिन्दु पर रोका जाता है। रोकने की व्यवस्था गेट लगाकर की गई है। ऐसा करने से पानी का स्तर बढ़ना प्रारम्भ हो जाता है। निश्चित ऊँचाई पर पहुँचने के बाद यदि सामने वाले स्रोत में पानी का लेबल कम हुआ तो गेट खोलने के बाद यह पानी वहाँ जाकर मिल जाएगा और जब इसमें लेबल कम होगा तथा दूसरी खाई का लेबल ज्यादा है तो गेट खोलने पर पानी पहली संरचना में आकर मिल जाएगा। दोनों में पानी सरप्लस होने से बीच की नाली का हिस्सा मुख्य नदी में जाकर पानी छोड़ देता है।

पानी के दो स्रोत इसलिए रखे कि एक स्रोत गड़बड़ाने से दूसरे स्रोत से काम चलाया जा सके।

श्री रमाकान्त मालवीय कहते हैं- “क्षेत्र में ट्यूबवेल बहुतायत में खुदने की वजह से पानी उपलब्धता पहले जैसी नहीं रही है, लेकिन 25 साल पहले इस्लामनगर में भूमिगत जल की स्थिति इतनी बेहतर थी कि 20 फुट खुदाई में ही पानी मिल जाता था।”

आखिर इसका राज क्या रहा होगा?

दरअसल, सदियों पहले ही इस्लामनगर में बसे पुरखों ने इतनी पुख्ता व्यवस्था कर दी थी....!

..... दूर से पानी को खाइयों में लाकर संरक्षित करना भी सम्भवतः ‘रामभजलो’ कुएँ की जिंदादिली का मूल आधार रहा होगा- और अकेले रामभजलो ही क्यों, अनेक बावड़ियाँ और दूसरे कुएँ भी इससे लाभान्वित होते रहे होंगे!

इसी तरह बड़वानी जिले के सेंधवा का किला- जल संरक्षण की भूली-बिसरी यादों को अभी भी दिखा सकता है। इतिहासकारों का मानना है कि यह विशाल किला परमारकालीन रहा है, जबकि कतिपय मतावलम्बियों के अनुसार होलकर शासकों ने इसका जीर्णोद्धार नहीं, निर्माण कराया था। खैर, यह एक अलग शोध का विषय हो सकता है। बहरहाल, किले के बाहर व भीतर जल संरक्षण परम्परा की उम्दा तस्वीर मौजूद रही है। किले के उत्तर-पूर्व में एक कुण्ड-नुमा तालाब अभी भी पानी से भरा रहता है। इसी के पास प्रचीन शिव मंदिर है। मंदिर के पास एक प्राचीन बावड़ी भी मौजूद है। इसी तरह किले के पश्चिम-दक्षिण में एक तालाब मौजूद रहा है।

किले को चारों ओर से गहरी खाई से घेरा गया था। इतिहासकारों के मुताबिक किले के मुख्य द्वार याने दक्षिण दिशा की खाई को कालान्तर में बोर दिया गया, जिसके पास से ही रास्ता निवाली रोड की ओर जाता है। किले के तीन ओर अभी भी खाई को देखा जा सकता है। पूर्व वाले रास्ते में पानी सारंग सेरी नाले से व पश्चिम वाले भाग में पानी मोतीबाग से गुजर रहे नाले से लाया जाता रहा होगा। सेंधवा के इतिहासकार और भूगोल के प्रोफेसर डाॅ. के.आर. शर्मा और स्थानीय पत्रकार गजानंद मंगल कहते हैं- “सेंधवा के किले की खाई पिछले 20 साल पहले तक बेहतर स्थिति में थी व जल संरक्षण के कारण आस-पास के अनेक क्षेत्रों के जलस्रोत जिन्दा रहा करते थे। इसमें किले के भीतर का कुआँ व अन्य जलस्रोत भी शामिल हैं।” लेकिन वर्तमान स्थितियों में कतिपय लोगों ने जल संरक्षण परम्परा को बाधित कर रखा है। यह खाई पानी संचय परम्परा के साथ-साथ महिदपुर और इस्लामनगर की तरह किले की सुरक्षा में भी महती भूमिका अदा करती रही होगी।

..... सामरिक दृष्टि के साथ-साथ जल संरक्षण के लिए एक ‘कृत्रिम नदी’ को किले के चारों ओर फैला देना- कितनी दूरदृष्टि थी- सदियों पहले.....!

इस्लामनगर और सेन्धवा में पानी का इस तरह इस्तकबाल करने वालों को सलाम.....!

 

मध्य  प्रदेश में जल संरक्षण की परम्परा

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

जहाज महल सार्थक

2

बूँदों का भूमिगत ‘ताजमहल’

3

पानी की जिंदा किंवदंती

4

महल में नदी

5

पाट का परचम

6

चौपड़ों की छावनी

7

माता टेकरी का प्रसाद

8

मोरी वाले तालाब

9

कुण्डियों का गढ़

10

पानी के छिपे खजाने

11

पानी के बड़ले

12

9 नदियाँ, 99 नाले और पाल 56

13

किले के डोयले

14

रामभजलो और कृत्रिम नदी

15

बूँदों की बौद्ध परम्परा

16

डग-डग डबरी

17

नालों की मनुहार

18

बावड़ियों का शहर

18

जल सुरंगों की नगरी

20

पानी की हवेलियाँ

21

बाँध, बँधिया और चूड़ी

22

बूँदों का अद्भुत आतिथ्य

23

मोघा से झरता जीवन

24

छह हजार जल खजाने

25

बावन किले, बावन बावड़ियाँ

26

गट्टा, ओटा और ‘डॉक्टर साहब’