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‘मध्य प्रदेश में जल संरक्षण की परम्परा’ किताब से साभार
डबरी का लाभ प्रत्यक्ष रूप से तो उस किसान को मिलता है, जिसने अपने खेत में डबरी खोदी है, लेकिन परोक्ष लाभ उन लोगों को भी मिलता है, जिन्होंने जल संवर्धन का कोई भी कार्य न किया हो। यदि किसी गाँव में 100 डबरियाँ बना ली गई हैं तो इसका फायदा उस किसान को भी मिलेगा, जिसने अपने कुएँ का न तो पुनर्भरण किया है और न ही ट्यूबवेल का। लेकिन, गाँव की डबरियों से पानी रिसकर उसके कुएँ अथवा ट्यूबवेल तक अवश्य जाएगा।
.....आज हम आपको डबरियों की रोचक कहानी सुनाएँगे! मध्यप्रदेश का भूगोल विविधता लिए हुए है। अलग-अलग स्थानों पर परम्परागत जल प्रबंधन के तरीके भी अलग-अलग रहे हैं। अपने खेतों में पानी रोकने की परम्पराएँ महाकौशल और विंध्य क्षेत्र में हवेली, मोधा, बाँध और बंधिया के नाम से जानी जाती हैं। जहाँ तक मालवा का सवाल है- यहाँ ‘विरासत’ में पानी की काफी समृद्धता रही है। चुटकियों के साथ कई बुजुर्ग आपको यह कहते मिल जाएँगे कि पुराने जमाने में मालवा के किसान करते क्या थे- “बीज खेतों में डालकर चले आते थे। फिर कहीं घूमने-फिरने चले जाते। आते और फसल काट लेते।” यहाँ के परमपरागत भोजन दाल-बाफले की लोकप्रियता के बारे में भी यही मान्यता रही है कि इसे खाने के बाद मस्त नींद आती है। इन सबका राज एक ही था- ‘पानी की प्रचुरता।’ यहाँ पानी की उपलब्धता के बारे में पुरानी कहावत भी मशहूर है- ‘मालव माटी गहन गम्भीर, पग-पग रोटी, डग-डग नीर।’धीरे-धीरे पानी रूपी ‘सोने की चिड़िया’ मालवा से फुर्र होने लगी। हालात चौंकाने वाले हो गए। रेगिस्तान के दस्तक के लक्षण साफ दिखाई देने लगे। जंगल खत्म हुए। नदियाँ सूखी रहने लगीं। ट्यूब की ‘खतरनाक क्रांति’ ने यहाँ हजारों सालों से इकट्ठा धरती माता का पानी भी उलीचकर रख दिया। उज्जैन से 21 किलोमीटर हरनावदा के पानी आन्दोलनकारी श्री गणेशीलाल पाण्ड्या कहने लगे। “सन 1968 में यहाँ पहली बार खेत का पानी रोकने की विधिवत कोशिश की गई थी। मध्यप्रदेश सरकार ने इस गाँव का चयन मेढ़बंदी के सरकारी अभियान के लिए किया। मक्सद था- मिट्टी और पानी का संरक्षण खेतों में ही किया जाए।” इनके पिता स्व. मोतीलाल पाण्ड्या ने इस आन्दोलन में महती भूमिका अदा की थी। पाण्ड्या परिवार के खेतों में तब की मेढ़बंदी आज भी देखी जा सकती है, लेकिन यह प्रयास भी बहुत असरकारी नहीं रहा।
मालवा क्षेत्र में कुछ इलाकों में यह परम्परा अवश्य रही है, जहाँ विशाल खेतों के एक हिस्से में बोवनी नहीं की जाकर उसे खाली छोड़ दिया जाता था। तब इसका मक्सद जल संरक्षण के साथ-साथ मवेशियों की प्यास बुझाने का भी रहा हैै। इन्हें स्थानीय भाषा में कहीं ‘डबरा’ तो कहीं ‘डबरी’ के नाम से जाना जाता रहा है। कुछ एक इलाकों में इन्हें ‘तलाई’ भी कहा जाता रहा है।
अभी हाल ही के वर्षों में उज्जैन में व्यवस्था ने ‘डबरी’ आन्दोलन की शुरुआत की। समाज ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और ‘महाआन्दोलन’ की शक्ल में यह अभियान बदल गया।
......उज्जैन जिले के गाँवों में हजारों डबरियाँ आज आकार ले चुकी हैं। यह खेतों की जल प्रबंधन की परम्परागत व्यवस्था का वर्तमान बन चुकी है। चंद उदाहरण आप जानना चाहेंगे?
.....नाम सज्जनसिंह। निवासी रानी पिपलिया। अकाल का साया। रबी का मौसम। इनकी ‘डबरी’ पानी से लबालब भरी है। 15 दिन से मोटर चल रही है, लेकिन पानी खुटने का नाम नहीं ले रहा है। इस डबरी की खासियत यह खुद तो जल संरक्षण कर ही रही है, लेकिन तालाब की आव की वजह से एक जलस्रोत की भूमिका में भी है।
.......लियाकत भाई। नरवर। अपने खेतों में 10 डबरियाँ बनाईं। इनकी दो सौ बीघा जमीन में 12 ट्यूबवेल हैं। ये पहले जनवरी में ही सूख जाया करते थे। अब मार्च तक पानी देने की स्थिति में हैं। इनके भतीजे जब्बार कहते हैं- “सूखे के बावजूद इन डबरियों की वजह से 100 बीघा जमीन सिंचित हो सकती है, जबकि डबरियों से पहले हम एक-चौथाई जमीन पर ही पानी दे पा रहे थे।”
.....डबरियाँ बनाने के बाद ऐसे सैकड़ों उदाहरण- जल संचय परम्परा की उम्दा मिसाल प्रस्तुत करते हुए आपको मिल जाएँगे।
.......अब हम डबरियों के तकनीकी पक्ष को जानें.......!
डबरी अभियान की पृष्ठभूमि के लिए आस्ट्रेलिया के जल संचय को जानना भी ठीक रहेगा। वहाँ प्रायः बड़े-बड़े किसान हैं। खेती के तरीके उन्नत हैं। आबादी कम है। खेती का प्रबंधन मशीन आधारित है। किसानों के पास बड़े स्रोत हैं। एक व्यक्ति के पास 200 से 600 हेक्टेयर तक भूमि है। यदि मध्यप्रदेश की बात करें तो 700 हेक्टेयर में तो पूरा गाँव सिमट जाता है। उसमें भी छोटे खातेदारों की संख्या ज्यादा होती है। लेकिन, आस्ट्रेलिया में एक किसान उतना उत्पादन करता है, जितना मध्य प्रदेश के एक गाँव के सारे किसान करते हैं। यह विषमता है। यह तय है कि एक व्यक्ति यदि 200 हेक्टेयर क्षेत्र में पानी का प्रबंधन करेगा तो वह क्षेत्र आधारित प्रबंधन ही करेगा। सरकार वहाँ बड़ी नदी पर स्टाॅपडेम तो बना रही है लेकिन, दूसरी ओर व्यक्ति आधारित जल प्रबंधन भी बड़े पैमाने पर हो रहे हैं।
ये छोटी-छोटी संरचनाएँ यहाँ रिंग पौंड के रूप में जानी जाती हैं। मध्य प्रदेश के सीधी जिले में भी यह देखा गया कि वहाँ की बसाहट भी आस्ट्रेलिया के समान ही है। अधिकतर किसानों ने अपने खेत पर ही मकान बना रखे हैं। अलग-अलग, दूर-दूर बसाहटों में लोग बसे हुए हैं। कुछ गाँव तो 7 कि.मी. क्षेत्र में फैले हुए हैं। एक घर यहाँ है तो दूसरा दो कि.मी. दूर है। यहाँ पर भी इकाई स्तर पर जल प्रबंधन एक जरूरत है। आस्ट्रेलिया के रिंग पौंड की तर्ज पर यहाँ भी डबरी की अवधारणा पर चर्चा व अमल प्रारम्भ किया गया। परम्परागत रूप से कुछ किसान इस तरह की संरचनाओं को पहले से भी अपनाते रहे हैं।
डबरी मोटे तौर पर 66 फीट लम्बी, 33 फीट चौड़ी व 5 फीट गहरी होती है। स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर इसका आकार थोड़ा छोटा अथवा बड़ा हो सकता है। डबरी के साथ अहम मुद्दा इसकी लागत का भी है। यदि किसी व्यक्ति से कहा जाए कि वह जल संचय के लिए एक स्टाॅपडेम बना लें तो यह उसके आर्थिक सामर्थ्य से बाहर की बात होगी, लेकिन डबरी बनाने की बात पर वह आसानी से सहमत हो जाएगा। स्टाॅपडेम की लाखों की लागत के मुकाबले एक डबरी में उसे सात हजार सात सौ रुपये का ही व्यय आएगा।
डबरी में पानी भरने के रास्ते का उपचार भी जरूरी है। इसमें महँगा साधन अपनाने की जरूरत नहीं है। यदि आस-पास पत्थर हैं तो इनकी भी दीवार बनाई जा सकती हैै। पत्थर नहीं उपलब्ध होने पर गंवारपाठा लगाया जा सकता है। यानी, कोई न कोई उचित हरित अवरोध भी काम में लिया जा सकता है। इससे मिट्टी डबरी में पानी के साथ नहीं आएगी। ऐसा न करने पर मिट्टी की वजह से डबरी की जल ग्रहण क्षमता पर असर पड़ेगा। अचानक ज्यादा वर्षा होने पर डबरी से पानी की निकासी का रास्ता भी होना चाहिए। यह पानी डबरी की पाल के साथ बिना किसी तरह की छेड़खानी के निकलना चाहिए। डबरी की पाल पर देशी घास की बुआई होनी चाहिए। यह पाल को मजबूत करेगी। डबरी की पाल पर फलदार पौधे भी लगाए जाने चाहिए। यह इसकी मजबूती के अलावा आर्थिक सम्बल भी प्रदान करेंगे। एक पौधे से 4 साल बाद एक हजार रुपये प्रति साल की आय होती है। 8 पौधे लगाने पर आँकड़ा 8000 रुपये तक पहुँच सकता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र में तो डबरियाँ उत्पादक-संरचना की भूमिका में भी होती हैं। जब डबरियों में डेढ़ फीट पानी रह जाता है तो उनमें धान की पैदावार करते हैं।
डबरी का गणित बड़ा ही रोचक होता है। एक डबरी का आकार 300 घन मीटर यानी 11 हजार घन फीट के आस-पास। जून के अंत अथवा जुलाई के पहले हफ्ते में ही डबरी एक बार भर जाती है। इसमें तीन लाख लीटर पानी समाता है। यह पानी जमीन के भीतर प्रवेश कर जाता है। जुलाई के बाद की वर्षा में भी ऐसा ही होता है। सितम्बर के अंतिम अथवा अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक यह औसतन तीन बार पूरा पानी पी चुकी होती है और चौथी बार भरी रहती है। यह पानी काफी समय तक डबरी में रहता है। यानी, 9 लाख लीटर पानी तो समा जाता है और 3 लाख लीटर डबरी में भरा रहता है।
इस तरह एक डबरी में कुल 12 लाख लीटर पानी समाता है। लागत से इस पानी का गणित जोड़ें तो पाते हैं कि डबरी बनाने में किसान का श्रम मिलाकर जो खर्चा होता है, वह 7,700 रुपये आता है। 7,700 रुपये में यदि 12 लाख का भाग दें तो सीधा गणित है कि एक लीटर पानी एकत्रित करने में एक पैसे का छठवां हिस्सा ही लगता है। पानी संचय के लिए इससे सस्ता काम क्या हो सकता है? यदि पॉलीथीन के पैकेट में एक लीटर पानी एकत्रित किया जाए तो लागत 5 पैसे से ज्यादा आती है, जबकि डबरी के पानी की लागत एक पैसे का छठवां हिस्सा होती है। यदि टैंकरों से तुलना करें तो 12 हजार लीटर का एक टैंकर होता है। 12 लाख लीटर के 10 टैंकर का पानी इसमें समाता है, जो कि व्यर्थ बहकर जाता रहता है। हमारा भू-जल रिजार्च करने के लिए इससे बढ़िया कोई उपकरण नहीं है।
ट्यूबवेल से पानी तो हर कोई निकाल लेता है, लेकिन जमीन में पुनः भरण के लिए कोई नहीं सोचता। डबरियों का पानी जमीन में जाने पर ट्यूबवैल पुनः रिचार्ज हो जाते हैं। सामान्यतः तीन फीसदी वर्षा-जल ही प्राकृतिक संरचनाओं की वजह से नीचे समाता है, बाकी जल नालों, नदियों से होता हुआ समुद्र में चला जाता है। लेकिन, डबरियाँ ही सही मायनों में गाँव का पानी गाँव में और खेत का पानी खेत में रोकने में सक्षम रहती हैं।
डबरी का लाभ प्रत्यक्ष रूप से तो उस किसान को मिलता है, जिसने अपने खेत में डबरी खोदी है, लेकिन परोक्ष लाभ उन लोगों को भी मिलता है, जिन्होंने जल संवर्धन का कोई भी कार्य न किया हो। यदि किसी गाँव में 100 डबरियाँ बना ली गई हैं तो इसका फायदा उस किसान को भी मिलेगा, जिसने अपने कुएँ का न तो पुनर्भरण किया है और न ही ट्यूबवेल का। लेकिन, गाँव की डबरियों से पानी रिसकर उसके कुएँ अथवा ट्यूबवेल तक अवश्य जाएगा।
....अपने खेतों के हिस्से में पानी को रोकना-मालवा तथा विंध्य की इस परम्परा को समाज ने पुनः शुरू कर पानी के इतिहास को वर्तमान बनाने की कोशिश की है.....!
मध्य प्रदेश में जल संरक्षण की परम्परा (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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