मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से सटे सीहोर, अशोकनगर, रायसेन, गुना, राजगढ़ और विदिशा जिले में बहने वाली 32 नदियों में से केवल पाँच नदियों में थोड़ा-बहुत प्रवाह बचा है। रायसेन और विदिशा जिले की जीवनरेखा कही जाने वाली बारहमासी बेतवा नदी मार्च के पहले सप्ताह में ही अपने मायके में सूख गई है।
यह पहला मौका है जब औसत (109 मिलीमीटर) से अधिक (139 मिलीमीटर) पानी बरसने के बाद भी, गर्मी के मौसम के दस्तक देने के पहले ही, भारत के मध्य क्षेत्र में बहने वाली, गंगा नदी कछार की इतनी सारी नदियों को जल अभाव का सामना करना पड़ रहा है। यह संकेत अच्छा नहीं है।
गौरतलब है कि बेतवा नदी की देशव्यापी पहचान प्रस्तावित केन-बेतवा लिंक योजना के कारण है। लगभग 590 किलोमीटर लम्बी इस नदी का उद्गम मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के झिरी ग्राम से है।
गौरतलब है कि बेतवा का उसके प्रारम्भिक मार्ग में ही मार्च के पहले सप्ताह में सूखना, आने वाले दिनों की हकीकत का संकेत है। इसके अलावा पार्वती-कालीसिंध-चम्बल नदीजोड़ योजना की पार्वती नदी सीहोर, गुना, राजगढ़ जिलों में सूखने के कगार पर है। वही हाल कालीसिंध नदी का है जो राजगढ़ और विदिशा में अपना प्रवाह खो रही है।
उपर्युक्त संकेतों की हकीकत को समझने के लिये भारत के मध्य क्षेत्र में स्थित पहाड़ी नदी तंत्र और इलाके की कुछ बुनियादी बातें जानना बेहतर होगा। इसके लिये, उदाहरण के बतौर अगले हिस्से में बहुचर्चित बेतवा से जुड़ी कुछ बुनियादी बातों को समझने का प्रयास किया जा रहा है।
बेतवा और उसकी सहायक नदियों का उद्गम विन्ध्याचल पर्वत की पहाड़ियों से है। उनके उद्गम का प्रारम्भिक भाग पहाड़ी है और कठोर बलुआ पत्थर से बना है। नदियाँ जैसे-जैसे आगे बढ़ती हैं, जमीन का ढाल घटता है। बलुआ पत्थर का स्थान, बेसाल्ट की काली चट्टानें ग्रहण करती हैं। बेसाल्ट के साथ ही काली मिट्टी शुरू होती है।
इन सभी चट्टानों में भूजल को सहेजने वाले परत (एक्वीफर) की मोटाई सामान्यतः बहुत ही कम होती है। उसकी पानी उपलब्ध कराने की ताकत भी कम होती है। वह परत, मोटाई के कम होने के कारण, बरसात के दिनों में बहुत जल्दी भर जाती है और सीमा से अधिक पानी निकालने की स्थिति में बहुत जल्दी रीत भी जाती है।
इस हकीकत के बावजूद, कुछ साल पहले तक बेतवा और उसकी सहायक नदियों में साल भर पर्याप्त पानी बहता था। प्रवाह की निरन्तरता ने भ्रम पैदा किया और सभी लोग भूल गए कि ऐसे इलाकों में जमीन के नीचे के पानी की निकासी बहुत सोच समझ कर की जाना चाहिए। वे भूल गए कि ऐसी भूल कालान्तर में त्रासद हो सकती है। नदी-नाले, कुएँ, तालाब और नलकूप असमय सूख सकते हैं।
बेतवा और उसकी सहायक नदियों के मैदानी इलाके में पहुँचते ही गेहूँ का इलाका प्रारम्भ हो जाता है। यह इलाका पूरे देश में गेहूँ के उत्पादन के लिये जाना जाता है।
उल्लेखनीय है कि लगभग 50 साल पहले तक इस इलाके में मुख्यतः सूखी खेती की जाती थी पर 1960 के बाद के सालों में कुओं और नलकूपों के बढ़ते प्रचलन के कारण इस इलाके की खेती में बदलाव आया। परम्परागत सूखी खेती धीरे-धीरे खत्म हुई और अधिक पानी चाहने वाले बीजों पर आधारित उन्नत कृषि पद्धति को बढ़ावा मिला।
भूजल के बढ़ते उपयोग के कारण सिंचाई बढ़ी और सिंचित रकबे में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। सन 2012 के भूजल उपयोग के आँकड़ों के अनुसार रायसेन, भोपाल और विदिशा जिलों में भूजल के उपयोग का स्तर 51, 51 तथा 81 प्रतिशत हो गया है। यह उल्लेखनीय बदलाव था।
बेतवा नदी तंत्र की कुछ नदियों का प्रारम्भिक मार्ग मण्डीद्वीप के औद्योगिक क्षेत्र से गुजरता है। जाहिर है, उद्योगों को बड़ी मात्रा में पानी चाहिए। उनमें काम करने वाली आबादी को पानी चाहिए। बेतवा के मामले में इस जरूरत को पूरा करने की जिम्मेदारी उस इलाके में मिलने वाले भूजल की ही है।
इस आवश्यकता के कारण इस इलाके में भूजल को खेती के साथ-साथ उद्योगों की भी आवश्यकता को पूरा करना होता है। यह स्थिति भूजल स्तर को गिराने में अतिरिक्त सहायता पहुँचाती है। खेती और उद्योगों की माँग को पूरा करने के कारण भूजल के स्तर के गिरने की दर बढ़ जाती है। पिछले सालों में भूजल रीचार्ज की अनदेखी हुई इसलिये गिरावट को कम नहीं किया जा सका और जो स्थिति जून में आनी चाहिए थी, वह इस साल मार्च में ही आ गई।
बेतवा नदी तंत्र के इलाके में औद्योगिक अवशिष्ट की आधे-अधूरे निपटान की भी समस्या है। इस समस्या के कारण मण्डीद्वीप के औद्योगिक क्षेत्र के निकट बेतवा का पानी लगभग अनुपयोगी हो चुका है। इसके अलावा, मण्डीद्वीप के आगे इस्लामनगर में बेतवा को पातरा नाला मिलता है। इस नाले का उद्गम भोपाल के छोटे तालाब से है। यह नाला भोपाल नगर की बहुत सारी अनुपचारित गन्दगी ढोता है। इस प्रकार बेतवा नदी का पानी सीधे-सीधे या सहायक नदियों के कारण लगातार गन्दा हो रहा है और अनुपयोगी हो रहा है।
बेतवा नदी तंत्र का प्रारम्भिक मार्ग तेजी से विकसित हो रहे नगरों के पास स्थित है। भोपाल, मण्डीद्वीप और ओबेदुल्लागंज में अनेक नई नई आवासीय कालोनियों का निर्माण हो रहा है। इन इलाकों को भवन निर्माण के लिये बहुत बड़ी मात्रा में पत्थर और रेत चाहिए। ढुलाई व्यय को कम-से-कम रखने के कारण बेतवा नदी तंत्र की रेत का खनन सस्ता पड़ता है। उसके सस्ते होने के कारण, अनेक लोग निर्माण कार्यों में बेतवा और उसकी सहायक नदियों की रेत की माईनिंग करते हैं।
रेत की अवैज्ञानिक निकासी के कारण नदियों की पानी की गति को नियंत्रित करने वाली तथा जमा रखने वाली परत खत्म हो जाती है। संचित पानी का योगदान कम हो जाता है। नदी तंत्र को पानी मिलना कम हो जाता है। प्रवाह घटने लगता है। यही बेतवा और उसकी सहायक नदियों के प्रारम्भिक मार्ग में घट रहा है।
यह समस्या धीरे-धीरे विकराल हो रही है। समाधान के अभाव में आने वाले सालों में बेतवा नदी के अगले हिस्से भी सूखेंगे। यह स्थिति इलाके की खेती, पेयजल आपूर्ति और उद्योगों के लिये अच्छी नहीं होगी। गौरतलब है, यह स्थिति दबे पाँव नहीं आई है। इसके संकेत पिछले कुछ सालों से दिख रहे हैं। यह बेतवा नदी तंत्र की चेतावनी है। यही भारत के मध्य क्षेत्र की सूखती नदियों का सन्देश है।
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