भारतीय पर्यावरण कानून और जलवायु परिवर्तन

Submitted by Shivendra on Wed, 01/21/2015 - 16:15
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योजना, अप्रैल 2010
जलवायु परिवर्तन से संवैधानिक स्तर पर अनेक चुनौतियाँ मिल रही हैं। वर्तमान में भारत में जलवायु परिवर्तन पर कोई पृथक कानून नहीं है। जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए विकास गतिविधियों पर रोक लगाने वाले कानून का निर्माण इस समय कोई जरूरी भी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन आधारभूत सन्धि में निहित और अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण कानून में सम्मिलित समानता और सामान्य किन्तु विभेदीकृत उत्तरदायित्व का सिद्धान्त भारत जैसे विकासशील देश की अपने अरबों दरिद्र नागरिकों के विकास के अधिकारों को सुनिश्चित करने की आवश्यकता को स्वीकार करता है। भारत में पर्यावरण कानून काफी समृद्ध और विकसित है। भारतीय संविधान विश्व के उन गिने-चुने संविधानों में से एक है, जिनमें पर्यावरण संरक्षण के प्रावधान भी दिए गए हैं। 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के जरिए संविधान में जोड़ी गई धाराओं 48ए और 51ए (जी) के अन्तर्गत पर्यावरण संरक्षण का दायित्व राज्य और उसके नागरिकों पर डाला गया है। परन्तु भारतीय पर्यावरण कानून का विकास टुकड़ों में हुआ है और यह अन्य कुछ घटनाक्रमों के फलस्वरूप प्रवर्तित हुआ है।

भारतीय पर्यावरण कानून के विकास के पीछे तीन घटनाओं की प्रमुख भूमिका रही है। स्टाॅकहोम में 1972 में हुए संयुक्त राष्ट्र मानवीय पर्यावरण सम्मेलन ने पर्यावरण के क्षेत्र में अनेक कानूनों के निर्माण को दिशा प्रदान की। जल अधिनियम, वायु अधिनियम, वन संरक्षण अधिनियम और पर्यावरण से सम्बन्धित प्रावधानों को संविधान में सम्मिलित करना, इसके कुछ ज्वलन्त उदाहरण हैं।

भोपाल में 1984 में घटित गैस त्रासदी से भारतीय वैधानिक प्रणाली की अनेक खामियाँ सामने आईं। इस त्रासदी से पीड़ित लोग अमरीका और भारत की अदालतों में जो लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं, वे इसी बात को साबित करती हैं। त्रासदी के फलस्वरूप अनेक कानून बनाए गए, जिनमें 1988 का पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।

रियो सम्मेलन, जो वर्ष 1993 में हुआ, उससे भी भारत के पर्यावरण परिदृश्य में कुछ वैधानिक हरकत होती दिखाई दी। जैव विविधता अधिनियम, 2002 सम्मेलन में अपनाए गए जैव विविधता अभिसमय (कन्वेंशन) को क्रियान्वित करने के लिए बनाया गया था।

विभिन्न कानूनों और संवैधानिक प्रावधानों को गिनाने भर से भारतीय पर्यावरण कानून के सार को समझा नहीं जा सकता। भारत की न्यायपालिका ने भी देश में पर्यावरणीय विधिशास्त्र को सुदृढ़ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। जनहित याचिकाओं (पीआईएल) ने सृजनात्मक और कल्पनाशील न्यायाधीशों के हाथों में पड़कर पर्यावरण के क्षेत्र में न्याय प्रदान करने में प्रभावी साधन के तौर पर काम किया है।

पर्यावरण के संरक्षण के लिए न्यायपालिका ने अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। प्रदूषक को भुगतान करने का सिद्धान्त, सावधानी सिद्धान्त, पूर्ण दायित्व का सिद्धान्त, सम्पोषणीय विकास की अवधारणा और पीढ़ियों के बीच समानता का सिद्धान्त जैसे नए सिद्धान्तों और अवधारणाओं का उपयोग कर न्यायालयों ने आलस्यमयी कार्यपालिका को झकझोर कर अनेक पर्यावरणीय संकटों में हस्तक्षेप किया।

ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायपालिका पर्यावरण के क्षेत्र में ही सबसे सक्रिय भूमिका निभा रही है। नदियों की सफाई, स्मारकों का पुनरुद्धार, खतरनाक पदार्थों से होने वाले प्रदूषण की सफाई, नदियों की धाराओं में आए परिवर्तन का अपने मूलस्वरूप में बहाली, वनों का संरक्षण और शहरों में वाहनों से प्रदूषण की समस्या के निराकरण का आदेश देकर न्यायालयों ने सुपर प्रशासक से लेकर नीति-निर्माता तक की अनेक भूमिकाएं निभाई हैं।

जलवायु परिवर्तन से संवैधानिक स्तर पर अनेक चुनौतियाँ मिल रही हैं। वर्तमान में भारत में जलवायु परिवर्तन पर कोई पृथक कानून नहीं है। जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए विकास गतिविधियों पर रोक लगाने वाले कानून का निर्माण इस समय कोई जरूरी भी नहीं है।

संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन आधारभूत सन्धि में निहित और अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण कानून में सम्मिलित समानता और सामान्य किन्तु विभेदीकृत उत्तरदायित्व का सिद्धान्त भारत जैसे विकासशील देश की अपने अरबों दरिद्र नागरिकों के विकास के अधिकारों को सुनिश्चित करने की आवश्यकता को स्वीकार करता है।

प्रतिव्यक्ति आधार का तर्क भी भारत के पक्ष में ही है, क्योंकि वर्ष 1994-2007 की अवधि में अमरीका के 128.7 टन की तुलना में भारत में प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन मात्रा 5.7 टन ही था। परन्तु इन सब बातों से इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत ग्रीनहाउस गैसों के पाँच प्रमुख उत्सर्जक देशों में से एक है।

यह तथ्य कि निर्धन और कमजोर वर्ग, जिनकी संख्या के दम पर ही प्रतिव्यक्ति अल्प उत्सर्जन का तर्क आधारित है, जलवायु परिवर्तन में कोई उल्लेखनीय भूमिका नहीं निभाते, बल्कि इसके नकारात्मक प्रभावों के प्रति वे सर्वाधिक संवेदनशील होते हैं, राष्ट्रीय स्तर पर समानता के गम्भीर मुद्दों को जन्म देता है। व्यक्ति के सम्मान को सुनिश्चित करने का प्रयास करने वाली वैधानिक प्रणाली को इस समस्या से गम्भीर रूप से निपटना होगा।

ऐसे कुछ वैधानिक, नियामक और नीतिगत आधारभूत सिद्धान्त हैं जिनका उपयोग जलवायु परिवर्तन के शमन के लिए किया जा सकता है। ऊर्जा के किफायती इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए निर्मित ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2001 और नवीकरण (अक्षय) ऊर्जा के एक निश्चित प्रतिशत की अनिवार्य खरीदी का शासनादेश देने वाली राष्ट्रीय आयात शुल्क नीति, 2006 शमन प्रयासों के महत्वपूर्ण साधन हैं।

राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्रवाई योजना एक महत्वपूर्ण नीति विषयक दस्तावेश है जो भारत में शमन और अनुकूलन प्रयासों को दिशा प्रदान करता है।

इनके अतिरिक्त भारतीय पर्यावरणीय विधिशास्त्र की अनेक अवधारणाओं का उपयोग जलवायु परिवर्तनजनित चिन्ताओं के निराकरण के लिए किया जा सकता है। सावधानी का सिद्धान्त/दृष्टिकोण वह आधारशिला है जिस पर यूएनएफसीसी और क्योटो समझौता टिका हुआ है।

सावधानी का सिद्धान्त कहता है कि जहाँ गम्भीर और अपरिवर्त्य क्षति का खतरा हो वैज्ञानिक निश्चितता के अभाव को पर्यावरणीय विकृति को रोकने के उपायों को टालने के कारण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए। भारतीय न्यायालयों के अनेक निर्णयों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सावधानी का सिद्धान्त भारतीय कानून का ही एक हिस्सा है।

भारत के विशिष्ट सन्दर्भ में, सावधानी का सिद्धान्त सरकारों पर अतिरिक्त उत्तरदायित्व डालता है। अमल में लाए जाने वाले पर्यावरणीय उपायों में पर्यावरणीय क्षति के कारणों का पूर्वानुमान लगाना, उनसे बचाव करना और उन पर हमला करना आवश्यक रूप से शामिल होना चाहिए। सावधानी का सिद्धान्त सबूत का भार किसी और पर डाल देता है।

वैश्विक स्तर पर जलवायु पविर्तन सम्बन्धी विधिशास्त्र में हाल के दिनों में जो प्रगति हुई है, उससे राष्ट्रीय स्तर पर चुनौतियाँ और बढ़ गई हैं। हाल के वर्षों में ऐसा साहित्य और अनेक ऐसे अधिकृत बयान सामने आए हैं जिनमें मानवाधिकारों के नजरिए से जलवायु परिवर्तन का विश्लेषण किया गया है। यह एक स्वागत योग्य परिवर्तन है जिसमें फोकस अब हटकर राज्यों से व्यक्तियों पर केन्द्रित हो गया है। इस दृष्टिकोण से जलवायु परिवर्तन कर्ताओं को राज्य सरकारों के बीच व्यापार का मंच नहीं बनाया जा सकता और जलवायु परिवर्तन अब केवल विज्ञान और राजनीति का विषय नहीं रह गया है। इस सिद्धान्त के तहत सबूत की जिम्मेदारी उद्योगपति, डेवलपर (भूखण्ड का विकास और निर्माण करने वाला व्यक्ति या कम्पनी) अथवा सम्बन्धित संस्था की होती है ताकि यह दिख सके कि उसके कार्य पर्यावरण के अनुकूल हैं (वेल्लूर सिटीजंस वेलफेयर फोरम बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, एफआईआर, 1996 एससी 2715)। प्रदूषक के भुगतान करने का सिद्धान्त एक और महत्वपूर्ण नियम है जो भारत में विकसित हो रहे जलवायु परिवर्तन विधिशास्त्र में केन्द्रीय भूमिका निभा सकता है।

प्रदूषक को भुगतान (हर्जाना) करने वाले सिद्धान्त का अर्थ है कि जोखिम भरे और खतरनाक गतिविधियों को अंजाम देने वाले व्यक्ति को उस व्यक्ति की क्षतिपूर्ति करनी होगी, जिसको उसके कार्यों से नुकसान हुआ हो, भले ही उस कार्य में उचित सावधानी बरती गई हो। (इण्डियन कौंसिल फाॅर एनवायरो- लीगल एक्शन बनाम यूनियम आॅफ इण्डिया, एआईआर 1996 एससी 1446)।

यह एक तथ्य है कि जीवन का अधिकार देने वाली भारतीय संविधान की धारा 21 का इस्तेमाल इन सिद्धान्तों को वैधानिक आधार देने के लिए किया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि कोई भी कानून अथवा प्रशासकीय (अधिशासी) उपाय की चालाकी उसे मात नहीं दे सकती।

वैश्विक स्तर पर जलवायु पविर्तन सम्बन्धी विधिशास्त्र में हाल के दिनों में जो प्रगति हुई है, उससे राष्ट्रीय स्तर पर चुनौतियाँ और बढ़ गई हैं। हाल के वर्षों में ऐसा साहित्य और अनेक ऐसे अधिकृत बयान सामने आए हैं जिनमें मानवाधिकारों के नजरिए से जलवायु परिवर्तन का विश्लेषण किया गया है। यह एक स्वागत योग्य परिवर्तन है जिसमें फोकस अब हटकर राज्यों से व्यक्तियों पर केन्द्रित हो गया है।

इस दृष्टिकोण से जलवायु परिवर्तन कर्ताओं को राज्य सरकारों के बीच व्यापार का मंच नहीं बनाया जा सकता और जलवायु परिवर्तन अब केवल विज्ञान और राजनीति का विषय नहीं रह गया है, बल्कि यह अनिवार्य रूप से एक ऐसी मानवीय प्रक्रिया है जो मानवीयकरण और प्रभाव को प्रदर्शित कर सकती है।

अमरीका के मानवाधिकार आयोग में वर्ष 2005 में अमरीका और कनाडा के इन्यूइट के एक गठबन्धन द्वारा यह तर्क देते हुए दायर की गई याचिका कि अमरीका इन्यूइट के मानवाधिकारों का हनन कर रहा है, जलवायु परिवर्तन को मानवाधिकारों से जोड़ने का पहला प्रमुख प्रयास था। यद्यपि आयोग ने यह याचिका नामंजूर कर दी थी, तथापि इसने जलवायु परिवर्तन के समग्र विषय को एक नया और अलग आयाम दिया।

मुख्य रूप से मालदीव के प्रयासों के कारण ही मानवाधिकार परिषद ने अपने 7/23 के संकल्प के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार पक्षों के विचारों को ध्यान में रखते हुए जलवायु परिवर्तन और मानवाधिकारों के बीच सम्बन्धों के बारे में विस्तृत अध्ययन करने का अनुरोध किया। ओएचसीआर की रिपोर्ट जनवरी 2009 में प्रकाशित हुई (ए/एचआरसी/10/61)। इसने पाया कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मानवाधिकारों के समस्त प्रभाव क्षेत्रों पर पड़ने की सम्भावना होती है।

इससे जीवन का अधिकार, समुचित भोजन का अधिकार, जल का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, समुचित आवास का अधिकार और आत्मनिर्णय का अधिकार विशेष रूप से प्रभावित होता है। रोचक बात यह है कि रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि कृषि, ईंधन उत्पादन जैसे कतिपय शमनकारी उपायों से भी मानवाधिकारों, विशेषकर भोजन के अधिकार पर विपरीत गौण प्रभाव पड़ सकता है। रिपोर्ट में महिलाओं, बच्चों और स्थानीय लोगों जैसे विशिष्ट समूहों के अधिकारों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर भी गौर किया गया है। परन्तु रिपोर्ट में कहा गया है कि इन अधिकारों को शुद्ध वैधानिक रूप से मानवाधिकारों का हनन नहीं कहा जा सकता।

इसे हनन का मामला मानने में जो संकोच दिखाया गया है उसके पीछे कार्य-कारण सम्बन्ध जैसे कुछ कठिन व्यावहारिक मुद्दे हैं। इसके साथ ही यह तथ्य भी है कि जलवायु परिर्वतन के प्रभाव भावी अनुमान ही होते हैं।किसी देश विशेष के ऐतिहासिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को किसी खास तरह के जलवायु परिवर्तन प्रभाव से जोड़ने वाले कार्य-कारण सम्बन्धों को अलग-अलग करना असम्भव है।

इसी प्रकार मानवाधिकार हनन का मामला तभी साबित होता है जब क्षति हो चुकी होती है अथवा होने को होती है। परन्तु जलवायु परिवर्तन के मामले में भविष्य में पड़ने वाले प्रभावों के पूर्वानुमान को ही प्रतिकूल प्रभाव कहा जाता है।

इस सबके बावजूद रिपोर्ट में कहा गया है कि मानवाधिकारों पर इनके प्रभावों का समाधान चिन्ता का एक प्रमुख कारण और अन्तरराष्ट्रीय कानून के तहत् एक दायित्व बना हुआ है। मानवाधिकारों और जलवायु परिवर्तन के बीच यह अन्तर्निहित मूलभूत सम्बन्ध भारत जैसे देश के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है। संविधान में दिए गए विभिन्न मौलिक अधिकारों पर जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव पर पहले से ही नजर रखी जा रही है।

भारतीय राज्य सत्ता के लिए मानवाधिकारों के परिप्रेक्ष्य में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को दूर करना एक संवैधानिक दायित्व बन गया है। जलवायु परिवर्तन, भारतीय पर्यावरणीय विधिशास्त्र में चौथे चरण की शुरुआत कर सकता है। मौजूदा स्थिति में यद्यपि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को सीमित करने वाले ऐसे किसी कानून को बनाने की शरूरत नहीं है, जिससे देश की आर्थिक प्रगति में बाधा आए।

तथापि पर्यावरण और मानवाधिकार विधिशास्त्र में अनेक ऐसी अवधारणाएँ विद्यमान हैं जिनमें सरकार की ओर से कार्रवाई को आवश्यक समझा गया है। यह भारत में विकसित हो रहे जलवायु परिवर्तन विधिशास्त्र का एक ऐसा आधार बन सकता है जिसमें विकास के प्रयासों से समझौता करने की कोई आश्यकता न हो, परन्तु साथ-ही-साथ पीढ़ियों के बीच और पीढ़ियों के भीतर समानता के व्यापक मुद्दों की ओर ध्यान दिया जा सके।

लेखका टेरी विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट आॅफ पाॅलिसी स्टडीज़ में प्राध्यापक हैं।

ई-मेल: mvshiju@tere.res.in