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यूँ तो उत्तराखण्ड के लोगों की संस्कृति में वन संरक्षण का बीज कूट-कूट कर भरा है। पर जब बात आती है इस राज्य के टिहरी और चमोली जनपद की तो यही से विश्वविख्यात चिपको आन्दोलन की शुरुआत हुई थी। जो आग आज भी लोगों के जेहन में सुलगती हुई नजर आ रही है। चमोली जनपद के घाट विकासखण्ड के अर्न्तगत रामणी एक ऐसा गाँव है जो कई प्रकार के इतिहास को समेटे है, मगर मौजूदा समय में खास प्रचलित है रामणी गाँव का ‘जंगल’। यह जंगल किसी भी सरकारी योजना के लिये आदर्शता का पाठ पढ़ा रहा है। लोक सहभागिता से इस जंगल में जैवविविधता देखते ही बनती है।
रामणी गाँव आज पर्यावरण संरक्षण के लिये मिसाल बन चुका है। नब्बे के दशक में इस क्षेत्र के आस-पास एक तरफ सड़क के लिये बड़ी संख्या में पेड़ों का कटान आरम्भ हुआ और दूसरी तरफ इसी विकास के साथ-साथ गाँवों के इर्द-गिर्द कंक्रीट के जंगल भी बड़ी मात्रा में पनपने लगे। यानि इस अनियोजित विकास ने रामणी गाँव को सर्वाधिक नुकसान पहुँचाया। जिसका असर यह हुआ कि इस क्षेत्र में पानी के स्रोत सूखने लग गए, मौसम ने अपना रूखा रूप अपनाना आरम्भ कर दिया।
दैनिक आवश्यकता की जरूरतें जैसे घास, लकड़ी, पानी की किल्लत तेज गति से बढ़ने लग गई। इस तरह के पर्यारणीय संकटों ने लोगों को सोचने पर विवश कर दिया। अन्ततः ग्रामीणों ने अपने पूर्व के पर्यावरण को स्थापित करने की ठान ली। यानि जो जंगल सड़क इत्यदि के लिये बली चढ़ाया गया था उसे वापस लौटाना ग्रामीणों का खास मकसद बन गया और हुआ भी ऐसा ही। तत्काल ग्रामीणों द्वारा एक नए जंगल विकसित करने का सूत्रपात किया गया।
रामणी यानी की हैनरी रैमजे की नेमत। हैनरी रेमेज 1856 से 1884 तक कुमाऊ और गढ़वाल कमिश्नरी का कमिश्नर था। जो यहाँ के पहाड़ों की खूबसूरती का कायल था। अपने कार्यकाल के दौरान वह एक गाँव में पहुँचा जहाँ से हिमालय को अभिभूत कर देने वाले सौन्दर्य का वह कायल हो गया। उसने इस गाँव में एक डाक बंगला भी बनवाया और अपने कार्यकाल के दौरान वह कई बार यहाँ भी आया, जिस कारण से इस गाँव का नाम पहले रैमजे और बाद में रैमजे से रामणी हो गया।पहले-पहल यानि 90 के दशक में रामणी के ग्रामीणों ने 15 नाली अर्थात छह बीघा जमीन पर पौधा रोपण किया। साल-दर-साल ग्रामीणों द्वारा वृक्षारोपण की मात्रा भी बढाई गई तो जमीन का विस्तार भी इस तरह से किया गया कि जहाँ पर बंजर भूमि है उसे वृक्षारोपण के लिये विकसित किया गया। जिसका फैलाव धीरे-धीरे बढ़ता गया और मौजूदा समय में 200 नाली यानि 80 बीघा जमीन पर एक सुन्दर व बहुप्रजाति के वृक्षों का जंगल हमारे सामने है।
पिछले 26 वर्षों में रामणी गाँव का 200 नाली पर विकसित यह जंगल शोध का विषय बना हुआ है। ग्रामीणों ने न सिर्फ इस जंगल को विकसित करने में मात्र वृक्षारोपण किया बल्कि एक-एक रोपे गए पौधों की रक्षा इस कदर की कि जैसे सरहद पर एक फौजी अपने देश की सुरक्षा बाबत तैनात रहता है। आज इसी का प्रतिफल है कि रामणी गाँव का जंगल देखने देश-विदेश के शोधार्थियों के लिये आदर्श बन चुका है।
चमोली के जिला मुख्यालय गोपेश्वर से 92 किलोमीटर दूर रामणी गाँव और आसपास के क्षेत्र में 90 के दशक से पूर्व बांज, खर्सू, बुरांश, चीड़, सुरांई समेत विभिन्न प्रजातियों के पेड़ों का घना जंगल था। जो तत्काल के दिनों में विकास की भेंट चढ़ गया था। पर ग्रामीणों ने त्वरित ही होश सम्भाली और साल 1990 में ग्रामीणों ने फिर से नए जंगल स्थापित करने की कसम खा ली। जिसके लिये ग्रामीणों ने एक नई परम्परा विकसित की।
ग्रामीणों ने निर्णय लिया कि जंगल का संरक्षण वे सीमा के प्रहरी की तरह करेंगे। तय किया गया कि बाहरी लोगों को जंगल में घुसने नहीं दिया जाएगा। जंगल में जो भी बाहरी व्यक्ति घुसपैठ करता है, उससे दरांती, कुल्हाड़ी, आरी समेत अन्य हथियार रामणी के ग्रामीण जब्त कर लेंगे। और तो और आस-पास के गाँवों के मवेशियों को भी जंगल में घुसने की मना ही है। यदि मवेशी गलती से इस जंगल में प्रवेश कर भी गए तो उनके गले में बाँधी गई कांसे की घंटियाँ भी निकाल ली जाती थी।
इस सामग्री की पंचायत में नीलामी की जाती थी। नीलामी में मिली धनराशि का खर्च फिर से जंगल के विकास में किया जाता था। जो क्रम आज भी जारी है। इसी का नतीजा है कि आज 200 नाली के लम्बे चौड़े भूभाग में बांज, बुरांश समेत विभिन्न प्रजातियों के पेड़ों का जंगल तैयार हो चुका है। रामणी गाँव के 87 वर्षीय हयात सिंह कहते हैं कि जब जंगल रहेगा, तभी पानी, अन्न, हवा समेत जीवन मिल पाएगा। उनका कहना है कि रामणी गाँव के प्रत्येक व्यक्ति की भागीदारी अपने जंगल को बचाने में रहती है। 74 वर्षीय रामणी निवासी गौरी देवी कहती हैं कि उनके जमाने से ही जंगल बचाने की परम्परा थी जो रामणी गाँव में आज भी जीवित है।