एक तरफ सरकार साहसिक पर्यटन को बढ़ावा देने की बात कर रही है तो दूसरी तरफ गंगा किनारे बीच कैम्पिंग पर सवाल उठने लग गए हैं। क्योंकि मौजूदा हालात बयाँ कर रहे हैं कि केन्द्र से राज्य सरकारें तक निर्मल गंगा को लेकर संवेदनशील हो चुकी हैं।
अब जनाब गंगा निर्मल चाहिए तो गंगा किनारे हो रहे मानवीय हलचलों को भी गंगा की स्वच्छता के लिये कानून-कायदों का पालन करना होगा। राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने कई बार सरकारों को आगाह किया कि गंगा में उड़ेले जा रहे प्रदूषण को अत्यन्त नियंत्रण करने की आवश्यकता है। मगर इस पर बात आगे नहीं बढ़ पाई।
उल्लेखनीय हो कि गंगा किनारे बीच कैम्पिंग के सम्बन्ध में यूपी के समय वर्ष 1998 में एक गाइडलाइन तैयार की गई थी। शासनादेश में कहा गया था कि कैम्पिंग से जंगल और पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे। इसमें शाम को आग जलाने से मनाही थी। दिन में तसले में आग जलाने के निर्देश थे। कहा गया था कि लकड़ी जंगल से न ली जाये, बल्कि वन निगम से खरीदी जाये। मई-जून में आग जलाना प्रतिबन्धित था। ड्राई टॉयलेट बनाने के आदेश थे। गन्दगी नदी में डालने की मनाही थी। गाइड लाइन में यह भी कहा गया था कि 250 वर्ग किमी क्षेत्र में एक कैम्प लगेगा, लेकिन हुआ उलटा लोगों ने गाइडलाइन का उल्लंघन कर नदी किनारे के बजाय जंगल में ही कैंप नहीं लगाए वरन गंगा के आसपास के गाँव भी कैम्प के अड्डे बन चुके हैं। इसके साथ ही बीच कैम्पिंग के टेंटों में फ्लश शौचालय तक पाये गए अर्थात बीच कैम्पिंग कराने वाली कम्पनियों ने गाइडलाइन का पालन नहीं किया।
अब जाकर एनजीटी की कमेटी ने भारतीय वन्य जीव संस्थान को नदी की स्वच्छता, पर्यावरण और धारण क्षमता के सम्बन्ध में भी रिपोर्ट देने का निर्देश दिया था। यह रिपोर्ट तैयार हो चुकी है। रिपोर्ट गंगा में हो रहे प्रदूषण की पोल खोल सकती है यानि उत्तराखण्ड में गंगा किनारे बीच कैम्पिंग के सम्बन्ध में कराई गई यह सर्वेक्षण रिपोर्ट शासन को झटका दे सकती है।
सूत्रों की माने तो जब से बीच कैम्पिंग की गाइडलाइन बनी है, इसका पूरी तरह कभी भी पालन नहीं हुआ है। सर्वे टीमों को भी कई जगह गाइडलाइन का उल्लंघन नजर आया है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेश पर गठित कमेटी ने भारतीय वन्य जीव संस्थान से हाल ही में बीच कैम्पिंग क्षेत्र का सर्वेक्षण कराया। जिसकी गोपनीय रिपोर्ट शासन को प्राप्त हो चुकी है। शासन अब इसे एनजीटी के समक्ष प्रस्तुत करेगा।
गंगोत्री इको सेंसेटिव जोन बिन प्लान
दूसरी ओर राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) की फटकार के बाद भी गंगोत्री इको सेंसेटिव जोन को लेकर गठित निगरानी समिति संजीदा दिखाई नहीं दे रही है। प्रमुख सचिव रामास्वामी मामला कोर्ट में होने की दुहाई देकर कोई टिप्पणी करने तक को तैयार नहीं हुए। हद तो यह है कि अब भी यह साफ नहीं है कि जोनल प्लान को तैयार करने में प्रभावित लोगों से कितनी बात की गई।
निगरानी समिति के एक सदस्य के मुताबिक इको सेंसेटिव जोन को लेकर विरोध ही इसलिये हो रहा है कि स्थानीय लोगों को पूरी जानकारी दी ही नहीं गई। गंगोत्री इको सेंसेटिव जोन पर 28 जनवरी, 2016 को हुई सुनवाई में एनजीटी ने साफ आदेश दिया था कि अगली बैठक में जोनल प्लान को अन्तिम रूप दे दिया जाये।
एनजीटी ने इसके साथ ही प्रदेश सरकार को यह भी आदेश दिया था कि 2013 की आपदा के कारण प्रभावित हुई परिसम्पत्तियों के पुनर्निर्माण का काम मानसून से पहले ही पूरा कर लिया जाये। उधर केन्द्र सरकार ने 12 दिसम्बर, 2012 को गंगोत्री इको सेंसेटिव जोन घोषित किया था।
अधिसूचना में निगरानी समिति का गठन कर लोगों की राय लेकर जोनल प्लान तैयार करने को कहा गया था। हद यह हुई कि तीन साल बीत जाने के बाद भी जोनल प्लान तैयार नहीं हो पाया। परन्तु प्रमुख सचिव वन एस रामास्वामी एक्यूपंचर पर बात करने को तैयार हैं पर जोनल प्लान पर नहीं। पूछे जाने पर रामास्वामी यह कहकर बात टालने की कोशिश करते हैं कि मामला कोर्ट में विचाराधीन है।
गंगा स्वच्छता के लिये वेबकॉस कम्पनी
गंगा स्वच्छता अभियान के तहत केन्द्र सरकार ने अब सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) निर्माण की जिम्मेदारी केन्द्रीय एजेंसी वेबकॉस को दी है। एनजीटी ने भी केन्द्र को गंगा स्वच्छता के लिये स्वीकृत पाँच सौ करोड़ रुपए जल्द-से-जल्द जारी करने का आदेश दिया है।
उत्तराखण्ड पेयजल निगम ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेश पर गंगा बेसिन में 15 एसटीपी और 24 बायो डाइजेस्टर के निर्माण के लिये एक्शन प्लान तैयार कर लिया था, लेकिन केन्द्र ने इसे खारिज कर दिया और पीपीपी मोड पर प्लांट बनाने के लिये कहा। बताया जा रहा है कि वेबकॉस की टीम शासन में बात करने के साथ गंगा बेसिन में उन स्थानों को देखेगी जहाँ एसटीपी बनाए जाने हैं। इस बात की पुष्टि अपर मुख्य सचिव एस. राजू ने की है।
गंगा संरक्षण के लिये तीन मॉडल
नमामि गंगे परियोजना के तहत वन अनुसन्धान संस्थान ने गोमुख से गंगा सागर तक के लिये पौधरोपण के चार मॉडल फाइनल कर दिये हैं। इनमें तीन मॉडल उत्तराखण्ड के लिये हैं और एक मॉडल मैदानी क्षेत्रों के लिये है। इनमें प्राकृतिक भूमि, कृषि भूमि और शहरी क्षेत्रों के लिये अलग-अलग सब-मॉडल भी तैयार किये गए हैं। पहला मॉडल गोमुख क्षेत्र का है। इसके लिये बर्च, पुतली, रोडोडेंट्रान आदि वृक्षों के पौधरोपण का प्रस्ताव फाइनल किया गया। इसके बाद मध्य हिमालयी क्षेत्र में गंगा बेसिन के लिये दूसरा मॉडल है। इसमें प्रमुख पेड़ देवदार है। इसके अलावा बांज, तिलौंज, बुरांस, काफल आदि पेड़ हैं।
निचले क्षेत्रों के लिये तैयार तीसरे मॉडल में बान, ओक, खर्सू, बांगर आदि वृक्षों को रखा गया है। चौथा मॉडल मैदानी क्षेत्रों के लिये है जो हरिद्वार के बाद लागू होगा। नोडल एजेंसी वन अनुसन्धान संस्थान ने गंगा बेसिन और इससे जुड़ी नदियों के बेसिन में वन्य जीव प्रबन्धन, क्षमता निर्माण, जन-जागरुकता, प्राकृतिक भूमि, कृषि भूमि तथा गंगा किनारे शहरी क्षेत्रों के लिये भी कार्ययोजना दी है। प्रमुख वन संरक्षक गढ़वाल गम्भीर सिंह ने बताया कि विभागीय अधिकारियों को सभी मॉडल का प्रजेंटेशन दे दिया गया है।