गागर भरने की वेला

Submitted by admin on Mon, 09/09/2013 - 13:25
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काव्य संचय- (कविता नदी)
गागर भरने की वेला हौले बीती जाती है।
क्यों भूल-चूक हो जाती चिर-परिचित व्यापारों में,
दिन-दिन भर उलझी रहती सब दिन इन घर-द्वारों में,
वैसे से तो दुपहर ही से उत्सुकता उकसाती है।
लगता गागर भरने की वेला बीती जाती है।
औरों की देखा देखी जब तक रहती धुलसाती,
सौरभ-भीनी स्मृतियों की धारा में बहती जाती,
सहसा रागिनी रँगीली थमती, झटका खाती है!
लगता गागर भरने की वेला बीती जाती है!!
ज्यों-ज्यों दिन ढलता जाता, औ’ संध्या घिरती आती,
त्यों-त्यों पनघट पर कैसी है बदाबदी मच जाती!
जल्दी-जल्दी में गागर गागर से टकराती है!
रीति गागर कहती : लो, वेला बीती जाती है!!
हो गई देर; हो; अपनी गागर भरनी ही होगी,
मरघट-पनघट की दूरी पूरी करनी ही होगी,
उज्जवल जल की कलकल धुन सुन-मति गति मदमाती है!
रीती गागर भरने की वेला बीती जाती है!!