गगास्नान

Submitted by admin on Mon, 10/28/2013 - 15:59
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काव्य संचय- (कविता नदी)
गंगा में स्नान कर रही
वह बूढ़ी मैया
दो ओर से बाँहे पकड़े बेटे-बहू को
लिए, सीढ़ियाँ उतरती
आई थी जल-तल तक जो कूँथती-कहरती
निहुरी-दुहरी
वह बूढ़ी मैया, दूर से आई
तुम क्या जानों
अपने को प्राणों तक प्रक्षालित कर रही है, पवित्र कर रही है
महाप्रस्थान-प्रस्तुत, डगमग पाँवों वाली वह बूढ़ी मैया
तुम क्या जानों, क्योंकि तुम्हारे लिए नहीं बची है कोई पवित्र नदी
तुम्हारी सारी नदियां अपवित्र हो गई हैं- विषाक्त
हाँ, तुम क्या जानो, तमगों-सजी या कि बचत-खातों के पास-बुकों से भरी
उपरली जेब वाली होकर भी छूँछी छाती वाले तुम
कि यह निर्मल नदी
भीतर ही बहती है
तुम्हारे हत्पिंड की गंगोत्री सूख ही गई है
पीछे, और पीछे खिसकती, आखिरकार

वहाँ
गंगा के उस साँवले जल में नहाती हुई बूढ़ी मैया
की हर डुबकी में
छाती की कँपकँपी ही नहीं घुलती
सजल उर का जल भी मिलता है भास्वर
उन दुग्धहीन, पर दुग्धगंधी छातियों से निकली हुई दूधियाभा
जो आँख खोलकर तुम्हारे देखते-देखते
नगर के नालों की गंदली उगल में
निगली जाती है अचीन्ह
और तुम जानते-जानते रह जाते हो अपना अभाव।