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भारत डोगरा
अवैध कटाव की जानकारी सरकार में ऊपर तक पहुंचाई गई व साथ ही मीडिया को भी उपलब्ध करवाई गई इसी के समानांतर रक्षा-सूत्र व जन-जागृति के प्रयास जारी रहे। दिल्ली स्थिति हिमालय सेवा संघ ने भी अवैध कटाई के मामलों की ओर ध्यान दिलाने में सहायता दी। अवैध कटाई में लिप्त अनेक वन अधिकारियों को निलंबित करने के आदेश भी जारी हुए। वन रक्षा आंदोलन ने नदियों की रक्षा में वनों की भूमिका पर भी जोर दिया। आंदोलन का एक प्रमुख नारा यह रहा है -उँचाई पर पेड़ रहेंगे, नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे। हिमालय के पर्यावरण को बचाने का कार्य इस क्षेत्र के वनों व नदियों की रक्षा से जुड़ा है इसलिए इसके साथ स्थानीय लोगों के सरोकार और जरूरतें अपने आप जुड़ जाती हैं। उत्तराखंड के उत्तरकाशी और टिहरी जिले में कई मोर्चो पर प्रयासरत संस्था हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान के कार्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता यही रही है कि उसके माध्यम से वन व नदियों की रक्षा के महत्वपूर्ण प्रयास गांववासियों की दीर्घकालीन भलाई से जुड़ते हुए आगे बढ़े हैं। इन प्रयासों में उसे हिमालय सेवा संघ जैसी मित्र संस्थाओं का भी भरपूर सहयोग भी प्राप्त हुआ है।
चिपको आंदोलन के बाद के दौर में वनों की रक्षा का एक महत्वपूर्ण आंदोलन था- रक्षा सूत्र आंदोलन। इस आंदोलन में जहां बहुत दूर-दूर के गांवों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की, वहां आंदोलन के आरंभ में व इसे स्थिरता देने में हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान (हिपशिस) व इसके अध्यक्ष सुरेश भाई ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
चिपको आंदोलन के प्रयासों से उत्तराखंड के एक बड़े क्षेत्र में वन-कटाव पर रोक लग गई थी। पर वर्ष 1994 के आसपास कुछ स्वार्थी तत्वों ने बहुत चालाकी से पेड़ कटवाने की साजिश रची। उन्होंने हरे पेड़ों को भी सूखे पेड़ों के रूप में कागजों पर दिखा दिया। हिपशिस ने इस संबंध में सरकारी रिकार्ड भी प्राप्त कर लिए व इसके साथ मौके पर जांच कर स्पष्ट कर दिया कि सूखे पेड़ों के नाम पर हरे पेड़ों को कटाव टिहरी के रियाला वन जैसे क्षेत्रों में हो रहा है। सितम्बर १९९४ में लगभग दस हजार फीट की उँचाई पर स्थित पेड़ों को बहुत चालाकी से वृक्षों की कटाव के ठेके कुछ ग्राम प्रधानों सहित स्थानीय असरदार लोगों को दे दिए थे। इसके बावजूद पेड़ों को बचाने के लिए ख्वारा, मेटी व डालगांव आदि गांववासीयों ने इतना दबाव बनाया कि वृक्षों का कटाव कुछ समय के लिए रूक जाए। महिलाओं ने संकटग्रस्त वृक्षों पर रक्षा-सूत्र या रक्षा के घागे बांधे। रक्षा-बंधन त्यौहार की तरह यह धागे भी रक्षा का प्रतीक थे व एक तरह से पेड़ों को गांव की महिलाओं का संदेश था कि हम तुम्हारी रक्षा अवश्य करेंगे। अगले वर्ष (1995) जुलाई के आसपास गांववासियों व कार्यकर्ताओं को समाचार मिलने लगे कि वृक्षों की कटाव फिर शुरू करने की तैयारियां चल रही हैं। इस कटाव को रोकने के लिए पहले कटाव रांबंधी काफी जानकारी एकत्र की गई व गेंवाली, ज्यूंडाना, चैली व संड जैसे गांवों मे पर्यावरण शिविर भी लगाए गए।
इसी वर्ष १०-११ अगस्त को लगभग ३०० महिलाओं ने वन में जाकर रक्षा-सूत्र बांधे व एक बार फिर यहां पेड़ काटने वालों को वन से खदेड़ा। बहुत उँचाई पर स्थित इन वनों में शीघ्र ही वन रक्षा के ये नारे गूंजने लगे -वन बचेगा, देश बचेगा, गांव तब खुशहाल होगा। चौरंगीवाला क्षेत्र में चौध्यार गांव की जेठी देवी व दिसोटी गांव की मंदोदरी देवी ने ट्रकों पर चढ़कर तब तक लकड़ी ले जाने दी जब तक पेड़ काटनेपर रोक लगने का फेसला नहीं हो गया। खोजबीन से अवैध कटाव के कई अन्य मामलों का पता चला। विस्तृत जांच रिपॉर्ट तैयार की गई व इस अवैध कटाव की जानकारी सरकार में ऊपर तक पहुंचाई गई व साथ ही मीडिया को भी उपलब्ध करवाई गई इसी के समानांतर रक्षा-सूत्र व जन-जागृति के प्रयास जारी रहे। दिल्ली स्थिति हिमालय सेवा संघ ने भी अवैध कटाई के मामलों की ओर ध्यान दिलाने में सहायता दी। अवैध कटाई में लिप्त अनेक वन अधिकारियों को निलंबित करने के आदेश भी जारी हुए। वन रक्षा आंदोलन ने नदियों की रक्षा में वनों की भूमिका पर भी जोर दिया। आंदोलन का एक प्रमुख नारा यह रहा है -उँचाई पर पेड़ रहेंगे, नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे।
नदियों की रक्षा के प्रति यह भावना तब और उभर कर सामने आई जब हिपशिस को आसपास से बांध व सुरंग बांध परियोजनाओं के दुष्परिणामोंके समाचार मिले। यह स्पष्ट होने लगा कि इन परियोजनाओं से एक ओर नदियों का प्राकृतिक प्रवाह बुरी तरह प्रभावित होगा, जल-जीवन नष्ट होगा व दूसरी ओर गांववासिंयों के खेत, चरागाह, जल-स्त्रोंतों आदि पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ेगा। विस्फोंटों से लोगों के आवास बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने लगे व भूस्खलनों का सिलसिला तेजी से बढ़ने लगा। इस स्थिति में हिपशिस ने लोगों को अपने अधिकारों की आवाज उठाने में न केवलसहायता की बल्कि उनकी समस्याओं को कई मंचो पर असरदार ढंग से उठाया एवं नदियों की रक्षा के सवाल को प्रभावित लोगों की समस्याओं से जोड़कर उठाया। बासंती नेगी (हरसिल) जैसी कुछ महिलाओं ने जहां रक्षा सूत्र में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था वे अब नदियों की रक्षा के आंदोलन से भी जुड़ गईं व उन्होंने इसके लिए पदयात्राएं की। बांध परियोजनाओं के कारण जहां-जहां भी पेड़ संकटग्रस्त थे, वहां भी इन महिलाओं ने वृक्षों पर रक्षा सूत्र बांधे। वन व नदी रक्षा के इन आंदोलनों के साथ हिपशिस ने लगभग 250 परम्परागत जल संरक्षण निर्माण कार्यो (चाल) को बनाया है या उनकी मरम्मत की है। जलकूद घाटी (टिहरी) भागीरथ घाटी (उत्तरकाशी) में संस्था की वाटरशेड संरक्षण परियोजनाओं के भी अच्छे परिणाम मिले हैं।
चिपको आंदोलन के बाद के दौर में वनों की रक्षा का एक महत्वपूर्ण आंदोलन था- रक्षा सूत्र आंदोलन। इस आंदोलन में जहां बहुत दूर-दूर के गांवों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की, वहां आंदोलन के आरंभ में व इसे स्थिरता देने में हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान (हिपशिस) व इसके अध्यक्ष सुरेश भाई ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
चिपको आंदोलन के प्रयासों से उत्तराखंड के एक बड़े क्षेत्र में वन-कटाव पर रोक लग गई थी। पर वर्ष 1994 के आसपास कुछ स्वार्थी तत्वों ने बहुत चालाकी से पेड़ कटवाने की साजिश रची। उन्होंने हरे पेड़ों को भी सूखे पेड़ों के रूप में कागजों पर दिखा दिया। हिपशिस ने इस संबंध में सरकारी रिकार्ड भी प्राप्त कर लिए व इसके साथ मौके पर जांच कर स्पष्ट कर दिया कि सूखे पेड़ों के नाम पर हरे पेड़ों को कटाव टिहरी के रियाला वन जैसे क्षेत्रों में हो रहा है। सितम्बर १९९४ में लगभग दस हजार फीट की उँचाई पर स्थित पेड़ों को बहुत चालाकी से वृक्षों की कटाव के ठेके कुछ ग्राम प्रधानों सहित स्थानीय असरदार लोगों को दे दिए थे। इसके बावजूद पेड़ों को बचाने के लिए ख्वारा, मेटी व डालगांव आदि गांववासीयों ने इतना दबाव बनाया कि वृक्षों का कटाव कुछ समय के लिए रूक जाए। महिलाओं ने संकटग्रस्त वृक्षों पर रक्षा-सूत्र या रक्षा के घागे बांधे। रक्षा-बंधन त्यौहार की तरह यह धागे भी रक्षा का प्रतीक थे व एक तरह से पेड़ों को गांव की महिलाओं का संदेश था कि हम तुम्हारी रक्षा अवश्य करेंगे। अगले वर्ष (1995) जुलाई के आसपास गांववासियों व कार्यकर्ताओं को समाचार मिलने लगे कि वृक्षों की कटाव फिर शुरू करने की तैयारियां चल रही हैं। इस कटाव को रोकने के लिए पहले कटाव रांबंधी काफी जानकारी एकत्र की गई व गेंवाली, ज्यूंडाना, चैली व संड जैसे गांवों मे पर्यावरण शिविर भी लगाए गए।
इसी वर्ष १०-११ अगस्त को लगभग ३०० महिलाओं ने वन में जाकर रक्षा-सूत्र बांधे व एक बार फिर यहां पेड़ काटने वालों को वन से खदेड़ा। बहुत उँचाई पर स्थित इन वनों में शीघ्र ही वन रक्षा के ये नारे गूंजने लगे -वन बचेगा, देश बचेगा, गांव तब खुशहाल होगा। चौरंगीवाला क्षेत्र में चौध्यार गांव की जेठी देवी व दिसोटी गांव की मंदोदरी देवी ने ट्रकों पर चढ़कर तब तक लकड़ी ले जाने दी जब तक पेड़ काटनेपर रोक लगने का फेसला नहीं हो गया। खोजबीन से अवैध कटाव के कई अन्य मामलों का पता चला। विस्तृत जांच रिपॉर्ट तैयार की गई व इस अवैध कटाव की जानकारी सरकार में ऊपर तक पहुंचाई गई व साथ ही मीडिया को भी उपलब्ध करवाई गई इसी के समानांतर रक्षा-सूत्र व जन-जागृति के प्रयास जारी रहे। दिल्ली स्थिति हिमालय सेवा संघ ने भी अवैध कटाई के मामलों की ओर ध्यान दिलाने में सहायता दी। अवैध कटाई में लिप्त अनेक वन अधिकारियों को निलंबित करने के आदेश भी जारी हुए। वन रक्षा आंदोलन ने नदियों की रक्षा में वनों की भूमिका पर भी जोर दिया। आंदोलन का एक प्रमुख नारा यह रहा है -उँचाई पर पेड़ रहेंगे, नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे।
नदियों की रक्षा के प्रति यह भावना तब और उभर कर सामने आई जब हिपशिस को आसपास से बांध व सुरंग बांध परियोजनाओं के दुष्परिणामोंके समाचार मिले। यह स्पष्ट होने लगा कि इन परियोजनाओं से एक ओर नदियों का प्राकृतिक प्रवाह बुरी तरह प्रभावित होगा, जल-जीवन नष्ट होगा व दूसरी ओर गांववासिंयों के खेत, चरागाह, जल-स्त्रोंतों आदि पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ेगा। विस्फोंटों से लोगों के आवास बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने लगे व भूस्खलनों का सिलसिला तेजी से बढ़ने लगा। इस स्थिति में हिपशिस ने लोगों को अपने अधिकारों की आवाज उठाने में न केवलसहायता की बल्कि उनकी समस्याओं को कई मंचो पर असरदार ढंग से उठाया एवं नदियों की रक्षा के सवाल को प्रभावित लोगों की समस्याओं से जोड़कर उठाया। बासंती नेगी (हरसिल) जैसी कुछ महिलाओं ने जहां रक्षा सूत्र में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था वे अब नदियों की रक्षा के आंदोलन से भी जुड़ गईं व उन्होंने इसके लिए पदयात्राएं की। बांध परियोजनाओं के कारण जहां-जहां भी पेड़ संकटग्रस्त थे, वहां भी इन महिलाओं ने वृक्षों पर रक्षा सूत्र बांधे। वन व नदी रक्षा के इन आंदोलनों के साथ हिपशिस ने लगभग 250 परम्परागत जल संरक्षण निर्माण कार्यो (चाल) को बनाया है या उनकी मरम्मत की है। जलकूद घाटी (टिहरी) भागीरथ घाटी (उत्तरकाशी) में संस्था की वाटरशेड संरक्षण परियोजनाओं के भी अच्छे परिणाम मिले हैं।