सूखे में डूबती सभ्यता

Submitted by Hindi on Wed, 11/25/2009 - 07:49
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एलेक्स बेल
जब भारत में पानी की समस्या और भी गंभीर हो जाएगी तब स्वीडन,कनाडा और ब्रिटेन के लोगों को न केवल इसकी जानकारी होगी बल्कि वे इसे गहराई से महसूस भी करेंगे। अगर विश्व के किसी एक हिस्से में फसलें नष्ट होंगी और उत्पादन घटेगा तो समृद्ध विश्व की अर्थव्यवस्थाएं भी डांवाडोल हो जाएगीं। अगर व्यापक जनसमुदाय प्यासा रहेगा तो समाज टूटेगा और हर कोई संकट में आ जाएगा। हम अधिकतम पानी या चरम की स्थिति को पार कर चुके हैं क्योंकि आज सभ्यता प्यासी दिखाई दे रही है।
पर्यावरण आंदोलन अब उस रोचक दौर में पहुंच चुका है और इसके बारे में तकरीबन सभी तक जानकारी पहुंच चुकी है सिवाय राजनीतिक हलके के जहां यह अभी भी एक बाहरी तत्व है। वैसे हरियाली की बात (ग्रीन्स) करने वाले अभी एक अनजान व्यक्ति की तरह आपके दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं और दुनिया इस दुविधा में है कि उन्हें घर में प्रवेश दें या नहीं। जलवायु परिवर्तन के विचार की ओर लम्बे-लम्बे डग भरते हुए हम यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि हमें इस दिशा में त्वरित कार्यवाही करना ही होगी। हालांकि हममें से बहुतों के लिए यह दूसरों की समस्या है या वे सोचते हैं कि इस खतरे को बड़ा-चढ़ा कर बताया जा रहा है। लेकिन यह दौर भी अब समाप्ति की ओर है।

पिछले दो साल वैश्विक जलसंकट पर शोध करते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि विश्व के कई भागों में अब इतनी अधिक मात्रा में जमीन से पानी निकाला जा रहा है जितनी कि प्रकृति द्वारा आपूर्ति नहीं की जा सकती। ये पानी बड़े शहरों के निर्माण में और बढ़ती जनसंख्या की भरपाई में लग रहा है परंतु यह स्थिति अनंत तक नहीं चल सकती। जब हम पानी की चरम उपलब्धता को पार कर लेंगें तक खेत सूख जाएंगे, शहर असफल या नष्ट हो जाएंगे और इससे समाज को जबरदस्त चोट पहुंचेंगी।

भारतीयों के लिए यह कोई आश्चर्य नहीं होगा। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय यह जान गए हैं कि इस उपमहाद्वीप में खेती के लिए निकाले जाने वाले भू-जल की दर पुनर्भरण की दर से कही ज्यादा है।

मानसून की वर्षा का बदला मिजाज भी अब नई बात नहीं रह गई है। इसी के साथ असफल बांध परियोजनाओं एवं सूखी नदियों की त्रासदी भी अब वास्तव में पुरानी कहानी हो गई है। भीगे-भीगे से रहने वाले उत्तरी यूरोप में रहते हुए लोग इस सूचना से अभी तक बहुत परिचित नहीं है। ये भीगा-भीगा सा विश्व कल्पना करता है कि पानी की समस्या तो गरीबों के लिए ही है। यहां की कुछ सरकारें मदद का वायदा करती हैं। कुछ और हैं जो इसके भंडार के लिए धन उपलब्ध करवा रही हैं और कुछ की समझ टेलीविजन पर अगला अकाल देखने की संभावना पर ही टिकी हुई है। परंतु हर एक दिमाग में यह तो है ही, कि जल को लेकर युद्ध तो होगा मगर वह उनकी अपनी धरती पर नहीं, बल्कि सुदूर किसी विदेशी भूमि पर होगा।

जब भारत में पानी की समस्या और भी गंभीर हो जाएगी तब स्वीडन, कनाडा और ब्रिटेन के लोगों को न केवल इसकी जानकारी होगी बल्कि वे इसे गहराई से महसूस भी करेंगे। अगर विश्व के किसी एक हिस्से में फसलें नष्ट होंगी और उत्पादन घटेगा तो समृद्ध विश्व की अर्थव्यवस्थाएं भी डांवाडोल हो जाएगीं। अगर व्यापक जनसमुदाय प्यासा रहेगा तो समाज टूटेगा और हर कोई संकट में आ जाएगा। हम अधिकतम पानी या चरम की स्थिति को पार कर चुके हैं क्योंकि आज सभ्यता प्यासी दिखाई दे रही है। हजारों साल पहले इस ग्रह पर रहने की जिस संगठित व सुगठित जीवनशैली का आविष्कार इराक और सिंधु नदी के किनारे पर किया गया था। वह ताजे जल के अधिकार पर ही आश्रित थी।

पानी एक वैश्विक संसाधन है और इसका प्रबंधन भी वैश्विक नजरिए से होना चाहिए। इस हेतु ऐसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की जरूरत हैं जिनमें विश्व बैंक से ज्यादा कल्पनाशक्ति और इच्छा शक्ति हो। क्योंकि विश्वबैंक तो अभी बड़ी योजनाओं और मुक्त बाजार के मोहपाश में जकड़ा हुआ है। अतएव मेरा सोचना है कि हम पर्यावरणीय जागरूकता के इस नए चरण के ऐसे मुहाने पर खड़े हैं जब हर तरफ लोगों ने अपने कार्यों एवं उससे इस ग्रह पर पड़ रहे प्रभावों के परिणामों के बीच गहन संबंधों को समझना प्रारंभ कर दिया हैं। हरेक के पीने के लिए भरपूर पानी की अनिवार्यता से इंकार नहीं है परंतु पानी पर अधिकार और सभ्यताओं का अंर्तसंबंध इससे कहीं अधिक गहरा है। हमने यह विश्व इस परिकल्पना पर निर्मित किया है कि पानी को मनुष्य की सनक के अनुरूप हमेशा निर्देशित किया जा सकता है। जबकि इतिहास बताता है कि जब भी पानी का प्रवाह थमा तब -तब सभ्यता धराशाही हो गई। हमारे सामने चुनौती है कि विश्व यह जाने कि भारत के जलसंकट से पेरिस और न्यूयार्क के निवासियों के जीवन स्तर में भी गिरावट आएगी क्योंकि इससे वैश्विक खाद्य व अन्य वस्तुओं के व्यापार में मूलभूत परिवर्तन आएगा। इससे भी बढ़कर विश्व को यह जानने की आवश्यकता है कि पानी मात्र राष्ट्रीय सीमाओं ओर सरकारों को समर्पित नहीं हैं तथा इस संकट का हल युद्ध संबंधी किसी बंधे-बंधाए विचार या संरक्षणवाद में भी निहित नहीं है।

पानी एक वैश्विक संसाधन है और इसका प्रबंधन भी वैश्विक नजरिए से होना चाहिए। इस हेतु ऐसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की जरूरत हैं जिनमें विश्व बैंक से ज्यादा कल्पनाशक्ति और इच्छा शक्ति हो। क्योंकि विश्वबैंक तो अभी बड़ी योजनाओं और मुक्त बाजार के मोहपाश में जकड़ा हुआ है। अतएव मेरा सोचना है कि हम पर्यावरणीय जागरूकता के इस नए चरण के ऐसे मुहाने पर खड़े हैं जब हर तरफ लोगों ने अपने कार्यों एवं उससे इस ग्रह पर पड़ रहे प्रभावों के परिणामों के बीच गहन संबंधों को समझना प्रारंभ कर दिया हैं। इससे हमें सभ्य शब्द के अर्थ के संबंध में अपने विचारों में मूलभूत परिवर्तन लाने में भी मदद मिलेगी। सबकुछ झपट लेने के पश्चिमी विचार के अंधानुकरण को सफलता समझ लेने के बजाए हमें यह समझना होगा कि सफलता का पैमाना यह है कि हमारे स्थानीय संसाधनों पर न केवल न्यूनतम भार पड़े बल्कि यह भी देखना होगा कि हम उनका संरक्षण किस प्रकार से करते हैं। हमें अपने घरों, कार्यालयों, शहरों और खेतों का निर्माण नए तरीकों से कराना चाहिए जो कि हमारे स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल हो। जब हम चरम पर पहुंच जाते हैं तो हमारे सामने चुनाव का क्षण आता है। अतएव इस परिस्थिति में हमें चुनाव करना होगा कि या तो हम इसे अंत समझे या एक नई कहानी की शुरूआत।