वायुमंडल में इसकी मात्रा बढ़ जाए तो यह हमारी दुश्मन साबित होगी। लिहाजा दोस्त को दोस्त बनाए रखने में ही भलाई है। हमें अपनी ऐसी करतूतों पर रोक लगानी चाहिए, जिनकी वजह से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ रही है।
कार्बन के एक परमाणु और ऑक्सीजन के दो परमाणुओं से मिल कर बनी कार्बन डाइऑक्साइड गैस को ज्यादातर लोग अच्छी निगाहों से नहीं देखते क्योंकि इसे हम साँस के साथ दूषित गैस के रूप में वायुमंडल में छोड़ते हैं। इसे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी माना जाता है। यह बात सही भी है लेकिन इस गैस का एक दूसरा रूप भी है, जिसे आम आदमी नहीं जानता। वैज्ञानिकों के अनुसार यह वही गैस है, जो हमारे मौसम को स्थायित्व प्रदान करती है। हाल के वर्षों में पूरी दुनिया के मौसम में जो अप्रत्याशित बदलाव आते जा रहे हैं, उसमें इसी गैस का महत्वपूर्ण हाथ है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बहुत कम होती है-केवल दस हजार भाग में तीन भाग। फिर भी धरती के ताप को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी इसी गैस पर है। सूरज की गर्म किरणें वायुमंडल को भेदते हुए धरती पर पहुँचती हैं, जिसमें से कुछ गर्मी धरती द्वारा सोख ली जाती है और कुछ वायुमंडल में फिर वापस भेज दी जाती है। कार्बन डाइऑक्साइड इस ऊष्मा का अवशोषण कर पृथ्वी का ताप बनाए रखती है। यही ग्रीन हाउस प्रभाव है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का संतुलन बनाए रखने में कई घटकों का हाथ है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की कुल मात्रा 2300 अरब टन के आसपास होना चाहिए।
मौसमों में स्थायित्व के लिए यह जरूरी है कि इसकी मात्रा इतनी ही बनी रहे। इस गैस का संतुलन बनाए रखने में सागर का बहुत बड़ा हाथ है। पृथ्वी के 70 प्रतिशत से भी अधिक भाग पर कब्जा जमाए सागर अपने में वायुमंडल से लगभग 50 गुना अधिक कार्बन डाइऑक्साइड समेटे हुए है। सागर तथा वायुमंडल के बीच गैस का आदान-प्रदान होता रहता है। अगर वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड ज्यादा हो जाए तो सागर उसका लगभग आधा भाग सोख लेते हैं और अगर कम हो जाए तो सागर वायुमंडल में अधिक से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ने की कोशिश करते हैं। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड आने का दूसरा बड़ा स्रोत ज्वालामुखी है। वायुमंडल की कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने का एक बड़ा साधन वनस्पति जगत है। पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेषण के लिए कार्बन डाइऑक्साइड का प्रयोग करते हैं लेकिन गैस की यह संपूर्ण मात्रा वायुमंडल को फिर वापस मिल जाती है क्योंकि जंतु साँस लेते समय यही गैस छोड़ते हैं। वनस्पतियों के सड़ने से भी यह गैस हवा में आ जाती है। इस तरह प्राकृतिक रूप से होने वाले इस आदान-प्रदान की वजह से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का संतुलन बना रहता है। लेकिन यह संतुलन बिगड़ता है। मनुष्य और परिणाम स्वरूप मौसम में भारी फेर बदल हो जाते हैं। आँकड़े बताते हैं कि वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड धीरे-धीरे बढ़ रही है।
वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ने के अनेक कारण हैं लेकिन मुख्य रूप से इसकी जिम्मेदारी कारखानों और मोटर वाहनों पर है। औद्योगीकरण में वृद्धि होने के साथ-साथ वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि होती जा रही है। जीवाश्म ईंधन व लकड़ी जलने से भी इसकी मात्रा बहुत बढ़ जाती है। वनों की कटाई की इसके लिए जिम्मेदार है। वनों की कटाई हो जाने से मिट्टी के जैविक पदार्थों पर ज्यादा धूप पड़ती है और उनका तेजी से ऑक्सीकरण होता है। फलस्वरूप अधिक कार्बन डाइऑक्साइड हवा में पहुँचती है। सागर तथा वनस्पतियों द्वारा इस अतिरिक्त मात्रा का शोषण करते रहना मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि उनके सोखने की भी एक सीमा है। यही वजह है कि इसकी मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है। पिछली सदी में हवा में इसकी मात्रा केवल 290 भाग प्रति दस लाख थी जो बढ़ कर 379 भाग प्रति दस लाख जमाव हो गई है।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार पिछले सौ साल के दौरान पृथ्वी की सतह का औसत तापमान 0.74 फीसदी बढ़ गया है। औसत ताप के बढ़ने से दो मुख्य प्रभाव हो सकते हैं। पहला प्रभाव संपूर्ण पृथ्वी पर होने वाली वर्षा पर पड़ेगा। कहीं वर्षा में अधिकता आएगी तो कहीं सूखे की स्थिति होगी। सहारा रेगिस्तान के आसपास शायद अच्छी वर्षा होने लगे। जहाँ भारत में वर्षा बढ़ने की संभावना है वहीं पाकिस्तान व बांग्लादेश में वर्षा की कमी की संभावना है। अफ्रीका के कुछ देशों व अरब में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ सकता है। वहीं उत्तरी अमेरिका व अन्य गर्म स्थानों में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ सकता है। वहीं उत्तरी अमेरिका व अन्य गर्म स्थानों में खाद्यान्न के पकने की अवधि बढ़ जाएगी। औसत ताप बढ़ने का दूसरा मुख्य प्रभाव सदी के अंत तक धरती का तापमान 1.8 से लेकर 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है, इससे ध्रुव पर जमी बर्फ पिघलेगी और समुद्र जलस्तर 28 से 43 सेमी तक बढ़ जाएगा। आज उत्तरी ध्रुव दुनिया के दोगुनी दर से गर्म हो रहा है और बहुत संभव है कि ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर पूरी तरह पिघल जाए। अंटार्कटिक व आर्कटिक की बर्फ भी पिघलती जाएगी। गर्मी में यह दर सर्वाधिक होगी परंतु ग्लोबल वार्मिंग के कारण ठंड में भी हल्की हल्की बर्फ पिघलती रहेगी।
इसका परिणाम समुद्र के जलस्तर की वृद्धि के रूप में सामने आएगा, जिससे पृथ्वी के अनेक निचले हिस्से डूब जाएँगे। ग्लोबल वार्मिंग के कारण सन् 2100 तक यदि समुद्र का जल स्तर 40 सेमी बढ़ गया तो भारत के तटीय इलाकों में 5 करोड़ लोग विस्थापित हो जाएँगे। इसके अलावा तापमान बढ़ने से शीत ऋतु की अवधि घटेगी, पानी की कमी, आम बात हो जाएगी, चारागाहों का आकार घट जाएगा व चारे की समस्या पैदा होगी। इस स्थिति से बचने के लिए वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा पर नियंत्रण रखना जरूरी है। परंतु आजकल की औद्योगिक प्रगति देखते हुए ऐसा लगता नहीं कि वायुमंडल में कभी कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा कम हो पाएगी। मौसमों में स्थायित्व लाने और फसलों में अनाज बनाने की वजह से कार्बन डाइऑक्साइड हमारी दोस्त है लेकिन अगर वायुमंडल में इसकी मात्रा बढ़ जाए तो यह हमारी दुश्मन साबित होगी। लिहाजा दोस्त को दोस्त बनाए रखने में ही भलाई है। हमें अपनी ऐसी करतूतों पर रोक लगानी चाहिए, जिनकी वजह से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ रही है।