जैव विविधता की रीढ़ को खतरा

Submitted by Hindi on Sat, 11/06/2010 - 08:47
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समय डॉट लाइव, 05 नवम्बर 2010
[img_assist|nid=25855|title=|desc=|link=none|align=left|width=199|height=88]गत 19 से 29 अक्टूबर को आयोजित संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन में 192 देशों ने भाग लिया।

सम्मेलन में प्रजाति जीव आयोग के अध्यक्ष साइमन स्टुअर्ट ने अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ के माध्यम से जानकारी दी कि रीढ़ की हड्डी वाले जीवों पर किये गये अनुसंधानों से पता चलता है कि प्रकृति की रीढ़ खतरे में है। आज दुनिया में अनेक स्तनधारी, पक्षी, उभयचर, सरीसृप और मछलियां समाप्ति के कगार पर हैं। इस संबंध में दुनिया के तीन हजार वैज्ञानिकों ने लाल सूची तैयार की है। इस आधार पर उन्होंने पाया कि 25 प्रतिशत स्तनधारी, 13 प्रतिशत पक्षी, 41 प्रतिशत उभयचर, 22 प्रतिशत सरीसृप और 15 प्रतिशत मछलियां लुप्त होने के कगार पर हैं। हाल में क्यू वनस्पति उद्यान के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में पाया कि लगभग 60 लाख प्रजातियां-20 प्रतिशत पौधे और बिना रीढ़ की हड्डी वाले अनेक जीव दुनिया से समाप्त होने के खतरे से जूझ रहे हैं।

लेकिन यहां पूरी बुरी खबर भी नहीं है। आईयूसीएन ने पाया कि 64 प्रजातियों ने लाल सूची में सुधार भी किया है और समाप्ति के कगार से हट कर वह जीवित रहनेवाली प्रजातियों में शुमार होने लगी हैं। स्टुअर्ट कहते हैं कि जहां सुरक्षा दी गई, वहां प्रजातियों को पुनर्जीवन भी मिला है। यह साबित करता है कि हमें जीव संरक्षण को महत्व देना चाहिए। परिणाम बता रहे हैं, जहां जैव विविधता कम होती जा रही है, वहां अतिरिक्त 20 प्रतिशत संरक्षण को नहीं अपनाया गया।

फिलहाल, संरक्षण के चलते उन तीन प्रजातियों को पुन: धरती पर लौटने में सफलता मिली है जो प्राय: समाप्त हो गई थीं। उन्हें जंगलों में दुबारा अपने स्थानों में देखा जा सकता है। कैलिफोर्निया में कंडोर, अमेरिका में काले पैरों वाला फेरेट और मंगोलिया का प्रोजेवाल्सिक घोड़ा विलुप्त होते जीवों में शामिल किये जा चुके हैं। द्वीपों की प्रजातियों को संरक्षण देने में अधिक सफलता मिली है। धरती पर सेचेलेस मगपि-राविन की संख्या में भी वृद्धि हुई है। 1965 में यह 15 रह गई थी पर 2006 में 180 की संख्या तक पहुंच गई। इसी प्रकार मॉरिशस में पक्षियों की छह प्रजातियों को सुरक्षित किया गया है। 1974 में वहां जहां सिर्फ चार पक्षी बचे थे, अब वे हजार के करीब हो गये हैं। लेकिन समाप्त होने वाले रीढ़वाले उभयचरों में बहुत कम ने वापसी के लक्षण दिखाये।

इस वर्ष आईयूसीएन की लाल सूची में 25000 उन प्रजातियों को अध्ययन के लिए लिया गया, जिन पर खतरा मंडरा रहा था। इसमें रीढ़ वाली प्रजातियों की अवस्था का पता किया। उनमें स्तनधारी, पक्षी, उभयचर, सरीसृप और मछलियां हैं। देखा गया कि कैसे इनकी जीवन शैली में परिवर्तन आ रहा है। परिणामों से पता चला कि औसतन 50 प्रतिशत स्तनधारी, पक्षी और उभयचरों की प्रजातियां खतरे में हैं। माना गया है कि कृषि भूमि का विस्तार, वनों का कटान और अधिक लाग कमाने की चाह ने इन निरीह प्रणियों को खतरे में डाला है। जैव विविधता की रीढ़ की हड्डी समाप्त होती जा रही है, इस बारे में हावर्ड विश्वविद्यालय में पारिस्थितिकी के विशेषज्ञ एडवर्ड ओ. विल्सन कहते हैं कि एक छोटा सा कदम लाल सूची में आने की लंबी छलांग होगा और वही जीवन की समाप्ति का रास्ता भी है। यह एक छोटी सी खिड़की है ग्लोबल हानि की। इस प्रकार की ग्लोबल हानि में दक्षिण पूर्व एशिया का अनुभव हमारे सामने है। वहां भारी मात्रा में निर्यात की जानेवाली फसल को सबसे अधिक रोपा गया है। यह सब पाम के तेल के उत्पादन के लिए किया गया। इसके दुष्परिणाम आज दूसरे रूप से सामने आ रहे हैं। वैसे ही लकड़ी के व्यापार के लिए वनों का कटान, फसलों के लिए कृषि भूमि का विस्तार और वन्य जंतुओं के शिकार ने कई प्रजातियों के अस्तित्व को समाप्त कर दिया है।

संयुक्त राष्ट्र के एक अध्ययन- जिसका विषय था-'पारिस्थितिकी प्रणाली एवं जैव विविधता का अर्थशास्त्र' से पता चलता है कि हम प्रतिवर्ष जैव विविधता का भारी नुकसान कर रहे हैं और यह गरीब मुल्कों में सबसे अधिक किया जा रहा है। एक और अध्ययन से पता चला कि पांच हजार से अधिक ताजे पानी की प्रजातियां जो दक्षिण अफ्रीका में हैं, पर खतरा मंडरा रहा है। यह वहां के लाखों लोगों के जीवन का स्रोत है। ऐसे खतरों से हमें तुरंत सचेत होना चाहिए। सामान्य जीवन में भी देखें तो कुछ समय पहले तक जो पक्षी घर-आंगन में चहचहाते रहते थे, अब दिखाई नहीं दे रहे हैं। दिल्ली में गौरयों की चहचहाट लगातार कम होती जा रही है। ऐसे ही कौओं की कांव-कांव भी अब कम ही सुनाई देती है।

अपने पर्यावरण को संतुलित करने के लिए हर किसी के योगदान की आवश्यकता है। इस संबंध में अंतरराष्टी्रय स्तर के सम्मेलनों की सार्थकता तभी है, जब हम उन पर अमल करें। भौतिकता की अंधी दौड़ में आवश्कताएं अनंत हो चली हैं। उन पर नियंत्रण जरूरी है। हम प्रकृति के भंडारों का प्रयोग तो कर रहे हैं, पर भूल जाते हैं कि इनका स्रोत सीमित है। जितनी तेजी से हम इन्हें खर्च करेंगे, उतनी ही तेजी से हमारी झोली खाली होती जाएगी। और तब पृथ्वी का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा।