घर में अगर भाड़ जल रहा हो तो अगरबत्तियाँ बुझाने से धुआँ कम नहीं होता। दुनिया को इस बात का भी अहसास है। इसलिए अमरीका और चीन को किसी न किसी तरह से प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए तैयार करने की कोशिशें हो रही हैं। यह काम उसी तरह कठिन है जिस तरह सिगरेट के लती व्यक्ति से सिगरेट छुड़वाना। विडंबना यह है कि इस बीच बाढ़, सूखा, दावानल और तूफान जैसी प्राकृतिक विपदाएँ चारों ओर तबाही मचा रही हैं।
इक्कीसवीं सदी में वायुमंडल का तापमान बढ़ने के साथ-साथ बाढ़, अकाल और तूफान जैसी प्राकृतिक विपदाओं का चक्र तेज होगा और उनकी विभीषिका भी बढ़ेगी। जलवायु परिवर्तन का वैज्ञानिक आकलन करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट 'पाकिस्तान, चीन और लद्दाख की प्रलयंकारी बाढ़, इतिहास की भीषणतम गर्मी से झुलसते रूस में धधकता दावानल और मध्योत्तर अफ़्रीका के साहेल क्षेत्र और निजेर में वर्षों से पड़ रहा अकाल' सही प्रमाणित करते हैं। यही नहीं, बढ़ती गर्मी के कारण लगभग 260 वर्ग किलोमीटर का एक हिमखंड उत्तरी ध्रुव से सटे बर्फ़ीले ग्रीनलैंड प्रदेश से कट कर अलग हो गया है। इस हिमखंड में इतना पानी है कि उससे पूरे अमरीका को तीन महीने तक पानी सप्लाई किया जा सकता है। इस दशक को अब तक का सबसे गर्म दशक माना जा रहा है और अकेले इसी वर्ष सोलह देशों में गर्मी के रिकॉर्ड टूटे हैं। रूस में तो दावानल के धुएँ और प्रदूषण से राजधानी मॉस्को और आस-पास के इलाकों में साँस लेना दूभर हो गया है। विदेशी पर्यटकों ने तो मुँह मोड़ ही लिया है, मॉस्को वासी भी शहर छोड़-छोड़ कर भाग रहे हैं।
गर्मी की लहर और दावानल ने रूस, यूक्रेन और कजाखस्तान की गेहूँ की फ़सल बर्बाद कर दी है जिसकी वजह से रूस ने गेहूँ के निर्यात पर पाबंदी लगा दी है और अंतर्राष्ट्रीय मंडियों में गेहूँ के दाम दो महीनों के भीतर दोगुने हो गए हैं। गेहूँ के दामों में आए इस उछाल से आटे, डबल रोटी, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों और मांस के दामों में उछाल आना अवश्यंभावी है जिससे मँहगाई और बढ़ेगी। पाकिस्तान और चीन में भी बाढ़ की वजह से इस साल गेहूँ, धान और कपास की फ़सलें ख़तरे में पड़ गई हैं। दूसरी ओर, अमरीका के राष्ट्रीय वायुमंडल शोध केंद्र के वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण गंगा, कोलोराडो और निजेर जैसी नदियों का जल प्रवाह साल-दर-साल कम होता जा रहा है।
इनमें से एक विनाशकारी घटना ही दुनिया के देशों के प्रतिनिधियों को जलवायु परिवर्तन की रोकथाम पर गंभीरता से सोचने को बाध्य करने के लिए काफ़ी होनी चाहिए। इतनी सारी घटनाओं के एक-साथ होने पर तो बात ही क्या है! लेकिन अफ़सोस इसी बात का है कि दुनिया के विभिन्न भागों में जलवायु परिवर्तन से हो रही इस सारी विनाशलीला को देखते हुए भी ये प्रतिनिधि जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के उपायों पर आगे बढ़ने की बजाए उल्टा पीछे हट रहे हैं।
जो कोपनहेगन शिखर वार्ताओं में हासिल नहीं हो सका उसे हासिल करने यानी जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए क्योतो संधि जैसी एक बाध्य संधि कराने के लिए अगली वार्ताएँ नवंबर में मैक्सिको के कानकुन शहर में होनी हैं। वहाँ नेताओं के समक्ष रखे जाने वाले संधि के प्रारूप पर पिछले कई दिनों से जर्मनी के शहर बॉन में वार्ताएँ चल रही थीं। प्रारूप के एक-एक कोमा और पूर्णविराम को लेकर चल रही खींच-तान में बात आगे बढ़ने की बजाए चीन और अमरीका की तकरार में उलझ कर रह गई।
ग़ौरतलब है कि चीन दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाला देश बन चुका है। जब कि औद्योगिक देशों में प्रति व्यक्ति के हिसाब से अमरीका सबसे अधिक प्रदूषण फैलाता है। ये दोनों देश मिल कर दुनिया के लगभग आधे प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार हैं इसलिए कोई भी संधि इनको शामिल किए बिना कारगर नहीं हो सकती। अमरीका जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए क्योतो संधि की तरह के बाध्यकारी लक्ष्यों को मानने को तैयार नहीं है। जबकि चीन अपने जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के उपायों की अंतर्राष्ट्रीय जाँच कराने के लिए तैयार नहीं है और भारत समेत कई बड़े विकासोन्मुख देश उसके साथ हैं।
इसलिए पिछले साल कोपनहेगन में इससे पहले कि सारे देश मिल बैठ कर जलवायु संधि के लिए तैयार किए गए प्रारूप पर विचार करते, अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने चीन, भारत, ब्रज़ील और दक्षिण अफ़्रीका को साथ मिलाकर एक ऐसा समझौता कर लिया जिस से सभी का उल्लू सीधा हो गया। दुनिया का सबसे बड़ा प्रदूषक बन जाने के बावजूद चीन के लिए प्रदूषण घटाने का कोई लक्ष्य नहीं रखा गया और तापमान में अब तक हुई वृद्धि का सबसे बड़ा ज़िम्मेदार होने के बावजूद अमरीका के समक्ष भी प्रदूषण घटाने का कोई लक्ष्य नहीं रखा गया। विकसित देशों की प्रदूषण घटाने की योजनाओं की स्वतंत्र और पारदर्शी जाँच की व्यवस्था की गई लेकिन विकासशील देशों से, पारदर्शिता के नाते, केवल प्रदूषण घटाने के लिए किये गए अपने उपायों की सालाना रिपोर्ट देने को कहा गया।
लेकिन इसके बावजूद चीन और उसके गुट के देशों को संदेह है कि पारदर्शिता का जाल विकासशील देशों को प्रदूषण की रोकथाम के लिए बाध्य करने के उद्देश्य से बिछाया जा रहा है। इसलिए जैसे ही अमरीका और दूसरे औद्योगिक देशों ने चीन और उसके गुट के देशों पर प्रदूषण नियंत्रण का दबाव डालने के लिए कानकुन वार्ताओं के लिए तैयार किए जा रहे दस्तावेज़ में पारदर्शिता के नाम पर स्पष्टीकरण के प्रस्ताव जोड़ने शुरू किए, चीन और उसके गुट के देश हर संदेहास्पद शब्द के साथ अपवाद के प्रस्ताव जोड़ते गए। इसके चलते इस दस्तावेज़ में स्पष्टीरण और अपवाद प्रस्तावों के 40 नए पृष्ठ आ जुड़े हैं।
इन सारे प्रस्तावों पर कानकुन की वार्ताओं से पहले विचार और फ़ैसला होना ज़रूरी है ताकि वार्ताओं में भाग लेने वाले नेता इनमें उलझने की बजाए संधि के मुख्य बिंदुओं पर विचार और सौदेबाज़ी कर सकें। लेकिन अब कानकुन की तैयारी की वार्ताओं के कुल छह दिन ही बचे हैं और अमरीका और चीन के प्रतिनिधियों के बीच आरोप-प्रत्यारोप तेज़ होते जा रहे हैं। इसलिए कानकुन वार्ताओं के संयोजकों के हाथ-पाँव फूलने लगे हैं क्योंकि इन वार्ताओं में भी कानूनी बाध्यता वाली संधि के आसार धूमिल हो गए हैं।
ऐसा नहीं है कि जलवायु वार्ताओं में उलझे प्रतिनिधियों को जलवायु परिवर्तन की बदौलत पाकिस्तान, चीन, रूस और अफ़्रीका में हो रही विनाशलीला का अहसास नहीं है। अमरीका के प्रतिनिधि जॉनथन पर्शिंग का कहना था, “बाहर जो हो रहा है वह जलवायु परिवर्तन से उसी तरह की घटनाओं के होने की आशंका है। लेकिन मुझे चिंता इस बात की है कि कुछ देश कोपनहेगन में हुई प्रगति से भी पीछे हट रहे हैं। अगर हम इसी राह पर चलते रहे तो कानकुन में भी समझौते की उम्मीद नहीं बचेगी। हर देश पीछे हट रहा है।”
विडंबना इस बात की है कि पीछे हटने वाले देशों में जॉनथन पर्शिंग का देश अमरीका ही सबसे आगे है। अब तक हुए जलवायु परिवर्तन के लिए एक बड़ी हद तक ज़िम्मेदार होने के बावजूद अमरीका ने कभी जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के किसी बाध्यकारी लक्ष्य को स्वीकार नहीं किया। इसीलिए अमरीका क्योतो संधि में शामिल नहीं हुआ और कोपेनहेगन में भी उसने प्रदूषण की रोकथाम के किसी बाध्यकारी लक्ष्य को माने बिना तापमान वृद्धि रोकने की कामना करने वाले एक दस्तावेज़ को आगे बढ़ा कर संधि की हत्या कर दी।
लेकिन सबसे बड़ी चिंता तो इस बात की है कि अमरीकी सेनेट ने अमरीका के प्रदूषण पर अंकुश लगाने वाले “कैप एंड ट्रेड” कानून को पास करने से इंकार कर दिया है। यह कानून अमरीका के विभिन्न उद्योगों के लिए कार्बन गैसों की एक सीमा तय करने वाला था। उस सीमा से अधिक प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों और वाहनों चालू रहने के लिए प्रदूषण फैलाने के परमिट ख़रीदने पड़ते। अमरीका के नीति निर्माताओं को उम्मीद थी कि परमिटों के ख़र्च से बचने के लिए उद्योग और वाहन अपने आप अपने प्रदूषण पर अंकुश लगाते हुए ऊर्जा की किफायत करने और अक्षय ऊर्जा का विकल्प चुनने को प्रेरित होते। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
अमरीकी संसद के प्रतिनिधि सदन में पास हो जाने के बावजूद कैप एंड ट्रेड कानून का सेनेट में विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी के साथ-साथ राष्ट्रपति ओबामा की डेमोक्रेट पार्टी के भी कई सेनेटरों ने विरोध किया जो इस कानून को “क्रैप एंड टैक्स” कानून कहकर इसका मजाक उड़ाते थे। विरोध करने वाले अमरीकी सांसदों का मानना है कि कैप एंड ट्रेड कानून लगभग दस प्रतिशत बेरोज़गारी से जूझते अमरीका में रोज़गार के अवसर कम करेगा। अमरीकी सांसदों को जलवायु परिवर्तन से तबाह होती दुनिया से पहले अपने चुनाव क्षेत्र की नौकरियों और चंदा देने प्रदूषणकारी उद्योगों के हितों की चिंता है।
आलोचकों का मानना है कि कैप एंड ट्रेड कानून के पास न होने के कारण अब राष्ट्रपति ओबामा 2020 तक अमरीका के प्रदूषण को 2005 के स्तर से 17 प्रतिशत नीचे तक लाने के अपने उस वादे को भी पूरा नहीं कर पाएँगे जो उन्होंने कोपनहेगन में किया था। यूरोप समेत शेष विश्व के नेताओं को उनके इस कंजूसी भरे वादे से निराशा तो हुई थी लेकिन ना से हाँ भली की कहावत को ध्यान में रखते हुए उन्होंने इसका स्वागत किया था।
जलवायु वार्ताओं में अमरीका के प्रतिनिधि जॉनथन पर्शिंग का दावा है कि कैप एंड ट्रेड कानून के रद्द हो जाने के बावजूद अमरीका अपने कोपनहेगन के वादे को निभाएगा। अब अमरीका की पर्यावरण रक्षा एजेंसी इपीए एक स्वच्छ वातावरण कानून की तैयारी कर रही है जिसे भारी मात्रा में प्रदूषण फैलाने वाले तापीय बिजलीघरों, कारखानों और पुराने वाहनों पर प्रदूषण कर लगाने में इस्तेमाल किया जाएगा ताकि उद्योगों और वाहनों को साफ ऊर्जा और तकनीकें अपनाने के लिए विवश किया जा सके।
लेकिन राष्ट्रपति ओबामा के आलोचकों का कहना है कि एपीए का स्वच्छ वातावरण कानून भी कोपनहेगन में किए गए वादे को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। वैसे भी सेनेट में पर्यावरण कानून पास न होने के कारण जलवायु वार्ताओं में राष्ट्रपति ओबामा की साख गिरी है। एक तो बाकी दुनिया के देश कोपनहेगन में राष्ट्रपति ओबामा की सबको एक ऐसे समझौते की तरफ सबको घसीट ले जाने की चाल से ठगा हुआ महसूस करते हैं जो किसी देश को किसी लक्ष्य के लिए बाध्य नहीं करता। दूसरे राष्ट्रपति ओबामा अपनी संसद को ही जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से लेने के लिए तैयार नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में जलवायु परिवर्तन के मामले पर बाकी दुनिया उनकी बात क्यों मानना चाहेगी?
दिक्कत यह है कि अमरीका और चीन के प्रदूषण पर अंकुश लगाए बिना बढ़ते तापमान को और जलवायु परिवर्तन को रोक पाना एक असंभव काम है। घर में अगर भाड़ जल रहा हो तो अगरबत्तियाँ बुझाने से धुआँ कम नहीं होता। दुनिया को इस बात का भी अहसास है। इसलिए अमरीका और चीन को किसी न किसी तरह से प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए तैयार करने की कोशिशें हो रही हैं। यह काम उसी तरह कठिन है जिस तरह सिगरेट के लती व्यक्ति से सिगरेट छुड़वाना। विडंबना यह है कि इस बीच बाढ़, सूखा, दावानल और तूफान जैसी प्राकृतिक विपदाएँ चारों ओर तबाही मचा रही हैं।